10-08-2012, 09:33 PM | #101 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
एक बहादुर फ्रांसिसी सिपाही लेफायेटे ने अमेरिकी क्रांति के दौरान जंग में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। जंग काफी लंबी चली। जंग की समाप्ति के बाद उसने सेनापति से घर जाने की अनुमति मांगी। जंग में उसकी बहादुरी देख सेनापति ने तत्काल उसको घर जाने के लिए अवकाश भी स्वीकृत कर दिया। वह काफी खुश हुआ क्योंकि वह अरसे बाद अपने घर जा रहा था। जब अपने गांव वापस पहुंचा तो वहां लोगों की हालत देख काफी परेशान हो गया। उन दिनों उसके और उसके आसपास के गांवों में गेहूं की फसल पूरी तरह से खराब हो गई थी। गांव के सभी लोग फसल खराब होने के कारण बेहद दुखी थे। बच्चे व बूढ़े भूख से तड़प रहे थे। किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर इस आकस्मिक आपदा से किस तरह से निपटा जाए। लेफायटे जब अपने घर में दाखिल हुआ तो यह देखकर हैरान रह गया कि उसके घर के गोदाम गेहूं से भरे हुए हैं। उसे पता चला कि उसके परिवार वालों ने पिछले कुछ सालों में दिन-रात मेहनत कर गेहूं इकट्ठा करके गोदाम में रख दिया था। गांव का जो प्रधान था वह अवसर का लाभ उठाने में माहिर माना जाता था। जब प्रधान को पता चला तो वह लेफायटे के पास आकर बोला- आपके यहां तो गेहूं के गोदाम भरे हैं। मेरे ख्याल से यह अच्छा अवसर है। कम समय में ज्यादा कमाई का इससे बेहतर जरिया कोई हो ही नहीं सकता। आपको अपने गोदाम में जमा गेहूं को भूखे मर रहे लोगों को ऊंचे दाम पर बेचकर काफी मुनाफा कमा लेना चाहिए। लेफायेटे प्रधान की बात सुनकर दंग रह गया। वह बोला-आपको ऐसा कहना शोभा नहीं देता। गांव के लोग भूखे मर रहे हैं और आप कह रहे हैं कि मैं गेहूं ऊंचे दामों पर बेचकर मुनाफा कमाऊं। इससे बड़ी शर्मनाक बात कोई हो ही नहीं सकती। यह वक्त तो गेहूं सबको बांटने का है ताकि विपदा से सहजता से जूझा जा सके। विपदा का लाभ उठाकर लोगों को मौत के मुंह में धकेल कर कमाई का पाप मैं नहीं कर सकता। प्रधान शर्मिंदा हो गया। उसने भी अपने गोदामों में जमा गेहूं बांटने का फैसला कर लिया।
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11-08-2012, 07:57 AM | #102 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
अलैक जी, इस सूत्र से काफी प्रेरणा मिल रही है और अच्छी अच्छी बातें पता चल रही है। इस मंच के मेरे पसंदीदा सूत्रों में से एक यह बन गया है। इस शानदार सूत्र के लिए आपको बहुत बहुत आभार
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14-08-2012, 04:50 PM | #103 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
एकता आज की सबसे बड़ी जरूरत
तेरह मई 1952 को भारतीय संसद का पहला सत्र शुरू हुआ। इसके बाद 22 मई को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस का जवाब देते हुए जो ऐतिहासिक भाषण दिया, वह आज भी हमारे लिए प्रेरणादायक है। साथ ही वह देश में संसदीय परंपरा की शुरुआत के बौद्धिक स्तर को भी दिखाता है। पंडित नेहरू ने अपने भाषण में कहा था कि हमें अंग्रेजों से आजादी मिल चुकी है। अच्छी बात यह है कि हमें यह आजादी शांतिपूर्वक मिली लेकिन उसके बाद देश में भारी उथल-पुथल हुई है। देश में सामूहिक आक्रमण और कई हिंसक घटनाएं घटीं। साम्यवादी और सांप्रदायिक तत्वों ने समझा कि नई सरकार देश में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन करेगी, लेकिन वे ऐसा नहीं चाहते थे। इसलिए भारत में सांप्रदायिक उथल-पुथल की आड़ में हिंसक आंदोलन हुए। ये आंदोलन राष्ट्रीय खतरे के रूप में सामने आए। सांप्रदायिक गुटों ने देश भर में अलग-अलग तरीकों से परेशानी पैदा करके इस राष्ट्रीय संकट से अनुचित लाभ उठाने की कोशिश की। इस दौरान कुछ ऐसी घटनाएं घटीं, जिनसे भारत की एकता भंग हो सकती थी और इसके खंड-खंड हो जाते। ऐसे समय में कांग्रेस ने वे फैसले किए जो देश की अखंडता के लिए जरूरी थे। जहां तक भाषावार राज्यों के गठन का मसला है तो मैं कहना चाहता हूं कि अगर जनता भाषावार राज्यों का निर्माण चाहती है तो सरकार बाधा नहीं बनेगी, लेकिन इस समय सबसे बड़ी चिंता देश की एकता और अखंडता बनाए रखने की है। ऐसे किसी भी कार्य को जिसकी वजह से देश की एकता भंग होती है टाला जाना चाहिए। याने पंडित नेहरू ने उसी वक्त भविष्य को पढ़ लिया था और वे जानते थे कि इस विशाल देश के सामने आने वाले समय में किन तरह की समस्याएं सामने आ सकती हैं। इसीलिए उन्होंने देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने पर ही सबसे ज्यादा जोर दिया था।
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14-08-2012, 04:51 PM | #104 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
चित्रकार का देश भक्ति पाठ
श्रीपाद दामोदर सातवलेकर वैदिक विद्वान होने के साथ कुशल चित्रकार भी थे। उनके चित्रों को लोग काफी रूचि के साथ देखते थे और जो चित्र उन्हें पसन्द आ जाते थे, उन्हें खरीद भी लिया करते थे। उन्होंने अपनी तूलिका से बड़े-बड़े धनपतियों तथा अन्य लोगों के चित्र बनाए थे। चित्रकला में वे इतने गुणी थे कि दूर दूर तक उनका नाम काफी लोकप्रिय हो रहा था। चित्रकला के माध्यम से ही वह अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। उस वक्त उन्हे अपने चित्रों से इतने रूपए तो मिल ही जाते थे कि घर का खर्च आसानी से चल जाता था। वह अपनी उतनी कमाई से काफी खुश भी रहते थे। उन दिनों भारत गुलाम था। एक दिन सातवलेकर के मन में ख्याल आया कि अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराने के लिए उन्हें वेद-ज्ञान के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना जागृत करने में योगदान करना चाहिए। उसी दिन से उन्होंने चित्र बनाने का काम बंद कर दिया और अपना अधिकतर समय वेदों के प्रचार-प्रसार में लगाना शुरू कर दिया। वह लोगों को इकट्ठा कर उन्हें वेद-ज्ञान के साथ-साथ देश को आजाद कराने के लिए एकता का पाठ पढ़ाने लगे। अनेक लोग उनके साथ जुड़ते चले गए और सभी स्वतंत्रता के स्वप्न देखने लगे, लेकिन इससे उनके परिवार के सामने आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया। एक दिन एक व्यक्ति उनके परिवार पर आर्थिक संकट की बात सुनकर उनके पास आया और उनके सामने ढेर सारे रुपये रखकर बोला- पंडितजी आप हमारे नगर के रायबहादुर का चित्र बना दीजिए और इन रुपयों को एडवांस समझ कर रखिए। चित्र पूरा होने पर आपको और अधिक रुपए दिए जाएंगे, जिससे आपका संकट दूर हो जाएगा। व्यक्ति की बात सुनकर सातवलेकर बोले-अंग्रेजों से रायबहादुर की उपाधि प्राप्त किसी अंग्रेजपरस्त व्यक्ति का चित्र बनाकर उससे मिले अपवित्र धन को मैं स्पर्श भी नहीं कर सकता। आप इन रुपयों को उठाइए और इन्हे लेकर यहां से चले जाइए। वह व्यक्ति आर्थिक संकट में भी सातवलेकर की देशभक्ति की भावना को देखकर उनके प्रति श्रद्धा से भर उठा।
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15-08-2012, 02:30 AM | #105 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
महत्व खो बैठेगा विपक्ष
(बाईस मई 1952 को भारतीय संसद के पहले सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के जवाब में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के ऐतिहासिक भाषण का अंश) देश के सदन में शक्तिशाली विपक्ष का होना अच्छा है, ताकि सरकार हमेशा अधिक सतर्क होकर देश की तरक्की के लिए काम करे। लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि विपक्ष सरकार के सभी कामों की आलोचना करे। यदि विरोधी दल ऐसा ही करते रहे, तो वे महत्व खो बैठेंगे। मैं यहां पर अपने पुराने साथियों को देख रहा हूं जो अब विरोधी पार्टियों के सदस्य हैं। मैं यह कतई नहीं मानता कि जिन लोगों के साथ पहले हमारा सहयोग का रिश्ता रहा हो अब हम उनके साथ सहयोग नहीं कर सकते। मैं मानता हूं कि उनके साथ सहयोग के तरीके खोजे जा सकते हैं। मतभेदों के बावजूद हम विपक्ष से सहयोग की अपेक्षा करते हैं। मणिपुर के एक सम्मानित सदस्य ने जनजातीय समुदाय के लोगों के बारे में कुछ सवाल उठाए थे। मैं कहना चाहता हूं कि देश के जनजातीय समुदाय से जुड़ा मुद्दा बेहद अहम है केवल इसलिए नहीं कि देश में बड़ी संख्या में जनजातीय समुदाय के लोग हैं बल्कि इसलिए कि उनकी विशेष संस्कृति है। मैं मानता हूं कि उनकी संस्कृति की रक्षा होनी चाहिए। हमें यह भी देखना होगा कि जनजातीय समुदाय की संस्कृति का किसी प्रकार से शोषण न हो। अंत में मैं शरणार्थियों के पुनर्वास के बारे में बात करूंगा। हम इस बात को लेकर पूरी तरह से सजग हैं। हम जानते हैं कि बड़ी संख्या में देश में मौजूद शरणार्थी खासकर पूर्वी बंगाल से आने वाले शरणार्थियों का पुनर्वास किया जाना है। मैं इस बात को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कह रहा, लेकिन सच यह है कि इस क्षेत्र में हमने उल्लेखनीय कार्य किया है। दुनिया में हम अकेले ऐसे देश नहीं हैं जिसने शरणार्थियों के पुनर्वास पर काम किया है। हमने बाहर से मिलने वाली आर्थिक मदद के बिना ही पुनर्वास क्षेत्र में काम किया है। अगर विस्थापितों ने खुद आगे बढ़कर सहयोग नहीं किया होता तो हम यह नहीं कर पाते।
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15-08-2012, 02:32 AM | #106 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
बापू के उपदेश ने बदली सोच
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश को आजाद करवाने के लिए जो जंग लड़ी वह अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही लड़ी थी । वो मानते थे कि अहिंसा में इतनी ताकत होती है कि बड़े से बड़ा आदमी भी उसके आगे झुकने को मजबूर हो जाता है। बात उन दिनों की है जब महात्मा गांधी अंग्रेजों से देश को आजाद कराने के लिए विभिन्न मोर्चों पर संघर्ष कर रहे थे। इस कड़ी में जनसंपर्क कर अधिकाधिक लोगों को अपने अभियान में शामिल करना उनका प्रमुख लक्ष्य था। इसके लिए महात्मा गांधी कई शहरों व गांवों में जाते थे और लोगों को राष्ट्र-हितकारी कार्यों से जुड़ने के लिए प्रेरित करते थे। इसी सिलसिले में एक बार महात्मा गांधी दिल्ली के किसी मोहल्ले में रुके हुए थे। एक दिन वे अपने कमरे में कोई आवश्यक कार्य कर रहे थे कि उन्हें किसी की बातचीत सुनाई दी। बातचीत एक लड़के और लड़की के बीच हो रही थी और अंग्रेजी में हो रही थी। महात्मा गांधी ने दोनों को भीतर बुलाकर पूछा-आप कौन हैं? दोनों अचकचा गए और कुछ बोल ही नहीं पाए क्योंकि महात्मा गांधी उन्हें भली-भांति जानते थे। महात्मा गांधी ने फिर पूछा- बोलो, आप कौन हो? दोनों ने कहा-बापू हम सगे भाई.बहन हैं। महात्मा गांधी ने अगला प्रश्न किया- तुम कहां के रहने वाले हो? उत्तर मिला- पंजाब के। महात्मा गांधी बोले- तुम तो पंजाबी और हिंदी दोनों भाषाएं जानते हो फिर बातचीत में इनका प्रयोग क्यों नहीं करते? अंग्रेजी के गुलाम बनकर अपने देश की भाषाओं पर तुम अत्याचार कर रहे हो। अंग्रेजी को मैं बुरी भाषा नहीं मानता, किंतु उसके लिए मातृभाषा का तिरस्कार करना उचित नहीं है। ऐसे लोगों से अंग्रेजी में जरूर बात करो जो हमारी भाषाएं नहीं समझते। विश्व की सभी भाषाएं सम्मान के योग्य हैं किंतु स्वदेश में मातृभाषा का ही प्रयोग करना चाहिए। राष्ट्र के प्रति निष्ठा व्यक्त करने का यह एक माध्यम है। दोनों भाई-बहनों ने बापू से क्षमा मांगी और उन्हे वचन दिया कि वे दोनो तो अब आपस में मातृभाषा में बात करेंगे ही, अपने परिचितों से भी ऐसा ही करने का आग्रह करेंगे।
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18-08-2012, 03:41 PM | #107 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
कामयाबी के लिए प्रयास जरूरी
कामयाबी उसी को मिलती है जिसके भीतर उसे पाने की इच्छा होती है। कामयाबी पाने की इच्छा के साथ-साथ कामयाबी पाने की रीति मालूम होनी चाहिए। इसके बाद आपको तब तक निरन्तर प्रयत्न करते रहना चाहिए जब तक कामयाबी न मिले। कामयाबी पाने की चाह ही काफी नहीं है। उसके लिए प्रयत्न करना अनिवार्य है। ऐसा भी नहीं है कि आप प्रयत्न नहीं करते हैं। प्रयत्न करते हैं, करते ही जाते हैं, लेकिन फिर भी सफल नहीं हो पाते हैं। दरअसल होता यह है कि हम बेतहाशा प्रयत्न करते जाते हैं लेकिन अपने दोषों और कमियों को दूर करना नहीं भूलते हैं। अतीत को विस्मरण कर बैठते हैं। उसकी जांच-पड़ताल करना ही नहीं चाहते हैं। अतीत की जांच-पड़ताल हमें बहुत कुछ सिखाती है। प्रत्येक नाकामयाबी एक नया पाठ सिखाती है यानि कामयाबी का एक सूत्र देती है। किसी भी योजना को पूर्ण करने के लिए दो प्रकार होते हैं। एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। कहने का तात्पर्य यह है कि धनी बनने के लिए या तो आय बढ़ाएं या व्यय घटाएं। आप उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं तो आपको कार्य की अवधि बढ़ानी होगी या फिर कार्य के समस्त विघ्न या व्यर्थ के विलम्ब को दूर करना होगा। कामयाबी के प्रदेश की यात्रा प्रारम्भ करने से पूर्व अपने समस्त दुर्गुणो, कमियों और समस्त नकारात्मक विचारों व पछतावों को आपको त्यागना होगा। मन में कामयाबी पाने का दृढ़ विश्वास होना चाहिए। आपको कामयाबी मिले इसलिए परमात्मा को अपना सहयोगी अवश्य मानें क्योंकि ऐसा करने से आपमें एक विश्वास उत्पन्न होता है। जब आपके मन में होगा कि मुझे कामयाबी अवश्य मिलेगी और प्रयत्न भी योजनाबद्ध होगा तो ईश्वर आपका अपने आप सहयोगी बन जाएगा और आपको कामयाबी के प्रदेश की यात्रा कराकर ही मानेगा। इसलिए जो भी काम करें या कामयाबी के लिए जो भी कदम उठाएं पूरे विश्वास के साथ उठाएं।
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18-08-2012, 03:42 PM | #108 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
धूल समान है प्रशंसा और निंदा
एक पर्वत पर एक पहुंचे हुए संत रहते थे। एक दिन एक भक्त उन संत के पास आया और बोला-महात्मा जी, मुझे कुछ समय के लिए तीर्थयात्रा के लिए जाना है। मेरी यह स्वर्ण मुद्राओं की थैली अपने पास रख लीजिए। इसमें काफी संख्या में स्वर्ण मुद्राएं हैं। संत ने कहा-भाई,हमें इस धन-दौलत से क्या मतलब? भक्त बोला-महाराज, आपके सिवाय मुझे और कोई सुरक्षित एवं विश्वसनीय स्थान नहीं दिखता जिसके पास मैं अपनी यह कीमती थैली रख दूं। कृपया इसे यहीं कहीं अपने पास रख लीजिए। यह सुनकर संत बोले-ठीक है,इस थैली को यहीं गड्ढा खोदकर उसमें दबा कर रख दो। भक्त ने वैसा ही किया और गड्ढा खोदकर उसमें थैली इत्मिनान से दबा कर रख दी। वह तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़ा। लौटकर आया तो महात्माजी से अपनी थैली मांगी। महात्मा जी ने कहा-जहां तुमने रखी थी वहीं खोदकर निकाल लो। भक्त ने थैली निकाल ली। प्रसन्न होकर भक्त ने संत का खूब गुणगान किया लेकिन संत पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। भक्त घर पहुंचा। उसने पत्नी को थैली दी और नहाने चला गया। पत्नी ने पति के लौटने की खुशी में लड्डू बनाने का फैसला किया। उसने थैली में से एक स्वर्ण मुद्र्रा निकाली और लड्डू के लिए जरूरी चीजें बाजार से मंगवा लीं। भक्त जब स्रान करके लौटा तो उसने स्वर्ण मुद्र्राएं गिनीं। एक स्वर्ण मुद्रा कम पाकर वह सन्न रह गया। उसे लगा कि जरूर उसी संत ने एक मुद्रा निकाल ली है। वह तत्काल संत के पास पहुंच गया। वहां पहुंचकर उसने संत को भला-बुरा कहना शुरू किया। अबे ओ पाखंडी, मैं तो तुम्हें पहुंचा हुआ संत समझता था पर स्वर्ण मुद्रा देखकर तेरी भी नीयत खराब हो गई। संत ने कोई जवाब नहीं दिया। तभी उसकी पत्नी वहां पहुंची। उसने बताया कि एक मुद्र्रा उसने निकाल ली थी। यह सुनकर भक्त लज्जित होकर संत के चरणों पर गिर गया। उसने रोते हुए कहा-मुझे क्षमा कर दें। मैंने आपको क्या-क्या कह दिया। संत ने दोनों मुट्ठियों में धूल लेकर कहा,ये है प्रशंसा और ये है निंदा। दोनों मेरे लिए धूल के बराबर है। जा, तुम्हें क्षमा करता हूं।
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18-08-2012, 04:38 PM | #109 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
अपने नजरिए का विस्तार करें
कहते हैं नजरिया अपना अपना होता है। आप जिस नजर से जो वस्तु देखेंगे वह आपको वैसी ही लगने लगेगी। दरअसल जो मकड़ी की तरह जीते हैं वे ही परेशान और दुखी रहते हैं। आपने देखा होगा मकड़ी स्वयं जाला बुनती है और स्वयं ही उसमें उलझी रहती है। व्यक्ति भी स्वयं परिस्थितियों का जाला बुनता है और फिर उसमें उलझता और निकलता रहता है। इसी ऊहापोह में उसका जीवन दुखी बना रहता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने भविष्य का निर्माता स्वयं है। ऐसे बहुत से लोग हैं जो अस्वस्थ होते हुए भी रोग का बहाना बनाकर घर नहीं बैठते हैं और काम में संलग्न रहते हैं या अपना कष्ट भूलकर दूजों के हित में सक्रिय रहते हैं और ऐसे भी बहुत से लोग हैं जो छींक आने पर या हल्का बुखार आ जाने पर कठिन रोग का बहाना बनाकर बिस्तर पर लेट जाते हैं और लम्बा आराम करते हैं। दुख, कष्ट या अभाव कभी परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करते हैं वह तो आपकी बुद्धि और आपके दृष्टिकोण पर निर्भर करते हैं। जब तक आप अपने अन्तर में समाए इस अज्ञान को नहीं छोड़ेंगे तब तक आप इससे मुक्त नहीं हो सकेंगे। जब आप अपने दृष्टिकोण का विस्तार करके संसार को देखने लगेंगे तो आप इस परिस्थिति जन्य दुख को पास ही नहीं आने देंगे। आपके पास आपकी हर समस्या का हल होगा। परिस्थितियां आपको उलझा कर मकड़ी बना ही नहीं पाएगी। फिर कोई भी यह नहीं कहेगा कि आप तो हर समय अपने में ही उलझे रहते हैं। ऐसी भी क्या उलझन जो हर समय उसी में उलझे रहो, मकड़ी बने बैठे रहो। ऐसा भी क्या जीना जो मकड़ी ही बन गए। से नहीं मुक्त हो सकेंगे। मन में व्याप्त संकीर्णता और हीनता को त्याग करके जब आप विस्तृत दृष्टि से अपने आस-पास या संसार को देखते हुए सदाचार का पालन करेंगे तो मकड़ी नहीं बनेंगे और आपके समक्ष होगा परिस्थितियों से मुक्त ऐसा संसार कि सहसा आप कह उठेंगे कि दृष्टि क्या बदली सब कुछ ही बदल गया।
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18-08-2012, 04:39 PM | #110 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
दान और व्यापार में अंतर
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पास रोजाना अनेक व्यक्ति अपनी विभिन्न प्रकार की समस्याएं लेकर पहुंचते थे। वहां जो भी आता था उसे यही उम्मीद रहती थी कि महात्मा गांधी उनकी समस्याओं को ध्यान से सुनेंगे और उसका निराकरण भी बताएंगे। चूंकि महात्मा गांधी का स्वभाव काफी उदार था और वे सबके साथ सहयोगपूर्ण रवैया रखते थे इसलिए आम जनता से लेकर खास लोगों तक सभी को यह लगता था कि महात्मा गांधी उसके अपने हैं और उसकी बात को बड़े ध्यान से सुनेंगे। इसी कारण कोई भी उनके पास आने में कतई संकोच नहीं करता था। वे जब भी अपने नियमित कार्यों से फुरसत पाते,लोगों से भेंट-मुलाकात का उनका सिलसिला चल पड़ता। ऐसे ही एक बार महात्मा गांधी के पास एक सेठ आए। वह सेठ काफी सम्पन्न थे और दूर-दूर तक उनका नाम भी था। उस सेठ को लोग दानदाता सेठ के नाम से भी जानते थे क्योंकि वे हर अच्छे काम के लिए मोटी रकम दान में देते थे। महात्मा गांधी उनका चेहरा देखकर समझ गए कि वह काफी परेशानी में हैं। उन्होंने सेठ से बड़े स्नेह से समस्या के विषय में पूछा तो वे शिकायती लहजे में बोले-देखिए न बापू,दुनिया कितनी कपटी है। मैंने पचास हजार रुपए लगाकर एक धर्मशाला बनवाई। धर्मशाला बनने पर मुझे ही उसकी प्रबंध समिति से अलग कर दिया गया। जब तक वह नहीं बनी थी तब तक वहां कोई नहीं आता था और अब बन जाने पर पचासों उस पर अधिकार जताने आ गए है। महात्मा गांधी ने मुस्कराकर समझाया-दान का सही अर्थ न समझ पाने के कारण आपको दुख है। किसी चीज को देकर कुछ पाने की इच्छा दान नहीं, व्यापार है और जब व्यापार किया है तो लाभ और हानि के लिए आपको तैयार रहना चाहिए। व्यापार में लाभ भी हो सकता है और हानि भी। दान तभी फलितार्थ होता है जब वह प्रतिदान की इच्छा से रहित हो। निस्वार्थ और निरपेक्ष भाव से किया गया दान सही मायने में दान है। इसके बगैर दान का कोई अर्थ नहीं है। महात्मा गांधी की बात सुनकर सेठ को अपनी गलती का अहसास हुआ।
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