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#101 |
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![]() सकूं बन कर दिल में उतर जायेंगे, महसूस करने की कोशिश तो कीजिये, दूर होते हुए भी पास नज़र आयेंगे |
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#102 |
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आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तॆरी ज़ुल्फ कॆ सर होने तक! आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब* दिल का क्या रंग करूं खून*-ए-जिगर होने तक! हमने माना कि तगाफुल ना करोगे लेकिन* ख़ाक हो जाएँगे हम तुमको खबर होने तक! गम-ए-हस्ती का "असद" किससे हो जुज-मर्ग-इलाज शमा हर हाल में जलती है सहर होने तक! |
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#103 |
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हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि, हर ख़्वाहिश पे दम निकले....
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि, हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन बहुत बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले अगर लिखवाए कोई उसको ख़त, तो हमसे लिखवाए हुई सुबह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले मुहब्बत में नही है फ़र्क़ जीने और मरने का उसी को देख कर जीते हैं जिस क़ाफ़िर पे दम निकले ख़ुदा के वास्ते पर्दा न काबे का उठा ज़ालिम कहीं ऐसा न हो यां भी वही क़ाफ़िर सनम निकले कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़ पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था कि हम निकले |
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#104 |
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पेश है निदा फाज़ली साहब की बहुचर्चित रचना ' माँ ' :
बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ , याद आता है चौका-बासन, चिमटा फुँकनी जैसी माँ बाँस की खुर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे , आधी सोई आधी जागी थकी दुपहरी जैसी माँ चिड़ियों के चहकार में गूँजे राधा-मोहन अली-अली , मुर्गे की आवाज़ से खुलती, घर की कुंड़ी जैसी माँ बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी-थोड़ी सी सब में , दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी माँ बाँट के अपना चेहरा, माथा, आँखें जाने कहाँ गई , फटे पुराने इक अलबम में चंचल लड़की जैसी माँ |
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#105 |
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कहीं छत थी, दीवारो-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे मगर जो दिया वो दिया देर से हुआ न कोई काम मामूल से गुजारे शबों-रोज़ कुछ इस तरह कभी चाँद चमका ग़लत वक़्त पर कभी घर में सूरज उगा देर से कभी रुक गये राह में बेसबब कभी वक़्त से पहले घिर आयी शब हुए बन्द दरवाज़े खुल-खुल के सब जहाँ भी गया मैं गया देर से ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है यही है जुदाई, यही मेल है मैं मुड़-मुड़ के देखा किया दूर तक बनी वो ख़मोशी, सदा देर से सजा दिन भी रौशन हुई रात भी भरे जाम लगराई बरसात भी रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी जो होना था जल्दी हुआ देर से भटकती रही यूँ ही हर बन्दगी मिली न कहीं से कोई रौशनी छुपा था कहीं भीड़ में आदमी हुआ मुझमें रौशन ख़ुदा देर से |
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#106 |
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घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें... '
अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये जिन चिराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहीं उन चिराग़ों को हवाओं से बचाया जाये बाग में जाने के आदाब हुआ करते हैं किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाये ख़ुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में और कुछ दिन यूँ ही औरों को सताया जाये घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये |
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#107 |
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हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी,
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी, सुबह से शाम तक बोझ ढ़ोता हुआ, अपनी लाश का खुद मज़ार आदमी, हर तरफ भागते दौड़ते रास्ते, हर तरफ आदमी का शिकार आदमी, रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ, हर नए दिन नया इंतज़ार आदमी, जिन्दगी का मुक्कदर सफ़र दर सफ़र, आखिरी साँस तक बेकरार आदमी |
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#108 |
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कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे !'
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से, लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से, और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे! |
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#109 |
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क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा, थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा, एक दिन मगर यहाँ, ऐसी कुछ हवा चली, लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली, और हम लुटे-लुटे, वक्त से पिटे-पिटे, साँस की शराब का खुमार देखते रहे कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे। |
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#110 |
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माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण, शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन, गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन, पर तभी ज़हर भरी, ग़ाज एक वह गिरी, पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी, और हम अजान से, दूर के मकान से, पालकी लिये हुए कहार देखते रहे। कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे। |
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