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Old 01-12-2012, 08:45 AM   #111
ravi sharma
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मुनीश्वर बोले, हे वधिक! जो ज्ञानवान् पुरुष है वह अवश्य उस परमानन्द को प्राप्त होता है जिसके पाये से इन्द्रियों का आनन्द सुख तृणवत् तुच्छ प्रतीत होता है और वैसा सुख पृथ्वी, आकाश और पाताल में भी कहीं नहीं मिलता जैसा सुख ज्ञानवान् को प्राप्त होता है | जिसको ऐसा आनन्द प्राप्त हुआ है वह किसको इच्छा करे? आत्मानन्द तब प्राप्त होता है जब आत्म अभ्यास होता है | आत्मा शुद्ध और सर्वदा अपने आपमें स्थित है और जो आगे दृष्टि आता है सो अविद्या का विलास है | जब तू अपने स्वरूप में स्थित होगा तब तुमको सब ब्रह्म ही भासेगा | हे वधिक! पृथ्वी आदिक तत्त्व जो दृष्टि आते हैं सो हैं नहीं, ये जो कुछ होते तो इनका कारण भी कोई होता पर जो ये ही नहीं हैं तो इनका कारण किसको कहिये और जो इनका कारण नहीं तो कार्य किसका कहिये इसलिये ये भ्रममात्र हैं |
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है।
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Old 01-12-2012, 08:46 AM   #112
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विचार किये से जगत् का अभाव हो जाता है और आत्मसत्ता ही ज्यों की त्यों भासती है | जैसे किसी को रस्सी में सर्प भासता है पर जब वह भली प्रकार देखता है तब सर्पभ्रम मिट जाता है और ज्यों की त्यों रस्सी ही भासती है, तैसे ही विचार किये से आत्मसत्ता ही भासती है | जैसे आकाश में संकल्प का कल्पवृक्ष अथवा देवता की प्रतिमा रच कर उससे प्रार्थना की तो अनुभव से कार्य सिद्ध होता है तैसे ही जितना जगत् तू देखता है सो संकल्पमात्र और अनुभवरूप है | जैसे स्वप्नों में नाना प्रकार की सृष्टि स्वप्नमात्र है तैसे ही यह सर्वविश्व ब्रह्म के संकल्प में स्थित है | आदि परमात्मा से कर्म बिना जो सृष्टि उपजी है वह किञ्चन आभासरूप है, फिर आगे जो ब्रह्मा ने रचा है सो संकल्प है और फिर आगे अज्ञान से कर्म करने लगे तब उन कर्मों से उत्पत्ति होती दृष्टि आई है |
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Old 01-12-2012, 08:46 AM   #113
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जैसे स्वप्न में स्वप्ने की सृष्टि भ्रममात्र ही दृढ़ हो भासती है, जब तक स्वप्ने की अवस्था है तबतक जैसा वहाँ कर्म करेगा तैसा ही भासेगा और जो जाग उठे तो न कहीं कर्म है न जगत् है, तैसे ही यह सब संकल्पमात्र है ज्ञान से इसका अभाव हो जाता है | हे वधिक! ये जो तुझको मनुष्य भासते हैं सो मनुष्य नहीं तो उनके कर्म मैं तुझसे कैसे कहूँ? जैसे स्वप्ने के निवृत्त हुए स्वप्ने कि सृष्टि का अभाव होता है तैसे ही अविद्या के निवृत्त हुए अविद्या की सृष्टि का भी अभाव हो जाता है | आत्म सत्ता अद्वैत है उसमें जगत् कुछ बना नहीं- वही रूप है | जैसे आकाश और शून्यता, अथवा वायु और स्पन्द में भेद नहीं होता, तैसे ही ब्रह्म और जगत् में भेद नहीं | जब चित्तसंवित् फुरती है तब जगत् होकर भासती है और जब नहीं फुरती तब अद्वैत होकर स्थित होती है- पर आत्मसत्ता फुरने और न फुरने में ज्यों की त्यों है |
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Old 01-12-2012, 08:46 AM   #114
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जन्म, मरण और बढ़ना, घटना, मिथ्या है, क्योंकि दूसरी वस्तु कुछ नहीं | जैसे किसी ने जल और किसी ने पानी कहा तो दोनों एक ही वस्तु के नाम होते हैं , तैसे ही आत्मा और जगत् एक ही के नाम हैं परन्तु अज्ञान से भिन्न भिन्न भासते हैं | जैसे स्वप्ने में कार्य भासते हैं परन्तु हैं नहीं, तैसे ही जाग्रत में कारण-कार्य भासते हैं परन्तु हैं नहीं-वास्तव में आत्मतत्त्व है | उस आत्मा में जो अहं मम चित्त फुरता है और उस उत्थान से आगे जो कुछ फुरना होता है वही जगत् है, उस जगत् में जैसा-जैसा निश्चय होता है वैसा ही वैसा भासने लगता है-इसका नाम नेति है | उसमें देश, काल और पदार्थ की संज्ञा होने लगती है और कारण-कार्य दृष्टि आते हैं सो क्या है, केवल आत्मसत्ता अपने आप में स्थित है और कुछ हुआ नहीं , परन्तु हुए की नाईं भासता है, तैसे ही स्वप्ने में नाना प्रकार का जगत् भासता है और कारण-कार्य भी दृष्टि आता है परन्तु जागने पर कुछ दृष्टि नहीं आता, क्योंकि है ही नहीं, तैसे ही यह जगत् कारण कार्यरूप दृष्टि आता है परन्तु है नहीं आत्मा से दृष्टि आता है इससे आत्मा ही है |
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Old 01-12-2012, 08:46 AM   #115
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जैसे संकल्प नगर दृष्टि आता है, तैसे ही आत्मा में घन चैतन्यता से जगत् भासता है सो वही रूप है-आत्मा से भिन्न कुछ नहीं | जैसा आत्मा में निश्चय होता है तैसा ही प्रत्यक्ष अनुभव होता है | यह सब जगत् संकल्पमात्र है, संकल्प ही जहाँ तहाँ उड़ते फिरते हैं और अनुभवसत्ता ज्यों की त्यों है-संकल्प से ही मर के परलोक देखता है | वधिक बोला, हे भगवन्! परलोक में जो यह मर के जाता है तो उस शरीर का कारण कौन होता है और वह हत होता और हन्ता कौन है? यह शरीर तो यहीं रहता है वहाँ भोगता शरीर कौन होता है जिससे सुख दुःख भोगता है? जो तुम कहो कि उस शरीर का कारण धर्म अधर्म होता है तो धर्म अधर्म तो अमूर्ति है उससे समूर्ति और साकाररूप क्योंकर उत्पन्न हुआ? मुनीश्वर बोले, हे वधिक! शुद्ध अधिष्ठान जो आत्मसत्ता है उसके फुरने की इतनी संज्ञा होती हैं-कर्म, आत्मा, जीव, फुरना, धर्म, अधर्म आदि नाना प्रकार के नाम होते हैं | जब शुद्ध चिन्मात्र में अहं का उत्थान होता है तब देह की भावना होती है और देह ही भासने लगती है, आगे जगत् भासता है और स्वरूप के प्रमाद से संकल्परूप जगत् दृढ़ हो जाता है, फिर उसमें जैसा-जैसा फुरता है तैसा तैसा हो भसता है |
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हे वधिक! यह जगत् संकल्पमात्र है परन्तु स्वरूप के प्रमाद से सत्य हो भासता है | प्रमाद से शरीर में अभिमान हो गया है उससे कर्तव्य-भोक्तव्य अपने में मानता है और वासना दृढ़ हो जाती है उसके अनुसार परलोक देखता है | हे वधिक! वहाँ न कोई परलोक है और न यह लोक है, जैसे मनुष्य एक स्वप्ने को छोड़कर और स्वप्ने को प्राप्त हो, तैसे ही अविदित वासना से इस लोक को त्यागकर जीव परलोक को देखता है | जैसे स्वप्ने में निराकार ही साकार शरीर उत्पन्न होता है, तैसे ही परलोक है पर वास्तव में संकल्प ही पिण्डाकर होकर भासता है जैसी-जैसी वासना होती है तैसा ही उसके अनुसार होकर भासता है वास्तव में शरीर और पदार्थ सब ही आकाशरूप हैं | हे वधिक! असत्य ही सत्य होकर जन्म मरण भासता है और जैसा-जैसा फुरना होता है तैसा ही तैसा भासता है-जगत् आभासमात्र है | जो ज्ञानवान् पुरुष हैं उनको आत्मभाव ही सत्य है और उसमें जैसा निश्चय होता है तैसा होकर भासता है |
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ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञातारूप जगत् जो भासता है वह अनुभव से भिन्न नहीं | जैसे स्वप्ने में अनेक पदार्थ भासते हैं सो अनुभव ही अनेकरूप हो भासता है और प्रलय में एक हो जाते हैं तैसे ही ज्ञानरूपी प्रलय में सब एकरूप हो जाते हैं | जब संवित् फुरती है तब नाना प्रकार का जगत् भासता है और जब संवित् अफुर होती है तब प्रलय हो जाती है और एकरूप हो जाता है | एक चिन्मात्रसत्ता अपने आपमें स्थित और पृथ्वी आदिक पदार्थ उसका चमत्कार है, भिन्न वस्तु कुछ नहीं, आत्मसत्ता निर्विकार है और उसमें निराकार और साकार भी कल्पित है | जो पुरुष दृश्य से मिले चेतन हैं वे जड़धर्मी हैं और उसको नाना प्रकार के पदार्थ भासते हैं, ज्ञानवान् को सत्यरूप चिन्मात्र ही भासता है | हे वधिक! यह जगत् सब चिन्मात्र है, जब चित्त संवित् फुरती है तब स्वप्नरूप जगत् भासता है और जब चित्तसंवित् फुरने से रहित होती है तब सुषुप्ति होती है | ऐसे ही चित्त संवित्त के फुरने से सृष्टि होती है और चित्त के स्थित होने से प्रलय हो जाती है |
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जैसे स्वप्न और सुषुप्ति आत्मा में कल्पित है, तैसे ही आत्मा में कल्पित सृष्टि और प्रलय आभासमात्र है और जगत् कुछ बना नहीं फुरने से जगत् भासता है इससे जगत् भी आत्मरूप है और पञ्चतत्त्व भी आत्मा का नाम है सदा अद्वैतरूप जगत् आभासमात्र है | जैसे आत्मा में साकार कल्पित है तैसे ही निराकार भी कल्पित है जैसे स्वप्ने में किसी को साकार जानता है और किसी को निराकार जानता है पर दोनों फुरनमात्र है | जो फुरने से रहित है सो आत्मसत्ता है साकार और निराकार भी वही है | आत्मसत्ता ही इस प्रकार हो भासती है और निराकार ही साकार हो भासता है | हे वधिक! सर्व जगत् जो तुझको दृष्टि आता है सो चिन्मात्रस्वरूप है, भिन्न कुछ नहीं, परन्तु अज्ञान से नाना प्रकार के कार्य-कारण और जन्म-मरण आदि विकार भासते हैं वास्तव में न कोई जन्म है और न मरण है, न कोई कार्य है और न कारण है |
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Old 01-12-2012, 08:48 AM   #119
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यदि जीव मरण होता तो परलोक भी न देखता और अपने मरने को भी न जानता जो मर के परलोक देखता है सो मरता नहीं | यदि मनुष्य मृतक हो तो पूर्व के संस्कार को न पावे और पूर्वस्मृति इसको न हो पर तू तो पूर्वसंस्कार से क्रिया में प्रवर्तता है और प्रतियोग से तुझे पदार्थों की स्मृति भी हो आती है फिर कर्म भोगता है | लोकमें तो पुरुष मृतक नहीं होता केवल भ्रम से मरण भासता है और कारण कार्यरूप पदार्थ भासते हैं जब मरके परलोक देखता है सुख दुःख भोगता है तो वह शरीर किसी कारण से नहीं बना | जैसे वह शरीर अकारण है तैसे ही और जो आकार दृष्टि आते हैं वे भी अकारण हैं-इसी से आभासमात्र हैं, जैसे स्वप्ने के शरीर से नाना प्रकार की क्रिया होती है और देश देशान्तर देखता है सो सब मिथ्या है, तैसे ही यह जगत् मिथ्या है और मरण भी मिथ्या है | जो तू कहे कि इसके आकार का अभाव देखता है सो मृतक है तो हे वधिक! जो यह पुरुष परदेश जाता है तो भी इसका आकार दृष्टि नहीं आता |
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Old 01-12-2012, 08:48 AM   #120
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जैसे दृष्टि के अभाव में असत्य होता है, तैसे ही देह के त्याग में भी इसका असत्यभाव होता है पर इस पुरुष का अभाव कदाचित् नहीं होता | जो तू कहे कि परदेश गया फिर आ मिलता है शरीर के त्याग से फिर मिलता तो परदेश गया फिर मिलकर वार्त्ता चर्चा करता है और मुआ तो कदाचित् चर्चा नहीं करता पर जिसके पितर प्रीति बँधे हुए मरते हैं और जिनकी यथाशास्त्र क्रिया नहीं होती तोवे स्वप्ने में आ मिलते हैं और यथार्थ कहते हैं कि हमारी क्रिया तुमने नहीं की, हम अमुक स्थान में पड़े हैं और अमुक द्रव्य अमुक स्थान में पड़ा है तुम निकाल लो, तो जैसे परदेशीगण मिलते हैं और वार्ता चर्चा करते हैं तैसे ही मुये भी करते हैं | हे वधिक! वास्तव में न कोई जगत् है और न कोई मरता है केवल आत्मसत्ता अपने आपमें स्थित है और जैसा-जैसा उसमें फुरना फुरता है तैसा हो भासता है | हे वधिक! अनुभवरूप कल्पवृक्ष है, जैसा-जैसा उसमें फुरना फुरता है तैसा ही तैसा हो भासता है |
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