08-07-2013, 11:27 PM | #111 |
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Re: इधर-उधर से
(लेखक: जयप्रकाश मानस) उस दिन आफिस के लिए निकला तो देखता हूँ कि पड़ोसन भाभी, अस्त व्यस्त साड़ी लपेटे, बदहवास सी कहीं चली जा रही थी । मैंने स्कूटर उनके पास रोक कर पूछा- ‘क्या बात है भाभी इस तरह .......मेरी बात पूरी भी न होने पाई थी कि वह सुबकने लगीं।’ सुबकते हुए बड़ी मुश्किल से बोल पाईं, “अभी-अभी खबर मिली है कि गुड्डी के दूल्हे ने जहर खा लिया है, इसलिए उसके यहाँ जा हूँ ।” मन बहुत आहत हुआ, किंतु क्या कर सकता था सिवाय इसके कि उन्हें बस स्टेण्ड तक छोड़ दूँ । शाम को लौटते समय सोचा चलो उनके घर का हाल तो ले लूँ । मैंने दरवाजा खटखटाया ही था कि अंदर से भाभी की हँसी सुनाई पड़ी । मैं चौंका, तभी भाभी बाहर आ गई । उनके मुस्कुराते चेहरे को देखकर मैंने कहा- ‘अफवाह थी ना ?’ ‘नहीं, वो तो मुझे तब राहत मिली जब बस स्टैण्ड में ही पता चला कि ज़हर, गुड्डी के दूल्हे ने नहीं, उसके जेठ ने खाया था।’ भाभी ने कहा । |
08-07-2013, 11:29 PM | #112 |
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Re: इधर-उधर से
नसीहत
(लेखक: जयप्रकाश मानस) मुन्ना दौड़ता हुआ कमरे से निकल रहा था, कि उसका पैर फर्श में पड़े गिलास से टकराया गया और गिलास टूट गया। पास खड़े पापा जी ने एक चपत लगा कर ‘देखकर चलने’ की नसीहत पिला दी । चंद दिनों बाद एक दिन मुन्ना बरामदे में खेल रहा था । पापाजी कहीं जाने को जल्दी-जल्दी निकले तो उनका पैर कमरे में रखे कप से टकरा गया । मुन्ना की निगाह पापा जी से मिली किंतु अप्रत्याशित रुप से इस बार फिर चपत उसे पड़ गई और साथ ही नसीहत, कि चीजों को ठीक जगह पर क्योंनहीं रखते। |
09-07-2013, 09:36 PM | #113 |
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Re: इधर-उधर से
हृदयग्राही उद्धरण ... आभार बन्धु।
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12-07-2013, 12:29 AM | #114 |
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Re: इधर-उधर से
लघुकथा / इकलौती औलाद
(लेखक: दीपक 'मशाल') उस छोटे से कस्बे में ले दे कर एक ही तो टॉकीज थीजिसमें सबको मनोरंजन के लिए जाना होता था।लेकिन उसे क्या पता था कि आज उसके स्कूल से भागकर और घर से चुराए गए उन पैसों से वो माधुरी दीक्षित की याराना फिल्म देखने से इतनी बड़ी मुसीबत में फंस जाएगा।फिल्म ख़त्म होने तक तो सब ठीक-ठाक था लेकिन बाहर निकलते ही उसके सामने पड़ोस में रहने वाले वो मिश्रा अंकल पड़ गए।अब एक तो मिश्रा जी इधर-उधर करने में माहिर, ऊपर से पापा के दोस्त भी।उसकी तो ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे।शाम को पिटाई तो तय ही थी।मारे डर के वो घर ना जाकर कस्बे से सौ किलोमीटर दूर बसे शहर को जाने वाली रेलगाड़ी में बैठ गया।शाम तक जब उसका कुछ पता ना चला तो घर वाले परेशान हो उठे।मोहल्ले में हंगामा मच गया, सारे कस्बे में कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा गया, मिश्रा जी को भी उसी दिन किसी काम से 15 दिन के लिए बाहर जाना पड़ गया तो अब खबर कौन देता।पुलिस में रिपोर्ट हुई लेकिन नतीजा सिफ़र। कहते हैं कि भूख वो बला है जो अच्छे-अच्छों को रास्ते पर ले आती है।तो दो दिन बाद जब सारा पैसा ख़त्म हो गया तो लड़का थक हार कर पेट टटोलता हुआ घर लौट आया।अब ना उसे मार का डर था ना पिटाई का, थी तो सिर्फ भूख।रास्ते में बचने का उपाय भी सोच लिया।घर पहुँचने पर माँ-बाप के तो जैसे प्राण ही लौट आये।पूछने पर उसने बताया कि एक झोली वाला बाबा उसके ऊपर जादू करके ले गया था।पहले साथ में फिल्म दिखाई फिर बिस्कुट खिलाकर जाने क्या नशा करा दिया कि उसे पता ही ना चला फिर क्या हुआ।लेकिन जब दूसरे शहर में पहुँचने पर होश में आया तो किसी तरह जान छुड़ा कर घर लौट आया। लड़के की बहादुरी से सभी बड़े प्रभावित, ऐसे स्वागत हुआ जैसे कोई कुँवर जंग जीत कर लौटा हो।अब बाप को चोरी हुए पैसों का सारा चक्कर समझ में तो आ रहा था, पर बेचारा इकलौती औलाद का और करता भी क्या। (अंतरजाल से) |
12-07-2013, 12:31 AM | #115 |
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Re: इधर-उधर से
लघुकथा / देनदारी
(लेखक: दीपक 'मशाल') उम्र के सातवें दशक में कदम रखते अवध किशोर की साइकिल भी उसी कीतरह हो चली थी। बाकी सब तो चलाया भी जा सकता लेकिन उस चेन का क्या करते जो इतनी पुरानी और ढीली पड़ गई थी कि हर दस कदम पर ही उतर जाती। अपना खुद का कोई ख़ास काम ना होने की वजह से उसे घर के सामान लाने के इतने काम दे दिए जाते कि सारा दिन निकल जाता। वो भी साइकिल के बिना तो दिन भर में भी पूरे ना हों। आज उसकी छोटी सी वृद्धावस्था पेंशन हाथ आई तो सोचा कि पहले नई चेन ही डलवा लेते हैं। पैसे लेकर घर पहुंचा ही था कि उसके हाथ में हरे-हरे नोट देख बेटा बोल पड़ा, ''दद्दा दो महीना पहलें तुमने चश्मा और जूता के लाने जो पैसा हमसे लए ते वे लौटा देओ, हमे जा महीना तनख्वाह देर से मिलहे और मोटरसाइकिल की सर्विस जरूरी कराने है।'' अवध किशोर ने पैसे उसे देते हुए इतना ही कहा, ''हाँ बेटा हम तो भूलई गए ते कि तुम्हाई कछू देनदारी है हमपे, अच्छो रओ तुमने याद दिला दई।'' (अंतरजाल से) |
12-07-2013, 12:36 AM | #116 |
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Re: इधर-उधर से
सुनने की कला
(विलियम स्ट्रिंगफेलो) सुनने का गुण मानव जीवन को विशिष्टता प्रदान करता है. आप दूसरे व्यक्ति के कहे हए शब्द नहीं सुन पायेंगे यदि आप अपनी वेशभूषा के बारे में ही सोच रहे होंगे या यह सोच रहे होंगे कि आप दूसरे व्यक्ति के चुप होने के बाद क्या बोलेंगे अथवा वह जो बोल रहा है वह ठीक है या नहीं, तर्कपूर्ण या सहमत होने लायक है भी या नहीं. इन सभी मुद्दों का अपना अपना महत्व है, किन्तु तभी जब वक्ता अपनी बात कह चुका हो और सुनने वाला एक एक शब्द को पूरी गंभीरता से सुन चुका हो, उसके बाद. सुनना भी प्रेम-प्रदर्शन का एक पुरातन तरीका है, जिसमे एक व्यक्ति बोलने वाले के शब्दों को ईमानदारी से सुनता है और उन्हें समर्पित भाव से अपने ह्रदय और मस्तिष्क तक आने देता है. |
12-07-2013, 12:41 AM | #117 |
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Re: इधर-उधर से
वनों के प्यार में एक व्यक्ति यदि अपना आधा दिन पेड़ों व हरियाली के आकर्षण मेंबंध कर किसी वन में जा कर बिताता है, तो दुनिया वाले उसे ‘आवारा’ या ‘लोफ़र’ कह कर बुलाने से नहीं चूकते. दूसरी ओर, यदि एक व्यक्ति उसी जंगल के पेड़ काटता है, बेचता है और समय से पहले ही धरती को बंजर बनाने की दिशा में काम करता है तो उसे बड़ा मेहनती और उद्यमशाली नागरिक कह कर इज्ज़त-मान दिया जाता है. क्यों? हेनरी डेविड थोरो (1817-1862) अमरीकी लेखक, कवि, दार्शनिक, दास-प्रथा विरोधी |
12-07-2013, 12:44 AM | #118 |
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Re: इधर-उधर से
एक चीनी बोध-कथा
एक जगह पर कुछ पढ़े-लिखे, सभ्य और बुजुर्ग लोग समय समय पर मुलाक़ात किया करते थे, विचार-विनिमय के साथ चायपान करते थे. हर मेज़बान अपनी बारी आने पर अच्छी से अच्छी और महंगी से महंगी चाय का इंतजाम करता था और चाहता था कि मेहमान उसकी चाय पी कर उसकी महक की तारीफ़ करें. जब उस समूह में परम श्रद्धेय व आदरणीय बुज़ुर्ग की मेहमाननवाजी की बारी आई, उसने बड़े समारोहपूर्वक एक स्वर्ण-मंजूषा से चाय की चुनिन्दा पत्तियाँ निकाल कर चाय तैयार करवाई और उसे मेहमानों को पेश किया. वहां उपस्थित जानकार मेहमानों ने इस बेहद स्वादिष्ट चाय की जमकर तारीफ़ की. इस पर मेज़बान ने मुस्कुरा कर कहा, “जिस चाय की आप इतनी तारीफ़ कर रहे हैं, यह वास्तव में वही चाय है जो हमारे किसान भाई पीते हैं. मुझे आशा है कि आप सब इस बात को बखूबी समझ गये होंगे कि जीवन में प्राप्त होने वाली सभी बढ़िया वस्तुयें जरूरी नहीं कि नायाब या बेशकीमती हों. |
12-07-2013, 08:41 PM | #119 |
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Re: इधर-उधर से
जीवन में प्राप्त होने वाली सभी बढ़िया वस्तुयें जरूरी नहीं कि नायाब या बेशकीमती हों.
सच को गोद में लिए हुए है यह सुन्दर सूक्ति ...... हृदय से आभार बन्धु .
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14-07-2013, 07:21 PM | #120 |
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Re: इधर-उधर से
कोई काम छोटा नहीं
नेपोलियन कहीं जा रहा था. रास्ते में उसकी नज़र एक दृश्य पर पड़ी. वह रुक गया. बहुत सारे मजदूर मिलकर एक खम्बे को उठाने की कोशिश कर रहे थे. सभी पसीने से तरबतर हो रहे थे. पास में खड़ा आदमी मजदूरों पर गरम हो रहा था और उन्हें उठाने का आदेश दे रहा था. नेपोलियन उस आदमी के पास गया और कहने लगा, “आप भी इन बेचारों की मदद कीजिये.” उसे एक दम गुस्सा अ गया. फिर झिड़कते हए कहने लगा, “तुम्हें मालूम है मैं कौन हूँ?” “नहीं भाई, मैं तो इस स्थान के लिए नया हूँ. मुझे नहीं पाता कि आप कौन हैं.” नेपोलियन ने विनम्रता से कहा. “मैं ठेकेदार हूँ,” उसने रौब जमाते हए कहा. नेपोलियन बिना कुछ कहे मजदूरों की ओर गया और उनके साथ काम में हिस्सा बंटाने लगा. जब वह जाने लगा, तो ठेकेदार ने उससे पूछा, “तुम कौन हो?” “ठेकेदार साहब, लोग मुझे नेपोलियन कहते हैं.” नेपोलियन ने मुस्कुराते हए कहा. नेपोलियन का नाम सुनते ही वह भयभीत हो गया. उसने नेपोलियन से अपनी असभ्यता के लिए माफ़ी मांगी. नेपोलियन ने उसे समझाया कि किसी काम को अपने पद से नहीं देखना चाहिए और न ही किसी काम को छोटा समझना चाहिए. |
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