10-01-2011, 04:39 PM | #101 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
‘ मैं दोनों हूँ। ‘ ‘ यह क्योंकर? ‘ ‘ बहुत अच्छी तरह। जब जैसा मौक़ा देखा, वैसा बन गया। ‘ ‘ तो आपका अपना कोई निश्चय नहीं है। ‘ ‘ जिस बात का आज तक कभी निश्चय न हुआ, और न कभी होगा, उसका निश्चय मैं भला क्या कर सकता हूँ! और लोग आँखें फोड़कर और किताबें चाटकर जिस नतीजे पर पहुँचते हैं, वहाँ मैं यों ही पहुँच गया। आप बता सकती हैं, किसी फ़िलासफ़र ने अक्ली गद्दे लड़ाने के सिवाय और कुछ किया है? ‘ |
10-01-2011, 04:40 PM | #102 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
डाक्टर मेहता ने अचकन के बटन खोलते हुए कहा — तो चलिए हमारी और आपकी हो ही जाय। और कोई माने या न माने, मैं आपको फ़िलासफ़र मानता हूँ। मिरज़ा ने खन्ना से पूछा — आपके लिए भी कोई जोड़ ठीक करूँ? मालती ने पुचारा दिया — हाँ, हाँ, इन्हें ज़रूर ले जाइए मिस्टर तंखा के साथ। खन्ना झेंपते हुए बोले — जी नहीं, मुझे क्षमा कीजिए। मिरज़ा ने रायसाहब से पूछा — आपके लिए कोई जोड़ लाऊँ? राय साहब बोले — मेरा जोड़ तो ओंकारनाथ का है, मगर वह आज नज़र ही नहीं आते। मिरज़ा और मेहता भी नंगी देह, केवल जाँघिए पहने हुए मैदान में पहुँच गये। एक इधर, दूसरा उधर। खेल शुरू हो गया। जनता बूढ़े कुलेलों पर हँसती थी, तालियाँ बजाती थी, गालियाँ देती थी, ललकारती थी, बाज़ियाँ लगाती थी। वाह! ज़रा इन बूढ़े बाबा को देखो! किस शान से जा रहे हैं, जैसे सबको मारकर ही लौटेंगे। अच्छा, दूसरी तरफ़ से भी उन्हीं के बड़े भाई निकले। दोनों कैसे पैंतरे बदल रहे हैं! इन हिड्डयों में अभी बहुत जान है। इन लोगों ने जितना घी खाया है, उतना अब हमें पानी भी मयस्सर नहीं। लोग कहते हैं, भारत धनी हो रहा है। होता होगा। हम तो यही देखते हैं कि इन बुड्ढों-जैसे जीवट के जवान भी आज मुश्किल से निकलेंगे। वह उधरवाले बुड्ढे ने इसे दबोच लिया। बेचारा छूट निकलने के लिए कितना ज़ोर मार रहा है; मगर अब नहीं जा सकते बच्चा! एक को तीन लिपट गये। इस तरह लोग अपनी दिलचस्पी ज़ाहिर कर रहे थे; उनका सारा ध्यान मैदान की ओर था। खिलाड़ियों के आघात-प्रतिघात, उछल-कूद, धर-पकड़ और उनके मरने-जीने में सभी तन्मय हो रहे थे। कभी चारों तरफ़ से क़हक़हे पड़ते, कभी कोई अन्याय या धाँधली देखकर लोग ‘ छोड़ दो, छोड़ दो ‘ का गुल मचाते, कुछ लोग तैश में आकर पाली की तरफ़ दौड़ते, लेकिन जो थोड़े-से सज्जन शामियाने में ऊँचे दरजे के टिकट लेकर बैठे थे, उन्हें इस खेल में विशेष आनन्द न मिल रहा था। वे इससे अधिक महत्व की बातें कर रहे थे। खन्ना ने जिंजर का ग्लास ख़ाली करके सिगार सुलगाया और राय साहब से बोले — मैंने आप से कह दिया, बैंक इससे कम सूद पर किसी तरह राज़ी न होगा और यह रिआयत भी मैंने आपके साथ की है; क्योंकि आपके साथ घर का मुआमला है। राय साहब ने मूँछों में मुस्कराहट को लपेटकर कहा — आपकी नीति में घरवालों को ही उलटे छुरे से हलाल करना चाहिए? ‘ यह आप क्या फ़रमा रहे हैं। ‘ ‘ ठीक कह रहा हूँ। सूर्यप्रताप सिंह से आपने केवल सात फ़ी सदी लिया है, मुझसे नौ फ़ी सदी माँग रहे हैं और उस पर एहसान भी रखते हैं। क्यों न हो। ‘
खन्ना ने क़हक़हा मारा, मानो यह कथन हँसने के ही योग्य था। ‘ उन शतों पर मैं आपसे भी वही सूद ले लूँगा। हमने उनकी जायदाद रेहन रख ली है और शायद यह जायदाद फिर उनके हाथ न जायगी। ‘ ‘ मैं अपनी कोई जायदाद निकाल दूँगा। नौ परसेंट देने से यह कहीं अच्छा है कि फ़ालतू जायदाद अलग कर दूँ। मेरी जैकसन रोडवाली कोठी आप निकलवा दें। कमीशन ले लीजिएगा। ‘ ‘ उस कोठी का सुभीते से निकलना ज़रा मुश्किल है। आप जानते हैं, वह जगह बस्ती से कितनी दूर है; मगर ख़ैर, देखूँगा। आप उसकी क़ीमत का क्या अन्दाज़ा करते हैं? ‘ राय साहब ने एक लाख पचीस हज़ार बताये। पन्द्रह बीघे ज़मीन भी तो है उसके साथ। खन्ना स्तम्भित हो गये। बोले — आप आज के पन्द्रह साल पहले का स्वप्न देख रहे हैं राय साहब! आपको मालूम होना चाहिए कि इधर जायदादों के मूल्य में पचास परसेंट की कमी हो गयी है। राय साहब ने बुरा मानकर कहा — जी नहीं, पन्द्रह साल पहले उसकी क़ीमत डेढ़ लाख थी। ‘ मैं ख़रीददार की तलाश में रहूँगा; मगर मेरा कमीशन पाँच प्रतिशत होगा, आपसे। ‘ ‘ औरों से शायद दस प्रतिशत हो क्यों; क्या करोगे इतने रुपए लेकर? ‘ |
10-01-2011, 04:41 PM | #103 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
‘ आप जो चाहें दे दीजिएगा। अब तो राज़ी हुए। शुगर के हिस्से अभी तक आपने न ख़रीदे। अब बहुत थोड़े-से हिस्से बच रहे हैं। हाथ मलते रह जाइएगा। इंश्योरेंस की पालिसी भी आपने न ली। आप में टाल-मटोल की बुरी आदत है। जब अपने लाभ की बातों का इतना टाल-मटोल है, तब दूसरों को आप लोगों से क्या लाभ हो सकता है! इसी से कहते हैं, रियासत आदमी की अक्ल चर जाती है। मेरा बस चले तो मैं ताल्लुक़े-दारी की रियासतें ज़ब्त कर लूँ। ‘
मिस्टर तंखा मालती पर जाल फेंक रहे थे। मालती ने साफ़ कह दिया था कि वह एलेक्शन के झमेले में नहीं पड़ना चाहती; पर तंखा इतनी आसानी से हार माननेवाले व्यक्ति न थे। आकर कुहनियों के बल मेज़ पर टिककर बोले — आप ज़रा उस मुआमले पर फिर विचार करें। मैं कहता हूँ ऐसा मौक़ा शायद आपको फिर न मिले। रानी साहब चन्दा को आपके मुक़ाबले में रुपए में एक आना भी चांस नहीं है। मेरी इच्छा केवल यह है कि कौंसिल में ऐसे लोग जायँ, जिन्होंने जीवन में कुछ अनुभव प्राप्त किया है और जनता की कुछ सेवा की है। जिस महिला ने भोग-विलास के सिवा कुछ जाना ही नहीं, जिसने जनता को हमेशा अपनी कार का पेट्रोल समझा, जिसकी सबसे मूल्यवान सेवा वे पाटिर्याँ हैं, जो वह गवर्नरों और सेक्रेटरियों को दिया करती हैं, उनके लिए इस कौंसिल में स्थान नहीं है। नयी कौंसिल में बहुत कुछ अधिकार प्रतिनिधियों के हाथ में होगा और मैं नहीं चाहता कि वह अधिकार अनधिकारियों के हाथ में जाय। मालती ने पीछा छुड़ाने के लिए कहा — लेकिन साहब, मेरे पास दस-बीस हज़ार एलेक्शन पर ख़र्च करने के लिए कहाँ है? रानी साहब तो दो-चार लाख ख़र्च कर सकती हैं। मुझे भी साल में हज़ार-पाँच सौ रुपए उनसे मिल जाते हैं, यह रक़म भी हाथ से निकल जायगी। ‘ पहले आप यह बता दें कि आप जाना चाहती हैं, या नहीं? ‘ ‘ जाना तो चाहती हूँ, मगर फ़्री पास मिल जाय! ‘ ‘ तो यह मेरा ज़िम्मा रहा। आपको फ़्री पास मिल जायगा। ‘ ‘ जी नहीं, क्षमा कीजिए। मैं हार की ज़िल्लत नहीं उठाना चाहती। जब रानी साहब रुपए की थैलियाँ खोल देंगी और एक-एक वोट पर एक-एक अशर्फ़ी चढ़ने लगेगी, तो शायद आप भी उधर वोट देंगे। ‘ ‘ आपके ख़याल में एलेक्शन महज़ रुपए से जीता जा सकता है। ‘ ‘ जी नहीं, व्यक्ति भी एक चीज़ है। लेकिन मैंने केवल एक बार जेल जाने के सिवा और क्या जन-सेवा की है? और सच पूछिए तो उस बार भी मैं अपने मतलब ही से गयी थी, उसी तरह जैसे राय साहब और खन्ना गये थे। इस नयी सभ्यता का आधार धन है, विद्या और सेवा और कुल और जाति सब धन के सामने हेय है। कभी-कभी इतिहास में ऐसे अवसर आ जाते हैं, जब धन को आन्दोलन के सामने नीचा देखना पड़ता है; मगर इसे अपवाद समझिए। मैं अपनी ही बात कहती हूँ। कोई ग़रीब औरत दवाखाने में आ जाती है, तो घंटों उससे बोलती तक नहीं। पर कोई महिला कार पर आ गयी, तो द्वार तक जाकर उसका स्वागत करती हूँ और उसकी ऐसी उपासना करती हूँ, मानो साक्षात् देवी है। मेरी और रानी साहब का कोई मुकाबला नहीं। जिस तरह के कौंसिल बन रहे हैं, उनके लिए रानी साहब ही ज़्यादा उपयुक्त हैं। उधर मैदान में मेहता की टीम कमज़ोर पड़ती जाती थी। आधे से ज़्यादा खिलाड़ी मर चुके थे। मेहता ने अपने जीवन में कभी कबड्डी न खेली थी। मिरज़ा इस फन के उस्ताद थे। मेहता की तातीलें अभिनय के अभ्यास में कटती थीं। रूप भरने में वह अच्छे-अच्छे को चकित कर देते थे। और मिरज़ा के लिए सारी दिलचस्पी अखाड़े में थी, पहलवानों के भी और परियों के भी। मालती का ध्यान उधर भी लगा हुआ था। उठकर राय साहब से बीली — मेहता की पार्टी तो बुरी तरह पिट रही है। |
10-01-2011, 04:42 PM | #104 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
राय साहब और खन्ना में इंश्योरेंस की बातें हो रही थीं। राय साहब उस प्रसंग से ऊबे हुए मालूम होते थे। मालती ने मानो उन्हें एक बन्धन से मुक्त कर दिया। उठकर बोले — जी हाँ, पिट तो रही है। मिरज़ा पक्का खिलाड़ी है।
‘ मेहता को यह क्या सनक सूझी। व्यर्थ अपनी भद्द करा रहे हैं। ‘ ‘ इसमें काहे की भद्द? दिल्लगी ही तो है। ‘ ‘ मेहता की तरफ़ से जो बाहर निकलता है, वही मर जाता है। ‘ एक क्षण के बाद उसने पूछा — क्या इस खेल में हाफ़ टाइम नहीं होता? खन्ना को शरारत सूझी। बोले — आप चले थे मिरज़ा से मुकाबला करने। समझते थे, यह भी फ़िलासफ़ी है। ‘ मैं पूछती हूँ, इस खेल में हाफ़ टाइम नहीं होता? ‘ खन्ना ने फिर चिढ़ाया — अब खेल ही ख़तम हुआ जाता है। मज़ा आयेगा तब, जब मिरज़ा मेहता को दबोचकर रगड़ेंगे और मेहता साहब ‘ चीं ‘ बोलेंगे। ‘ मैं तुमसे नहीं पूछती। राय साहब से पूछती हूँ। ‘ राय साहब बोले — इस खेल में हाफ़ टाइम! एक ही एक आदमी तो सामने आता है। ‘ अच्छा, मेहता का एक आदमी और मर गया। ‘ खन्ना बोले — आप देखती रहिए! इसी तरह सब मर जायँगे और आख़िर में मेहता साहब भी मरेंगे। मालती जल गयी — आपकी हिम्मत न पड़ी बाहर निकलने की। ‘ मैं गँवारों के खेल नहीं खेलता। मेरे लिए टेनिस है। ‘ ‘ टेनिस में भी मैं तुम्हें सैकड़ों गेम दे चुकी हूँ। ‘ ‘ आपसे जीतने का दावा ही कब है? ‘ ‘ अगर दावा हो, तो मैं तैयार हूँ। ‘ मालती उन्हें फटकार बताकर फिर अपनी जगह पर आ बैठी। किसी को मेहता से हमदर्दी नहीं है। कोई यह नहीं कहता कि अब खेल ख़त्म कर दिया जाय। मेहता भी अजीब बुद्धू आदमी हैं, कुछ धाँधली क्यों नहीं कर बैठते। यहाँ अपनी न्याय-प्रियता दिखा रहे हैं। अभी हारकर लौटेंगे, तो चारों तरफ़ से तालियाँ पड़ेंगी। अब शायद बीस आदमी उनकी तरफ़ और होंगे और लोग कितने ख़ुश हो रहे हैं। ज्यों-ज्यों अन्त समीप आता जाता था, लोग अधीर होते जाते थे और पाली की तरफ़ बढ़ते जाते थे। रस्सी का जो एक कठघरा-सा बनाया गया था, वह तोड़ दिया गया। स्वयम्रूसेवक रोकने की चेष्टा कर रहे थे; पर उस उत्सुकता के उन्माद में उनकी एक न चलती थी। यहाँ तक कि ज्वार अन्तिम बिन्दु तक आ पहुँचा और मेहता अकेले बच गये और अब उन्हें गूँगे का पाटर् खेलना पड़ेगा। अब सारा दारमदार उन्हीं पर है; अगर वह बचकर अपनी पाली में लौट आते हैं, तो उनका पक्ष बचता है। नहीं, हार का सारा अपमान और लज्जा लिए हुए उन्हें लौटना पड़ता है, वह दूसरे पक्ष के जितने आदमियों को छूकर अपनी पाली में आयँगे वह सब मर जायँगे और उतने ही आदमी उनकी तरफ़ जी उठेंगे। सबकी आँखें मेहता की ओर लगी हुई थीं। वह मेहता चले। जनता ने चारों ओर से आकर पाली को घेर लिया। तन्मयता अपनी पराकाष्ठा पर थी। मेहता कितने शान्त भाव से शत्रुओं की ओर जा रहे हैं। उनकी प्रत्येक गति जनता पर प्रतिबििम्बत हो जाती है, किसी की गर्दन टेढ़ी हुई जाती है, कोई आगे को झुक पड़ता है। वातावरण गर्म हो गया। पारा ज्वाला-बिन्दु पर आ पहुँचा है। मेहता शत्रु-दल में घुसे। दल पीछे हटता जाता है। उनका संगठन इतना दृढ़ है कि मेहता की पकड़ या स्पर्श में कोई नहीं आ रहा है। बहुतों को जो आशा थी कि मेहता कम-से-कम अपने पक्ष के दस-पाँच आदमियों को तो जिला ही लेंगे, वे निराश होते जा रहे हैं। सहसा मिरज़ा एक छलाँग मारते हैं और मेहता की कमर पकड़ लेते हैं। मेहता अपने को छुड़ाने के लिए ज़ोर मार रहे हैं। मिरज़ा को पाली की तरफ़ खींचे लिये आ रहे है। लोग उन्मत्त हो जाते है। अब इसका पता चलना मुश्किल है कि कौन खिलाड़ी है कौन तमाशाई। सब एक गडमड हो गये हैं। मिरज़ा और मेहता में मल्लयुद्ध हो रहा है। मिरज़ा के कई बुड्ढे मेहता की तरफ़ लपके और उनसे लिपट गये। मेहता ज़मीन पर चुपचाप पड़े हुए हैं; अगर वह किसी तरह खींच-खाँचकर दो हाथ और ले जायँ, तो उनके पचासों आदमी जी उठते हैं, मगर वह एक इंच भी नहीं खिसक सकते। मिरज़ा उनकी गर्दन पर बैठे हुए हैं। मेहता का मुख लाल हो रहा है। आँखें बीरबहूटी बनी हुई हैं। पसीना टपक रहा है, और मिरज़ा अपने स्थूल शरीर का भार लिये उनकी पीठ पर हुमच रहे हैं। |
10-01-2011, 04:42 PM | #105 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
मालती ने समीप जाकर उत्तेजित स्वर में कहा — मिरज़ा खुर्शेद, यह फ़ेयर नहीं है। बाज़ी ड्रॉ रही।
खुर्शेद ने मेहता की गर्दन पर एक घस्सा लगाकर कहा — जब तक यह ‘ चीं ‘ न बोलेंगे, मैं हरगिज़ न छोड़ूँगा। क्यों नहीं ‘ चीं ‘ बोलते? मालती और आगे बढ़ी — ‘ चीं ‘ बुलाने के लिए आप इतनी ज़बरदस्ती नहीं कर सकते। मिरज़ा ने मेहता की पीठ पर हुमचकर कहा — बेशक कर सकता हूँ। आप इनसे कह दें, ‘ चीं ‘ बोलें, मैं अभी उठा जाता हूँ। मेहता ने एक बार फिर उठने की चेष्टा की; पर मिरज़ा ने उनकी गर्दन दबा दी। मालती ने उनका हाथ पकड़कर घसीटने कोशिश करके कहा — यह खेल नहीं, अदावत है। ‘ अदावत ही सही। ‘ ‘ आप न छोड़ेंगे? ‘ उसी वक़्त जैसे कोई भूकम्प आ गया। मिरज़ा साहब ज़मीन पर पड़े हुए थे और मेहता दौड़े हुए पाली की ओर भागे जा रहे थे और हज़ारों आदमी पागलों की तरह टोपियाँ और पगड़ियाँ और छड़ियाँ उछाल रहे थे। कैसे यह काया पलट हुई, कोई समझ न सका। मिरज़ा ने मेहता को गोद में उठा लिया और लिये हुए शामियाने तक आये। प्रत्येक मुख पर यह शब्द थे — डाक्टर साहब ने बाज़ी मार ली। और प्रत्येक आदमी इस हारी हुई बाज़ी के एकबारगी पलट जाने पर विस्मित था। सभी मेहता के जीवट और धैर्य का बखान कर रहे थे। मज़दूरों के लिए पहले से नारंगियाँ मँगा ली गयी थीं। उन्हें एक-एक नारंगी देकर विदा किया गया। शामियाने में मेहमानों के चाय-पानी का आयोजन था। मेहता और मिरज़ा एक ही मेज़ पर आमने-सामने बैठे। मालती मेहता के बग़ल में बैठी। मेहता ने कहा — मुझे आज एक नया अनुभव हुआ। महिला की सहानुभूति हार को जीत बना सकती है। मिरज़ा ने मालती की ओर देखा — अच्छा! यह बात थी! जभी तो मुझे हैरत हो रही थी कि आप एकाएक कैसे ऊपर आ गये। मालती शर्म से लाल हुई जाती थी। बोली — आप बड़े बेमुरौवत आदमी हैं मिरज़ाजी! मुझे आज मालूम हुआ। ‘ कुसूर इनका था। यह क्यों ‘ चीं ‘ नहीं बोलते थे? ‘ ‘ मैं तो ‘ चीं ‘ न बोलता, चाहे आप मेरी जान ही ले लेते। ‘ कुछ देर मित्रों में गप-शप होती रही। फिर धन्यवाद के और मुबारकवाद के भाषण हुए और मेहमान लोग बिदा हुए। मालती को भी एक विजिट करनी थी। वह भी चली गयी। केवल मेहता और मिरज़ा रह गये। उन्हें अभी स्नान करना था। मिट्टी में सने हुए थे। कपड़े कैसे पहनते। गोबर पानी खींच लाया और दोनों दोस्त नहाने लगे। मिरज़ा ने पूछा — शादी कब तक होगी? मेहता ने अचम्भे में आकर पूछा — किसकी? ‘ आपकी। ‘ मेरी शादी! किसके साथ हो रही है? ‘ वाह! आप तो ऐसा उड़ रहे हैं, गोया यह भी छिपा की बात है। ‘ ‘ नहीं-नहीं, मैं सच कहता हूँ, मुझे बिलकुल ख़बर नहीं है। क्या मेरी शादी होने जा रही है? ‘ ‘ और आप क्या समझते हैं, मिस मालती आप की कम्पेनियन बनकर रहेंगी? ‘ |
10-01-2011, 04:44 PM | #106 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
मेहता गम्भीर भाव से बोले — आपका ख़याल बिलकुल ग़लत है। मिरज़ाजी! मिस मालती हसीन हैं, ख़ुशमिज़ाज हैं, समझदार हैं, रोशन ख़याल हैं और भी उनमें कितनी ख़ूबियाँ हैं। लेकिन मैं अपनी जीवन-संगिनी में जो बात देखना चाहता हूँ, वह उनमें नहीं है और न शायद हो सकती है। मेरे ज़ेहन में औरत वफ़ा और त्याग की मूतिर् है, जो अपनी बेज़बानी से, अपनी क़ुबार्नी से, अपने को बिलकुल मिटाकर पति की आत्मा का एक अंश बन जाती है। देह पुरुष की रहती है, पर आत्मा स्त्री की होती है। आप कहेंगे, मर्द अपने को क्यों नहीं मिटाता? औरत ही से क्यों इसकी आशा करता है? मर्द में वह सामथ्र्य ही नहीं है। वह अपने को मिटायेगा, तो शून्य हो जायगा। वह किसी खोह में जा बैठेगा और सवार्त्मा में मिल जाने का स्वप्न देखेगा। वह तेजप्रधान जीव है, और अहंकार में यह समझकर कि वह ज्नान का पुतला है सीधा ईश्वर में लीन होने की कल्पना किया करता है। स्त्री पृथ्वी की भाँति धैर्यवान् है, शान्ति-सम्पन्न है, सहिष्णु है। पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं, तो वह महात्मा बन जाता है। नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं तो वह कुलटा हो जाती है। पुरुष आकषिर्त होता है स्त्री की ओर, जो सवांश में स्त्री हो। मालती ने अभी तक मुझे आकर्षित नहीं किया। मैं आपसे किन शब्दों में कहूँ कि स्त्री मेरी नज़रों में क्या है? संसार में जो कुछ सुन्दर है, उसी की प्रतिमा को मैं स्त्री कहता हूँ; मैं उससे यह आशा रखता हूँ कि मैं उसे मार ही डालूँ तो भी प्रतिहिंसा का भाव उसमें न आये, अगर मैं उसकी आँखों के सामने किसी स्त्री को प्यार करूँ, तो भी उसकी ईर्ष्या न जागे। ऐसी नारी पाकर मैं उसके चरणों में गिर पड़ूँगा और उसपर अपने को अर्पण कर दूँगा।
मिरज़ा ने सिर हिलाकर कहा — ऐसी औरत आपको इस दुनिया में तो शायद ही मिले। मेहता ने हाथ मारकर कहा — एक नहीं हज़ारों; वरना दुनिया वीरान हो जाती। ‘ ऐसी ही एक मिसाल दीजिए। ‘ ‘ मिसेज़ खन्ना को ही ले लीजिए। ‘ ‘ लेकिन खन्ना! ‘ ‘ खन्ना अभागे हैं, जो हीरा पाकर काँच का टुकड़ा समझ रहे हैं। सोचिए, कितना त्याग है और उसके साथ ही कितना प्रेम है। खन्ना के रूपासक्त मन में शायद उसके लिए रत्ती-भर भी स्थान नहीं है; लेकिन आज खन्ना पर कोई आफ़त आ जाय तो वह अपने को उनपर न्योछावर कर देगी। खन्ना आज अन्धे या कोढ़ी हो जायँ, तो भी उसकी वफ़ादारी में फ़र्क़ न आयेगा। अभी खन्ना उसकी क़द्र नहीं कर सकते हैं, मगर आप देखेंगे, एक दिन यही खन्ना उसके चरण धो-धोकर पियेंगे। मैं ऐसी बीबी नहीं चाहता, जिससे मैं ऐंस्टीन के सिद्धान्त पर बहस कर सकूँ, या जो मेरी रचनाओं के प्रूफ़ देखा करे। मैं ऐसी औरत चाहता हूँ, जो मेरे जीवन को पवित्र और उज्ज्वल बना दे, अपने प्रेम और त्याग से। ‘ खुर्शेद ने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए जैसे कोई भूली हुई बात याद करके कहा — आपका ख़याल बहुत ठीक है मिस्टर मेहता! ऐसी औरत अगर कहीं मिल जाय, तो मैं भी शादी कर लूँ, लेकिन मुझे उम्मीद नहीं है कि मिले। मेहता ने हँसकर कहा — आप भी तलाश में रहिए, मैं भी तलाश में हूँ। शायद कभी तक़दीर जागे। ‘ मगर मिस मालती आपको छोड़नेवाली नहीं। कहिए लिख दूँ। ‘ ‘ ऐसी औरतों से मैं केवल मनोरंजन कर सकता हूँ, ब्याह नहीं। ब्याह तो आत्म-समर्पण है। ‘ ‘ अगर ब्याह आत्म-समर्पण है, तो प्रेम क्या है? ‘ ‘ प्रेम जब आत्म-समर्पण का रूप लेता है, तभी ब्याह है; उसके पहले ऐयाशी है। ‘ मेहता ने कपड़े पहने और विदा हो गये। शाम हो गयी थी। मिरज़ा ने जाकर देखा, तो गोबर अभी तक पेड़ों को सींच रहा था। मिरज़ा ने प्रसन्न होकर कहा — जाओ, अब तुम्हारी छुट्टी है। कल फिर आओगे? गोबर ने कातर भाव से कहा — मैं कहीं नौकरी चाहता हूँ मालिक! ‘ नौकरी करना है, तो हम तुझे रख लेंगे। ‘ ‘ कितना मिलेगा हुज़ूर! ‘ ‘ जितना तू माँगे। ‘ |
10-01-2011, 04:48 PM | #107 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
‘ मैं क्या माँगूँ। आप जो चाहे दे दें। ‘
‘ हम तुम्हें पन्द्रह रुपए देंगे और ख़ूब कसकर काम लेंगे। ‘ गोबर मेहनत से नहीं डरता। उसे रुपए मिलें, तो वह आठों पहर काम करने को तैयार है। पन्द्रह रुपए मिलें, तो क्या पूछना। वह तो प्राण भी दे देगा। बोला — मेरे लिए कोठरी मिल जाय, वहीं पड़ा रहूँगा। ‘ हाँ-हाँ, जगह का इन्तज़ाम मैं कर दूँगा। इसी झोपड़ी में एक किनारे तुम भी पड़ रहना। ‘ गोबर को जैसे स्वर्ग मिल गया। होरी की फ़सल सारी की सारी डाँड़ की भेंट हो चुकी थी। वैशाख तो किसी तरह कटा, मगर जेठ लगते-लगते घर में अनाज का एक दाना न रहा। पाँच-पाँच पेट खानेवाले और घर में अनाज नदारद। दोनों जून न मिले, एक जून तो मिलना ही चाहिए। भर-पेट न मिले, आधा पेट तो मिले। निराहार कोई कै दिन रह सकता है! उधार ले तो किससे! गाँव के सभी छोटे-बड़े महाजनों से तो मुँह चुराना पड़ता था। मजूरी भी करे, तो किसकी। जेठ में अपना ही काम ढेरों था। ऊख की सिंचाई लगी हुई थी; लेकिन ख़ाली पेट मेहनत भी कैसे हो! साँझ हो गयी थी। छोटा बच्चा रो रहा था। माँ को भोजन न मिले, तो दूध कहाँ से निकले? सोना परिस्थिति समझती थी; मगर रूपा क्या समझे! बार-बार रोटी-रोटी चिल्ला रही थी। दिन-भर तो कच्ची अमिया से जी बहला; मगर अब तो कोई ठोस चीज़ चाहिए। होरी दुलारी सहुआइन से अनाज उधार माँगने गया था; पर वह दूकान बन्द करके पैठ चली गयी थी। मँगरू साह ने केवल इनकार ही न किया, लताड़ भी दी — उधार माँगने चले हैं, तीन साल से धेला सूद नहीं दिया, उस पर उधार दिये जाओ। अब आकबत में देंगे। खोटी नीयत हो जाती है, तो यही हाल होता है। भगवान् से भी यह अनीति नहीं देखी जाती। कारकुन की डाँट पड़ी, तो कैसे चुपके से रुपए उगल दिये। मेरे रुपए, रुपए ही नहीं हैं। और मेहरिया है कि उसका मिज़ाज ही नहीं मिलता। वहाँ से रुआँसा होकर उदास बैठा था कि पुन्नी आग लेने आयी। रसोई के द्वार पर जाकर देखा तो अँधेरा पड़ा हुआ था। बोली — आज रोटी नहीं बना रही हो क्या भाभी जी? अब तो बेला हो गयी। जब से गोबर भागा था, पुन्नी और धनिया में बोलचाल हो गयी थी। होरी का एहसान भी मानने लगी थी। हीरा को अब वह गालियाँ देती थी — हत्यारा, गऊ-हत्या, करके भागा। मुँह में कालिख लगी है, घर कैसे आये? और आये भी तो घर के अन्दर पाँव न रखने दूँ। गऊ-हत्या करते इसे लाज भी न आयी। बहुत अच्छा होता, पुलिस बाँधकर ले जाती और चक्की पिसवाती! धनिया कोई बहाना न कर सकी। बोली — रोटी कहाँ से बने, घर में दाना तो है ही नहीं। तेरे महतो ने बिरादरी का पेट भर दिया, बाल-बच्चे मरें या जियें। अब बिरादरी झाँकती तक नहीं। पुन्नी की फ़सल अच्छी हुई थी, और वह स्वीकार करती थी कि यह होरी का पुरुषार्थ है। हीरा के साथ कभी इतनी बरक्कत न हुई थी। बोली — अनाज मेरे घर से क्यों नहीं मँगवा लिया? वह भी तो महतो ही की कमाई है कि किसी और की? सुख के दिन आयें, तो लड़ लेना; दुख तो साथ रोने ही से कटता है। मैं क्या ऐसी अन्धी हूँ कि आदमी का दिल नहीं पहचानती। महतो ने न सँभाला होता, तो आज मुझे कहाँ सरन मिलती। वह उलटे पाँव लौटी और सोना को भी साथ लेती गयी। एक क्षण में दो डल्ले अनाज से भरे लाकर आँगन में रख दिये। दो मन से कम जौ न था। धनिया अभी कुछ कहने न पायी थी कि वह फिर चल दी और एक क्षण में एक बड़ी-सी टोकरी अरहर की दाल से भरी हुई लाकर रख दी, और बोली — चलो, मैं आग जलाये देती हूँ। धनिया ने देखा तो जौ के ऊपर एक छोटी-सी डलिया में चार-पाँच सेर आटा भी था। आज जीवन में पहली बार वह परास्त हुई। आँखों में प्रेम और कृतज्ञता के मोती भरकर बोली — सब का सब उठा लायी कि घर में भी कुछ छोड़ा? कहीं भाग जाता था? आँगन में बच्चा खटोले पर पड़ा रो रहा था। पुनिया उसे गोद में लेकर दुलराती हुई बोली — तुम्हारी दया से अभी बहुत है भाभीजी! पन्द्रह मन तो जौ हुआ है और दस मन गेहूँ। पाँच मन मटर हुआ, तुमसे क्या छिपाना है। दोनों घरों का काम चल जायगा। दो-तीन महीने में फिर मकई हो जायगी। आगे भगवान् मालिक है। झुनिया ने आकर अंचल से छोटी सास के चरण छुए। पुनिया ने असीस दिया। सोना आग जलाने चली, रूपा ने पानी के लिए कलसा उठाया। रुकी हुई गाड़ी चल निकली। जल में अवरोध के कारण जो चक्कर था, फेन था, शोर था, गति की तीव्रता थी, वह अवरोध के हट |
10-01-2011, 04:50 PM | #108 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
जाने से शान्त मधुर-ध्वनि के साथ सम, धीमी, एक-रस धार में बहने लगी। पुनिया बोली — महतो को डाँड़ देने की ऐसी जल्दी क्या पड़ी थी? धनिया ने कहा — बिरादरी में सुरख़रू कैसे होते।
‘ भाभी, बुरा न मानो, तो एक बात कहूँ? ‘ ‘ कह, बुरा क्यों मानूँगी? ‘ ‘ न कहूँगी, कहीं तुम बिगड़ने न लगो? ‘ ‘ कहती हूँ, कुछ न बोलूँगी, कह तो। ‘ ‘ तुम्हें झुनिया को घर में रखना न चाहिये था। ‘ ‘ तब क्या करती? वह डूबी मरती थी। ‘ ‘ मेरे घर में रख देती। तब तो कोई कुछ न कहता। ‘ ‘ यह तो तू आज कहती है। उस दिन भेज देती, तो झाड़ू लेकर दौड़ती! ‘ ‘ इतने ख़रच में तो गोबर का ब्याह हो जाता। ‘ ‘ होनहार को कौन टाल सकता है पगली! अभी इतने ही से गला नहीं छूटा भोला अब अपनी गाय के दाम माँग रहा है। तब तो गाय दी थी कि मेरी सगाई कहीं ठीक कर दो। अब कहता है, मुझे सगाई नहीं करनी, मेरे रुपए दे दो। उसके दोनों बेटे लाठी लिये फिरते हैं। हमारे कौन बैठा है, जो उससे लड़े! इस सत्यानासी गाय ने आकर चौपट कर दिया। ‘ कुछ और बातें करके पुनिया आग लेकर चली गयी। होरी सब कुछ देख रहा था। भीतर आकर बोला — पुनिया दिल की साफ़ है। ‘ हीरा भी तो दिल का साफ़ था? ‘ धनिया ने अनाज तो रख लिया था; पर मन में लज्जित और अपमानित हो रही थी। यह दिनों का फेर है कि आज उसे यह नीचा देखना पड़ा। ‘ तू किसी का औसान नहीं मानती, यही तुझमें बुराई है। ‘ ‘ औसान क्यों मानूँ? मेरा आदमी उसकी गिरस्ती के पीछे जान नहीं दे रहा है? फिर मैंने दान थोड़े ही लिया है। उसका एक-एक दाना भर दूँगी। ‘ मगर पुनिया अपनी जिठानी के मनोभाव समझकर भी होरी का एहसान चुकाती जाती थी। जब यहाँ अनाज चुक जाता, मन दो मन दे जाती; मगर जब चौमासा आ गया और वर्षा न हुई, तो समस्या अत्यन्त जटिल हो गयी। सावन का महीना आ गया था और बगूले उठ रहे थे। कुओं का पानी भी सूख गया था और ऊख ताप से जली जा रही थी। नदी से थोड़ा-थोड़ा पानी मिलता था; मगर उसके पीछे आये दिन लाठियाँ निकलती थीं। यहाँ तक कि नदी ने भी जवाब दे दिया। जगह-जगह चोरियाँ होने लगीं, डाके पड़ने लगे। सारे प्रान्त में हाहाकार मच गया। बारे कुशल हुई कि भादों में वषार् हो गयी और किसानों के प्राण हरे हुए। कितना उछाह था उस दिन! प्यासी पृथ्वी जैसे अघाती ही न थी और प्यासे किसान ऐसे उछल रहे थे मानो पानी नहीं, अशफ़िर्याँ बरस रही हों। बटोर लो, जितना बटोरते बने। खेतों में जहाँ बगूले उठते थे, वहाँ हल चलने लगे। बालवृन्द निकल-निकलकर तालाबों और पोखरों और गड़हियों का मुआयना कर रहे थे। ओहो! तालाब तो आधा भर गया, और वहाँ से गड़हिया की तरफ़ दौड़े। मगर अब कितना ही पानी बरसे, ऊख तो बिदा हो गयी। एक-एक हाथ ही होके रह जायगी, मक्का और जुआर और कोदो से लगान थोड़े ही चुकेगा, महाजन का पेट थोड़े ही भरा जायगा। हाँ, गौओं के लिए चारा हो गया और आदमी जी गया। जब माघ बीत गया और भोला के रुपए न मिले, तो एक दिन वह झल्लाया हुआ होरी के घर आ धमका और बोला — यही है तुम्हारा क़ौल? इसी मुँह से तुमने ऊख पेरकर मेरे रुपए देने का वादा किया था? अब तो ऊख पेर चुके। लाओ रुपए मेरे हाथ में! होरी जब अपनी विपित्त सुनाकर और सब तरह चिरौरी करके हार गया और भोला द्वार से न हटा, तो उसने झुँझलाकर कहा — तो महतो, इस बखत तो मेरे पास रुपए नहीं हैं और न मुझे कहीं उधार ही मिल सकते हैं। मैं कहाँ से लाऊँ? दाने-दाने की तंगी हो रही है। बिस्वास न हो, घर में आकर देख लो। जो कुछ मिले, उठा ले जाओ। भोला ने निर्मम भाव से कहा — मैं तुम्हारे घर में क्यों तलासी लेने जाऊँ और न मुझे इससे मतलब है कि तुम्हारे पास रुपये हैं या नहीं। तुमने ऊख पेरकर रुपये देने को कहा था। ऊख पेर चुके। अब मेरे रुपए मेरे हवाले करो। |
10-01-2011, 04:51 PM | #109 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
‘ तो फिर जो कहो, वह करूँ? ‘
‘ मैं क्या कहूँ? ‘ ‘ मैं तुम्हीं पर छोड़ता हूँ। ‘ ‘ मैं तुम्हारे दोनों बैल खोल ले जाऊँगा। ‘ होरी ने उसकी ओर विस्मय-भरी आँखों से देखा, मानो अपने कानों पर विश्वास न आया हो। फिर हतबुद्धि-सा सिर झुकाकर रह गया। भोला क्या उसे भिखारी बनाकर छोड़ देना चाहते हैं? दोनों बैल चले गये, तब तो उसके दोनों हाथ ही कट जायँगे। दीन स्वर में बोला — दोनों बैल ले लोगे, तो मेरा सर्वनाश हो जायगा। अगर तुम्हारा धरम यही कहता है, तो खोल ले जाओ। ‘ तुम्हारे बनने-बिगड़ने की मुझे परवा नहीं है। मुझे अपने रुपए चाहिए। ‘ ‘ और जो मैं कह दूँ, मैंने रुपए दे दिये? ‘ भोला सन्नाटे में आ गया। उसे अपने कानों पर विश्वास न आया। होरी इतनी बड़ी बेईमानी कर सकता है, यह सम्भव नहीं। उग्र होकर बोला — अगर तुम हाथ में गंगाजली लेकर कह दो कि मैंने रुपए दे दिये, तो सबर कर लूँ। ‘ कहने का मन तो चाहता है, मरता क्या न करता; लेकिन कहूँगा नहीं। ‘ ‘ तुम कह ही नहीं सकते। ‘ ‘ हाँ भैया, मैं नहीं कह सकता। हँसी कर रहा था। एक क्षण तक वह दुबिधे में पड़ा रहा। फिर बोला — तुम मुझसे इतना बैर क्यों पाल रहे हो भोला भाई! झुनिया मेरे घर में आ गयी, तो मुझे कौन-सा सरग मिल गया। लड़का अलग हाथ से गया, दो सौ रुपया डाँड़ अलग भरना पड़ा। मैं तो कहीं का न रहा। और अब तुम भी मेरी जड़ खोद रहे हो। भगवान् जानते हैं, मुझे बिलकुल न मालूम था कि लौंडा क्या कर रहा है। मैं तो समझता था, गाना सुनने जाता होगा। मुझे तो उस दिन पता चला, जब आधी रात को झुनिया घर में आ गयी। उस बखत मैं घर में न रखता, तो सोचो, कहाँ जाती? किसकी होकर रहती? झुनिया बरौठे के द्वार पर छिपी खड़ी यह बातें सुन रही थी। बाप को अब वह बाप नहीं, शत्रु समझती थीं। डरी, कहीं होरी बैलों को दे न दें। जाकर रूपा से बोली — अम्माँ को जल्दी से बुला ला। कहना, बड़ा काम है, बिलम न करो। धनिया खेत में गोबर फेंकने गयी थी, बहू का सन्देश सुना, तो आकर बोली — काहे को बुलाया बहू, मैं तो घबड़ा गयी। ‘ काका को तुमने देखा है न? ‘ ‘ हाँ देखा, क़साई की तरह द्वार पर बैठा हुआ है। मैं तो बोली भी नहीं। ‘ ‘ हमारे दोनों बैल माँग रहे हैं, दादा से। ‘ धनिया के पेट की आँतें भीतर सिमट गयीं। दोनों बैल माँग रहे हैं? ‘ ‘ हाँ, कहते हैं या तो हमारे रुपए दो, या हम दोनों बैल खोल ले जायँगे। ‘ ‘ तेरे दादा ने क्या कहा? ‘ ‘ उन्होंने कहा, तुम्हारा धरम कहता हो, तो खोल ले जाओ। ‘ ‘ तो खोल ले जाय; लेकिन इसी द्वार पर आकर भीख न माँगे, तो मेरे नाम पर थूक देना। हमारे लहू से उसकी छाती जुड़ाती हो, तो जुड़ा ले। ‘ वह इसी तैश में बाहर आकर होरी से बोली — महतो दोनों बैल माँग रहे हैं, तो दे क्यों नहीं देते? |
10-01-2011, 04:52 PM | #110 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
‘ उनका पेट भरे, हमारे भगवान् मालिक हैं। हमारे हाथ तो नहीं काट लेंगे? अब तक अपनी मजूरी करते थे, अब दूसरों की मजूरी करेंगे। भगवान् की मरज़ी होगी, तो फिर बैल-बधिये हो जायँगे, और मजूरी ही करते रहे, तो कौन बुराई है। बूड़ेसूखे और जोत-लगान का बोझ तो न रहेगा। मैं न जानती थी, यह हमारे वैरी हैं, नहीं गाय लेकर अपने सिर पर विपित्त क्यों लेती! उस निगोड़ी का पौरा जिस दिन से आया, घर तहस-नहस हो गया। भोला ने अब तक जिस शस्त्र को छिपा रखा था, अब उसे निकालने का अवसर आ गया। उसे विश्वास हो गया बैलों के सिवा इन सबों के पास कोई अवलम्ब नहीं है। बैलों को बचाने के लिए ये लोग सब कुछ करने को तैयार हो जायँगे। अच्छे निशानेबाज़ की तरह मन को साधकर बोला — अगर तुम चाहते हो कि हमारी बेइज़्ज़ती हो और तुम चैन से बैठो, तो यह न होगा। तुम अपने दो सौ को रोते हो। यहाँ लाख रुपए की आबरू बिगड़ गयी। तुम्हारी कुशल इसी में है कि जैसे झुनिया को घर में रखा था, वैसे ही घर से उसे निकाल दो, फिर न हम बैल माँगेंगे, न गाय का दाम माँगेंगे। उसने हमारी नाक कटवाई है, तो मैं भी उसे ठोकरें खाते देखना चाहता हूँ। वह यहाँ रानी बनी बैठी रहे, और हम मुँह में कालिख लगाये उसके नाम को रोते रहें, यह नहीं देख सकता। वह मेरी बेटी है, मैंने उसे गोद में खिलाया है, और भगवान् साखी है, मैंने उसे कभी बेटों से कम नहीं समझा; लेकिन आज उसे भीख माँगते और घूर पर दाने चुनते देखकर मेरी छाती सीतल हो जायगी। जब बाप होकर मैंने अपना हिरदा इतना कठोर बना लिया है, तब सोचो, मेरे दिल पर कितनी बड़ी चोट लगी होगी। इस मुँहजली ने सात पुस्त का नाम डुबा दिया। और तुम उसे घर में रखे हुए हो, यह मेरी छाती पर मूँग दलना नहीं तो और क्या है! धनिया ने जैसे पत्थर की लकीर खींचते हुए कहा — तो महतो मेरी भी सुन लो। जो बात तुम चाहते हो, वह न होगी, सौ जनम न होगी। झुनिया हमारी जान के साथ है। तुम बैल ही तो ले जाने को कहते हो, ले जाओ; अगर इससे तुम्हारी कटी हुई नाक जुड़ती हो, तो जोड़ लो; पुरखों की आबरू बचती हो, तो बचा लो। झुनिया से बुराई ज़रूर हुई। जिस दिन उसने मेरे घर में पाँव रखा, मैं झाड़ू लेकर मारने उठी थी; लेकिन जब उसकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे, तो मुझे उस पर दया आ गयी। तुम अब बूढ़े हो गये महतो! पर आज भी तुम्हें सगाई की धुन सवार है। फिर वह तो अभी बच्चा है। भोला ने अपील भरी आँखों से होरी को देखा — सुनते हो होरी इसकी बातें! अब मेरा दोस नहीं। मैं बिना बैल लिये न जाऊँगा।
होरी ने दृढ़ता से कहा — ले जाओ। ‘ फिर रोना मत कि मेरे बैल खोल ले गये! ‘ ‘ नहीं रोऊँगा। ‘ भोला बैलों की पगहिया खोल ही रहा था कि झुनिया चकतियोंदार साड़ी पहने, बच्चे को गोद में लिये, बाहर निकल आयी और किम्पत स्वर में बोली — काका, लो मैं इस घर से निकल जाती हूँ और जैसी तुम्हारी मनोकामना है, उसी तरह भीख माँगकर अपना और बच्चे का पेट पालूँगी, और जब भीख भी न मिलेगी, तो कहीं डूब मरूँगी। भोला खिसियाकर बोला — दूर हो मेरे सामने से। भगवान् न करे मुझे फिर तेरा मुँह देखना पड़े। कुलिच्छनी, कुल-कलंकिनी कहीं की। अब तेरे लिए डूब मरना ही उचित है। झुनिया ने उसकी ओर ताका भी नहीं। उसमें वह क्रोध था, जो अपने को खा जाना चाहता है, जिसमें हिंसा नहीं, आत्मसमर्पण है। धरती इस वक़्त मुँह खोलकर उसे निगल लेती, तो वह कितना धन्य मानती! उसने आगे क़दम उठाया। लेकिन वह दो क़दम भी न गयी थी कि धनिया ने दौड़कर उसे पकड़ लिया और हिंसा-भरे स्नेह से बोली — तू कहाँ जाती है बहू, चल घर में। यह तेरा घर है, हमारे जीते भी और हमारे मरने के पीछे भी। डूब मरे वह, जिसे अपनी सन्तान से बैर हो। इस भले आदमी को मुँह से ऐसी बात कहते लाज नहीं आती। मुझ पर धौंस जमाता है नीच! ले जा, बैलों का रकत पी … झुनिया रोती हुई बोली — अम्माँ, जब अपना बाप होके मुझे धिक्कार रहा है, तो मुझे डूब ही मरने दो। मुझ अभागिनी के कारन तो तुम्हें दुःख ही मिला। जब से आयी, तुम्हारा घर मिट्टी में मिल गया। तुमने इतने दिन मुझे जिस परेम से रखा, माँ भी न रखती। भगवान् मुझे फिर जनम दें; तो तुम्हारी कोख से दें, यही मेरी अभिलाषा है। |
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