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Old 12-07-2013, 02:33 PM   #101
VARSHNEY.009
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Default Re: व्यंग्य सतसई

अश्लील
हरिशंकर परसाई








शहर में ऐसा शोर था कि अश्*लील साहित्*य का बहुत प्रचार हो रहा है। अखबारों में समाचार और नागरिकों के पत्र छपते कि सड़कों के किनारे खुलेआम अश्*लील पुस्*तकें बिक रही हैं।
दस-बारह उत्*साही समाज-सुधारक युवकों ने टोली बनाई और तय किया कि जहाँ भी मिलेगा हम ऐसे साहित्*य को छीन लेंगे और उसकी सार्वजनिक होली जलाएँगे।
उन्*होंने एक दुकान पर छापा मारकर बीच-पच्*चीस अश्*लील पुस्*तकें हाथों में कीं। हरके के पास दो या तीन किताबें थीं। मुखिया ने कहा - आज तो देर हो गई। कल शाम को अखबार में सूचना देकर परसों किसी सार्वजनिक स्*थान में इन्*हें जलाएँगे। प्रचार करने से दूसरे लोगों पर भी असर पड़ेगा। कल शाम को सब मेरे घर पर मिलो। पुस्*तकें में इकट्ठी अभी घर नहीं ले जा सकता। बीस-पच्*चीस हैं। पिताजी और चाचाजी हैं। देख लेंगे तो आफत हो जाएगी। ये दो-तीन किताबें तुम लोग छिपाकर घर ले जाओ। कल शाम को ले आना।
दूसरे दिन शाम को सब मिले पर किताबें कोई नहीं लाया था। मुखिया ने कहा - किताबें दो तो मैं इस बोरे में छिपाकर रख दूँ। फिर कल जलाने की जगह बोरा ले चलेंगे।
किताब कोई लाया नहीं था।
एक ने कहा - कल नहीं, परसों जलाना। पढ़ तो लें।
दूसरे ने कहा - अभी हम पढ़ रहे हैं। किताबों को दो-तीन बाद जला देना। अब तो किताबें जब्*त ही कर लीं।
उस दिन जलाने का कार्यक्रम नहीं बन सका। तीसरे दिन फिर किताबें लेकर मिलने का तय हुआ।
तीसरे दिन भी कोई किताबें नहीं लाया।
एक ने कहा - अरे यार, फादर के हाथ किताबें पड़ गईं। वे पढ़ रहे हैं।
दसरे ने कहा - अंकिल पढ़ लें, तब ले आऊँगा।
तीसरे ने कहा - भाभी उठाकर ले गई। बोली की दो-तीन दिनों में पढ़कर वापस कर दूँगी।
चौथे ने कहा - अरे, पड़ोस की चाची मेरी गैरहाजिर में उठा ले गईं। पढ़ लें तो दो-तीन दिन में जला देंगे।
अश्*लील पुस्*तकें कभी नहीं जलाई गईं। वे अब अधिक व्*यवस्थित ढंग से पढ़ी जा रही हैं।
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Old 12-07-2013, 02:34 PM   #102
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Default Re: व्यंग्य सतसई

अपील का जादू
हरिशंकर परसाई








एक देश है! गणतंत्र है! समस्याओं को इस देश में झाड़-फूँक, टोना-टोटका से हल किया जाता है! गणतंत्र जब कुछ चरमराने लगता है, तो गुनिया बताते हैं कि राष्ट्रपति की बग्घी के कील-काँटे में कुछ गड़बड़ आ गई है। राष्ट्रपति की बग्घी की मरम्मत कर दी जाती है और गणतंत्र ठीक चलने लगता है। सारी समस्याएँ मुहावरों और अपीलों से सुलझ जाती हैं। सांप्रदायिकता की समस्या को इस नारे से हल कर लिया गया - हिंदू-मुस्लिम, भाई-भाई!
एक दिन कुछ लोग प्रधानमंत्री के पास यह शिकायत करने गए कि चीजों की कीमतें बहुत बढ़ गई हैं। प्रधानमंत्री उस समय गाय के गोबर से कुछ प्रयोग कर रहे थे, वे स्वमूत्र और गाय के गोबर से देश की समस्याओं को हल करने में लगे थे। उन्होंने लोगों की बात सुनी, चिढ़कर कहा - आप लोगों को कीमतों की पड़ी है! देख नहीं रहे हो, मैं कितने बड़े काम में लगा हूँ। मैं गोबर में से नैतिक शक्ति पैदा कर रहा हूँ। जैसे गोबर गैस ‘वैसे गोबर नैतिकता’। इस नैतिकता के प्रकट होते ही सब कुछ ठीक हो जाएगा। तीस साल के कांग्रेसी शासन ने देश की नैतिकता खत्म कर दी है। एक मुँहफट आदमी ने कहा - इन तीस में से बाइस साल आप भी कांग्रेस के मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री रहे हैं, तो तीन-चौथाई नैतिकता तो आपने ही खत्म की होगी! प्रधान मंत्री ने गुस्से से कहा - बको मत, तुम कीमतें घटवाने आए हो न! मैं व्यापारियों से अपील कर दूँगा। एक ने कहा - साहब, कुछ प्रशासकीय कदम नहीं उठाएँगे? दूसरे ने कहा - साहब, कुछ अर्थशास्त्र के भी नियम होते हैं।
प्रधानमंत्री ने कहा - मेरा विश्वास न अर्थशास्त्र में है, न प्रशासकीय कार्यवाही में, यह गांधी का देश है, यहाँ हृदय परिवर्तन से काम होता है। मैं अपील से उनके दिलों में लोभ की जगह त्याग फिट कर दूँगा। मैं सर्जरी भी जानता हूँ। रेडियो से प्रधानमंत्री ने व्यापारियों से अपील कर दी - व्यापारियों को नैतिकता का पालन करना चाहिए। उन्हें अपने हृदय में मानवीयता को जगाना चाहिए। इस देश में बहुत गरीब लोग हैं। उन पर दया करनी चाहिए। अपील से जादू हो गया। दूसरे दिन शहर के बड़े बाजार में बड़े-बड़े बैनर लगे थे - व्यापारी नैतिकता का पालन करेंगे। मानवता हमारा सिद्धांत है। कीमतें एकदम घटा दी गई हैं। जगह-जगह व्यापारी नारे लगा रहे थे - नैतिकता! मानवीयता! वे इतने जोर से और आक्रामक ढंग से ये नारे लगा रहे थे कि लगता था, चिल्ला रहे हैं -हरामजादे! सूअर के बच्चे!
गल्ले की दुकान पर तख्ती लगी थी - गेहूँ सौ रुपए क्विंटल! ग्राहक ने आँखें मल, फिर पढ़ा। फिर आँखें मलीं फिर पढ़ा। वह आँखें मलता जाता। उसकी आँखें सूज गईं, तब उसे भरोसा हुआ कि यही लिखा है। उसने दुकानदार से कहा - क्या गेहूँ सौ रुपए क्विंटल कर दिया? परसों तक दो सौ रुपए था। सेठ ने कहा - हाँ, अब सौ रुपए के भाव देंगे। ग्राहक ने कहा - ऐसा गजब मत कीजिए। आपके बच्चे भूखे मर जाएँगे। सेठ ने कहा - चाहे जो हो जाए, मैं अपना और परिवार का बलिदान कर दूँगा, पर कीमत नहीं बढ़ाऊँगा। नैतिकता, मानवीयता का तकाजा है।
ग्राहक गिड़गिड़ाने लगा - सेठजी, मेरी लाज रख लो। दो सौ पर ही दो। मैं पत्नी से दो सौ के हिसाब से लेकर आया हूँ, सौ के भाव से ले जाऊँगा, तो वह समझेगी कि मैंने पैसे उड़ा दिए और गेहूँ चुरा कर लाया हूँ। सेठ ने कहा - मैं किसी भी तरह सौ से ऊपर नहीं बढ़ाऊँगा। लेना हो तो लो, वरना भूखों मरो। दूसरा ग्राहक आया। वह अक्खड़ था। उसने कहा - ऐ सेठ, यह क्या अंधेर मचा रखा है, भाव बढ़ाओ वरना ठीक कर दिए जाओगे। सेठ ने जवाब दिया - मैं धमकी से डरने वाला नहीं हूँ। तुम मुझे काट डालो; पर मैं भाव नहीं बढ़ाऊँगा। नैतिकता, मानवीयता भी कोई चीज है। एक गरीब आदमी झोला लिए दुकान के सामने खड़ा था। दुकानदार आया और उसे गले लगाने लगा। गरीब आदमी डर से चिल्लाया - अरे, मार डाला! बचाओ! बचाओ! सेठ ने कहा - तू इतना डरता क्यों है?
गरीब ने कहा - तुम मुझे दबोच जो रहे हो! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? सेठ ने कहा - अरे भाई, मैं तो तुझसे प्यार कर रहा हूँ। प्रधान मंत्री ने मानवीयता की अपील की है न! एक दुकान पर ढेर सारे चाय के पैकेट रखे थे। दुकान के सामने लगी भीड़ चिल्ला रही थी - चाय को छिपाओ। हमें इतनी खुली चाय देखने की आदत नहीं है। हमारी आँखें खराब हो जाएँगी। उधर से सेठ चिल्लाया - मैं नैतिकता में विश्वास करता हूँ। चाय खुली बेचूँगा और सस्ती बेचूँगा। कालाबाजार बंद हो गया है।
एक मध्यमवर्गीय आदमी बाजार से निकला। एक दुकानदार ने उसका हाथ पकड़ लिया। उस आदमी ने कहा - सेठजी, इस तरह बाजार से बेइज्जत क्यों करते हो! मैंने कह तो दिया कि दस तारीख को आपकी उधारी चुका दूँगा। सेठ ने कहा - अरे भैया, पैसे कौन माँगता है? जब मर्जी हो, दे देना। चलो, दुकान पर चलो। कुछ शक्कर लेते जाओ। दो रुपए किलो।
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अपनी अपनी बीमारी
हरिशंकर परसाई








हम उनके पास चंदा माँगने गए थे। चंदे के पुराने अभ्यासी का चेहरा बोलता है। वे हमें भाँप गए। हम भी उन्हें भाँप गए। चंदा माँगनेवाले और देनेवाले एक-दूसरे के शरीर की गंध बखूबी पहचानते हैं। लेनेवाला गंध से जान लेता है कि यह देगा या नहीं। देनेवाला भी माँगनेवाले के शरीर की गंध से समझ लेता है कि यह बिना लिए टल जाएगा या नहीं। हमें बैठते ही समझ में आ गया कि ये नहीं देंगे। वे भी शायद समझ गए कि ये टल जाएँगे। फिर भी हम दोनों पक्षों को अपना कर्तव्य तो निभाना ही था। हमने प्रार्थना की तो वे बोले - आपको चंदे की पड़ी है, हम तो टैक्सों के मारे मर रहे हैं। सोचा, यह टैक्स की बीमारी कैसी होती है। बीमारियाँ बहुत देखी हैं - निमोनिया, कालरा, कैंसर; जिनसे लोग मरते हैं। मगर यह टैक्स की कैसी बीमारी है जिससे वे मर रहे थे! वे पूरी तरह से स्वस्थ और प्रसन्न थे। तो क्या इस बीमारी में मजा आता है ? यह अच्छी लगती है जिससे बीमार तगड़ा हो जाता है। इस बीमारी से मरने में कैसा लगता होगा ?
अजीब रोग है यह। चिकित्सा-विज्ञान में इसका कोई इलाज नहीं है। बड़े से बड़े डॉक्टर को दिखाइए और कहिए - यह आदमी टैक्स से मर रहा है। इसके प्राण बचा लीजिए। वह कहेगा - इसका हमारे पास कोई इलाज नहीं है। लेकिन इसके भी इलाज करनेवाले होते हैं, मगर वे एलोपैथी या होमियोपैथी पढ़े नहीं होते। इसकी चिकित्सा पद्धति अलग है। इस देश में कुछ लोग टैक्स की बीमारी से मरते हैं और काफी लोग भुखमरी से।
टैक्स की बीमारी की विशेषता यह है कि जिसे लग जाए वह कहता है - हाय, हम टैक्स से मर रहे हैं। और जिसे न लगे वह कहता है - हाय, हमें टैक्स की बीमारी ही नहीं लगती। कितने लोग हैं कि जिनकी महत्त्वाकांक्षा होती है कि टैक्स की बीमारी से मरें, पर मर जाते हैं निमोनिया से। हमें उन पर दया आई। सोचा, कहें कि प्रापर्टी समेत यह बीमारी हमें दे दीजिए। पर वे नहीं देते। यह कमबख्त बीमारी ही ऐसी है कि जिसे लग जाए, उसे प्यारी हो जाती है।
मुझे उनसे ईर्ष्या हुई। मैं उन जैसा ही बीमार होना चाहता हूँ। उनकी तरह ही मरना चाहता हूँ। कितना अच्छा होता अगर शोक-समाचार यों छपता - बड़ी प्रसन्नता की बात है कि हिंदी के व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई टैक्स की बीमारी से मर गए। वे हिंदी के प्रथम लेखक हैं जो इस बीमारी से मरे। इस घटना से समस्त हिंदी संसार गौरवान्वित है। आशा है आगे भी लेखक इसी बीमारी से मरेंगे ! मगर अपने भाग्य में यह कहाँ ? अपने भाग्य में तो टुच्ची बीमारियों से मरना लिखा है।
उनका दुख देखकर मैं सोचता हूँ, दुख भी कैसे-कैसे होते हैं। अपना-अपना दुख अलग होता है। उनका दुख था कि टैक्स मारे डाल रहे हैं। अपना दुख है कि प्रापर्टी नहीं है जिससे अपने को भी टैक्स से मरने का सौभाग्य प्राप्त हो। हम कुल 50 रु. चंदा न मिलने के दुख में मरे जा रहे थे।
मेरे पास एक आदमी आता था, जो दूसरों की बेईमानी की बीमारी से मरा जाता था। अपनी बेईमानी प्राणघातक नहीं होती, बल्कि संयम से साधी जाए तो स्वास्थ्यवर्द्धक होती है। कई पतिव्रताएँ दूसरी औरतों के कुलटापन की बीमारी से परेशान रहती हैं। वह आदर्श प्रेमी आदमी था। गांधीजी के नाम से चलनेवाले किसी प्रतिष्ठान में काम करता था। मेरे पास घंटो बैठता और बताता कि वहाँ कैसी बेईमानी चल रही है। कहता, युवावस्था में मैंने अपने को समर्पित कर दिया था। किस आशा से इस संस्था में गया और क्या देख रहा हूँ। मैंने कहा - भैया, युवावस्था में जिनने समर्पित कर दिया वे सब रो रहे हैं। फिर तुम आदर्श लेकर गए ही क्यों ? गांधीजी दुकान खोलने का आदेश तो मरते-मरते दे नहीं गए थे। मैं समझ गया, उसके कष्ट को। गांधीजी का नाम प्रतिष्ठान में जुड़ा होने के कारण वह बेईमानी नहीं कर पाता था और दूसरों की बेईमानी से बीमार था। अगर प्रतिष्ठान का नाम कुछ और हो जाता तो वह भी औरों जैसा करता और स्वस्थ रहता। मगर गांधीजी ने उसकी जिंदगी बरबाद की थी। गांधीजी विनोबा जैसों की जिंदगी बरबाद कर गए। बड़े-बड़े दुख हैं ! मैं बैठा हूँ। मेरे साथ 2-3 बंधु बैठे हैं। मैं दुखी हूँ। मेरा दुख यह है कि मुझे बिजली का 40 रु. का बिल जमा करना है और मेरे पास इतने रुपए नहीं हैं।
तभी एक बंधु अपना दुख बताने लगता है। उसने 8 कमरों का मकान बनाने की योजना बनाई थी। 6 कमरे बन चुके हैं। 2 के लिए पैसे की तंगी आ गई है। वह बहुत-बहुत दुखी है। वह अपने दुख का वर्णन करता है। मैं प्रभावित नहीं होता। मगर उसका दुख कितना विकट है कि मकान को 6 कमरों का नहीं रख सकता। मुझे उसके दुख से दुखी होना चाहिए, पर नहीं हो पाता। मेरे मन में बिजली के बिल के 40 रु. का खटका लगा है।
दूसरे बंधु पुस्तक-विक्रेता हैं। पिछले साल 50 हजार की किताबें पुस्तकालयों को बेची थीं। इस साल 40 हजार की बिकीं। कहते हैं - बड़ी मुश्किल है। सिर्फ 40 हजार की किताबें इस साल बिकीं। ऐसे में कैसे चलेगा ? वे चाहते हैं, मैं दुखी हो जाऊँ, पर मैं नहीं होता। इनके पास मैंने अपनी 100 किताबें रख दी थीं। वे बिक गईं। मगर जब मैं पैसे माँगता हूँ, तो वे ऐसे हँसने लगते हैं जैसे मैं हास्यरस पैदा कर रहा हूँ। बड़ी मुसीबत है व्यंग्यकार की। वह अपने पैसे माँगे, तो उसे भी व्यंग्य-विनोद में शामिल कर लिया जाता है। मैं उनके दुख से दुखी नहीं होता।
मेरे मन में बिजली कटने का खटका लगा हुआ है। तीसरे बंधु की रोटरी मशीन आ गई। अब मोनो मशीन आने में कठिनाई आ गई है। वे दुखी हैं। मैं फिर दुखी नहीं होता। अंतत: मुझे लगता है कि अपने बिजली के बिल को भूलकर मुझे इन सबके दुख में दुखी हो जाना चाहिए। मैं दुखी हो जाता हूँ। कहता हूँ - क्या ट्रेजडी है मनुष्य-जीवन की कि मकान कुल 6 कमरों का रह जाता है। और कैसी निर्दय यह दुनिया है कि सिर्फ 40 हजार की किताबें खरीदती है। कैसा बुरा वक्त आ गया है कि मोनो मशीन ही नहीं आ रही है।
वे तीनों प्रसन्न हैं कि मैं उनके दुःखों से आखिर दुखी हो ही गया।
तरह-तरह के संघर्ष में तरह-तरह के दुख हैं। एक जीवित रहने का संघर्ष है और एक संपन्नता का संघर्ष है। एक न्यूनतम जीवन-स्तर न कर पाने का दुख है, एक पर्याप्त संपन्नता न होने का दुख है। ऐसे में कोई अपने टुच्चे दुखों को लेकर कैसे बैठे ?
मेरे मन में फिर वही लालसा उठती है कि वे सज्जन प्रापर्टी समेत अपनी टैक्सों की बीमारी मुझे दे दें और मैं उससे मर जाऊँ। मगर वे मुझे यह चांस नहीं देंगे। न वे प्रापर्टी छोड़ेंगे, न बीमारी, और मुझे अंततः किसी ओछी बीमारी से ही मरना होगा।
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आडवाणी के लिए दो शब्द
राजकिशोर








कहा जाता है कि वह राजनेता उतना ही बड़ा होता है, जो जितना बड़ा ख्वाब देखता है। जवाहरलाल नेहरू से ले कर राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण तक की पीढ़ी ख्वाब देखते-देखते गुजर गई। पता नहीं इनमें कौन कितना बड़ा राजनेता था। जब कोई नेता अपने जीवन काल में अपना ख्वाब पूरा नहीं कर पाता, तो उसका कर्तव्य होता है कि वह उस ख्वाब को अगली पीढ़ी में ट्रांसफर कर दे। इनमें सबसे ज्यादा सफल नेहरू ही हुए। लोहिया और जयप्रकाश के उत्तराधिकारी लुंपेन बन गए। कुछ का कहना है कि वे शुरू से ही ऐसे थे, पर अपने को साबित करने का पूरा मौका उन्हें बाद में मिला। पर नेहरू का ख्वाब आज भी देश पर राज कर रहा है। नेहरू ने आधुनिक भारत का निर्माण किया था। हम आधुनिकतम भारत का निर्माण कर रहे हैं। सुनते हैं, इस बार के चुनाव का प्रमुख मुद्दा है, विकास। नेहरू का मुद्दा भी यही था। इसी मुद्दे पर चलते-चलते कांग्रेस के घुटने टूट गए। अब फिर वह दौड़ लगाने को तैयार है।
इस देश के सबसे बड़े और संगठित ख्वाब देखनेवाले कम्युनिस्ट थे। उनका ख्वाब एक अन्तरराष्ट्रीय ख्वाब से जुड़ा हुआ था। इसलिए वह वास्तव में जितना बड़ा था, देखने में उससे काफी बड़ा लगता था। यह ख्वाब कई देशों में यथार्थ बन चुका था, इसलिए इसकी काफी इज्जत थी। लेकिन जब तेलंगाना में असली आजादी के लिए संघर्ष शुरू हुआ, तो नेहरू के ख्वाब ने उसे कुचल दिया। तब का दर्द आज तक कम्युनिस्ट ख्वाब को दबोचे हुए है। किताब में कुछ लिख रखा है, पर मुँह से निकलता कुछ और है। कम्युनिस्टों के दो बड़े नेता - एक प. बंगाल में और दूसरा केरल में - एक नया ख्वाब देख रहे हैं। समानता के ख्वाब को परे हटा कर वे संपन्नता का ख्वाब देखने में लगे हुए हैं। ईश्वर उनकी सहायता करे, क्योंकि जनता का सहयोग उन्हें नहीं मिल पा रहा है।
बाबा साहब आंबेडकर ने भी एक ख्वाब देखा था। यह ख्वाब अभी भी फैशन में है। पर सिर्फ बुद्धिजीवियों में। राजनीति में इस ख्वाब ने एक ऐसी जिद्दी महिला को जन्म दिया है, जिसका अपना ख्वाब कुछ और है। वे आंबेडकर की मूर्तियाँ लगवाती हैं, गाँवों के साथ उनका नाम जोड़ देती हैं, उनके नाम पर तरह-तरह के आयोजन करती रहती हैं। पर उन्होंने कसम खाई हुई है कि आंबेडकर वास्तव में क्या चाहते थे, यह पता लगाने की कोशिश मैं कभी नहीं करूँगी। इसके लिए आंबेडकर साहित्य पढ़ना होगा और आजकल किस नेता के पास साहित्य पढ़ने का समय है? फिर इस जिद्दी महिला का ख्वाब क्या है? इस बारे में क्या लिखना! बच्चों से लेकर बड़ों तक सभी जानते हैं। सबसे ज्यादा वे जानते हैं, जो तीसरा मोर्चा नाम का चिड़ियाघर बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं।
हिन्दू राष्ट्र के दावेदारों ने भी एक ख्वाब देखा था। उनका ख्वाब काफी पुराना है। जब बाकी लोग आजादी के लिए लड़ रहे थे, तब वे एक छोटा-सा घर बनाकर अपने ख्वाब के भ्रूण का पालन-पोषण कर रहे थे। उनकी रुचि स्वतंत्र भारत में नहीं, हिन्दू भारत में थी। वैसे ही जैसे लीगियों की दिलचस्पी आजाद हिन्दुस्तान में नहीं, मुस्लिम पाकिस्तान में थी। हिन्दूवादी स्वतंत्र भारत के संविधान को ठेंगा दिखाने में लगे हुए हैं। लीगियों ने आजादी के पहले खून बहाया था, संघियों ने आजादी के बाद खून बहाया। शुरू में उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली। वे सिर्फ अपना विचार फैला सके। बाद में जब भारतवाद कमजोर पड़ने लगा, तब हिन्दूवाद के खूनी पंजे भगवा दस्तानों से निकल आए। कोई-कोई अब भी दस्तानों का इस्तेमाल करते हैं, पर उनके भीतर छिपे हाथों का रंग दूर से ही दिखाई देता है।
अब कोई बड़ा ख्वाब देखने का समय नहीं रहा। कुछ विद्वानों का कहना है कि महास्वप्नों का युग विदा हुआ, यह लघु आख्यानों का समय है। भारत में इस समय लघु आख्यान का एक ही मतलब है, प्रधानमंत्री का पद। मंत्री तो गधे भी बन जाते हैं, घोड़े प्रधानमंत्री पद के लिए दौड़ लगाते हैं। अभी तक हम इस पद के लिए दो ही तीन गंभीर उम्मीदवारों को जानते थे। अब महाराष्ट्र से, बिहार से, उड़ीसा से, उत्तर प्रदेश से - जिधर देखो, उधर से उम्मीदवार उचक-उचक कर सामने आने लगे हैं। यह देख कर मुझे लालकृष्ण आडवाणी से बहुत सहानुभूति होने लगी है। बेचारे कब से नई धोती और नया कुरता पहन कर ड्राइंग रूम में बैठे हुए हैं। इस बार तो उनके इस्तेमाल का मौका नजदीक आते दिखाई नहीं देता। बल्कि रोज एकाध किलोमीटर दूर चला जाता है। चूँकि मैं सभी का और इस नाते उनका भी शुभचिंतक हूँ, इसलिए आडवाणी को प्रधानमंत्री बनने का आसान नुस्खा बता देना चाहता हूँ। इसके लिए सिर्फ दो शब्द काफी हैं-पीछे मुड़ (अबाउट टर्न)। सर, सम्प्रदायवाद, हिन्दू राष्ट्र वगैरह खोटे सिक्कों को सबसे नजदीक के नाले में फेंक दीजिए। आम जनता की भलाई की राजनीति कीजिए। अगली बार आपको प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक नहीं सकेगा।
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इस्तीफे ही इस्तीफे
राजकिशोर








हाजी साहब घूमते ही रहते हैं, तो पंडित जी घर से कम ही निकलते हैं। कहते हैं, दुनिया बहुत देख चुका, अब उसे समझने की कोशिश कर रहा हूँ। जैसे हाजी साहब ने हज नहीं किया है और हम लोगों ने श्रद्धावश उन्हें हाजी बना दिया है, उसी तरह पंडित जी भी ब्राह्मण नहीं हैं और हम लोग उनके ज्ञान और उससे अधिक उनकी जिज्ञासा वृत्ति का आदर करने के लिए उन्हें पंडित जी कहते हैं। कल रात हैदराबाद से हाजी साहब का फोन आया कि क्या तुम्हें सचमुच लगता है कि मनमोहन सिंह इस्तीफा दे देंगे, तो मैंने कहा कि आज तक तो उन्होंने किसी पद से इस्तीफा दिया नहीं, फिर वे प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा कैसे दे सकते हैं? हाजी साहब ने तपाक से कहा, बेटा, तुम रहते दिल्ली में हो, पर दिल्ली की नब्ज नहीं पहचानते। भारत की राजनीति अब एक नए दौर में प्रवेश कर रही है। ऐसी-ऐसी घटनाएँ होनेवाली हैं कि देखते रह जाओगे। मेरी उत्सुकता बढ़ी। मैंने सोचा कि जरा पंडित जी से बातचीत कर देखूँ, वे क्या सोचते हैं।
पंडित जी के यहाँ पहुँचा, तो वे कुछ लिखने में व्यस्त थे। मैंने पूछा, क्या किसी अखबार के लिए लेख लिख रहे हैं? पंडित जी मुसकराए। बोले, लेख-वेख लिखना बच्चों का काम है। इससे उनका मन बहलता रहता है। वे सोचते हैं कि हमने परिस्थिति में हस्तक्षेप कर दिया। लेखों के आधार पर भारत सरकार नहीं चलती। मैंने चुहल की, क्या इसीलिए कोसल में विचारों की कमी है? पंडित जी ने मुझे बैठने का संकेत करते हुए कहा, कोसल में विचारों की कमी नहीं, अधिकता है। लेकिन ये दूसरी तरह के विचार हैं। परमाणु करार भी ऐसा ही एक अधिक विचार है। इस विचार को देश ने स्वीकार नहीं किया, तो प्रधानमंत्री इस्तीफा भी दे सकते हैं। मेरा सवाल था - देश से आपका अभिप्राय क्या है? परमाणु करार के बारे में तो देश की राय ही नहीं ली जा रही है। देश को तो ठीक से पता भी नहीं है कि इस करार में क्या-क्या बातें हैं। पंडित जी ने स्पष्ट किया, इस समय तो वामपंथ ही देश है। वही देश की अंतरात्मा का प्रतिनिधित्व कर रहा है। तभी तो मनमोहन जी उसी को राजी कराने में लगे हैं। अन्य दलों को तो वे पूछते भी नहीं हैं। न इस विषय पर सर्वदलीय बैठक बुलाते हैं। ऐसा लगता है कि परमाणु करार की वकत महिला आरक्षण विधेयक से भी कम है। महिला आरक्षण विधेयक पर कई बार सर्वदलीय बैठक हो चुकी है, पर परमाणु करार पर सिर्फ यूपीए ही गुत्थमगुत्था है। यह करार क्या सत्तारूढ़ गठबंधन का आंतरिक मामला है या इसका संबंध संसद में मौजूद दूसरे राजनीतिक संगठनों से भी है? जिस मुद्दे पर विफल होने पर प्रधानमंत्री इस्तीफा तक देने की बात सोच सकते हैं, वह मुद्दा मामूली नहीं हो सकता। वह राष्ट्रीय मुद्दा है। उसके साथ राष्ट्रीय ट्रीटमेंट होना चाहिए।
पंडित जी से सहमत न हो पाना अकसर मुश्किल होता है। मैंने जानना चाहा, बात तो आपकी जँच रही है, पर आप लिख क्या रहे थे, यह तो बताइए। उन्होंने कहा, मैं इस्तीफे लिख रहा था। मेरा कुतूहल बढ़ा, इस्तीफे? आप तो कभी किसी पद पर रहे नहीं। फिर इस्तीफा किससे देंगे? पंडित जी हँसने लगे, अपने लिए नहीं, मनमोहन सिंह के लिए लिख रहा था। जब देश का प्रधानमंत्री संकट में हो, तो नागरिक का फर्ज बनता है कि उसकी सहायता करे। मैं यही कर रहा था। तो आप प्रधानमंत्री के इस्तीफे का ड्राफ्ट तैयार कर रहे थे, मैंने जानना चाहा। उन्होंने कहा, इस्तीफा नहीं, इस्तीफे। मैं उन्हें कई इस्तीफे भेजने जा रहा हूँ। इनमें से जो अच्छा लगे, उसे वह स्वीकार कर लें।
थोड़ा रुक कर पंडित जी ने स्पष्ट किया - एक इस्तीफा तो परमाणु करार को लेकर है ही। इसमें लिखा गया है कि चूँकि इस मुद्दे पर मैं अकेला पड़ गया हूँ, इसलिए इस्तीफा दे रहा हूँ। मैंने 'एकला चलो रे' का महत्व रवींद्रनाथ टैगोर से सीखा है। दूसरा इस्तीफा महँगाई को ले कर है। इसमें कहा गया है कि स्वयं अर्थशास्त्री होते हुए भी मैं महँगाई को बढ़ने से रोक नहीं पा रहा हूँ, इसलिए मेरी अंतरात्मा मुझे धिक्कार रही है। कीमतें जिस तरह बढ़ती जा रही हैं, उसे देखते हुए प्रधानमंत्री पद पर मेरा बने रहना अनैतिक है। तीसरे इस्तीफे का संबंध शेयर बाजार की लगातार गिरावट से है। इसमें मनमोहन सिंह कहते हैं कि जब राव साहब प्रधानमंत्री थे, मैंने कहा था कि शेयर बाजार में क्या हो रहा है, इससे मैं अपनी रातों की नींद हराम नहीं कर सकता। लेकिन आज मैं खुद प्रधानमंत्री हूँ। शेयर बाजार की जिम्मेदारी से कैसे मुकर सकता हूँ? इसलिए मैं इस पद से इस्तीफा दे रहा हूँ। चौथा इस्तीफा...
मैंने कहा, बस, बस, इतना काफी है। अच्छा, यह बताइए, सभी इस्तीफों को मिला कर एक ही इस्तीफा बना दिया जाए, तो कैसा रहेगा?
पंडित जी का चेहरा खिल उठा। बोले, इधर तो मेरा खयाल ही नहीं गया था। अच्छा प्रस्ताव है। प्रधानमंत्री इसे मान लेंगे, तो वे भारत के इतिहास में अमर हो जाएँगे।
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आवश्यकता है
राजकिशोर








जल्द ही मार्केट में उतर रहे एक समाचार चैनल के लिए उदीयमान और सु-उदित पत्रकारों की घोर आवश्यकता है। इस समाचार चैनल में पैसा दिल्ली के एक बड़े बिल्डर, कुछ प्रॉपटी डीलरों और एक भाजपा नेता ने लगाया है। ऐसे पत्रकारों को वरीयता दी जाएगी, जो इन वित्त पोषकों के माध्यम से अप्रोच करेंगे। इन वित्त पोषकों के नामों की ओर यहाँ कोई इशारा नहीं किया जा रहा है। इसके माध्यम से हम उम्मीदवारों की खोजी पत्रकारिता के स्तर की परीक्षा लेना चाहते हैं। जो उम्मीदवार स्वतंत्र रूप से अप्लाई करेंगे, उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे उम्र, योग्यता और गुणों की निम्नलिखित कसौटियों पर पूरी तरह खरे उतरेंगे। जिनमें कोई कमी है, उनसे निवेदन है कि वे उचित सोर्स लगाए बिना अप्लाई न करें - ऐसे उम्मीदवारों के आवेदन पत्र को बिना विचारे रिजेक्ट कर दिया जाएगा।
उम्र : आवेदकों की उम्र 20 वर्ष से 35 वर्ष तक होनी चाहिए। महिला उम्मीदवारों को न्यूनतम उम्र में अधिकतम पाँच वर्ष की छूट दी जाएगी। यानी महिला उम्मीदवारों के लिए कम से कम 15 वर्ष का होना जरूरी है। अन्य गुण समान रहने पर ऐसे उम्मीदवारों को वरीयता दी जा सकती है। ऐसी महिलाएँ आवेदन करने का कष्ट न करें जो अपनी उम्र से अधिक दिखाई पड़ती हों।
रंग : उम्मीदवारों का रंग गोरा होना चाहिए। अन्य सभी योग्यताओं के रहते हुए भी ऐसे उम्मीदवारों को रिजेक्ट कर दिया जाएगा जिनका रंग साँवला होगा। कृपया ऐसे फोटाग्राफ न भेजें, जिनमें आपका असली रंग दिखाई न देता हो। ऐसा करने वाले उम्मीदवारों को हमेशा के लिए ब्लैकलिस्ट कर दिया जाएगा। महिला उम्मीदवारों के लिए आवश्यक है कि वे कम से कम दस मुद्राओं में अपनी तसवीरें भेजें।
रूप : उम्मीदवारों के लिए सुन्दर होना जरूरी है। जो इस दृष्टि से ओबीसी की श्रेणी में आते हैं, उन्हें किसी अन्य क्षेत्र में कॅरियर बनाने की कोशिश करनी चाहिए। सुन्दरता को हमारे यहाँ फैशनेबल के अर्थ में परिभाषित किया जाता है। इस परिभाषा में चेहरे-मोहरे, शरीर की बनावट आदि के साथ-साथ आधुनिकतम परिधान की समझ भी शामिल है। हेयर स्टाइल पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। जो गंजे हो चुके हैं, उन्हें बालों की वीविंग करा कर आना चाहिए। अतिरिक्त रूप से प्रतिभाशाली उम्मीदवारों को इस शीर्ष सर्जरी के लिए ज्वायन करने के बाद छह महीनों का समय दिया जा सकता है। यह समय सिर्फ उनके लिए बढ़ाया जा जाएगा जो असाधारण रूप से धूर्त और चापलूस हों। उन उम्मीदवारों को, खासकर महिला उम्मीदवारों को, वरीयता दी जाएगी जो कम से कम एक वर्ष तक मॉडलिंग के व्यवसाय में रह चुके हैं। महिला उम्मीदवारों से अपेक्षा की जाती है कि वे साक्षात्कार के दौरान अपनी इस कला का लाइव प्रदर्शन कर सकें। पुरुष उम्मीदवारों के लिए उन विज्ञापन फिल्मों की सीडी/डीवीडी लाना काफी है जिनमें उन्होंने काम किया हो।
शिक्षा : उम्मीदवारों के लिए कम से कम ग्रेजुएट तक शिक्षित होना आवश्यक है। चूँकि यह चैनल हिन्दी समाचारों का है, इसलिए इंग्लिश माध्यम से पढ़े हुए उम्मीदवारों को वरीयता दी जाएगी। जिन्हें यह सौभाग्य नहीं मिला है अर्थात जो हिन्दी माध्यम से ही पढ़ पाए हैं, उनसे अपेक्षा की जाएगी कि वे हिन्दी का उच्चारण अंग्रेजी स्टाइल में करें। एमए से अधिक योग्यता डी-मेरिट मानी जाएगी। पीएचडी किए हुए उम्मीदवारों को दरवाजे से ही वापस लौटा दिया जाएगा। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि हमारे लिए शिक्षा का अर्थ मात्र डिग्री से है। उम्मीदवारों से यह अपेक्षा की जाती है कि उन्होंने जीवन भर अखबार, पत्रिकाओं और अपने सीनियर्स के मिजाज के अलावा और कुछ न पढ़ा हो। जिस उम्मीदवार ने कोर्स के अतिरिक्त दस से ज्यादा किताबें पढ़ रखी हों, उसे टीवी के पेशे के लिए अनुपयुक्त मान कर साक्षात्कार के दौरान ही छाँट दिया जाएगा। हमारी यह दृढ़ मान्यता है कि किसी भी कर्मचारी को अपने बॉस से अधिक पढ़ा-लिखा होने का अधिकार नहीं है। पढ़े-लिखे व्यक्तियों को नियुक्त करने में यह खतरा भी निहित है कि बॉस तथा अन्य कर्मचारियों में हीनता ग्रंथि फैल सकती है।
भाषा : उम्मीदवारों को अशुद्ध लिखना, अशुद्ध पढ़ना और अशुद्ध बोलना, तीनों ही दृष्टियों से निष्णात होना चाहिए। बोलचाल की भाषा के नाम पर अंग्रेजी शब्दों को ठूँसते जाने की कला आनी चाहिए। नुक्ता सही जगह पर लगाने की योग्यता हो या नहीं, नुक्ते के प्रयोग पर आग्रह बना रहना चाहिए। स्क्रीन के पीछे अंग्रेजी गालियों पर अच्छी पकड़ आवश्यक है। सिर्फ हिन्दी जानने वालों या बातचीत में हिन्दी ही बोलने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाएगा।
वैवाहिक स्थिति : पुरुष उम्मीदवारों से विवाहित और महिला उम्मीदवारों से अविवाहित होने की आशा की जाती है। जो उम्मीदवार अपनी वास्तविक वैवाहिक स्थिति को छिपा कर रखना चाहते हैं, उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। हमारा मानना है कि विवाह एक व्यक्तिगत मामला है और इसका उस आचरण से कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए जिसे टीवी चैनलों में वांछनीय माना जाता है।
नैतिक मान्यताएँ : नैतिक बंधन इस समय देश की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा हैं। हम प्रतिभाशाली टीवी पत्रकारों से उम्मीद करते हैं कि वे नैतिक द्वंद्वों से हमेशा मुक्त रहेंगे। इन द्वंद्वों के कारण न्यूज का पर्सपेक्टिव और प्रस्तुतीकरण दोनों प्रभावित होते हैं। अगर कभी यह द्वंद्व खड़ा हो जाए कि क्या नैतिक है और क्या अनैतिक, तो इसका निर्णय नियोक्ता या उसके चमचों पर छोड़ देना चाहिए। टीवी पत्रकार को हर स्थिति में इस मत पर अडिग रहना चाहिए कि गाय काली है या सफेद, इससे हमें कोई मतलब नहीं - उसके थनों में दूध पर्याप्त होना चाहिए।
चरित्र : उम्मीदवारों में निम्नलिखित चरित्रगत विशेषताएँ जितनी अधिक मात्रा में हों, उन्हें उतना ही ज्यादा तरजीह दी जाएगी : परले दर्जे का चापलूस, मतलबी, अवसरवादी, सिद्धांतहीन, धूर्त, मूर्ख, छुपा रुस्तम, विश्वासघातक, घमंडी, नीच, दूसरों को सीढ़ी बना कर चढ़ने के बाद उन्हें भुला देने वाला, विचारहीन, दलित और मुसलिम-विरोधी, वस्तुओं के प्रति उपभोगवादी और स्त्रियों के प्रति भोगवादी दृष्टि रखने वाला, असामाजिक, बदतमीज, जूनियर्स को हमेशा दुत्कारने वाला और सीनियर्स के सामने दुम हिलाने वाला, फायदे की संभावना दिखने पर सीनियर्स को भी काट खाने वाला, चुगलखोर, बॉस को खुश रखने के लिए दिन को रात और रात को दिन बताने में सक्षम आदि।
वेतन : जूनियर्स को कम से कम और सीनियर्स को अधिक से अधिक वेतन दिया जाएगा। ट्रेनी और इंटर्न के रूप में नियुक्त किए जाने वाले उम्मीदवारों को कम से कम दो वर्ष तक वही वेतन दिया जाएगा जो अन्य चैनलों में दिया जाता है। यानी कुछ भी नहीं।
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आत्महत्या का उपयोग
राजकिशोर








वह एक खुशनुमा दिन की मनहूस शाम थी। दूर के एक शहर में अपने पुराने जिगरी दोस्त के साथ दिन बिताने के बाद हम दोनों उसके घर में बैठे शराब पी रहे थे। मनपसंद साथ हो, तो शराब का नशा बढ़ जाता है। हम दोनों उसका मजा ले रहे थे कि दोस्त अचानक रोने लगा। शुरू में मैंने सोचा कि आँसुओं से धुल कर शराब का नशा पवित्र हो जाएगा। लेकिन जब मामला खुला, तो मेरी आँखों में भी आँसू आ गए। उसने बताया कि कल ही उसने अंतिम निर्णय लिया है कि अब आत्महत्या कर ही लेनी चाहिए। वैसे तो यह विचार उसके दिमाग से साल भर से घुमड़ रहा था, पर कल उसे लगा कि अब और टालना अपने साथ बेइंसाफी होगी।
कुछ कारण मुझे पता थे। अत्यंत योग्य होने के बावजूद उसे कोई अच्छी नौकरी नहीं मिल पाई थी। पत्नी से अलगाव हो चुका था। वह पूर्ण रूप से भौतिकवादी थी। उसे सुख के साथ-साथ समृद्धि भी चाहिए थी। घर में अकसर किचकिच हो जाती। एक बार दोस्त ने तय किया कि वह नौकरी छोड़ कर तीन महीनों तक एक उपन्यास लिखेगा। उपन्यास नहीं लिखा गया तो मटरगश्ती करेगा। शादी के बाद से वह एक लगभग बँधा हुआ जीवन बिताता आया था। जिस शाम उसने अपनी इस योजना की घोषणा की, उस पूरी रात पत्नी ने उसे अपने पास फटकने नहीं दिया। उसके बाद जो कुछ हुआ, वह इतिहास है। पत्नी द्वारा परित्याग के बाद उसकी जिंदगी में दो और स्त्रियाँ आईं। पहली विवाहित थी, दूसरी तलाकशुदा। दोनों ने ही उसे निराश किया। पहली ने कम, दूसरी ने ज्यादा। जैसे कोई नदी में आगे बढ़ता जाए - इस उम्मीद में कि आगे पानी गहरा होगा, पर उतना ही पानी मिले जितना किनारे पर था। इस निराशा से उबरा तो...इसके बाद की कहानी और भी दर्दनाक है।
जब मैंने हर तरह से ठोंक-बजा कर देख लिया कि आत्महत्या के उसके इरादे को न बदला जा सकता है न टाला जा सकता है, तो पूर्व कम्युनिस्ट होने के नाते, हम बहुत ही तार्किक ढंग से विचार करने लगे कि आत्महत्या का कौन-सा तरीका बेहतर होगा। बात ही बात में मैंने उससे कहा कि अगर तुम्हें मरना ही है तो क्यों न अपनी मृत्यु को किसी सार्वजनिक काम में लगा दो। उसे यह प्रस्ताव तुरंत जम गया।
बातचीत और बहस के बीच से कई विकल्प सामने आए।
विकल्प एक : वह दिल्ली आकर किसी ब्लूलाइन बस से कुचल जाए और इस तरह दिल्ली सरकर को इसके लिए बाध्य करने का एक और कारण बने कि शहर की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को दुरुस्त किया जाए। इस पर उसने कहा कि ब्लूलाइन रोज ही एक-दो की जान ले रही है। जान ही देनी है तो क्यों न प्रधानमंत्री या सोनिया गाँधी की कार के नीचे आकर दे दूँ और मेरी लाश के कुर्ते से उन कामों की एक सूची निकले जिन्हें करने से देश की वर्तमान स्थिति में रेडिकल सुधार आ सकता है। मैंने उसे बताया कि बच्चू, यह असंभव है। बड़े नेताओं की गाड़ियाँ जब दिल्ली की सड़कों पर दौड़ती हैं तो कई किलोमीटर तक उनकी सुरक्षा व्यवस्था इतनी पुख्ता होती है कि कोई आदमजाद उन तक फटक नहीं सकता।
विकल्प दो : वह अहमदाबाद जाकर शहर के किसी प्रमुख चौराहे पर अपने को गोली मरवा ले, जिसके बाद पुलिस द्वारा मुठभेड़ हत्या का मामला बनाया जाए और मानवाधिकार आयोग में जाया जाए। इस योजना में खोट यह था कि गुजरात में ऐसे हजारों मामले पहले से लंबित हैं और केंद्र सरकार और उच्चतम न्यायालय भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं।
विकल्प तीन : वह घर में चुपचाप आत्महत्या कर ले और इस आशय का एक नोट छोड़ जाए कि मैंने तीन दिन पहले अपनी नौकरानी के साथ बलात्कार किया था, तभी से मेरी आत्मा छटपटा रही है। अपनी आत्मा पर इतना बड़ा बोझ लेकर मैं जीवित रहना नहीं चाहता। आशा है, मेरा यह कदम दूसरे बलात्कारियों के लिए एक प्रेरक उदाहरण बनेगा। यह विकल्प तो पाँच मिनट भी नहीं टिक सका। पाया गया कि बलात्कारियों के पास ऐसा हृदय होता, तो वे बलात्कार करते ही क्यों।
विकल्प चार : वह किसी जज की कार के नीचे आ जाए - यह चीखते हुए कि अदालतों में इतने ज्यादा केस पेंडिंग क्यों हैं? फिर उसके पास से परचे बरामद हों, जिनमें बताया गया हो कि देश के न्यायालयों में किस स्तर पर कितने मामले लंबित हैं और किसी भी केस के लंबा खिंचने पर मध्यवर्गीय परिवार की हालत क्या हो जाती है। यह विकल्प भी पोला साबित हुआ, क्योंकि हमारे देश की न्यायपालिका इस तरह के मुद्दों को विचार करने के योग्य नहीं मानती।
विकल्प पाँच : वह नागपुर जाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय के बाहर यह बयान जारी करने के बाद आत्मदाह कर ले कि जिस देश में आरएसएस जैसा संगठन खुले आम काम कर रहा हो, उस देश में मैं नहीं रहना चाहता। यह बहुत ही अच्छा मुद्दा था, पर मुश्किल यह थी कि इससे संघ वालों का बाल भी बाँका नहीं होगा। सरकार उनके बारे में सब कुछ जानती है, उसने सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने के विरुद्ध ढेर सारे कानून भी बनाए हुए हैं, पर संघ के किसी पदाधिकारी या कार्यकर्ता पर मुकदमा नहीं चलाया जाता।
बोतल साफ हो चुकी थी, पर हमारे सामने अभी भी धुँधलका था। हम दोनों बेहद तकलीफ में थे : यह कैसा देश है, जिसमें कोई इस तसल्ली के साथ मर भी नहीं सकता कि मेरी मृत्यु ही मेरा संदेश है?
सुबह उठा, तो मेरा प्यारा दोस्त कूच कर चुका था। बगल की मेज पर उसकी लिखावट में एक पुरजा पड़ा था - पर्सनल इज पॉलिटिकल।
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आतंकवाद की किस्में
राजकिशोर








जम्मू और कश्मीर के वर्तमान मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद और पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला एक आलीशान सोफे पर बैठे हुए थे। उनके सामने एक सुंदर कश्मीरी युवती बैठी थी। उसका नाम करीना था। उसने हाल ही में राजनीतिशास्त्र में एमए की परीक्षा दी थी और परिणाम आने तक गांधीगीरी करने की सोच रही थी। वह इन दोनों तथाकथित नेताओं से अफजल को फाँसी मिलनी चाहिए या नहीं, इस विषय पर बातचीत करने आई थी।
आजाद - मैं सभी स्तरों पर कोशिश कर रहा हूँ कि अफजल को फाँसी नहीं मिले। देखिए क्या होता है।
फारूक - बेशक। अफजल को फाँसी लग जाती है, तो यह भारत के चेहरे पर एक बदनुमा दाग होगा।
करीना - लेकिन सर, भारत के ज्यादातर लोग तो यही चाहते हैं कि अफजल को फाँसी मिलनी चाहिए।
फारूक - लोगों को छोड़िए। वे भावुक होते हैं। भेड़ की तरह चलते हैं। मैंने काफी लंबे समय तक कश्मीर के लोगों को बेवकूफ बनाया है। जब जैसे चाहा, वैसे नचाया।
करीना - सच?
फारूक - अरे नहीं, मैं तो मजाक कर रहा था। कहीं लिख मत देना।
आजाद - हमारे फारूक साहब को मजाक करना बहुत पसंद है। उन्होंने सिर्फ कश्मीर के लोगों के साथ नहीं, बल्कि...(हँसने लगते हैं)
फारूक - और जनाब आप? क्या आप कश्मीर के साथ मजाक नहीं कर रहे हैं? मुझे तो लगता है, आप इसीलिए यहाँ भेजे गए हैं। वरना कांग्रेस में समझदार लोग भी थे। (हँसी)
आजाद - आप जिन्हें समझदार बता रहे हैं, उनमें से किसकी हिम्मत है कि वह अफजल की जान बचाने की कोशिश करे?
फारूक - मैं फिर कहता हूँ, मैं आतंकवाद के पूरी तरह खिलाफ हूँ। फिर भी अफजल को फाँसी पर चढ़ा देने की ताईद नहीं कर सकता, तो इसीलिए कि इससे कुछ हल होने वाला नहीं है।
करीना - यानी आप यह कह रहे हैं कि फाँसी किसी समस्या का हल नहीं है।
फारूक - मैंने ऐसा कब कहा? मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि अफजल पर रहम किया जाए और उसे फाँसी की सजा न दी जाए।
करीना - लेकिन क्यों? अफजल में ऐसा क्या है कि उसे जिंदा देखना चाहते हैं? आखिर वह आतंकवादी है और उसने संसद भवन पर हमला करने का षड्यंत्र रचा था।
आजाद - नहीं, वह मामूली आतंकवादी नहीं है। उसके पीछे काफी लोग हैं। उसे फाँसी लग जाएगी, तो घाटी की हालत और बदतर हो जाएगी।
फारूक - बेशक। हालत और खराब हुई, तो दहशतगर्द पता नहीं और कितने लोगों को भून देंगे।
करीना - गोया आप भी दहशतगर्दी से घबरा रहे हैं?
आजाद - दहशतगर्दी से कौन नहीं घबरा रहा है? क्या आप नहीं घबरा रही हैं? फिर मैं तो सरकार चला रहा हूँ। मुझे कई पहलुओं से सोचना पड़ता है।
फारूक - जब मैं सत्ता में था, तो मुझे भी कई पहुलओं से सोचना पड़ता था।
करीना - क्या इसीलिए कश्मीर में आतंकवाद बढ़ गया?
फारूक - नहीं, नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।
आजाद - हम कई पहलुओं से न सोचें, तब भी हालात सुधरने वाले नहीं हैं।
फारूक - देखिए, भारत सरकार की जो पॉलिसी है, उसमें आतंकवाद को तो बढ़ना ही था।
आजाद - नहीं, गलती भारत सरकार की नहीं है। हम शांतिप्रिय देश हैं। सारा दोष पाकिस्तान का है। उसकी शह पर ही हमारे यहाँ आतंकवाद फल-फूल
रहा है।
करीना - इसका मतलब यह हुआ कि अफजल ने जो किया, वह पाकिस्तान की शह पर किया। बहरहाल, सच्चाई जो भी हो, क्या आप मानते हैं कि आतंकवादियों को फाँसी की सजा नहीं मिलनी चाहिए?
फारूक - उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए, पर जनता के जजबात पर भी गौर किया जाना चाहिए। मुद्दे की बात यह है कि कश्मीरी नौजवान बंदूक क्यों थाम रहा है? इस समस्या का इलाज कर दीजिए, सब कुछ ठीक हो जाएगा।
करीना - जब तक ऐसा नहीं होता, क्या आतंकवादियों के साथ मुलायमियत से पेश आना चाहिए?
फारूक - मैंने ऐसा कब कहा? ऐसा करेंगे, तो आतंकवादी निडर हो जाएँगे। वे और ज्यादा वारदातें करेंगे।
आजाद - हम कश्मीरी अवाम के साथ प्यार से पेश आएँगे, पर एक भी आतंकवादी को नहीं छोड़ेंगे।
करीना - सिवाय अफजल के।
आजाद - सिवाय अफजल के! सजा तो उसे भी मिलनी चाहिए, पर हम चाहते हैं कि उसे फाँसी की सजा न दी जाए।
करीना - तो फिर ऐसा क्यों न करें कि भारत से फाँसी की सजा ही हटा दी जाए? बहुत-से देशों ने सजा-ए-मौत खत्म कर दी है।
आजाद और फारूक दोनों अचानक गंभीर हो जाते हैं और करीना को घूरने लगते हैं।
करीना - मैंने ऐसा क्या कह दिया कि आप लोग संजीदा हो उठे? फर्ज कीजिए, फाँसी की सजा खत्म कर दी जाती है, तो किसे फाँसी दी जाए और किसे नहीं, यह बहस ही नहीं उठेगी।
आजाद - फाँसी खत्म कर दी जाए, तो राज्य कैसे चलेगा?
फारूक - फाँसी खत्म कर दी जाए, तो राज्य कैसे चलेगा?
आजाद - लोगों में डर खत्म हो जाएगा और वे एक दूसरे की जान लेने लगेंगे।
फारूक - लोगों में डर खत्म हो जाएगा और वे एक दूसरे की जान लेने लगेंगे।
आजाद - लोगों की जान बचाने के लिए लोगों की जान लेना जरूरी है।
फारूक - लोगों की जान बचाने के लिए लोगों की जान लेना जरूरी है।
करीना - थैंक यू। आप लोगों की बात मेरी समझ में आ गई। अब मुझे इजाजत दीजिए।
उस रात करीना ने अपनी डायरी में लिखा - ऐसा लगता है कि आतंकवाद की कोई एक किस्म नहीं है। सरकार भी अपना आतंक बनाए रखना चाहती है।
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एक विचित्र प्रस्ताव
राजकिशोर








कई वर्ष पहले एक कार्टून देखा था, जिसमें एक छोटा बच्चा एक किताब पढ़ रहा था। किताब का नाम था - बच्चों का पालन-पोषण कैसे करें। एक व्यक्ति ने उससे पूछा कि तुम यह किताब क्यों पढ़ रहे हो? बच्चे का जवाब था - यह देखने के लिए कि मेरा पालन-पोषण ठीक से हो रहा है या नहीं।
कुछ ऐसी ही घटना पिछले हफ्ते हुई। एक बड़ी अदालत में हत्या के एक अभियुक्त पर मुकदमा चल रहा था। सुनवाई के दौरान अभियुक्त ने हाथ जोड़ कर कहा, हुजूर, मैं इस अदालत का ध्यान एक खास बात की ओर खींचना चाहता हूँ। मेहरबानी कर इसकी अनुमति प्रदान की जाए।
जज उदार था। ऐसे मौकों पर आम तौर पर यह कहा जाता है - मुकदमे की कार्यवाही को बीच में बाधित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। जब आपकी पारी आएगी, उस समय आपको जो भी कहना है, आप कह सकते हैं। अभी हम वकीलों की बहस सुन रहे हैं। इसके बजाय जज ने कहा, कहिए, आपको क्या कहना है।
अभियुक्त ने कहा, हुजूर हम लोगों ने एक संस्था का गठन किया है। उसका नाम है - भारतीय अभियुक्त संघ। संघ का उद्देश्य है देश भर में जितने मुकदमे चल रहे हैं, उनके अभियुक्तों के हितों की रक्षा। मुझे इस संघ का महासचिव नियुक्त किया गया है। संघ की ओर से मैं इस अदालत से कुछ निवेदन करना चाहता हूँ।
जज - भारतीय अभियुक्त संघ? ऐसी किसी संस्था के बारे में मैंने कभी नहीं सुना। मैं नियम से शहर से प्रकाशित होनेवाले सारे अखबार पढ़ता हूँ। बल्कि सुबह अखबार पढ़ कर ही अदालत में आता हूँ। मैंने ऐसा कोई समाचार नहीं पढ़ा।
अभियुक्त - आपकी बात सही है। लेकिन इस मामले में हम संघ के लोग क्या कर सकते हैं? यह मीडिया की जिम्मेदारी है कि वह समाज हित में सभी महत्वपूर्ण समाचारों को प्रकाशित करे। आप चाहें तो यह समाचार प्रकाशित नहीं करने के लिए मीडिया को डाँट लगा सकते हैं।
जज - अदालत का काम किसी को डाँट लगाना नहीं है। उसका काम है न्याय करना। न्याय की माँग यह है कि भारतीय अभियुक्त संघ की ओर से कही जानेवाली बातों पर गौर नहीं किया जाए। वह इस मुकदमे में पार्टी नहीं है। आप चाहें तो इस मुकदमे से संबंधित कोई ऐसी बात कह सकते हैं जिसका संबंध आपसे हो।
अभियुक्त - हुजूर, भारतीय अभियुक्त संघ की ओर से मैं जो कहना चाहता हूँ, उसका गंभीर संबंध इस मुकदमे से है।
जज - कहिए। अनुमति दी जाती है।
अभियुक्त - हुजूर, भारतीय अभियुक्त संघ के दस प्रतिनिधि इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी और श्रीलंका, पाकिस्तान तथा नेपाल की यात्रा करना चाहते हैं। इसका सारा खर्च सरकार को वहन करना चाहिए, क्योंकि अभियुक्त इस स्थिति में नहीं हैं कि इन यात्राओं का खर्च अपने पास से वहन कर सकें। अदालत से प्रार्थना है कि वह सरकार को इन यात्राओं का प्रबंध करने का आदेश पारित करे।
जज - आपका यह अनुरोध, एक शब्द में कहा जाए, तो विचित्र है। दुनिया के किसी भी हिस्से में ऐसा हुआ हो, इसकी कोई चर्चा कानून की उन किताबों में नहीं है, जो मैंने पढ़ी हैं। क्या आप इस पर रौशनी डालेंगे कि संघ की ये यात्राएँ आपके मुकदमे को किस तरह प्रभावित करने जा रही हैं?
अभियुक्त - इन यात्राओं का उद्देश्य है, विभिन्न देशों की न्याय प्रणालियों का निकट से अध्ययन करना, वहाँ की अदालतों की कार्य विधि को देखना तथा अभियुक्तों से बातचीत करना। यह सब इसलिए जरूरी है कि भारत की अदालतों में अभियुक्तों के साथ जो व्यवहार किया जाता है, उसकी तुलना अन्य सभ्य देशों के व्यवहारों से की जा सके। इस तुलना के बाद ही मैं समझ सकता हूँ कि मेरे साथ इस अदालत में जो व्यवहार हो रहा है, वह कितना आधुनिक, न्यायपूर्ण तथा तर्कसंगत है।
जज - क्या आपको इस अदालत से कोई शिकायत है?
अभियुक्त - हुजूर, ऐसा तो मैं सपने में भी नहीं सोच सकता।
जज - फिर भारतीय अभियुक्त संघ की ये यात्राओं क्यों? आपको पता है, इन पर सरकारी खजाने पर कितना बोझ पड़ेगा?
अभियुक्त - उससे बहुत कम, जितना खर्च माननीय उच्चतम न्यायालय के मानवीय न्यायमूर्तियों की विदेश यात्राओं पर आता है। एक बहु-पठित अखबार में प्रकाशित समाचार के अनुसार, केंद्रीय सरकार के विधि और न्याय विभाग ने 'सूचना का अधिकार' के तहत बताया है कि देश की सबसे बड़ी अदालत के चीफ जस्टिस ने 2005 से अब तक कुल बारह यात्राएँ की हैं। इन यात्राओं के दौरान सिर्फ विमान किराए पर 75.3 लाख रुपए खर्च हुए। इसी तरह शीर्ष कोर्ट के कुछ अन्य जजों ने भी विदेश यात्राएँ कीं, जिनके खर्च का कुल योग करोड़ों रुपयों में पहुँचता है। जाहिर है, ये यात्राएँ मौज-मस्ती के लिए तो की नहीं गई होंगी। उन देशों की न्याय प्रणाली का अध्ययन करने के लिए की होंगी। जब न्यायमूर्ति लोग न्याय प्रणाली के बारे में और अधिक जानने के लिए विदेश यात्राएँ कर सकते हैं, तो अभियुक्तों के हितों की दृष्टि से भारतीय अभियुक्त संघ के प्रतिनिधि ऐसा क्यों नहीं कर सकते? कानून की नजर में हर कोई बराबर है।
जज - आप अदालत की तौहीन कर रहे हैं। हमारे माननीय न्यायमूर्तियों के आचरण पर टिप्पणी कर रहे हैं। आपकी माँग रद्द की जाती है। साथ ही, आपने अदालत का कीमती वक्त बरबाद किया, इसके लिए आप पर एक अलग मुकदमा चलाने का आदेश दिया जाता है। आज की कार्यवाही यहीं खत्म होती है।
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VARSHNEY.009
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एक बार गर्ल की डायरी
राजकिशोर








वह दिन मेरे लिए कितनी खुशी का था, जब उच्चतम न्यायालय ने यह फैसला सुनाया कि बार में महिलाएँ भी शराब परोस सकती हैं। मैं जानती हूँ कि जेसिका लाल का खून इसी पेशे की वजह से हुआ था। लेकिन रोज कोई न कोई कार दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है, इससे लोग खरीदना या कार में बैठना थोड़े ही छोड़ देते हैं। औरत होने के कारण मैं जानती हूँ कि जीवन अपने आपमें एक दुर्घटना है। जब से अपने औरत होने का एहसास हुआ, मैंने यही पाया है कि हर आदमी में एक भेड़िया छिपा हुआ होता है और मौका मिलते ही वह अपने शिकार पर छलाँग लगा बैठता है। इसलिए, औरत होने के नाते, मैं हर समय दुर्घटना की प्रतीक्षा में लगी रहती हूँ। जिस दिन कम दुर्घटनाएँ होती हैं, उस दिन मैं ऊपरवाले का धन्यवाद करती हूँ। सो बार में ग्राहक को शराब देने की नौकरी से मुझे बिल्कुल डर नहीं लगा। मैं जानती थी कि बार में मैं अकेली तो रहूँगी नहीं, फिर कोई क्या कर लेगा।
लेकिन जिस दिन मैं नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गई, वह मेरे लिए एक मनहूस दिन साबित हुआ। मैं तो साकी (मैंने उर्दू शायरी बहुत पढ़ी है और साकी होने की कल्पना से ही मेरा तन-मन रोमांचित हो उठता है; अमिताभ बच्चन के फादर ने, जो बहुत बड़े कवि थे, इसे मधुबाला कहा है) बनने की तमन्ना से भरी हुई थी, पर बार मालिक ने मुझे एक तरह से हड़का दिया। इंटरव्यू के दौरान उन्होंने पूछा, 'अगर कोई शराबी तुम्हारे साथ बदतमीजी करने लगे, तो तुम क्या करोगी?' मैंने जवाब दिया, 'चप्पलों से मार-मार कर उसका भुरता बना दूँगी।' बार मालिक हँसने लगा। उसने कहा, 'मेरे बार में बैंगन नहीं, अमीरजादे आते हैं। तुमने ऐसा करना शुरू कर दिया, तो मेरा तो बिजनेस ही चौपट हो जाएगा। फिर तुम्हारी तनखा कहाँ से आएगी?' उनकी बात एक तरह से सही थी। सो मैंने कहा कि कस्टमर ज्यादा बहकने लगा, तो मैं सुरक्षा कर्मचारियों को बुलाऊँगी। वह फिर हँसने लगा। उसने कहा, 'मेरे सुरक्षा कर्मचारी उसे नहीं, तुम्हें ही अपने साथ ले जाएँगे और उसे शराब सर्व करने के लिए दूसरी लड़की को लगा देंगे। मुझे कस्टमरों को नाराज नहीं करना है।' यह सुन कर मैंने कहा, 'तब मैं उसके सामने बिछ जाऊँगी और कहूँगी, सर, मैं आपकी ही हूँ, मुझे जितना खुश रखेंगे, आपको उतना ही फायदा होगा।' इस दफा बार मालिक ठठा कर हँसने लगा। बोला, 'मेरा मतलब यह नहीं था। मैं कहना यह चाहता हूँ कि हम सभी को इस तरह विहेव करना चाहिए, जिससे साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। आखिर हम बिजनेस करने निकले हैं, मुशायरा करने नहीं।' मैंने मुसकरा दिया और मेरी नियुक्ति हो गई।
मैंने पाया, कॉल सेण्टर की नौकरी बेहतर थी। वैसे, दोनों जगह ही रात की ड्यूटी होती है, पर उसमें बोरियत बहुत ज्यादा थी। यहाँ रोज नए-नए दृश्य देखने को मिलते थे। शराब पी कर कोई रोने लगता था, कोई बहुत ज्यादा हँसने लगता था। कोई गमगीन या गंभीर हो जाता था, तो किसी की जुबान ही बंद नहीं होती थी। मैं सब पर नजर रखती थी, पर सबसे निरपेक्ष हो कर ड्यूटी बजाती थी। एक दिन बार मालिक ने मुझे बुला कर पूछा, 'तुम्हारा टर्नओवर इतना कम क्यों है? सुजाता, रेशमा, छाया वगैरह की मेजों से दस-बारह हजार रुपए का बिल बनता है, तुम्हारा बिल किसी भी दिन पाँच हजार से ऊपर नहीं गया। अगर यही हाल रहा, तो हमें रिप्लेसमेंट के बारे में सोचना होगा। वैसे तो तुम बड़ी स्मार्ट हो। तुम पिलाओ तो मैं खुद एक रात में दो-तीन हजार की पी जाऊँगा। पर लगता है, तुम्हारे कस्टमर तुमसे खुश नहीं रहते।' उस शाम मुझे पता लगा कि मेरा काम सिर्फ बार टेंडर का नहीं है, सेल्स गर्ल का भी है। मेरा मन रुआँसा हो गया।
एक दिन एक कस्टमर मुझसे मेरा नाम, पता पूछने लगा। वैसे तो मैं बहुत हिम्मती हूँ, पर उसकी आँखों में मैं जो पढ़ पा रही थी, उसने मुझे डरा दिया। आखिर में मुझे कहना पड़ा, 'सर, मैं बार की नौकरी करती हूँ, बस। मेरा नाम सपना है, पर मैं अपना पता किसी को नहीं देती।' इस पर वह मेरा मोबाइल नंबर माँगने लगा। मैंने बचने के लिए कह दिया, 'मेरे पास मोबाइल नहीं है।' उसने आँखें तरेर कर कहा, 'आजकल तो मजदूरनें भी मोबाइल रखती हैं। खैर, तुम बिल लाओ, मैं देख लूँगा।'
उस रात देर तक मुझे नींद नहीं आई।
उसके तीसरे दिन एक और कस्टमर ने गलत व्यवहार किया। मैं पेग ले कर उसके पास गई, तो वह मेरी आँखों में आँख डाल कर बोला, 'गिलास में थोड़ा-सा सोडा भी डाल दो।' जब मैं सोडा डाल रही थी, तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। कहने लगा, 'अरे, अरे, ज्यादा सोडा मिला दिया। अब क्या खाक मजा आएगा! जाओ, एक पेग और लाओ।' मैं पेग ले कर गई, तो वह कहने लगा, 'देखो, जिंदगी में असली चीज है प्रपोर्शन। शराब में भी प्रपोर्शन ठीक होना चाहिए और औरत में भी। तभी पूरा मजा आता है।' झेंप भरी मुसकान के साथ मैं चलने को हुई, तो उसने हाथ के इशारे से मुझे रोक लिया और कहने लगा, 'इस संडे को क्या कर रही हो? मेरे साथ कुछ समय बिताओ, तो मैं और भी बहुत-सी जरूरी चीजें तुम्हें सिखाऊँगा।' दूसरी मेज की ओर इशारा कर कि वहाँ मेरी जरूरत है, मैं चल दी। पर वह बार बंद तक वहाँ बैठा रहा और कनखी से मुझे घूरता रहा। उस दिन मेरी सेल काफी ऊपर चली गई, पर मुझे अपने ऊपर ग्लानि भी उतनी ही हुई। मुझे लगा, मैं किसी बार में नहीं, चकलाघर में काम करती हूँ।
अगले दिन बार मालिक ने मुझे सैक कर दिया। उसने कहा, 'तुम्हारे खिलाफ कस्टमर्स की शिकायत बहुत है।' मैं पूछना चाहा कि 'और कस्टमर्स के खिलाफ मेरी शिकायतें?' पर मैं चुप रह गई। मैं जानती थी, वह यही कहेगा - 'कस्टमर इज आलवेज राइट।'
घर जा कर मुझे लगा कि मुझे सैक नहीं किया गया है, मैंने ही बार मालिक को सैक कर दिया है।
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