06-10-2014, 12:20 AM | #111 |
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Re: मुहावरों की कहानी
पहला ऑप्शन है- पैर पकड़ना। अब पैर पकड़ना भी कई तरह से होता है। एक होता है किसी युवती को छेड़कर पहले उससे जूते खाना और फिर उसके सॉफ्ट पैर पकड़कर उससे माफी मांगना। दूसरा होता है- अपने बॉस के पैर पकड़कर उसे यह यकीन दिलाना कि भविष्य में अकेले-अकेले रिश्वत खाने का महापाप नहीं किया जाएगा और रिश्वत की राशि सबसे पहले बॉस के श्रीचरणों में ही रखी जाएगी। तीसरा होता है- किसी नेता के पैर पकड़कर उससे यह गुजारिश करना कि 'हे लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी, चलो इस बार तो आपने अपना बेटा चोर दरवाजे से नौकरी में फिट कर लिया, लेकिन अगली बार मेरे बेटे का भी ध्यान रखना। उसके भी फ्यूचर का सवाल है।' चौथा होता है- अपनी टिकट कटती देखकर किसी नेता द्वारा हाईकमान के पैर पकड़ लेना और यह दुहाई देना कि 'हे पापियों के तारनहार, हे सर्वशक्तिदाता, मेरा टिकट काट कर इतना जुल्म न कर। मैंने घोटाले ही तो किए, कोई देश की सुरक्षा का सौदा थोड़े ही किया और घोटालों से जो भी कमाया है, उसका भोग आपको भी तो लगाया है। आपकी स्मरणशक्ति इतनी कमजोर कैसे हो गई?
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
06-10-2014, 12:22 AM | #112 |
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Re: मुहावरों की कहानी
पैरों वाले मुहावरे
अगला मुहावरा है- अपने पैरों पर खड़े होना। इस दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हैं जो अपने पैरों की बजाय दूसरों के पैरों पर खड़े हैं। जैसे बिगड़ैल औलाद अपने बाप के पैरों पर चढ़कर ऐश करती है। चोर, उचक्के, डाकू, स्मगलर और तमाम तरह के धंधे करने वाले लोग पुलिस के पैरों पर खड़े होकर अपना कारोबार चलाते हैं, पुलिस वाले लीडरों के पैरों पर खड़े होकर लाठी चलाते हैं, लीडर लोग अपने पैरों की बजाय हाईकमान, बाहुबलियों और ठेकेदारों के पैरों पर खड़े होकर राज करते हैं, सरकारें घटक दलों के पैरों पर खड़ी होकर मुल्क को हांकती हैं....अगर वे अपने पैरों पर खड़े होने की जुर्रत करती हैं तो लड़खड़ा कर गिर जाती हैं। अगला मुहावरा है- अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। भले ही आज जमाना एक-दूसरे को गोली और बम से उड़ाने का है, लेकिन इसके बावजूद पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाले सच्चे शूरवीर इस मुल्क में मौजूद हैं। ऐसे महानुभावों में कई माननीय सांसद पहले नंबर पर आते हैं। दूसरे नंबर पर मैं आता हूं। मैंने भी कई बार अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। कई बार पत्नी के सामने प्यार भरी बातें करते- करते किसी और की तारीफ कर दी। कभी-कभी एक नेता के सामने दूसरे नेता की प्रशंसा कर दी। यह बात दीगर है कि जैसे कुर्सी मिलते ही लीडर का हाजमा ठीक हो जाता है, वैसे ही मरहम पट्टी के बाद मेरे पैर फिर से ठीक हो जाते हैं। चौथा मुहावरा है- चादर देख कर पैर पसारना। तो जनाब, मैं पैर पसारने से पहले कई बार अपनी चादर देख चुका हूं। भ्रष्टाचार और अनैतिक कारनामों के जितने दाग मेरे दामन पर लगे हैं, उतने ही दाग मेरी चादर पर भी लगे हैं। यही नहीं, पैरों से ज्यादा चादर पसारने के कारण बेचारी चादर कई जगह से फट भी चुकी है। लेकिन मैं इसी चादर को ओढ़ता, बिछाता हूं और मुल्क के लोकतंत्र की तरह अपने भाग्य पर इठलाता हूं। **
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14-10-2014, 12:25 AM | #113 |
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Re: मुहावरों की कहानी
मुहावरों का वाक्यों में प्रयोग
सुप्रेम त्रिवेदी स्कूल के दौरान इससे मज़ेदार और सृजनात्मक लेखन प्रश्नोत्तरों के दौरानशायद ही किसी ने किये हों. हमारी (इसे कुछ लोग मेरी भी कहते हैं, लेकिन हम लखनऊवासी 'मैं' को 'मैं' नहीं 'हम' कहते हैं क्योंकि हम कभी अकेलेनहीं चलते, जहाँ चलते हैं चार लड़के दायें बाएँ हमेशा रहते हैं.) हिंदी कीअध्यापिका महोदया हमेशा हमसे इसीलिए परेशान रहीं. कभी हम इस प्रश्न काउत्तर खाली छोड़ के नहीं आये. एक वाक्य बोलिन तौ दुई लिखेन की एक तौ सहीहुइबे करिहै. एक बार तो उन्होंने हद्द ही कर दी. प्रश्न में सिर्फ वाक्यप्रयोग करने को बोला अर्थ लिखने को नहीं. हम बड़े खुश ... पढ़ लो ये रायताफैलाये थे हम. सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाना:मेरी सिट्टी-पिट्टी बहुत दिनों से गुम है, मिलती ही नहीं. असमान फट पड़ना:मेरा असमान बहुत दिनों से फटा पड़ा है. कृपया उसे जोड़ दें. अब इस पर नंबर तो मिले नहीं. हाँ लेकिन सबके सामने बुला के वाह-वाही खूबमिली, और क्लास से तीन दिन की छुट्टी भी.
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16-10-2014, 11:27 PM | #114 |
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Re: मुहावरों की कहानी
मेरे युग का मुहावरा > फ़र्क़ नहीं पड़ता
आलेख: अजीत भारती तुमने जहाँ लिखा है प्यार केदारनाथ सिंह ने अपने समय में ये लिखा था और उसके बाद से तो प्यार की जगह सड़क, नाली, टट्टी, पेशावघर, काँजीहौस… कुछ भी लिख दो, फ़र्क़ नहीं पड़ता जी! और प्यार का अगर थोड़ा व्यापक अर्थ लें कि प्राणीमात्र से प्यार, तो फिर स्थिति और भी भयावह है। समय नहीं है सोचने का क्योंकि फ़र्क़ नहीं पड़ता। बदायूँ में इसी प्यार के सड़क पर रौंद दिये गए दो जीवन, और रौंद दिए जाते हैं लगभग रोज़ ही एसे प्यार करने वाले अलग अलग जगहों पर। हमें क्या? वैसे भी हम बहुत ज़्यादा कर नहीं सकते, हाँ महसूस कर सकते हैं जिसमें कोताही नहीं होनी चाहिए। लेकिन ये बातें आपके गणित की किताब की त्रिकोणमिति नहीं है कि बीस नंबर का नहीं पढ़ेंगे तो भी पास हो जाएँगे। गणित और जीवन में यही फ़र्क़ है और हमें, आपको, हर इंसान को फ़र्क़ तो पड़ना चाहिए। इराक़ के हालात का फ़र्क़ पड़ना चाहिए, ट्विन टावर पर प्लेन हमले का फ़र्क़ पड़ना चाहिए और घटते हुए लिंगानुपात का भी फ़र्क़ पड़ना चाहिए। हमारी सोच कैसे इन सब से बेपरवाह रह सकती है? अपने युग के इस मुहावरे को बदलने की ज़रूरत है, फ़र्क़ तो पड़ना चाहिये अगर कोई प्यार की जगह सड़क लिख रहा हो तो।
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16-10-2014, 11:40 PM | #115 |
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Re: मुहावरों की कहानी
तीन मुहावरे
(अंतरजाल से) 1. नाच न जाने आँगन टेढ़ा हे सखी, चल नाचते हैं!! गाते हैं, गुनगुनाते हैं!! कैसे गाऊँ, कैसे गुनगुनाऊं!! गला मेरा खराब, पांवोंमें है दर्द!! मैं तोनाचना, जानती नहीं!! गाना गुनगुनाना, जानती नहीं!! इसलिए कहते हैं, नाच ना जाने, आँगन टेढ़ा !!
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16-10-2014, 11:43 PM | #116 |
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Re: मुहावरों की कहानी
तीन मुहावरे
2. आलसी एक बहाने अनेक चल बेटा उठ जा, ताज़ा दम हो जा, फिर स्कूल जा!! माँ मुझे स्कूल, नहीं जाना!! मैं हूँ बहुत बीमार, यह तेरा रोज़, का बहाना!! तुझे घर पे, करना है आराम!! इसलिए कहते हैं, आलसी एक, बहाने अनेक!!
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16-10-2014, 11:45 PM | #117 |
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Re: मुहावरों की कहानी
तीन मुहावरे
3. हाथ न पहुँचे, थू कोड़ी कितने मीठे मीठे आम, लगे हैं पेड़ पे!! चल दोस्त इसे तोड़ें, तू चढ़ मेरी पीठ पे!! रहने दे यार, तू क्यूँ इन्हें, करता है खराब!! यह हैं कच्चे आम, इन्हें खा कर, नहीं करना गला खराब!! इसलिए कहते हैं, हाथ ना पहुँचे, थू कोड़ी!!
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19-10-2014, 02:36 PM | #118 |
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Re: मुहावरों की कहानी
मुहावरों पर पिटाई, क्यों भाई?
आलेख: सूर्यकुमार पांडेय मेरा शायर मिजाज मित्र अमर अमरोहवी विलाप करता हुआ मेरे दरवज्जे पर प्रस्फुटित हुआ। कतई गुमसुम था। मैंने कुरेदा तो कहने लगा, ‘अब नहीं बोलूंगा। हरगिज नहीं बोलूंगा।’ मैंने उसकी पीठ थपथपाते हुए इस रहस्यवादी प्रलाप का कारण जानना चाहा। अमरोहवी ने अपने सूजे हुए गालों को सहलाते हुए बयान दिया, ‘आज से मैं न तो कोई मुहावरा बोलूंगा, न लोकोक्ति, न कहावत। मुझेपिटने का इतना शौक नहीं है। ..अब आप ही कहिए, मेरी गलती क्या थी, जो दोनों ने मिलकर मेरी कुटम्मस की!’ ‘पहेलियां मत बुझाओ, शायरेआलम। आखिरकार वे दोनों थे कौन?’, मैंने खीजते हुए पूछा। ‘वही दोनों, चौबे ओर दुबे! पहने चौबे ने तोड़ा। फिर दुबे ने मेरी मरम्मत की,’ अमर अमरोहवी ने अपना थोबड़ा खोलते हुए फरमाया, ‘अरे, मैंने इतना ही तो कहा था कि चौबे चले छब्बे बनने, दुबे बन के आ गए। चांस की बात वे दोनों घटनास्थल पर ही खड़े थे। >>>
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19-10-2014, 02:39 PM | #119 |
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Re: मुहावरों की कहानी
मुहावरों पर पिटाई, क्यों भाई?
<<< ‘एक बोला, तुमने मेरा अपमान किया है। दूसरे ने कहा, मेरी भी इंसल्ट हुई है। इसके बाद दोनों ने युगलगान करते हुए मेरी कंप्लीट इंसल्ट की। पांडे जी, वह तो गनीमत समझिए कि वहां पर कोई छब्बे नहीं था, वरना वह भी मुझे कूटता।’ मामला वास्तव में बीहड़ था। मैंने अमर अमरोहवी को उकसाते हुए कहा, ‘भैये, इतनी अच्छे सिक्स पैक शरीर के होते हुए तुम पिटकर आ गए। सौ सुनार की, एक लोहार की। धमक देते दुबे-चौबे दोनों बंधुओं को!’ अमर अमरोहवी कांखता हुआ दाएं-बाएं देखने लगा। फिर खुद ही कह उठा, ‘पांडे जी, आप सोच रहे होंगे, मैं अगल-बगल क्या देख रहा था? तो मैं यह देख रहा था कि कहीं कोई सुनार या लोहार महोदय तो मेरी बगल में नहीं खड़े हैं! मैं तो उनके हाथों से ही पिटा, आप तो आज हथौड़े से कूटे जाते।’ इसके बाद अमरोहवी ने, ‘धोबी का कुत्ता, न घर का, न घाट का,’ ‘कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली,’ ‘जाट रे जाट, तेरे सिर पर खाट,’ ‘नाई रे नाई, कितने बाल,’ जैसे लगभग तीन दर्जन जुमले मेरे कानों में टपकाते हुए सख्त हिदायत दी कि मैं इनका उच्चारण न करूं। और हो सके तो विभिन्न जातियों और समुदायों के उल्लेख वाले इन मुहावरों को भरसक शब्दकोश, साहित्य, इतिहास और अपनी स्मृति तक से मिटाने का प्रयास करूं। वर्ना खैर नहीं। अपना शायर यार अमर अमरोहवी तो इतना कहकर फूट लिया और मैं यहां समाज के सर्वमान्य मुहावरे की तलाश में अपना मत्था फोड़ रहा हूं। और मुहावरे हैं कि मुंह बिरा रहे हैं। **
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19-10-2014, 03:18 PM | #120 |
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Re: मुहावरों की कहानी
मुहावरा:
संकट की घड़ी दर खुला तो देखा आँखों में आंसू चेहरे पे हँसी थी साँसों में आहें पर दिल में बेबसी थी !! अरे पहले क्यों नहीं बताया के दरवाजे में ऊँगली फंसी थी? सच बड़े संकट की घड़ी थी.
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