14-02-2012, 03:53 AM | #111 |
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Re: कतरनें
वक्त के साथ बदल गए मोहब्बत के मायने वक्त बदला, सोच बदली और रिश्ते भी बदले। इस दौरान प्यार करने के अंदाज और इसके इजहार के तरीके भी बदले। आज का प्यार रूमानियत और कल्पना की रेशमी दुनिया से आगे व्यवहारिकता और हकीकत की खुरदरी जमीन पर टिका है। आज की पीढी मोहब्बत के हिंडोले पर झूलते हुए भी व्यवहारिकता की डोर थामे रखती है। जानकार इस बदलाव को समाज में होने वाले बदलावों का नतीजा मानते हैं। जामिया मिलिया इस्लामिया में समाज शास्त्र के प्रोफेसर मनोज कुमार जेना का कहना है कि सामाजिक बदलाव के साथ निश्चित तौर पर प्यार को जताने के मायने बदले हैं और इसमें एक तरह का खुलापन आया है। जेना ने कहा, ‘‘समाज में बदलाव होते हैं, जिसके साथ बहुत सारी चीजें बदलती हैं। प्यार को लेकर भी यह कहा जा सकता है। अब प्यार को लेकर खुलापन आया है, जो वैश्वीकरण का भी एक परिणाम है। बीते कुछ वर्षों में ज्यादा बदलाव देखने को मिले हैं।’’ इस दौर में ऐसे भी युवा हैं जो प्यार में जीने-मरने की कसमों को गुजरे जमाने की बात मानते हैं, जब लैला-मजनू, हीर-रांझा, शीरी-फरहाद, सोनी-महिवाल और रोमियो-जूलियट के मोहब्बत के किस्सों को सुना सुनाया जाता था। आईआईटी दिल्ली से उत्तीर्ण और अपनी सॉफ्टवेयर कंपनी चला रहे 27 वर्षीय योगेश गोयल कहते हैं, ‘‘मेरा मानना है कि प्यार एक बहुत खूबसूरत चीज है, लेकिन आज के दौर में बहुत सारी चीजें बदली हैं तो प्यार को लेकर लोगों को सोच भी बदली है। हमारी पीढी के लोग अब कल्पनाओं में नहीं जीते, वे व्यवहारिकता को महत्व देते हैं। प्यार में व्यवहारिकता एक महत्वपूर्ण तत्व है।’’ वह कहते हैं, ‘‘यह भी है कि आज की पीढी बहुत सारी बातों को ध्यान में रखकर ही किसी रिश्ते में पड़ती है। ऐसा नहीं है कि हमारी पीढी में भावुकता नहीं हैं, लेकिन वह भावुक होने से ज्यादा व्यवहारिक है।’’ इस दौर में लड़कियां का जोर भी ‘लांग टर्म कमिटमेंट’ और व्यवहारिकता पर है। नोएडा के एक बीपीओ कंपनी में कार्यरत 24 साल की भूमिका वाधवा कहती हैं, ‘‘आज के जमाने में लड़कियां रिश्ते में लांग टर्म कमिटमेंट चाहती हैं। इसके साथ वह व्यवहारिकता को तवज्जो देती हैं।’’ वेलेनटाइन डे के संदर्भ में उनका कहना है, ‘‘मेरा मानना है कि प्यार के लिए कोई एक दिन नहीं होना चाहिए। इस दिन के लिए मैं इसलिए खास मानती हूं कि बहुत सारे लोग इस दिन प्यार का इजहार कर पाने की हिम्मत जुटा पाते हैं। मेरा मानना है कि प्यार किसी एक दिन या किसी खास मौके का मोहताज नहीं है।’’
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19-02-2012, 01:21 AM | #112 |
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Re: कतरनें
जन्मदिवस 18 फरवरी पर विशेष
अभिनेता बनना चाहते थे खय्याम हिंदी फिल्म जगत में अपने संगीतबद्ध गीतों से लगभग पांच दशक तक श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने वाले संगीतकार खय्याम कभी अभिनेता बनना चाहते थे। 18 फरवरी 1927 को पंजाब के नवांशहर जिले के राहोन गांव में जन्में मोहम्मद जहूर हाशमी उर्फ 'खय्याम' का बचपन से ही गीत-संगीत की ओर रूझान था और वह फिल्मों में बतौर अभिनेता काम करके शोहरत की बुंलदियो तक पहुंचना चाहते थे। खय्याम अक्सर अपने घर से भागकर फिल्म देखने शहर चले जाया करते थे। उनकी इस आदत से घर वाले परेशान रहा करते थे। खय्याम की उम्र जब महज 10 वर्ष की थी, तो वह अभिनेता बनने का सपना संजोये घर से भागकर चाचा के पास दिल्ली आ गये। चाचा ने उनका दाखिला स्कूल में करा दिया, लेकिन गीत-संगीत और फिल्मों के प्रति उनके आर्कषण को देखते हुए उन्होंने खय्याम को संगीत सीखने की अनुमति दे दी। खय्याम ने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा संगीतकार पंडित हुस्रलाल भगतराम और पंडित अमरनाथ से हासिल की। उसके बाद वह फिल्मों में काम करने की तमन्ना लिए मुंबई आ गये। मुंबई आने पर खय्याम की मुलाकात पाकिस्तान के बडे शास्त्रीय गायक और फिल्म संगीतकार बाबा चिश्ती (जी.ए. चिश्ती) से हुई और वह उनसे संगीत की तालीम लेने लगे। बाबा चिश्ती के पास लगभग छह महीने तक संगीत सीखने के बाद खय्याम वर्ष 1943 में लुधियाना गये। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध का समय था और सेना में जोर-शोर से भर्तियां की जा रही थीं। तभी उन्हें एक विज्ञापन पढने को मिला, जिसमें युवाओं को प्रशिक्षण देने के बाद रोजगार और अच्छी रकम देने की पेशकश की गयी थी। सेना में लगभग दो साल तक रहने के बाद खय्याम एक बार फिर चिश्ती बाबा के साथ जुड गए। इस दौरान उनकी मुलाकात फिल्मकार बी.आर. चोपडा से हुई, जिन्होंने खय्याम को 125 रपए वेतन पर अपने पास रख लिया। वर्ष 1946 में अभिनेता बनने का सपना लिए खय्याम मुम्बई आ गए। वर्ष 1947 में खय्याम को बतौर अभिनेता एस.डी.नारंग की फिल्म 'ये है जिंदगी' में काम करने का मौका मिला, लेकिन इसके बाद बतौर अभिनेता उन्हें किसी फिल्म में काम करने का मौका नही मिला। इस बीच खय्याम बुल्लो सी.रानी, अजित खान के सहायक संगीतकार के तौर पर काम करने लगे। कुछ समय के बाद खय्याम अपने पुराने उस्ताद हुस्रलाल-भगतराम के पास चले आये। हुस्रलाल-भगतराम ने ख्य्याम को अपनी फिल्म रोमिया एंड जूलियट में जोहराबाई अंबालेवाली के साथ युगल गीत गाने का मौका दिया। गाने के बोल कुछ इस प्रकार के थे 'दोनों जहां तेरी मोहब्बत में हार के' ... इन सबके बीच खय्याम को गीता दत्त-मीना कपूर के साथ भी गाने का मौका मिला। वर्ष 1950 में खय्याम को फिल्म 'बीबी' को संगीतबद्ध किया। मोहम्मद रफी की आवाज में संगीतबद्ध उनका यह गीत 'अकेले में वो घबराये तो होंगे' खय्याम के सिने कैरियर का पहला हिट गीत साबित हुआ। वर्ष 1953 में खय्याम को जिया सरहदी की दिलीप कुमार, मीना कुमारी अभिनीत फिल्म 'फुटपाथ' में संगीत देने का मौका मिला। यूं तो इस फिल्म के सभी गीत सुपरहिट हुए लेकिन फिल्म का गीत 'शामे-गम की कसम' श्रोताओं के बीच आज भी शिद्वत के साथ सुना जाता है। अच्छे गीत-संगीत के बाद भी फिल्म फुटपाथ बॉक्स आफिस पर विफल साबित हुई। इस बीच खय्याम फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिये संघर्ष करते रहे। वर्ष 1958 में प्रदर्शित फिल्म 'फिर सुबह होगी' खय्याम के सिने कैरियर की पहली हिट साबित हुई, लेकिन खय्याम को इस फिल्म में संगीत देने के लिए काफी अडचनों का सामना करना पडा। इस फिल्म के निर्माण के पहले फिल्म अभिनेता राज कपूर चाहते थे कि फिल्म का संगीत उनके पंसदीदा संगीतकार शंकर-जयकिशन का हो, लेकिन गीतकार साहिर इस बात से खुश नहीं थे, उनका मानना था कि फिल्म के गीत के साथ केवल खय्याम हीं इंसाफ कर सकते है। बाद में फिल्म निर्माता रमेश सहगल और साहिर ने राज कपूर के सामने यह प्रस्ताव रखा कि केवल एक बार वह खय्याम की बनाई धुन को सुन लें और बाद में अपना विचार रखें। खय्याम ने फिल्म के टाइटिल गाने 'वो सुबह कभी तो आएगी' के लिए लगभग छह धुनें तैयार की और उसे राज कपूर को सुनाया। राज कपूर को खय्याम की बनाई सारी धुनें बेहद पसंद आई और अब उन्हें खय्याम के संगीतकार होने से कोई एतराज नहीं था। यह साहिर के ख्य्याम के प्रति विश्वास का हीं नतीजा था कि 'वो सुबह कभी तो आयेगी' को आज भी क्लासिक गाने के रूप में याद किया जाता है। वर्ष 1961 में प्रदर्शित फिल्म 'शोला और शबनम' में मोहम्मद रफी की आवाज में गीतकार कैफी आजमी रचित 'जीत ही लेंगे बाजी हम तुम' और 'जाने क्या ढ़ूंढती रहती हैं ये आंखें मुझमें' को संगीतबद्ध कर खय्याम ने अपनी संगीत प्रतिभा का लोहा मनवा लिया और अपना नाम फिल्म इंडस्ट्री के महानतम संगीतकारों में दर्ज करा दिया। सत्तर के दशक की खय्याम की फिल्में व्यावसायिक तौर पर सफल नहीं रही। इसके बाद फिल्मकारों ने खय्याम की ओर से अपना मुख मोड़ लिया, लेकिन वर्ष 1976 में प्रदर्शित फिल्म 'कभी कभी' के संगीतबद्ध गीत की कामयाबी के बाद खय्याम एक बार फिर से अपनी खोई हुई लोकप्रियता पाने में सफल हो गए। फिल्म 'कभी कभी' के ज़रिए खय्याम और साहिर की सुपरहिट जोड़ी ने 'कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है', 'मैं पल दो पल का शायर हूं' जैसे गीत-संगीत के ज़रिए श्रोताओं को नायाब तोहफा दिया। इन सबके साथ ही फिल्म 'कभी कभी' के लिए साहिर लुधियानवी सर्वश्रेष्ठ गीतकार और खय्याम सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से भी सम्मानित किए गए। वर्ष 1981 में प्रदर्शित फिल्म 'उमराव जान' न सिर्फ खय्याम के सिने कैरियर बल्कि पार्श्वगायिका आशा भोंसले के सिने कैरियर के लिए भी अहम मोड़ साबित हुई। पाश्चात्य धुनों पर गाने में महारत हासिल करने वाली आशा भोंसले को जब संगीतकार खय्याम ने फिल्म की धुनें सुनाई तो आशा भोसले को महसूस हुआ कि शायद वह इस फिल्म के गीत नहीं गा पाएगी। फिल्म 'उमराव जान' से आशा भोंसले एक कैबरे सिंगर और पॉप सिंगर की छवि से बाहर निकली और इस फिल्म के लिए 'दिल चीज क्या है' और 'इन आंखों की मस्ती के' जैसी गजलें गाकर आशा को खुद भी आश्चर्य हुआ कि वह इस तरह के गीत भी गा सकती है। इस फिल्म के लिए आशा भोंसले को न सिर्फ अपने कैरियर का पहला नेशनल अवार्ड प्राप्त हुआ, साथ ही खय्याम भी सर्वश्रेष्ठ संगीतकार राष्ट्रीय और फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। नब्बे के दशक में फिल्म इंडस्ट्री में गीत-संगीत के गिरते स्तर को देखते हुए खय्याम ने फिल्म इंडस्ट्री से किनारा कर लिया। वर्ष 2006 में खय्याम ने फिल्म 'यात्रा' में अरसे बाद फिर से संगीत दिया, लेकिन अच्छे संगीत के बावजूद फिल्म फिल्म बॉक्स आफिस पर नकार दी गई। अपने जीवन के 85 बसंत देख चुके खय्याम इन दिनों फिल्म इंडस्ट्री में सक्रिय नहीं हैं।
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19-02-2012, 01:24 AM | #113 |
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Re: कतरनें
19 फरवरी को सौरमंडल दिवस के अवसर पर
पृथ्वी से बाहर किसी अन्य सौरमंडलीय पिंड पर नहीं है जीवन की संभावना सौरमंडल में पृथ्वी से इतर अन्य ग्रहों एवं उपग्रहों पर जीवन की संभावना के बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि फिलहाल ऐसी संभावना नहीं है। दिल्ली विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग के प्राध्यापक डॉ. दक्ष लोहिया ने कहा कि ग्रहों में जीवन की संभावना नजर नहीं आती है, हालांकि कुछ उपग्रहों खासकर शनि और वृहस्पति के उपग्रहों पर जीवनोपयोगी वायुमंडल है लेकिन फिलहाल जीवन की संभावना के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। नेहरू तारामंडल की निदेशक डॉ. एन रत्नाश्री कहती हैं कि पृथ्वी के अलावा किसी अन्य सौरमंडलीय पिंड पर जीवन की संभावना नहीं है। लेकिन ऐसी संभावना है कि बहुत पहले कभी संभवत: मंग्रल पर सूक्ष्मजीव का जीवन रहा हो। लोहिया कहते हैं कि जहां तक चंद्रमा की बात है तो वहां पर्यावास के लायक वायुमंडल नहीं है, हां, बाद में सिद्धांतत: कृत्रिम रूप से वायुमंडल सृजित किया जा सकता है। रत्नाश्री ने कहा कि सौरमंडल में प्लूटो को निकाले जाने के बाद फिलहाल आठ ग्रह हैं। प्लूटो सन् 1930 में अपनी खोज के समय से ग्रह समझा जा रहा था लेकिन जब उसके द्रव्यमान को मापा गया और उसका द्रव्यमान अन्य सौरमंडलीय पिंडों के समान नजर आया तब ग्रह की परिभाषा पर पुनर्विचार किया गया। रत्नाश्री के अनुसार ग्रह की परिभाषा के अनुसार ऐसा पिंड सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाए, उसका द्रव्यमान इतना हो कि वह अपने गुरूत्व से ही वृताकार पथ पर चक्कर लगाए तथा वह अपने आसपास में वर्चस्ववान हो। प्लूटो तीसरे मापदंड पर खरा नहीं उतरता । प्लूटो अब बौना ग्रह है। उल्लेखनीय है कि हर साल 19 फरवरी को सौर दिवस आधुनिक अंतरिक्ष विज्ञान का जनक निकोलस कोपरनिकस की याद में मनाया जाता है। दरअसल काफी समय तक सौरमंडल के अस्तित्व नकारा जाता रहा। लोग समझते थे कि पृथ्वी ब्रह्मांड के केंद्र में है। लेकिन निकोलस कोरनिकस पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने यह सिद्ध किया कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है। गैलोलियो गैलीली, जोहांस केपलर और सर आइजक न्यूटन ने भौतिकी के इस सिद्धांत को आगे बढाया तथा धीरे धीरे यह स्वीकार किया जाने लगा कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है और अन्य ग्रह भी पृथ्वी की भांति ही सूर्य की परिक्रमा करते हैं। विज्ञान की प्रगति के फलस्वरूप आज विशाल क्षमता की दूरबीनों और अंतरिक्ष यानों ने सौरमंडल और अंतरिक्ष के कई राज खोल दिये हैं।
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19-02-2012, 01:26 AM | #114 |
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Re: कतरनें
19 फरवरी को गोपालकृष्ण गोखले की पुण्यतिथि पर
गांधीजी को गोखले ने सिखाया था राजनीति का पाठ सत्य और अहिंसा का संदेश देने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को राजनीति का ककहरा सिखाने का श्रेय गोपाल कृष्ण गोखले को जाता है। उन्होंने ही गांधी जी को अहिंसा के मार्ग पर चलकर आजादी के लिए संघर्ष करने का पाठ पढाया था। गांधी जी के राजनीतिक गुरु के रूप में जाने जाने वाले गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म नौ मई 1866 को महाराष्ट्र के कोहट में हुआ था । पेशे से क्लर्क कृष्ण राव के पुत्र गोखले अपनी प्रतिभा के दम पर जननेता के रूप में प्रसिद्ध हुए। महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय के इतिहास के पूर्व प्रोफेसर आरके आर्य के अनुसार नरमपंथी सुधारवादी कहे जाने वाले गोखले ने ही गांधी को राजनीति का ककहरा सिखाया था। राष्ट्रपिता को अपने राजनीतिक गुरु से ही अहिंसा के जरिए आजादी की लड़ाई लड़ने की प्रेरणा मिली थी और उन्हीं के उपदेशों पर उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ आंदोलन चलाया। 1912 में गांधीजी के आमंत्रण पर गोखले खुद भी दक्षिण अफ्रीका गए और रंगभेद की निन्दा की। आर्य के अनुसार गोखले सिर्फ गांधी जी के ही नहीं, बल्कि मोहम्मद अली जिन्ना के भी राजनीतिक गुरु थे । यह बात अलग है कि बाद में जिन्ना गोखले के आदर्शों पर नहीं चल पाए और उन्होंने धर्म के नाम पर हिन्दुस्तान का बंटवारा करा दिया। गोखले ने आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण योगदान दिया और जातिवाद तथा छुआछूत के खिलाफ भी आंदोलन चलाया । वह जीवनभर हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए काम करते रहे। गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में गोखले को अपना राजनीतिक गुरु बताया था और उन्हें एक जबर्दस्त नेता करार दिया था। हालांकि कुछेक मुद्दों पर गोखले से गांधी जी सहमत नहीं थे, लेकिन फिर भी अपने राजनीतिक गुरु के लिए उनके मन में अगाध सम्मान था। राष्ट्रपिता ने आत्मकथा में गोखले को विशाल हृदय तथा शेर की तरह बहादुर की संज्ञा भी दी थी। गोपाल कृष्ण गोखले पुणे के फरगुसन कालेज के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। उन्होंने इस कालेज में शिक्षण के साथ ही आजादी के लिए राजनीतिक गतिविधियां भी चलाई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और सर्वेंट्स सोसायटी आफ इंडिया के सम्मानित सदस्य गोखले का 19 फरवरी 1915 को निधन हो गया और उनके शिष्य महात्मा गांधी ने उनकी परंपरा को आगे बढाया।
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19-02-2012, 01:48 AM | #115 |
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Re: कतरनें
पुण्यतिथि 19 फरवरी के अवसर पर
भारतीय संगीत को नया आयाम दिया पंकज मलिक ने पंकज मलिक को एक ऐसी बहुमुखी प्रतिभा के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने अपने अभिनय, पार्श्वगायन और संगीत निर्देशन से बांग्ला फिल्मों के साथ ही हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी। पंकज मलिक का जन्म 10 मई 1905 को कोलकाता में एक मध्यवर्गीय बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता मनमोहन मल्लिक की संगीत में गहरी रूचि थी और वह अक्सर धार्मिक कार्यक्रमों में अपना संगीत पेश किया करते थे। पंकज मलिक ने शिक्षा कोलकाता के मशहूर स्काटिश चर्च कॉलेज से पूरी की। घर में संगीत का माहौल रहने के कारण पंकज मलिक का रूझान भी संगीत की ओर हो गया और वह संगीतकार बनने का सपना देखने लगे। पिता ने संगीत के प्रति बढ़ते रूझान को पहचान लिया और उन्हें इस राह पर चलने के लिये प्रेरित किया। उन्होंने दुर्गादास बंद्योपाध्याय और रवीन्द्रनाथ टैगोर के रिश्तेदार धीरेन्द्रनाथ टैगोर से संगीत की शिक्षा ली। वर्ष 1926 में महज 18 वर्ष की उम्र में कोलकाता की मशहूर कंपनी 'वीडियोफोन' के लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर के गीत 'नीमचे आज प्रथोम बदल' के लिए पंकज मलिक को संगीत देने का अवसर मिला। बाद में उन्होंने टैगोर के कई गीतों के लिये संगीत निर्देशन किया। पंकज मलिक ने अपने कैरियर की शुरूआत कोलकाता के इंडियन ब्राडकास्टिंग से की। बाद में वह कई वर्षो तक आल इंडिया रेडियो से भी जुड़े रहे। वर्ष 1933 में पंकज मलिक 'न्यू थियेटर' से जुड़ गए, जहां उन्हें फिल्म 'यहूदी की लड़की' में संगीत निर्देशन का मौका मिला। न्यू थियेटर में उनकी मुलाकात प्रसिद्ध संगीतकार आर.सी. बोराल से हुई, जिनके साथ उन्होंने धूप छांव, प्रेसिडेंट, मंजिल और करोड़पति जैसी कई सफल फिल्मों में बेमिसाल संगीत दिया। वर्ष 9936 में प्रदर्शित फिल्म 'देवदास' बतौर संगीत निर्देशक पंकज मलिक के सिने करियर की महत्वपूर्ण फिल्म साबित हुयी। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म में कुंदनलाल सहगल ने मुख्य भूमिका निभाई थी। पी.सी. बरूआ के निर्देशन में बनी इस फिल्म में भी पंकज मलिक को एक बार फिर से उनके प्रिय आर.सी. बोराल के साथ काम करने का अवसर मिला। फिल्म और संगीत की सफलता के साथ ही पंकज मलिक बतौर संगीतकार फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए। सहगल उनके प्रिय अभिनेता और पार्श्वगायक हो गए। बाद में पंकज मलिक ने कई फिल्मों में सहगल के गाये गीतों के लिये संगीत निर्देशन किया। पंकज मलिक ने संगीत निर्देशन और पार्श्वगायन के अलावा कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया। इनमें मुक्ति (1937), अधिकार (1939), रंजनआंधी (1940), अलोछाया (1940), डॉक्टर (1941) और नर्तकी जैसी फिल्में प्रमुख हैं । इन सबके साथ ही पंकज मलिक ने कई किताबें भी लिखी। इनमें गीत वाल्मीकि, स्वर लिपिका, गीत मंजरी और महिषासुर मर्दनी प्रमुख हैं। पंकज मलिक ने टैगोर रचित कई कविताओं के लिए भी संगीत दिया। पंकज मलिक के गुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर से जुड़ने का वाकया दिलचस्प है। एक बार पंकज मलिक को कॉलेज के किसी कार्यक्रम में टैगोर की एक कविता पर संगीत निर्देशन करना था। जब पंकज मलिक टैगोर से इस बारे में बातचीत करने पहुंचे, तो उन्हें घंटों इंतजार करना पड़ा। बाद में टैगोर ने अपनी एक कविता 'दिनेर शेषे घूमर देशे' पंकज मलिक को सुनाई और उस पर संगीत बनाने को कहा। पंकज मलिक ने तुरंत उस कविता पर संगीत बनाकर टैगोर को सुनाया, जिसे सुनकार टैगोर काफी प्रभावित हुए और पंकज मलिक को अपनी कविता पर कॉलेज में संगीतमय प्रस्तुति की अनुमति दे दी। संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए पंकज मल्लिक वर्ष 1970 में भारत सरकार की ओर से पदमश्री से सम्मानित किए गए। वर्ष 1972 में फिल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी पंकज मलिक को सम्मानित किया गया। अपने जादुई संगीत निर्देशन से श्रोताओं के बीच खास पहचान बनाने वाले यह महान संगीतकार 19 फरवरी 1978 को इस दुनिया को अलविदा कह गए। पंकज मल्लिक के संगीत निर्देशन में सजी गीतों की लंबी फेहरिस्त में कुछ है 'दो नैना मतवारे' (मेरी बहन), 'दुनिया रंग रंगीली बाबा दुनिया रंग रंगीली' (धरती माता), 'एक बंगला बने न्यारा जिसमे रहे कुनबा सारा' (प्रेसिडेंट), 'पिया मिलन को जाना' (कपाल कुंडला), 'सो जा राजकुमारी सो जा', 'जिंदगी.ये मतलब का संसार' (मेरी बहन), 'लग गयी चोट करेजवा में हे रामा' (यहूदी की लड़की), 'आंखो में आया जो बन के खुमार' (रूप), 'आओ सुनाये कहानी तुम्हे हम' (मंजूर), आसमान पे हैं चांद यहां लाखो चांद' (माया), 'अब प्रीत की जीत मनाये साजन' (मीनाक्षी), 'ए मेरे दिल तू जरा संभल' (कस्तूरी), 'करू क्या आस निराश भई' (दुश्मन) आदि।
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Re: कतरनें
पुण्यतिथि 21 फरवरी पर विशेष
भारतीय सिनेमा में अभिनेत्रियों को नई पहचान दिलाई नूतन ने नूतन को एक ऐसी अभिनेत्री के तौर पर याद किया जाता है, जिन्होंने फिल्मों में अभिनेत्रियों के महज शोपीस के तौर पर इस्तेमाल किए जाने की परंपरा को बदलकर उन्हें अलग पहचान दिलाई। 4 जून 1936 को मुंबई में जन्मी नूतन समर्थ को अभिनय की कला विरासत में मिली। उनकी मां शोभना समर्थ जानी मानी फिल्म अभिनेत्री थी। वह अक्सर मां के साथ शूटिंग देखने जाया करती थी। इस वजह से उनका भी रूझान फिल्मों की ओर हो गया और वह भी अभिनेत्री बनने के ख्वाब देखने लगी। नूतन ने बतौर बाल कलाकार फिल्म 'नल दमयंती' से अपने सिने कैरियर की शुरूआत की। इस बीच नूतन ने अखिल भारतीय सौंदर्य प्रतियोगिता में हिस्सा लिया, जिसमें वह प्रथम चुनी गयी, लेकिन तब भी बॉलीवुड के किसी निर्माता का ध्यान उनकी ओर नहीं गया। बाद में मां और उनके मित्र मोतीलाल की सिफारिश की वजह से नूतन को वर्ष 1950 में प्रदर्शित फिल्म 'हमारी बेटी' में अभिनय करने का मौका मिला। इस फिल्म का निर्देशन उनकी मां ने किया। वर्ष 1955 में प्रदर्शित फिल्म 'सीमा' से नूतन ने विद्रोहिणी नायिका के सशक्त किरदार को रूपहले पर्दे पर साकार किया। इस फिल्म में नूतन ने सुधार गृह में बंद कैदी की भूमिका निभायी जो चोरी के झूठे इल्जाम में जेल में अपने दिन काट रही थी। फिल्म 'सीमा' में बलराज साहनी सुधार गृह के अधिकारी की भूमिका में थे। बलराज साहनी जैसे दिग्गज कलाकार की उपस्थिति में नूतन ने अपने सशक्त अभिनय से उन्हें कडी टक्कर दी। इसके साथ ही फिल्म में अपने दमदार अभिनय के लिये नूतन को अपने सिने कैरियर का सर्वश्रेष्ठ फिल्म अभिनेत्री का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। इस बीच नूतन ने देव आनंद के साथ 'पेइंग गेस्ट' और 'तेरे घर के सामने' में नूतन ने हल्के फुल्के रोल करके अपनी बहुआयामी प्रतिभा का परिचय दिया। वर्ष 1958 में प्रदर्शित फिल्म 'सोने की चिड़िया' के हिट होने के बाद फिल्म इंडस्ट्री में नूतन के नाम का डंका बजने लगा और बाद में एक के बाद एक कठिन भूमिका निभाकर वह फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गयी। वर्ष 1958 में प्रदर्शित फिल्म 'दिल्ली का ठग' में नूतन ने स्विमिंग कॉस्टयूम पहनकर उस समय के समाज को चौंका दिया। फिल्म बारिश में नूतन काफी बोल्ड दृश्य दिए, जिसके लिए उनकी काफी आलोचना भी हुई, लेकिन बाद में विमल राय की फिल्म 'सुजाता' एवं 'बंदिनी' में नूतन ने अत्यंत मर्मस्पर्शी अभिनय कर अपनी बोल्ड अभिनेत्री की छवि को बदल दिया। वर्ष 1959 में प्रदर्शित फिल्म 'सुजाता' नूतन के सिने कैरियर के लिए मील का पत्थर साबित हुई। फिल्म में नूतन ने अछूत कन्या के किरदार को रूपहले पर्दे पर साकार किया। इसके साथ ही फिल्म में अपने दमदार अभिनय के लिए वे अपने सिने कैरियर में दूसरी बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित की गईं। वर्ष 1963 में प्रदर्शित फिल्म 'बंदिनी' भारतीय सिनेमा जगत में अपनी संपूर्णता के लिए सदा याद की जाएगी। फिल्म में नूतन के अभिनय को देखकर ऐसा लगा कि केवल उनका चेहरा ही नहीं, बल्कि हाथ पैर की उंगलियां भी अभिनय कर सकती हैं। इस फिल्म में अपने जीवंत अभिनय के लिए नूतन को एक बार फिर से सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। फिल्म 'बंदिनी' से जुड़ा एक रोचक पहलू यह भी है फिल्म के निर्माण के पहले फिल्म अभिनेता अशोक कुमार की निर्माता विमल राय से अनबन हो गई थी और वह किसी भी कीमत पर उनके साथ काम नही करना चाहते थे, लेकिन वह नूतन ही थी जो हर कीमत में अशोक कुमार को अपना नायक बनाना चाहती थी। नूतन के जोर देने पर अशोक कुमार ने फिल्म 'बंदिनी' में काम करना स्वीकार किया था। 'सुजाता', 'बंदिनी' और 'दिल ने फिर याद किया' जैसी फिल्मों की कामयाबी के बाद नूतन ट्रेजडी क्वीन कही जाने लगी। अब उन पर यह आरोप लगने लगा कि वह केवल दर्द भरा अभिनय कर सकती हैं, लेकिन 'छलिया' और 'सूरत' जैसी फिल्मों में कॉमिक अभिनय कर नूतन ने अपने आलोचको का मुंह एक बार फिर से बंद कर दिया। वर्ष 1965 से 1969 तक नूतन ने दक्षिण भारत के निर्माताओं की फिल्मों के लिए काम किया। इसमें ज्यादातर सामाजिक और पारिवारिक फिल्में थी। इनमें 'गौरी', 'मेहरबान', 'खानदान', 'मिलन' और 'भाई बहन' जैसी सुपरहिट फिल्में शामिल हैं। वर्ष 1968 में प्रदर्शित फिल्म 'सरस्वती चंद्र' की अपार सफलता के बाद नूतन फिल्म इंडस्ट्री की नंबर वन नायिका के रूप मे स्थापित हो गईं। वर्ष 1973 में फिल्म 'सौदागर' में नूतन ने एक बार फिर से अविस्मरणीय अभिनय किया। अस्सी के दशक में नूतन ने चरित्र भूमिकांए निभानी शुरू कर दी और कई फिल्मों में 'मां' के किरदार को रूपहले पर्दे पर साकार किया। इन फिल्मों में 'मेरी जंग', 'नाम' और 'कर्मा' जैसी फ़िल्में खास तौर पर उल्लेखनीय हैं । फिल्म 'मेरी जंग' में अपने सशक्त अभिनय के लिए नूतन सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के पुरस्कार से सम्मानित की गईं। फिल्म 'कर्मा' में नूतन ने अभिनय सम्राट दिलीप कुमार के साथ काम किया। इस फिल्म में नूतन पर फिल्माया यह गाना 'दिल दिया है जां भी देंगे ऐ वतन तेरे लिए' श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुआ। नूतन की प्रतिभा केवल अभिनय तक ही नही सीमित थी, वह गीत और गजल लिखने में भी काफी दिलचस्पी लिया करती थी। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सर्वाधिक फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त करने का कीर्तिमान नूतन के नाम दर्ज है । नूतन को पांच बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लगभग चार दशक तक अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों के बीच खास पहचान बनाने वाली यह महान अभिनेत्री 21 फरवरी 1991 को इस दुनिया को अलविदा कह गई।
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Re: कतरनें
22 फरवरी को कस्तूरबा गांधी की पुण्यतिथि पर
कस्तूरबा के वात्सल्य भाव के कारण बापू भी उन्हें कहते थे ‘बा’ कस्तूरबा गांधी ने राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी की धर्मपत्नी से अलग स्वतंत्रता संग्राम की एक अहम महिला नेत्री के तौर पर भी अपनी पहचान बनाई थी और उनके अंदर कूट कूट कर भरे वात्सल्य से खुद ‘बापू’ इतने अधिक प्रभावित थे कि वह उन्हें ‘बा’ कह कर बुलाते थे। एक पत्नी के तौर पर कस्तूरबा ने अपने पति के हर काम में उनका साथ दिया और घरेलू जिम्मेदारियों से उन्हें मुक्त रखा। शायद यही वजह है कि बापू पूरे समर्पण के साथ दिन-रात देश की आजादी के लिए संघर्षरत रह सके। दिलचस्प बात यह है कि बापू खुद बा को अपनी एक प्रेरक आलोचक भी मानते थे। नयी दिल्ली स्थित गांधी संग्रहालय की निदेशक वर्षा दास ने ‘भाषा’ को बताया ‘‘गांधी जी के दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दिनों में कस्तूरबा ने वहां पर विवाह कानून के खिलाफ सत्याग्रह का नेतृत्व किया था। इस सत्याग्रह में उन्हें सफलता भी मिली। इस तरह से ‘बा’ को गांधी जी से पहले ही सत्याग्रह के प्रयोग मे सफलता मिल गयी।’’ कस्तूरबा गांधी के इस सत्याग्रह ने महिलाओं को घर से बाहर निकलने के लिए पे्ररित किया। उन्होंने बताया, ‘‘कस्तूरबा घर में रह कर जिस तरह शांतिपूर्वक अपना दायित्व निर्वाह करती थी इससे प्रभावित होकर गांधी जी ने कहा था कि मैने अहिंसा का पाठ कस्तूरबा से सीखा है। साथ ही कस्तूरबा बापू के कामकाज पर अपनी प्रतिक्रिया भी देती थीं और बापू उन्हें अपनी एक प्रेरक आलोचक मानते थे।’’ जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाज शास्त्र के प्रोफेसर आनंद कुमार ने बताया कि कई बार गांधी जी के प्रयोगों और कार्यक्रमों से असहमत रहने के बावजूद कस्तूरबा ने हमेशा उनका समर्थन किया। प्रोफेसर आनंद कुमार ने बताया, ‘‘विश्व के महान नेताओं में से एक गांधी को आदर्श जीवन संगनी का साथ मिला। बापू के समकालीन नेताओं अब्राहम लिंकन, लेनिन, माओत्से तुंग जैसे अन्य नेताओं को यह सौभाग्य नहीं मिल सका। यही कारण है कि बापू ने कस्तूरबा को जीवन संगिनी के रूप में अपनी सफलता का ‘मूल आधार’ कहा था।’’ कस्तूरबा गांधी का जन्म सुखी संपन्न एक व्यापारी गोकुलदास कपाड़िया के यहां गुजरात के पोरबंदर में 11 अप्रैल 1869 में हुआ था। जब मोहनदास करमचंद गांधी के साथ कस्तूरबा परिणय सूत्र में बंधीं उस समय उनकी उम्र केवल 14 साल की थी। कस्तूरबा गांधी के जीवन के अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए गांधी स्मारक निधि के मंत्री और गांधीवादी रामचंद्र राही ने कहा ‘‘एक बार सौराष्ट्र जेल जाने से पहले बा ने बापू से पूछा कि था कि क्या उन्हें जेल जाना चाहिए। गांधी जी ने जबाव दिया कि जरूर जाना चाहिए। बा ने फिर सवाल किया अगर जेल में मेरी मौत हो गयी तब, गांधी जी ने जवाब दिया कि तब मैं तुम्हें ‘जगदम्बा’ कह कर संबोधित करूंगा।’’ उन्होंने बताया कि वर्ष 1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन की शुरूआत हुयी तब कस्तूरबा को आगा खा पैलेस में नजरबंद रखा गया था। असाध्य बीमारी के कारण कस्तूरबा ने बापू की गोद में दम तोड़ दिया। तब गांधी जी ने कहा था कि कस्तूरबा मेरी ‘आराध्य’ बन गयी। प्रोफेसर आनंद कुमार ने कहा कि एक आदर्श नारी, अनुकरणीय पत्नी, और प्रेरणादायी मां के रूप में कस्तूरबा देश के स्त्री पुरूषों के लिए एक अनुकरणीय विरासत छोड़ गयी हैं। कस्तूरबा गांधी का 74 साल की उम्र में 22 फरवरी 1944 को निधन हो गया।
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23-02-2012, 02:28 PM | #118 |
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Re: कतरनें
पुण्यतिथि 23 फरवरी पर विशेष
रूपहले पर्दे को अपनी दिलकश अदाओं से सजाया मधुबाला ने वेलेन्टाइन डे (प्रेम दिवस) 14 फरवरी को जन्मी फिल्म अभिनेत्री मधुबाला के जीवन की यह विडम्बना रही कि वह जीवनभर प्यार के लिये तरसती रहीं और अंततः जब उन्हें किशोर कुमार का सच्चा प्यार मिला तो वह मौत के बहुत करीब आ चुकी थी। भारतीय सिनेमा जगत की अद्वितीय अभिनेत्री मधुबाला (मूल नाम मुमताज बेगम देहलवी) का जन्म दिल्ली के निर्धन मुस्लिम परिवार में 14 फरवरी 1933 को हुआ था। उनके पिता अताउल्लाह खान दिल्ली में रिक्शा चलाया करते थे। तभी उनकी मुलाकात एक नजूमी (भविष्यवक्ता) कश्मीर वाले बाबा से हुई, जिन्होंने भविष्यवाणी की कि उनका भविष्य उज्ज्वल है और वह बड़ी होकर बहुत शोहरत पाएगी। नजूमी की बात को अताउल्लाह खान ने गंभीरता से लिया और वह मधुबाला को लेकर मुंबई आ गए। वर्ष 1942 में मधुबाला को बतौर बाल कलाकार (बेबी मुमताज के नाम से) फिल्म 'बसंत' में काम करने का मौका मिला। बेबी मुमताज के सौंदर्य को देखकर अभिनेत्री देविका रानी मुग्ध हुईं और उन्होंने उनका नाम 'मधुबाला' रख दिया। उन्होंने मधुबाला से बॉम्बे टाकीज की फिल्म 'ज्वार भाटा' में दिलीप कुमार के साथ काम करने की पेशकश कर दी, लेकिन मधुबाला उस फिल्म में किसी कारणवश काम नहीं कर सकी। इसी फिल्म से अभिनेता दिलीप कुमार ने अपने सिने कैरियर की शुरूआत की थी। मधुबाला को फिल्म अभिनेत्री के रूप में पहचान निर्माता निर्देशक केदार शर्मा की वर्ष 1947 में प्रदर्शित फिल्म 'नीलकमल' से मिली। इस फिल्म में उनके अभिनेता थे राज कपूर। इसे महज संयोग ही कहा जायेगा कि 'नील कमल' बतौर अभिनेता राज कपूर की पहली फिल्म थी। भले ही 'नीलकमल' सफल नहीं रही, लेकिन इससे बतौर अभिनेत्री मधुबाला ने अपने सिने कैरियर की शुरूआत कर दी। वर्ष 1949 तक मधुबाला की कई फिल्में प्रदर्शित हुईं, लेकिन इनसे उन्हें खास फायदा नहीं हुआ। इसी वर्ष बांबे टॉकीज के बैनर तले निर्माता अशोक कुमार की फिल्म 'महल' मधुबाला के सिने कैरियर की महत्वपूर्ण फिल्म साबित हुई । रहस्य और रोमांच से भरपूर यह फिल्म सुपरहिट रही और इसी के साथ बालीवुड में हारर और सस्पेंस फिल्मों के निर्माण का सिलसिला चल पड़ा। वर्ष 1950 से 1957 तक का वक्त मधुबाला के सिने कैरियर के लिए बुरा साबित हुआ। इस दौरान उनकी कई फिल्में असफल रहीं, लेकिन वर्ष 1958 में 'फागुन', 'हावड़ा ब्रिज', 'कालापानी' तथा 'चलती का नाम गाड़ी' जैसी फिल्मों की सफलता के बाद मधुबाला एक बार फिर से शोहरत की बुलंदियों तक जा पहुंची। फिल्म 'हावड़ा ब्रिज' में मधुबाला ने क्लब डांसर की भूमिका अदा करके दर्शकों का मन मोह लिया। वर्ष 1958 में ही प्रदर्शित फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' में उन्होंने अपने कॉमिक अभिनय से दर्शकों को हंसाते-हंसाते लोटपोट कर दिया। मधुबाला के सिने कैरियर में उनकी जोड़ी अभिनेता दिलीप कुमार के साथ काफी पसंद की गई। फिल्म 'तराना' के निर्माण के दौरान मधुबाला दिलीप कुमार से मोहब्बत करने लगी। उन्होंने अपने ड्रेस डिजाइनर को गुलाब का फूल और एक खत देकर दिलीप कुमार के पास इस संदेश के साथ भेजा कि यदि वह भी उनसे प्यार करते हैं, तो इसे अपने पास रख लें। दिलीप कुमार ने फूल और खत को सहर्ष स्वीकार कर लिया। बी.आर. चौपड़ा की फिल्म 'नया दौर' में पहले दिलीप कुमार के साथ नायिका की भूमिका के लिए मधुबाला का चयन किया गया और मुंबई में ही इस फिल्म की शूटिंग की जानी थी, लेकिन बाद मे फिल्म के निर्माता को लगा कि इसकी शूटिंग भोपाल में भी करनी जरूरी है। मधुबाला के पिता ने बेटी को मुंबई से बाहर जाने की इजाजत देने से इंकार कर दिया। उन्हें लगा कि मुंबई से बाहर जाने पर मधुबाला और दिलीप कुमार के बीच का प्यार और परवान चढ़ेगा। बाद में बी.आर.चौपड़ा को मधुबाला की जगह वैजयंतीमाला को लेना पड़ा। अताउल्लाह खान बाद में इस मामले को अदालत में ले गए और इसके बाद उन्होंने मधुबाला को दिलीप कुमार के साथ काम करने से मना कर दिया और यहीं से यह जोड़ी अलग हो गई। पचास के दशक मे स्वास्थ्य परीक्षण के दौरान मधुबाला को अहसास हुआ कि वह हृदय की बीमारी से पीड़ित है। इस दौरान उनकी कई फिल्में निर्माण के दौर में थी। मधुबाला को लगा यदि उनकी बीमारी के बारे में फिल्म इंडस्ट्री को पता चल जाएगा, तो फिल्म निर्माता को नुकसान होगा, इसलिये उन्होंने यह बात किसी को नहीं बताई। मधुबाला के. आसिफ की फिल्म की शूटिंग में व्यस्त थी। इस दौरान उनकी तबीयत काफी खराब रहा करती थी। मधुबाला जो अपनी नफासत और नजाकत को कायम रखने के लिए घर में उबले पानी के सिवाए कुछ नही पीती थीं, उन्हें जैसलमेर के रेगिस्तान में कुंए और पोखरे का गंदा पानी तक पीना पड़ा। मधुबाला के शरीर पर असली लोहे की जंजीर भी लादी गई, लेकिन उन्होंने उफ तक नहीं की और फिल्म की शूटिंग जारी रखी। मधुबाला का मानना था कि 'अनारकली' का किरदार निभाने का मौका बार-बार नहीं मिलता। वर्ष 1960 में जब 'मुगले आजम' प्रदर्शित हुई, तो फिल्म में मधुबाला का अभिनय देखकर दर्शक मुग्ध हो गए। बदकिस्मती से इस फिल्म के लिए मधुबाला को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार नहीं मिला, लेकिन सिने दर्शक आज भी ऐसा मानते हैं कि वह इसकी हकदार थीं। साठ के दशक में मधुबाला ने फिल्मों में काम करना काफी कम कर दिया। 'चलती का नाम गाड़ी' और 'झुमरू' के निर्माण के दौरान ही मधुबाला किशोर कुमार के काफी करीब आ गईं। मधुबाला के पिता ने किशोर कुमार को सूचित किया कि मधुबाला इलाज के लिए लंदन जा रही है और लंदन से आने के बाद ही उनसे शादी कर पाएगी, लेकिन मधुबाला को अहसास हुआ कि शायद लंदन में आपरेशन होने के बाद वह जिंदा नहीं रह पाए और यह बात उन्होंने किशोर कुमार को बताई। इसके बाद मधुबाला की इच्छा पूरी करने के लिए किशोर कुमार ने मधुबाला से शादी कर ली। शादी के बाद मधुबाला की तबीयत और ज्यादा खराब रहने लगी। इस बीच उनकी 'पासपोर्ट', 'झुमरू', 'बॉयफ्रेंड' (1961), 'हाफ टिकट' (1962) और 'शराबी (1964) जैसी कुछ फिल्में प्रदर्शित हुईं। वर्ष 1964 में एक बार फिर से मधुबाला ने फिल्म इंडस्ट्री की ओर रूख किया, लेकिन फिल्म 'चालाक' के पहले दिन की शूटिंग में मधुबाला बेहोश हो गईं और बाद में यह फिल्म बंद कर देनी पड़ी। दिल में मोहब्बत का पैगाम लिए मधुबाला अपने जन्म दिवस के महज आठ दिन बाद 23 फरवरी 1969 को महज 36 वर्ष की उम्र में 'मैं अभी जीना चाहती हूं' ... कहती हुईं इस दुनिया को ही अलविदा कह गईं।
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25-02-2012, 10:21 AM | #119 |
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Re: कतरनें
निर्वाचन आयोग का वार रूम और संगीत से तालमेल गजब का
वार रूम और संगीत का क्या कोई तालमेल हो सकता है। जवाब होगा नहीं, लेकिन इस बार उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में निर्वाचन आयोग के वार रूम और संगीत में गजब का तालमेल दिखायी दे रहा है। देश की मशहूर लोक गायिका और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में निर्वाचन आयोग की ब्रांड अम्बेसडर मालिनी अवस्थी लखनऊ के जनपथ सचिवालय में अपने पति और बच्चों को चुनाव आयोग का वार रूम 'नियंत्रण कक्ष' दिखाने लायी थीं। मालिनी अवस्थी, भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) अधिकारी उनके पति अवनीश अवस्थी और दो बच्चों की उंगलियों पर मतदान की नीली स्याही लगी थी। वार रूम में एक बडे स्क्रीन पर सुदूर गांव के मतदान केन्द्रों से सीधे लाइव तस्वीरों में लंबी-लंबी कतारें देखकर उनके चेहरे पर उपलब्धि और संतोष के भाव फूट रहे थे। वह इस विधानसभा चुनाव में उदासीन मतदाओं को जागृत करने के लिए ब्रांड अम्बेसडर हैं। उन्होंने राज्य के कोने-कोने में अब तक करीब चालीस जगह अपनी बुलंद आवाज से मंचीय प्रस्तुति देकर धूम मचा दी है। मालिनी ने कहा, मतदाता जागरूकता अभियान के लिए चुनाव आयोग का ब्रांड एम्बेसडर बनने का प्रस्ताव आया, तो मुझे बहुत गर्व हुआ। लगा कि यदि मेरा लोकगायन देश के लोकतंत्र के काम आए, तो बहुत बडी बात होगी। निर्वाचन आयोग से जुडने का श्रेय वह उत्तर प्रदेश के मुख्य निर्वाचन अधिकारी उमेश सिन्हा को देती हैं। सामान्य लोकसंगीत और चुनाव में मतदान के लिए प्रेरणा गीत गाने में फर्क के सवाल पर वह कहती हैं, दोनों में लोक संगीत है । फर्क सिर्फ शब्दों और सन्देश का है। लोक संगीत का मतलब ही है कि लोक से जुड़े। लखनऊ की मूल निवासी मालिनी अवध की संस्कृति में पली-बढ़ी हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी, संस्कृत और राजनीतिक शास्त्र में स्नातक करने के बाद मशहूर भातखंडे विश्वविद्यालय से संगीत में उन्होंने एम.ए. किया है। पढाई पूरी भी नहीं हो पायी थी कि शादी हो गई। कानपुर निवासी पति के आईएएस होने के चलते उन्हें पूरे राज्य में घूमने का अवसर मिला । पति के इस ओहदे पर होने की बदौलत उन्होंने चुनाव की प्रक्रिया और उसकी बारीकियों को अच्छी तरह समझा है, इसलिए उन्होंने मतदाता जागरूकता अभियान के लिए जो गीत लिखा या धुन बनाई वह सटीक बैठी। मलिनी पूर्व जन्म में विश्वास करती हैं। उनका कहना है, शायद पिछले जन्म में कुछ काम अधूरे रह गए होंगे, जिन्हें मैं इस जन्म में पूरा कर रही हूं। वह बचपन में गुनगुनाती थी। गीत गाती थी। पिता डाक्टर पी. एन. अवस्थी ने उनके अंदर छिपी प्रतिभा को पहचाना और संगीत की शास्त्रीय शिक्षा लेने में मदद की। मां निर्मला उन्हें घर में होने वाले हर कार्यक्रम में साथ बैठा लेती थी। वह बनारस की मशहूर गायिका गिरिजा देवी की शिष्या हैं। वह उस मल्लाह को नहीं भूलती, जिसने जौनपुर में सई नदी और गोमती के संगम में अपनी नाव में निर्गुन सुनाया था। मालिनी का कहना है कि लोककलाएं संस्कृति की अभिव्यक्ति हैं। कभी वह चित्रों में आकार पाती है और कभी गीत संगीत में मुखर होती है। चुनाव में मालिनी ने 'अरे जागो रे जागो देश के मतदाता इलेक्शन की बेरिया जागो दीदी, अम्मा, भैय्या', उदासीन मतदाताओं को जगाने के लिए 'घर मा बैठे तू काहे अलसात हो, वोट काहे नहीं डाले जात हो' गाया। अपने गीतों के बोल के बारे में उन्होंने कहा, यह सब अनाम पुरखों के गीत हैं, जो उन्होंने खेत जोतते, धान की बोवाई करते, जाते में आटा पीसते, शादी और विवाह के क्षणों में लिखे और समाज को सौंप दिए। उत्तर प्रदेश की विभिन्न बोलियों अवधी, भोजपुरी, ब्रज और बुन्देली आदि में बिखरे पड़े गीतों को संजोकर नई पीढी को देने के लिए मालिनी ने सोन चिरैया नाम की एक संस्था बनाई है। वह कहती हैं कि इस मतदाता जागरूकता अभियान में उन्होंने इस बात का ध्यान रखा कि जिस क्षेत्र में प्रस्तुति है, अपने गीत के बोल को वहां की स्थानीय बोली और लोकसंगीत की शैली में ढाल लूं। मतदाता होने पर गर्व का एहसास कराने के लिए उन्होंने कई नारे गढ़े हैं और छोटी-छोटी नाटिकाएं भी की हैं। वह कहती हैं कि चुनाव की भागदौड में आजकल रियाज छूटा हुआ है। मंच पर गाने के साथ ही रियाज भी हो जाता है। लोगों तक वोट डालने के महत्व का सन्देश पहुंचाने में मालिनी ने करिश्मा कर दिखाया है। इनसे बेहतर कोई और नहीं कर सकता था, यह तो उत्तर प्रदेश का निर्वाचन कार्यालय भी मानता है। सिन्हा भी कहते हैं कि मतदान का प्रतिशत इतना ज्यादा बढ़ जाने का श्रेय मालिनी को भी जाता है। उनके लोकसंगीत में मिठास है। मालिनी इसलिए और खुशनसीब हैं कि उनका पूरा परिवार उन्हें सहयोग करता है। पेशे से डाक्टर बेटी तो मंच पर प्रस्तुति में भी साथ देती है।
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25-02-2012, 04:55 PM | #120 |
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Re: कतरनें
26 फरवरी को वीर सावरकर की पुण्यतिथि पर
स्वातंत्र्य वीर के जीवन से जुड़े रहे विवाद हिन्दुत्व शब्द के जनक कहे जाने वाले स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने एक ओर जहां जन-जन के मन में आजादी का जज्बा भरने का काम किया, वहीं उनके जीवन से विवाद भी जुड़े रहे। नासिक के नजदीक भागपुर गांव में पैदा हुए सावरकर ने स्वाधीनता संग्राम के दिनों में अंडमान निकोबार की सेल्युलर जेल को देशभक्ति के तरानों से पाट दिया था। वह ऐसे पहले भारतीय इतिहासकार हैं जिनके द्वारा 1857 की जंग-ए-आजादी पर लिखी गई मशहूर किताब को ब्रितानिया हुकूमत ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया था। दूसरी ओर महात्मा गांधी की हत्या के संबंध में उन पर लगे आरोप और रिहाई के लिए ब्रिटिश सरकार के साथ कथित समझौते को लेकर वह विवादित भी रहे। महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर आरके आर्य के अनुसार सावरकर में वे सारे गुण थे जो उन्हें महान क्रांतिकारी की श्रेणी में खड़ा करते हैं। रिहाई के लिए उन्होंने जो कथित समझौता किया, वह एक रणनीतिक समझौता था, ताकि आजादी की लड़ाई को जारी रखा जा सके। इतिहासकार मालती मलिक के अनुसार सावरकर को स्वातंत्र्य वीर मानने में किसी को कोई आपित्त नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वह वास्तव में इसके हकदार हैं। कई इतिहासकार ब्रितानिया हुकूमत के साथ उनके कथित समझौते को लेकर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सवाल भी खड़े करते हैं। सावरकर ने लंदन में पढाई के दौरान भारतीय छात्रों को एकजुट कर उन्हें भारत की आजादी के लिए सशस्त्र आंदोलन चलाने को तैयार किया। सावरकर को 13 मार्च 1910 को लंदन में गिरफ्तार किया गया और मुकदमे के लिए भारत भेज दिया गया। इसी दौरान उनके जीवन की सबसे रोमांचक घटना घटित हुई। वह जहाज से समुद्र में कूद गए और काफी दूर तक तैरते रहे। बाद में उन्हें फिर से पकड़ लिया गया और 24 दिसंबर 1910 को उन्हें 50 साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। चार जुलाई 1911 को उन्हें अंडमान निकोबार की सेल्युलर जेल भेज दिया गया। 1921 में उन्हें बंगाल की अलीपुर जेल और फिर महाराष्ट्र की रत्नागिरी जेल स्थानांतरित कर दिया गया। छह जनवरी 1924 को उन्हें राजनीतिक गतिविधियों में भाग नहीं लेने की कथित शर्त के साथ रिहा कर दिया गया। उनकी इस रिहाई के साथ ही विवाद शुरू हो गए। जेल से रिहा होने के बाद सावरकर ने हिन्दू महासभा में अत्यंत सक्रिय भूमिका निभाई। बाद में महात्मा गांधी की हत्या से उनका नाम जुड़ा, लेकिन आरोप साबित नहीं हो पाया। 26 फरवरी 1966 को सावरकर का निधन हो गया।
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