12-11-2012, 02:39 PM | #101 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
12-11-2012, 02:39 PM | #102 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
और शून्य और अशून्य भी नहीं, क्योंकि शून्य और अशून्य ये दोनों शब्द उसमें कल्पित हैं शून्य उसको कहते हैं जो सद्भाव से रहित अभावरूप हो और अशून्य उसको कहते हैं जो विद्यमान हो । पर आत्मसत्ता इन दोनों से रहित है । अशून्य भी शून्य का प्रतियोगी है जो शून्य नहीं तो अशून्य कहाँ से हो । ये दोनों ही अभावमात्र हैं । हे रामजी! यह सूर्य, तारा, दीपक आदि भौतिक प्रकाश भी वहाँ नहीं, क्योंकि प्रकाश अन्धकार का विरोधी है जो यह प्रकाश होता तो अन्धकार सिद्ध न होता । इससे वहाँ प्रकाश भी नहीं है और तम भी नहीं है, क्योंकि सूर्यादिक जिससे प्रकाशते हैं वह तम कैसे हो? आत्मा के प्रकाश बिना सूर्यादिक भी तमरूप हैं । इससे वह न शून्य है, न अशून्य है, न प्रकाश है, न तम है, केवल आत्मतत्त्वमात्र है । जैसे थम्भ में पुतलियाँ कुछ हैं नहीं वैसे ही आत्मा में जगत् कुछ हुआ नहीं ।
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12-11-2012, 02:39 PM | #103 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
जैसे बेलि और बेलि की मज्जा में कुछ भेद नहीं वैसे ही आत्मा और जगत् में कुछ भेद नहीं और जैसे जल और तरंग में मृत्तिका और घट में कुछ भेद नहीं वैसे ही ब्रह्म और जगत् में कुछ भेद नहीं, नाममात्र भेद है । हे रामजी! जल और मृत्तिका का जो दृष्टान्त दिया है ऐसा भी आत्मा में नहीं । जैसे जल में तरंग होता है और मृत्तिका में घट होता है सो भी परिणाम होता है । आत्मा में जगत् भान नहीं है और जो मानसिक है तो आकाशरूप है । इससे जगत् कुछ भिन्न नहीं है रूप अवलोकन मनस्कार जो कुछ भासता है वह सब आकाशरूप है । आत्मसत्ता ही चित्त के फुरने से जगत्*रूप हो भासती है-जगत् कुछ दूसरी वस्तु नहीं । जैसे सूर्य की किरणों में जलाभास होता है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है ।
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12-11-2012, 02:40 PM | #104 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
हे रामजी! थम्भ में जो शिल्पकार पुतलियाँ कल्पता है सो भी नहीं होतीं और यहाँ कल्पनेवाला भी बीच की पुतली है वह भी होने बिना भासती है । हे रामजी! जिससे यह जगत् भासता है उसको शून्य कैसे कहिये और जो कहिये कि चेतन है तो भी नहीं, क्योंकि चेतन भी तब होता है जब चित्तकला फुरती है जहाँ फुरना न हो वहाँ चेतनता कैसे रहे? जैसे जब कोई मिरच को खाता है तब उसकी तिखाई भासती है, खाये बिना नहीं भासती । वैसे ही चैतन्य जानना भी स्पन्दकला में होता है, आत्मा में जानना भी नहीं होता । चैतन्यता से रहित चिन्मात्र अक्षय सुषुप्तिरूप है उसको जो तुरीय कहता है वह ज्ञेय ज्ञानवान से गम्य है ।
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12-11-2012, 04:13 PM | #105 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
हे रामजी! जो पुरुष उसमें स्थित हुआ है उसको संसाररूपी सर्प नहीं डस सकता, वह अचैत्य चिन्मात्र होता है और जिसको आत्मा में स्थिति नहीं होती उसको दृश्यरूपी सर्प डसता है । आत्मसत्ता में तो कुछ द्वेत नहीं हुआ आत्मसत्ता तो आकाश से भी स्वच्छ है । इनका दृष्टा, दर्शन, दृश्य स्वतः अनुभवसत्ता आत्मा का रूप है और वह अभ्यास करने से प्राप्त होती है । हे रामजी! उसमें द्वैतकल्पना कुछ नहीं है । वह अद्वैतमात्र है वह न दृष्टा है न जीव है, न कोई विकार और न स्थूल, न सूक्ष्म है-एक शुद्ध अद्वैतरूप अपने आपमें स्थित है जो यह चैत्य का फुरना ही आदि में नहीं हुआ तो चेतनकलारूप जीव कैसे हो और जो जीव ही नहीं तो कैसे हो जो बुद्धि ही नहीं तो मन और इन्द्रियाँ कैसे हों; जो इन्द्रियाँ नहीं तो देह कैसे हो और जो देह न हो तो जगत् कैसे हो?
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12-11-2012, 04:13 PM | #106 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
हे रामजी! आत्मसत्ता में सब कल्पना मिट जाती हैं; उसमें कुछ कहना नहीं बनता वह तो पूर्ण, अपूर्ण, सत्, असत् से न्यारा है भाव और अभाव का कभी उसमें कोई विकार नहीं; आदि, मध्य, अन्त की कल्पना भी कोई नहीं वह तो अजर, अमर, आनन्द, अनन्त, चित्तस्वरूप, अचैत्य चिन्मात्र और अवाक्यपद है । वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, आकाश से भी अधिक शून्य और स्थूल से भी स्थूल एक अद्वैत और अनन्त चिद्रूप है । इतना सुनन रामजी ने पूछा, हे भगवन! यह अचिंत्य, चिन्मात्र और परमार्थसत्ता जो आपने कही उसका रूप बोध के निमित्त मुझसे फिर कहो ।
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12-11-2012, 04:14 PM | #107 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब महाप्रलय होता है तब सब जगत नष्ट हो जाता है, पर ब्रह्मसत्ता शेष रहती है उसका रूप मैं कहता हूँ मनरूपी ब्रह्मा है मन की वृत्ति जो प्रवृत्त होती है वह एक प्रमाण, दूसरी विपर्यक, तीसरी विकल्प, चौथी अभाव और पाँचवीं स्मरण है । प्रमाणवृत्ति तीन प्रकार की है-एक प्रत्यक्ष; दूसरी अनुमान जैसे धुँवा से अग्नि जानना और तीसरी शब्दरूप ये तीनों प्रमाणवृत्ति आप्तकामिका हैं । द्वितीय विपर्यक वृत्ति है-विपरीत भाव से तृतीय विकल्पवृत्ति है चेतन ईश्वररूप है और साक्षी पुरुषरूप है अर्थात् जैसे सीप पड़ी हो और उसमें संशय वृत्ति चाँदी की या सीपी की भासे तो उसका नाम विकल्प है ।
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12-11-2012, 04:14 PM | #108 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
चतुर्थ निद्रा-अभाव वृत्ति है और पञ्चम स्मरणवृत्ति है यही पाँचों वृत्तियाँ हैं और इनका अभिमानी मन है जब तीनों शरीरों का अभिमानी अहंकार नाश हो तब पीछे जो रहता है सो निश्चल सत्ता अनन्त आत्मा है । मैं असत् नहीं कहता हूँ । हे रामजी! जाग्रत् के अभाव होने पर जब तक सुषुप्ति नहीं आती वह रूप परमात्मा का है अंगुष्ठ को जो शीत उष्ण का स्पर्श होता है उसको अनुभव करनेवाली परमात्मसत्ता है जिसमें दृष्टा, दर्शन और दृश्य उपजता है और फिर लीन होता है वह परमात्मा का रूप है ।
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12-11-2012, 04:14 PM | #109 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
उस सत्ता में चेतन भी नहीं है । हे रामजी! जिसमें चेतन अर्थात् जीव और जड़ अर्थात् देहादिक दोनों नहीं हैं वह अचैत्य चिन्मात्र परमात्मा रूप है । जब सब व्यहार होते हैं उनके अन्तर आकाशरूप हैं-कोई क्षोभ नहीं ऐसी सत्ता परमात्मा का रूप है वह शून्य है परन्तु शून्यता से रहित है । हे रामजी! जिसमें दृष्टा, दर्शन और दृश्य तीनों प्रतिबिम्बित हैं और आकाशरूप है-ऐसी सत्ता परमात्मा का रूप है। जो स्थावर में स्थावरभाव और चेतन में चेतन भाव से व्याप रहा है और मन बुद्धि इन्द्रियाँ जिसको नहीं पा सकतीं ऐसी सत्ता परमात्मा का रूप है । हे रामजी! ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र का जहाँ अभाव हो जाता है उसके पीछे जो शेष रहता है और जिसमें कोई विकल्प नहीं ऐसी अचेत चिन्मात्रसत्ता परमात्मा का रूप है ।
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12-11-2012, 04:15 PM | #110 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
इतना सुन रामजी बोले, हे भगवन्! यह दृश्य जो स्पष्ट भासता है सो महाप्रलय में कहाँ जाता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! बन्ध्या स्त्री का पुत्र कहाँ से आता है और कहाँ जाता है और आकाश का वन कहाँ से आता और कहाँ जाता है? जैसे आकाश का वन है वैसे ही यह जगत् है । फिर रामजी ने पुछा, हे मुनीश्वर! बन्ध्या का पुत्र और आकाश का वन तो तीनों काल में नहीं होता शब्दमात्र है और उपजा कुछ नहीं पर यह जगत् तो स्पष्ट भासता है बन्ध्या के पुत्र के समान कैसे हो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जैसे बन्ध्या का पुत्र और आकाश का वन उपजा नहीं वैसे ही यह जगत् भी उपजा नहीं ।
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