My Hindi Forum

Go Back   My Hindi Forum > Art & Literature > Hindi Literature
Home Rules Facebook Register FAQ Community

Reply
 
Thread Tools Display Modes
Old 12-07-2013, 02:37 PM   #111
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

एक करोड़ से कुछ कम
राजकिशोर








वे पाँच थे। तीन के शरीर खादी से ढके हुए थे और दो के सफारी से। लेकिन इससे उनकी पहचान में कोई फर्क नहीं पड़ता था। अव्वल तो उनकी तरफ किसी शरीफ आदमी की नजर उठती ही नहीं थी और उठती तो तुरंत स्पष्ट हो जाता कि वे कांग्रेस नाम की उस संस्था के सदस्य हैं जो किसी भी घाट पर पानी पी सकती है और उससे जीवनी शक्ति अर्जित कर सकती है। उन पाँचों के चेहरे पर रुआब का जो पतला पानी था, वह कांग्रेस के गहरे गड्ढे से ही संचित किया हुआ था। ऐसी शख्सियतों से मेरा नजदीक का पाला कभी नहीं पड़ा। उनके बारे में मैं जो भी जानता था, उसका आधार उनके बारे में फैली हुई किंवदंतियाँ या सत्यकथाएँ थीं। अनेक जीवों को हमने देखा नहीं होता है, पर उनके गुणों से हम सभी अवगत होते हैं। हर जानकारी अगर अनुभव के आधार पर ही जुटानी पड़े तो मानव जाति तबाह हो जाएगी।
वे पाँच थे, पर उनमें मतैक्य था। कुछ ऐसा महत्त्वपूर्ण था, जो उन्हें इस क्षण ऐक्यबद्ध कर रहा था। विचारों से नहीं, इरादे से। वे मेरे घर में यद्यपि घंटी बजा कर, लेकिन साधिकार घुसे और सोफे पर इस तरह पसर गए जैसे वे रुबाई नहीं, गजल पढ़ने की तैयारी करके आए हों। शायद वे मेरे बारे में जानते थे और उन्हें मुझसे बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं थी। फिर भी, जाहिर था कि उन्हें अपने आप पर पूरा भरोसा है। बिना इस भरोसे के राजनीति की भी नहीं जा सकती। लेकिन वे मेरे पास किसी राजनीतिक काम से नहीं आए थे। इसके लिए कोई नेता, चाहे वह कितना भी छुटभैया हो, नागरिक के पास नहीं आता। उनका ध्येय आर्थिक था, जैसा कि होता है।
स्वागत-सत्कार के बाद मैंने जानना चाहा कि मैं उनके लिए क्या कर सकता हूँ। उनमें से एक रहस्यमय ढंग से मुस्कराया, 'कुछ नहीं, बस आपका थोड़ा-सा सहयोग चाहिए।' 'फरमाइए।' 'ऐसा है कि हम चंदा माँगने के लिए निकले हैं।' मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि कांग्रेस के बारे में मेरी समझ यह थी कि उसे अब जनसाधारण के पैसों की जरूरत नहीं रही। यहाँ तक कि अब चवन्निया सदस्य बनाने का अभियान भी नहीं चलाया जाता। पैसे जमा करने के मामले में वह फुटकर के बजाय थोक पर भरोसा करती है। मेरी आर्थिक स्थिति जैसी है, उसे देखते हुए कहीं से भी यह आशंका नहीं थी कि आज की कांग्रेस मुझे चंदा माँगने लायक समझ सकती है। सो मैंने अटकल लगाने की कोशिश की, 'यह परिवर्तन कैसे? क्या इस बार के चुनाव जनता के पैसे से लड़े जा रहे हैं?' यह उन्हें लहरा देने के लिए काफी था। चेहरे तो कई के तमतमाए, लेकिन जवाब उसने दिया जो सबसे ज्यादा खुर्राट जान पड़ता था, 'अजी, क्या बात कही आपने! क्या कांग्रेस की हालत इतनी पतली हो चुकी है कि वह चुनाव लड़ने के लिए भीख माँगती फिरे? माफ कीजिए, मैं आपको पढ़ा-लिखा समझता था।'
अपने अज्ञान पर मुझे शर्म आई। भारत के आम नागरिक की हैसियत यह हो चुकी है कि कोई भी उसे शर्मिंदा कर सकता है। अपनी शर्म मिटाने की कोशिश करते हुए मैंने जानना चाहा, 'माफ कीजिए, जबान फिसल गई। कृपया बताएँ कि आप किस अभियान पर निकले हैं।' बीच में बैठे हुए ने खँखारते हुए-से कहा, 'आपने अखबारों में देखा ही होगा कि सोनिया जी के पास एक करोड़ से कुछ कम की संपत्ति है। यही कोई पाँचेक लाख कम पड़ रहे हैं। हालांकि अनेक लोगों का कहना है कि सोनिया जी ने अपनी कुल संपत्ति का मूल्य बहुत कम करके दिखाया है, लेकिन यह सब उनके राजनीतिक विरोधियों का प्रोपेगैंडा है। यह हमारी राष्ट्रीय नेता के चरित्र हनन की कोशिश है। हम इस बेहूदा अभियान को सफल नहीं होने देंगे। लेकिन हम यह भी नहीं चाहते कि उनकी संपत्ति एक करोड़ से कम रह जाए।'
उसके बाईं ओर बैठे ने बात पूरी करने की कोशिश की, 'आज हम यह सोच कर निकले हैं कि कम से कम पाँच लाख रुपए जमा करके ही दम लेंगे। हम चाहते हैं कि यह राशि कल ही उन्हें सार्वजनिक रूप से भेंट कर दी जाए, ताकि कोई यह तोहमत न लगा सके कि कांग्रेस अध्यक्ष के पास एक करोड़ की भी संपत्ति नहीं है। दूसरे, हम उन्हें पाँच लाख की एक छोटी-सी कार भी भेंट करना चाहते हैं। बताइए, यह भी कोई बात हुई कि कांग्रेस जैसी ऐतिहासिक संस्था के अध्यक्ष के पास एक कार भी न हो! बताइए, आप कितना दे रहे हैं!'
दाईं ओर बैठे ने स्पष्ट किया, 'घबराइए नहीं, हम एक-एक पैसे की रसीद देंगे। हम टीवी वालों को यह दिखाना चाहते हैं कि सोनिया जी की इज्जत रखने के लिए जनसाधारण किस तरह उमड़ पड़ा है। टीवी पर सारी रसीदों की नुमाइश की जाएगी। और हमने यह भी तय किया है कि किसी एक आदमी से दस हजार से ज्यादा का सहयोग नहीं लेंगे। हम चाहते तो यह थे कि एक हजार की सीलिंग रखी जाए। मगर हमने हिसाब लगा कर देखा कि तब हमें कम से कम एक हजार आदमियों के पास जाना पड़ेगा। आजकल इतना समय किसके पास है? फिर दिल्ली में गर्मी कितनी पड़ रही है!'
मैंने कहा कि कांग्रेस तो गरीबों की पार्टी है। वह गरीबों के लिए काम करती है। फिर कांग्रेस अध्यक्ष के पास एक करोड़ की संपत्ति क्यों हो? इस पर पाँचों सकते में आ गए। जवाब बाईं ओर एकदम किनारे बैठे ने दिया, 'लगता है, आप अखबार भी नहीं पढ़ते। पढ़ते होते, तो आपको मालूम होता कि जयललिता के पास चौबीस करोड़ रुपए की संपत्ति है। करुणानिधि के पास बाईस करोड़ की संपत्ति है। मायावती के पास पता नहीं कितना होगा। पर आपसे इस बहस में क्या पड़ना। कुछ देना हो तो दीजिए, नहीं तो हमारा समय मत खराब कीजिए।'
मेरे गरीब-से चेहरे पर असमर्थता के भाव पढ़ कर उनमें जो सबसे बुजुर्ग था, वह बोल उठा, 'छोड़िए, आपको कुछ भी देने की जरूरत नहीं है। बस आप इस रसीद पर साइन कर दीजिए। आपकी ओर से दस हजार रुपए की रकम हम भर देंगे।'
राहत का अनुभव करते हुए, अपने जीवन में मैंने पहली बार महसूस किया, कांग्रेस के हृदय में गरीबों के प्रति सचमुच कितनी हमदर्दी है।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 02:37 PM   #112
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

एक अल्पसंख्यक का पत्र
राजकिशोर








प्रिय प्रधानमंत्री जी, लोकतंत्र के इतिहास में आपका यह वाक्य अमर रहेगा कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है। इसका बाकी हिस्सा कि 'खासकर मुसलमानों का' अमर रहेगा या नहीं, मुझे इसमें संदेह है। संदेह इसलिए कि आपने राजनीतिक दृष्टि से एक अनुपयुक्त नाम ले लिया है। 'इस्लाम' या 'मुसलमान' शब्दों का प्रयोग करते समय आजकल बहुत सावधान रहना चाहिए। या तो आप मुसलमानों के प्रति अपने प्रेम के कारण मारे जाएँगे या उनके प्रति अपनी घृणा के कारण। इस्लाम-विरोध के कारण बुश लगातार अलोकप्रिय होते जा रहे हैं। आपने सोचा होगा कि मुसलमानों के प्रति प्रेम जाहिर कर मैं लोकप्रिय हो जाऊँगा। लेकिन नतीजा उलटा ही हुआ है। उन लोगों द्वारा संसद को कई दिनों तक ठप किया गया, जो मानते हैं कि देश के उन्हीं संसाधनों पर मुसलमानों का हक है, जिनकी हिन्दुओं को कोई जरूरत नहीं है। और, हक भी नहीं है, क्योंकि वे भारतीय मूल के नहीं हैं। देश में और भी अल्पसंख्यक समुदाय हैं।
आपके इस पूरे वक्तव्य से वे भी हैरान होंगे कि प्रधानमंत्री को हो क्या गया है? बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के बीच बढ़ रही भयानक दूरी को कम करने के बाद अब वे क्या अल्पसंख्यकों को अल्पसंख्यकों से ही लड़ाना चाहते हैं? अब, संसाधनों पर पहले हक के लिए कोई और अल्पसंख्यक समुदाय लड़ेगा, तो जाहिर है, मुसलमान उससे नाराज हो जाएँगे। मुझे पूरा यकीन है कि आप मुसलमानों के लिए कुछ खास करने नहीं जा रहे हैं - न किया है, न करेंगे - लेकिन उनके पहले हक की बात आप जिस शैली में कर बैठे हैं, उससे उनके मुँह दिखाने की जगह नहीं रह गई है। उनके हिन्दू पड़ोसी भी उन्हें घूर कर देखते हैं।
जहाँ तक देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का पहला हक होने की बात है, मैं आपसे शत-प्रतिशत सहमत हूँ। लोकतंत्र के सिद्धान्त में यह एकदम नई बात लगती है, पर इसकी हैसियत सनातन सत्य की है। अब तो विद्वान लोग भी कहने लग गए हैं कि लोकतंत्र बहुमत पर अल्पमत का शासन है। यह अल्पमत समाज के विशिष्ट वर्ग का होता है। यह वर्ग हमेशा अल्पसंख्यक ही होता है। इस अर्थ में जवाहरलाल, इंदिरा गांधी और मोरारजी भाई से लेकर विश्वनाथ प्रताप सिंह, इंदर कुमार गुजराल और नरसिंह राव तक सभी अल्पसंख्यक वर्ग या समुदाय में आते हैं। यह वह तबका है - भारत के करीब दस-पन्द्रह प्रतिशत लोगों का - जो देश पर शासन करता है। सुविधाओं की सभी देवियाँ इसी वर्ग के चारों ओर नाचती रहती हैं। आर्थिक नीतियाँ इसी वर्ग के हित में बनाई जाती हैं। ऐसा नहीं होता, तो डीडीए जैसी सरकारी नगर विकास या आवास विकास संस्थाएँ शहरों में नहीं, जहाँ मकानों की वैसे ही बहुतायत होती है, गाँवों में मकान बनातीं, जहाँ झोंपड़ियों की संख्या मकानों से ज्यादा है।
इस वर्ग की पहचान क्या है? व्यक्ति अंग्रेजी जानता हो, ऊँची जाति का हो और सुख-सुविधाओं से संपन्न हो। बेशक जाति की शर्त कभी-कभी ढीली कर दी जाती है, क्योंकि लोकतंत्र की कार्य प्रणाली ही ऐसी है कि विशेष परिस्थिति में कोई भी सत्ता पर कब्जादार हो जाए जैसे चरण सिंह, चन्द्रशेखर या देवगौड़ा हो गये थे। कल हो सकता है, लालू प्रसाद या मायावती प्रधानमंत्री हो जाएँ। ये सभी मूलतः उसी सुख-सुविधा सम्पन्न वर्ग के सदस्य ही हैं जिसका समाज के संसाधनों पर पहला हक है। लालू प्रसाद, मुलायम सिंह आदि को ओबीसी माना जाता है, पर सच यह है कि ये अपने ओबीसी समुदाय से विद्रोह कर उस एलिट वर्ग में शामिल हो चुके हैं, जिसके द्वारा किए गए या किए जा रहे शोषण को कोस-कोस कर ये अपने समुदाय के नेता बने थे। मेरा ख्याल है, मायावती भी अब दलित नहीं रह गई हैं। उन्होंने अपने दलित समुदाय का दलन करने वाले वर्ग की सदस्यता ले ली है।
तो सर, मामला यह है, जैसा कि आप अपनी जीवनशैली पर गौर करके भी समझ सकते हैं, कि अल्पसंख्यक वर्ग ही समाज पर शासन करता है। इस वर्ग में राजनेताओं और नौकरशाहों के अतिरिक्त पूँजीपति, भूसामंत, टेक्नोशाह, सरकार का समर्थन करने वाला बुद्धिजीवी वर्ग, टीवी और अखबार वाले भी शामिल हैं। किसी भी देश के आर्थिक संसाधनों पर पहला हक इसी वर्ग का होता है। इनके उपभोग के बाद जो कुछ बचता है, उसे बाकी लोगों में बाँट दिया जाता है। लेकिन इस सच्चाई को कोई स्वीकार नहीं करता। कहते सभी यही हैं कि लोकतंत्र तो बहुमत का शासन है। शायद इसलिए कि ऐसा न कहें, तो वे अपना अल्पसंख्यक शासन चला नहीं सकते।
अब अमेरिका और बिट्रेन को ही देखिए। वहाँ का बहुमत चाहता है कि वहाँ से अमेरिकी-ब्रिटिश सेनाएँ वापस आ जाएँ और उस देश को उसके हाल पर छोड़ दिया जाए, पर अल्पमत में होते हुए भी हुक्मरान लोग इराक में अभी भी जमे हुए हैं। ऐसे ही, भारत में बहुसंख्यक लोग शान्ति चाहते हैं, पर मुट्ठी भर लोग उपद्रव और हिंसा का वातावरण बनाए हुआ हैं। सरकार अगर अल्पसंख्यकों की तानाशाही को रोकने की कोई गंभीर कोशिश नहीं कर रही है, तो इसका मतलब मेरे लिए तो यह है कि देश के अल्पसंख्यक शासक वर्ग का इन अल्पसंख्यकों गुंडों के साथ कोई गुप्त समझौता जरूर है।
इसलिए आप न घबराइए, न शरमाइए। दहाड़कर बोलिए कि जब तक देश में समाजवाद नहीं आ जाता, संसाधनों पर पहला हक तो अल्पसंख्यकों का ही रहने वाला है, क्योंकि अब तक की रीत यही है। सर, मैं भी उन्हीें अल्पसंख्यकों में हूँ जो मानते हैं कि बहुमत का शासन न केवल संभव, बल्कि अपरिहार्य है। इसलिए मैं जानता हूँ कि मेरी किसी बात का असर आप पर होने वाला नहीं है। आप उस अल्पसंख्यक वर्ग में हैं जो बसें और रेलगाड़ियाँ चलवाता है, पर उनमें सफर नहीं करता।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 02:37 PM   #113
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

एक अटूट कड़ी
राजकिशोर








वह एक छोटा-सा मध्यवर्गीय परिवार था। वैसे, बहुत छोटा भी नहीं और बहुत मध्यवर्गीय भी नहीं। फिर भी, हर मध्यवर्गीय परिवार की तरह दोनों चीजें वहाँ मौजूद थीं। मैं चाहता, तो 'दोनों चीजों' के स्थान पर 'दोनों व्यक्ति' लिख सकता था। लेकिन बरतन माँजनेवाली और झाड़ू-पोंछा करनेवाली के लिए व्यक्ति लिखना कुछ अधिक हो जाता है। क्या इन्हें व्यक्ति माना जाता है? 'सहायिकाएँ' लिखना शायद बेहतर है। लेकिन जिस लड़की या औरत से वह काम कराया जाता हो, जिसे हमारे देश की अधिकांश महिलाएँ नहीं करना चाहतीं, उसे सहायिका कहना भी उसे थोड़ा ऊँचा दर्जा देना है। इनके लिए लगभग हर जगह कामवाली शब्द ज्यादा प्रचलित है।
तो वह भी कामवाली थी। उसका काम था दिन में दो वक्त आ कर बरतन माँज जाना। जिसे मैंने देखा, वह एक दुबली-पतली लड़की थी। देखने में सात-आठ साल की, पर वास्तविक उम्र चौदह साल। इस उम्र की हमारी-आपकी बेटियाँ स्कूल जाती हैं। उनकी आँखों में सपने तैरने शुरू हो जाते हैं। वह बेचारी न स्कूल जाती थी न बेहतर जीवन के सपने देखती थी। वह बिना नागा रोज आती थी और बरतनों को चमका कर चली जाती थी, ताकि उनमें उस परिवार के लोग अपना भोजन बना सकें और खा सकें। उसे महीने के डेढ़ सौ रुपए मिलते हैं। मेरा संगणक बताता है, एक दिन में पाँच रुपए। एक वक्त के ढाई रुपए। किसी भी कसौटी से यह मेहनताना वाजिब नहीं कहा जा सकता। स्वयं उस परिवार के मुखिया इसे वाजिब नहीं मानते। लेकिन वे भी क्या कर सकते हैं? चलन यही है। वे चलन से बाहर जा कर अपना पैसा क्यों बरबाद करें? हम सभी ऐसा ही सोचते हैं और करते हैं।
अगर इसे कामवाली का शोषण कहा जाए, तो उस परिवार के मुखिया स्वयं भी शोषण के शिकार हैं। वे जिस कारखाने में तीस-पैंतीस वर्षों से काम कर रहे हैं, वह पिछले पाँच-छह वर्षों से बंद है। पहले वहाँ अच्छा वेतन मिलता था। मालिक विदेशी थे। जब से कारखाना देशी मालिकों के हाथों में आया, उन्होंने कारखाना और उसके कर्मचारी, दोनों के साथ खिलवाड़ करना शुरू कर दिया। कारखाने को बंद करने की दिशा में ले जाने के लिए पहले कुछ सेक्शन बंद किए, फिर वेतन देने में देर करने लगे और अंत में सारा काम ही ठप कर दिया। दो वर्षों के बाद कारखाने को खोला, तो कुछ सेक्शन ही चलाए। उनके कर्मचारियों को आधा वेतन देना शुरू किया। इसके बाद बंद करने और खोलने का सिलसिला चलता रहा। जब कर्मचारियों को आधा पैसा दिया जा रहा था या बिल्कुल पैसा नहीं दिया जा रहा था, तब उत्तर प्रदेश की सरकार, भारत की सरकार सभी इस घटना से आँख मूँदे हुए थे। मामला अभी लेबर कोर्ट में चल रहा है, लेकिन देश के किसी भी सरकारी अधिकारी या संस्थान को रत्ती भर फिक्र नहीं है कि उस कारखाने के कर्मचारियों के घर में चूल्हा कैसे जलता होगा।
बेशक कामवालियों को नियुक्त करनेवाले सभी परिवारों कीे स्थिति इतनी नाजुक नहीं है। फिर भी, इनमें से अधिकांश परिवार स्वयं शोषित की कोटि में आते हैं। जैसे कामवाली की मजबूरी है कि वह अपना आर्थिक शोषण कराए, नहीं तो वह बेरोजगार हो जाएगी, वैसे ही इन शोषित मध्यवर्गीयों की मजूबरी है कि ये अपना आर्थिक शोषण कराएँ, नहीं तो ये बेरोजगार हो जाएँगे। अर्थात वर्तमान भारत में अधिकांश रोजगार ऐसे हैं, जो शोषण की किसी न किसी प्रक्रिया से
जुड़े हुए हैं। इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि सिर्फ पैसेवाले गरीबों का
शोषण करते हैं। दरअसल, हमारी पूरी व्यवस्था ही शोषण के विभिन्न स्तरों पर
खड़ी है।
यही बात जीवन के अन्य क्षेत्रों के बारे में भी कहीं जा सकती है। जाति प्रथा भी मान-अपमान के विभिन्न स्तरों पर आधारित रही है। क जाति ख जाति को अपने से नीचा समझती है और ख ग को। इस तरह सब कहीं न कहीं ऊपर और कहीं न कहीं नीचे होते हैं। लिंग और उम्र के आधार पर जो शोषण या दमन होता है, वह भी सर्वव्यापक है और उसके भी इतने स्तर हैं कि थोड़ा-बहुत संतोष सभी को हासिल हो जाता है। सच तो यह है कि कोई भी अन्यायपूर्ण व्यवस्था इसीलिए चल पाती है कि उसमें शोषण के विभिन्न स्तर होते हैं और हरएक के पास शोषण का एक मुट्ठी आसमान होता है। कर्मचारियों के आर्थिक शोषण के खिलाफ जिन्होंने संघर्ष किया, उन्होंने शोषण के अन्य रूपों से आंख मूँद ली। इसीलिए वे शोषण की संस्कृति के खिलाफ व्यापक गुस्सा पैदा नहीं कर सके। इनमें से प्रायः सभी नेता और संगठन खुद कर्मचारियों का शोषण करते थे।
इसीलिए जो लोग शोषण के किसी एक स्तर को समाप्त करने के लिए लड़ रहे हैं, वे विफल होने को बाध्य हैं। शोषण खत्म होगा तो उसके सभी रूप एक साथ खत्म या कमजोर होंगे। नहीं तो जो रूप लुप्त हो चुके हैं, वे भी लौट कर आने की कोशिश करेंगे। प्रेम की तरह शोषण भी एक अटूट कड़ी है।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 02:38 PM   #114
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

एक अचूक नुस्खा
राजकिशोर








कल अचानक हाजी साहब से मुलाकात हो गई। वे मेरे पुराने दोस्तों में हैं। पर उनसे कब मुलाकात होगी, यह तय नहीं रहता। देश भर में घूमते रहते हैं। कभी कहीं से पोस्टकार्ड भेज देते हैं, कभी कहीं से फोन कर देते हैं। पिछली बार उनका फोन आया था, तो वे नंदीग्राम में थे, जहाँ पंचायत चुनाव चल रहे थे। वहाँ के हाल बताते हुए फोन पर ही रो पड़े थे। बोले, 'इस जुल्म की सजा सीपीएम को जरूर मिलेगी।' बाद में चुनाव परिणामों ने हाजी साहब के मुआयने की पुष्टि की।
बातों-बातों में महँगाई को लेकर चर्चा चल पड़ी। हाजी साहब हँसने लगे। बोले, इसका इलाज तो चुटकियों में हो सकता है। लेकिन कोई भी सरकार इस मामले में संजीदा नहीं है। इसलिए कुछ बोलना बेकार है।
मैंने कहा, मजाक की बात नहीं है। आप वही कहेंगे न जो पंडित नेहरू कहा करते थे - मुनाफेबाजों को सबसे नजदीक के लैंप पोस्ट से लटका दो।
हाजी साहब - तुम जानते हो, मैं किसी की जान लेने के खिलाफ हूँ। जान दे सकता हूँ, पर ले नहीं सकता।
मैंने जानना चाहा - तो क्या आपका फॉर्मूला वह है, जिसकी वकालत एक जमाने में बंगाल के कम्युनिस्ट किया करते थे? उनकी टोलियाँ मुहल्ले-मुहल्ले में घूमते हुए नारा लगाती थीं - जो बदमाश और भ्रष्ट हैं, उनकी 'गन धोलाई करते होबे, करते होबे।' गन धोलाई माने सार्वजनिक पिटाई।
हाजी साहब - मेरे लिए मारना-पीटना हत्या करने की ही निचली सीढ़ियाँ हैं।
- तो आपका सुझाव क्या है? कीमतों को कैसे थामा जा सकता है?
हाजी साहब - किसी न किसी ने कीमतों को जरूर थामा हुआ है। नहीं तो वे ऊपर-नीचे कैसे होती रहती हैं? कीमतें तो बेजान चीजें हैं। वे खुद कैसे चढ़-उतर सकती हैं?
- हाजी साहब, पहेलियाँ न बुझाइए। करोड़ों लोगों की जिंदगी का सवाल है।
हाजी साहब को हलका-सा ताव आ गया। बोले - तो सुनो। मेरे फार्मूले से कीमतें गिरें या न गिरें, पर यह तो मालूम हो ही जाएगा कि किसी चीज की असली कीमत क्या है। उसके बाद कीमतों को काबू में करना आसान हो जाएगा।
मैंने पूछा - किसी चीज की असली कीमत क्या है?
हाजी साहब - उसकी लागत के साथ उचित पारिश्रमिक या उचित मुनाफा जोड़ दो, तो असली कीमत सामने आ जाएगी। कोई चीज उससे ज्यादा पर नहीं बिकनी चाहिए।
तो क्या ऐसा नहीं हो रहा है? - मेरा अज्ञान उबल पड़ा।
हाजी साहब - नहीं, आज न तो सरकार को मालूम है, न जनता को कि किसी चीज की असली कीमत क्या है। मसलन दस रुपए का जो साबुन बिक रहा है या चार लाख रुपए की जो कार बिक रही है, उसकी असली लागत क्या है, यह सिर्फ साबुन या कार बनानेवाला या बेचनेवाला ही जानता है, और कोई नहीं।
- तो होना क्या चाहिए?
- होना यह चाहिए कि हर उद्योगपति और व्यापारी के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाए कि वह अपने सामान की लागत और अपने मुनाफे की रकम, दोनों की सूचना देते रहे। सरकार इस पर विचार करेगी कि वह लागत और वह मुनाफा जायज है या नहीं। अगर लागत को बढ़ा कर बताया गया है, तो उसे नीचे ले आएगी। अगर मुनाफा ज्यादा लिया जा रहा है, तो उसे भी कम करेगी। इस तरह हर चीज अपनी असली कीमत पर बिकेगी। जब लागत बढ़ेगी, तभी कीमत को बढ़ने दिया जाएगा। जो उचित कीमत से अधिक वसूलेगा, उसे जेल में रखा जाएगा। वहाँ उसे मुफ्त में नहीं रखा जाएगा, बल्कि उससे काम कराया जाएगा तब खाना-कपड़ा दिया जाएगा।
- और किसी को उसकी चीजों की वाजिब कीमत न मिल रही हो, तब? जैसे, किसान कहते हैं कि उन्हें अनाज का वाजिब दाम नहीं मिल रहा है। इसीलिए, किसानी घाटे का सौदा हो गई है।
- इसका भी इलाज है। अगर किसी को कोई चीज पैदा करने में घाटा हो रहा है, तो उससे कहा जाएगा, वह कोई और काम करे। जिस चीज की पैदावार राष्ट्रीय या सामाजिक हित में जरूरी है, उसकी उचित कीमत दिलाने की जिम्मेदारी सरकार की रहेगी। अगर व्यापारी पूरी कीमत देने से मना करते हैं, तो सरकार उसे उचित कीमत पर खरीद लेगी और जनता को बेचेगी। समर्थन मूल्य जैसी अवधारणा तुरंत खत्म हो जानी चाहिए। क्यों भइए, किसान भिखारी हैं क्या, जो उन्हें समर्थन मूल्य देते हो? गेहूँ, कपास, चावल, चीनी वगैरह का उचित मूल्य घोषित करो और चारों ओर मुनादी पिटवा दो कि जितना भी माल इस कीमत पर बिकने से रह जाएगा, उसे सरकार खरीद लेगी और कीमत तुरंत चुकाएगी। तब देखना, कितने किसान आत्महत्या करते हैं।
मैं सोचने लगा। बोला, हाजी साहब, बात तो आपकी सोलह आने जँचती है। पर सरकार ऐसा करेगी भी?
हाजी साहब - इसीलिए तो मैं इस बारे में कुछ बोलता नहीं। हाँ, एक और संभावना यह है कि जो काम सरकार नहीं करना चाहती, उसे जनता करके दिखाए। जन स्तर पर कीमत समितियाँ बनें और उचित कीमत की व्यवस्था को लागू करें। सरकार इसका विरोध नहीं कर सकेगी, क्योंकि जनता बड़े पैमाने पर इस अभियान का साथ देगी।
- तो हाजी साहब, आप ही यह अभियान शुरू क्यों नहीं करते? पुण्य का काम है।
हाजी साहब खिलखिला पड़े - अपन आनंदमार्गी हैं। अपन से विमर्श के सिवाय कुछ नहीं होगा। तुम कुछ नौजवानों से बात करो।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 02:38 PM   #115
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

उसने कहा था
राजकिशोर



कोई सत्ताईस-अट्ठाईस साल पहले की बात है। अमिताभ बच्चन अपने नवजात पुत्र की जन्म कुंडली लेकर एक बहुत बड़े ज्योतिषी के पास पहुँचे। इसके पहले वे कई और ज्योतिषियों से मिल चुके थे और उनकी भविष्यवाणियाँ सुन चुके थे। इन भविष्यवाणियों में बहुत-सी एक-दूसरे से नहीं मिलती थीं। लेकिन अनुभवी अमिताभ जानते थे कि ऐसा होता है। सितारों की गति को कौन ठीक-ठीक समझ सकता है? अमिताभ खुद भी एक सितारा थे और जिन्दगी में काफी उतार-चढ़ाव देख चुके थे। उन्होंने जब यह सुना कि अमेरिका से एक ज्योतिषी सिर्फ सात दिनों के लिए मुंबई आया हुआ है और वह कोई मामूली ज्योतिषी नहीं है, बल्कि उसके पास एस्ट्रोनॉमी और गणित की बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ हैं और वह सिर्फ बड़े-बड़े लोगों की कुंडली देखता है, तो वे उस ज्योतिषी से मिलने के लिए बेचैन हो गए।
ज्योतिषी ने जितने बजे का समय दिया था, वह उसके दो घण्टे बाद मिला। उसकी युवा अमेरिकी सेक्रेटरी ने मीठे-मीठे शब्दों में और बार-बार क्षमा याचना करते हुए अभिताभ बच्चन को बताया कि अचानक देश की एक बहुत बड़ी हस्ती का कॉल आ गया। उन्हें उसी शाम स्वीडन जाना था और वे सर से कुछ राय करना चाहते थे। नेताजी के पास बस यही दो घण्टे खाली थे - ‘सर को आपके लिए बड़ा अफसोस हुआ, लेकिन वे क्या करते! उनसे इतनी विनती की गई कि वे मना नहीं कर सके।’ अमिताभ ने अपनी प्रसिद्ध सज्जनतावश बुरा मान कर भी बुरा नहीं माना और शांतिपूर्वक इंतजार करते रहे।
जब ज्योतिषी के फाइव स्टार कमरे से एक फाइव स्टार खादी-युक्त आकृति निकली, तो अमिताभ बच्चन के लिए बुलावा आ गया। अमेरिका में रहने वाले भारतीय ज्योतिषी ने भी बहुत ही विनम्रता से और कई बार माफी माँगी। औपचारिकताएँ सम्पन्न हो जाने के बाद ज्योतिषी को अभिषेक बच्चन की कुंडली दी गई। वह काफी देर तक नंगी आँखों से, फिर एक खास तरह का चश्मा लगा कर कुंडली का अध्ययन करता रहा। फिर उसने अपनी एक और युवा सचिव को बुलाया। यह भी बला की खूबसूरत थी। इसने कुंडली को स्कैन किया। अब ज्योतिषी उसे एक ऐसे कंप्यूटर पर पढ़ रहे थे, जिसका मॉनीटर साधारण कंप्यूटर से कई गुना बड़ा था। यह सब करीब आधे घण्टे तक चला। अगले आधे घण्टे तक वह आँखें बन्द कर सोचता-विचारता रहा। बीच-बीच में ऐसा लगता जैसे वह कोई मंत्र पढ़ रहा हो। वह कभी-कभी आँखें खोल कर कंप्यूटर के स्क्रीन पर भी एक नजर डाल लेता था, जहाँ भारत के सबसे बड़े फिल्मी सितारे के बेटे का भविष्य अंकित था।
जब ज्योतिषी ने गणनाएँ पूरी कर लीं और आँखें खोलीं, तो उसके चेहरे पर एक दिव्य मुस्कान थी। उसने कहा, ‘यह जन्म कुंडली नकली है। इस मुहूर्त में आपके परिवार में कोई बच्चा पैदा नहीं हुआ। आपने मेरी परीक्षा ले ली है। अब आप कृपया असली कुंडली निकालें।’
अमिताभ बच्चन की जवाबी मुस्कान भी कम दिव्य नहीं थी। उन्होंने नकली कुंडली वापस ले ली और अपने ब्रीफकेस से एक और कुंडली निकाली। ऐसा लग रहा था, जैसे कुछ हुआ ही न हो। दोनों सिद्ध खिलाड़ी थे और कोई किसी का बुरा नहीं मान रहा था। अमिताभ ने नई कुंडली ज्योतिषी की हथेली पर रखते हुए कहा, ‘यू नो...’ ज्योतिषी की मुस्कान 10.5 प्रतिशत चौड़ी हो गई। वह जानता था।
ज्योतिषी ने फिर वही सब प्रक्रियाएँ पूरी कीं, जिनसे पहली कुंडली को गुजरना पड़ा था। फिर उसने उसी सौम्य मुस्कान के साथ पूछा, ‘कृपया बताएँ, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ।’ अभिताभ बच्चन ने यह साफ-साफ नहीं कहा, लेकिन उनकी मुखमुद्रा ने जवाब दिया कि वही, जिसके लिए लोग ज्योतिषियों के पास जाते हैं।
ज्योतिषी ने बहुत-सी बातें बताईं, जिनमें से कुछ तो वही थीं, जो अन्य ज्योतिषी अन्य तरीकों से बता चुके थे और कुछ नई थीं। उसकी प्रत्येक भविष्यवाणी के साथ किन्तु, परन्तु, हालाँकि, वैसे, एक तरह से आदि में से कुछ न कुछ लगा हुआ था। थोड़ी देर तक चर्चा होने के बाद ज्योतिषी ने अचानक कहा, ‘कृपया मेरी यह बात जरूर नोट कर लें। मास्टर अभिषेक को राजा की निकटता से खतरा है। दरअसल, यह मामला आनुवंशिक है। यह खतरा आपको और आपकी पत्नी को भी है।’
यह सुन कर अमिताभ थोड़ा संजीदा हो गए। बोले, ‘लेकिन हममें से किसी को दिलचस्पी राजनीति में नहीं है। मेरे माता-पिता को भी राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी।’
ज्योतिषी ने शांत स्वर में उत्तर दिया, ‘हम वर्तमान के बारे में नहीं, भविष्य के बारे में बात कर रहे हैं।’
अमिताभ ने भी शांत स्वर में पूछा, ‘लेकिन भविष्य क्या वर्तमान का ही विस्तार नहीं है?’
ज्योतिषी - ‘है, लेकिन अपना वर्तमान भी कौन पूरी तरह जानता है? फिर, कोई एक वर्तमान नहीं होता। प्रत्येक नया क्षण एक नया वर्तमान है। व्यक्ति का भविष्य भी इसी हिसाब से बदलता रहता है। आज से दस साल बाद आप यही कुंडली लेकर मेरे पास आएँगे तो हो सकता है, मैं कुछ दूसरी तरह की बातें बताऊँ। कुंडली वही रहती है, पर उसका अर्थ बदलता रहता है। आप अपने इतिहास को नहीं बदल सकते, पर आपका इतिहास आपको कभी घोड़ा और कभी गधा दोनों बना सकता है।’
इसके अनेक वर्षों के बाद, अमिताभ बच्चन को तब इस ज्योतिषी की बहुत याद आई, जब उन्होंने इलाहाबाद से हेमवती नंदन बहुगुणा के विरुद्ध लोक सभा चुनाव का परचा भरा, तब भी जब वे विशाल बहुमत के साथ जीत कर संसद में पहुँचे और तब और भी ज्यादा, जब उन्होंने बोफोर्स विवाद के बाद लोक सभा से इस्तीफा दे दिया और घोषणा की कि अब राजनीति के इस दलदल में कभी नहीं लौटूँगा।
इसके और भी अनेक वर्षों के बाद, अमिताभ को उस ज्योतिषी की फिर याद आई, जब उनकी पत्नी जया बच्चन को लाभ के पद पर होने के कारण लोक सभा से निकाल दिया गया।
इसके और भी ज्यादा वर्षों बाद, अभिताभ को उस ज्योतिषी की बेसाख्ता याद आई जब लखनऊ के एक कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव अभिषेक बच्चन को ‘यश भारती’ पुरस्कार प्रदान करते हुए उन्हें शॉल और मानपत्र भेंट कर रहे थे।
मुंबई लौटकर अमिताभ बच्चन ने उस अमेरिकी ज्योतिषी का पता लगाने की कोशिश की। पता चला कि एड्स से उसकी मृत्यु हो चुकी थी। यह भी पता चला कि मरने से पहले उसने एक नोट लिखा था, जिसमें कहा गया था, ‘मुझे गहरा दुःख है कि मैंने जीवन भर बहुत-से बड़े-बड़े लोगों को बेवकूफ बनाया। आश्चर्य की बात यह है कि मेरी कई भविष्यवाणियाँ सच्ची कैसे साबित हुईं।’
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 02:38 PM   #116
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

ईमानदारी बनाम समझदारी
राजकिशोर








बहुत दिनों से कॉमरेड से मुलाकात नहीं हुई थी। उसकी खबर जरूर आती रहती थी। खबर हमेशा खुशनुमा नहीं होती थी। इसलिए मैं उसे परेशान नहीं करना चाहता था। मेरा नियम यह नहीं है कि जब कोई मुसीबत में हो, तो उसे अकेला छोड़ देना चाहिए। लेकिन कॉमरेड का मामला अलग है। मैं जब भी उसकी सहायता करने की कोशिश करता हूँ, वह थोड़ा और परेशान हो जाता है। उसे राजनीति करनी है। अतः नैतिक सवालों में घसीटना उसे दुखी करना है। इसलिए भरपूर प्यार के बावजूद मैं उससे थोड़ा दूर-दूर ही रहता हूँ। कह सकते हैं कि हमारे संबंध के बने रहने में इस दूरी का भी महत्व है। लेकिन दूरी की खूबसूरती इसी में है कि उसे बीच-बीच में झकझोर दिया जाए। इसीलिए कभी वह मेरे घर आ जाता है, कभी मैं उसके घर चला जाता हूँ।
उस शाम कॉमरेड के घर पहुँचा, तो पता चला कि वह सो रहा है। यह नई बात थी। क्रांतिकारी दिन में तो क्या, रात को भी नहीं सोते। इस मामले में वे साधु की तरह होते हैं। साधु के बारे में कबीर की मान्यता यह है कि वह रात भर जागता है और रोता रहता है। फर्क यह है कि क्रांतिकारी रोता नहीं है, रुलाने की योजनाएँ बनाता रहता है। लेकिन मेरा कॉमरेड दोनों से ही भिन्न है। वह ठीक समय पर जगता है और ठीक समय पर सोता है। बीच में जनवाद के मूल्यों की रक्षा करने के लिए संघर्ष करता रहता है। इसलिए यह जान कर मुझे हैरत हुई कि जब पूरी दिल्ली दफ्तर से निकल कर घर जा रही है, वह खर्राटे भर रहा है। मैंने भाभी से कहा कि उसे जगा दो, आया हूँ तो भेंट करके ही जाऊँगा। भाभी जगाने गई, पर खाली हाथ लौट आई। उसने कहा, गहरी नींद में हैं। आपका नाम लिया, तो बोले, उसे यहीं भेज दो। फिर आँखें मूँद लीं।
मैं गया। वह अब भी सो रहा था। भाभी चाय वहीं ले आई। शायद यह चाय की खुशबू थी जिसने कॉमरेड को आँख खोलने पर मजबूर कर दिया। उसने उलाहना दिया, अकेले-अकेले चाय पीते शर्म नहीं आ रही है? मैंने कहा, उठो तो तुम्हें भी चाय मिल जाएगी। कॉमरेड बोला, सोने दो, यार। बहुत दिनों के बाद ऐसी गाढ़ी नींद आई है। मैंने जानना चाहा, आखिर बात क्या है? कोई अच्छी घटना हुई है क्या? क्या पोलित ब्यूरो में तुम्हें शामिल किया जा रहा है? उसने बताया, नहीं, उससे भी बड़ी घटना हुई है। हमें एक ईमानदार प्रधानमंत्री मिल गया है। मैं चकराया, क्या यह तुम्हें अब मालूम हुआ है। कॉमरेड बोला, हाँ। तुमने पढ़ा नहीं, कॉमरेड करात का बयान आ गया है। उन्होंने साफ-साफ कहा है कि हम प्रधानमंत्री का बहुत सम्मान करते हैं; उनकी ईमानदारी सन्देह से परे है। इसीलिए मैं निश्ंिचत होकर सो रहा था। इससे बढ़कर और क्या बात हो सकती है कि देश का नेतृत्व ईमानदार हाथों में है। तब तक उसके लिए भी चाय आ गई। लेकिन वह उठा नहीं। लेटे-लेटे ही चाय की चुस्की लेता रहा और मुझसे बात करता रहा।
- फिर प्रधानमंत्री से तुम लोगों का विवाद क्या था?
- विवाद? कैसा विवाद? मतभेद को तुम विवाद नहीं कह सकते।
- अमेरिका के साथ परमाणु समझौते पर तुम्हारी पार्टी ने प्रधानमन्त्री को क्या नहीं कहा?
- यह हमारी ईमानदारी थी कि हमने अपने दृष्टिकोण को छिपाया नहीं। यह प्रधानमंत्री की ईमानदारी थी कि वे भी अपने दृष्टिकोण पर अडिग रहे। वे अब भी अपने दृष्टिकोण पर अडिग हैं जैसे हम अपने दृष्टिकोण पर अडिग हैं। वे हमारी ईमानदारी की प्रशंसा भले न करें, पर हम उनकी ईमानदारी की तारीफ करते हैं।
- लेकिन अर्थनीति के सवाल पर भी तो तुम दोनों के बीच गंभीर मतभेद हैं। प्रधानमंत्री का कहना है कि इस मतभेद की वजह से देश का विकास रुका हुआ है।
- वे ठीक कहते हैं।
- वे ठीक कहते हैं?
- हाँ, सौ बार हाँ। यह भी हम दोनों की ईमानदारी का सबूत है। वे अर्थव्यवस्था को एक दिशा में ले जाना चाहते हैं, हम दूसरी दिशा में ले जाना चाहते हैं। वे भी अपने स्तर पर ईमानदारी से सोचते हैं, हम भी अपने स्तर पर ईमानदारी से सोचते हैं। इसीलिए तो हमारा साथ निभता जा रहा है। हमारा संबंध अवसरवाद पर नहीं, ईमानदारी पर टिका हुआ है। हम उनकी आलोचना ईमानदारी से करते हैं, वे हमारी आलोचना ईमानदारी से करते हैं। यह ईमानदारी ही बिरला सीमेंट की तरह हमें सख्ती से जोड़े हुए है। यह साथ पूरे पाँच साल तक चलता रहेगा। यह सरकार अपने पूरे टर्म तक बनी रहेगी।
- उसके बाद?
- उसके बाद हम उनकी ईमानदारी का फिर मूल्यांकन करेंगे। हो सकता है, हमें उनकी पार्टी के खिलाफ चुनाव लड़ना पड़े। आखिर हम अपनी ईमानदारी के साथ दगा तो नहीं कर सकते।
- तो अभी अपनी ईमानदारी के साथ दगा क्यों कर रहे हो? प्रधानमंत्री का बाहर से समर्थन करते रहो और भीतर कोई हस्तक्षेप मत करो। एक ईमानदार प्रधानमंत्री को अपना काम शान्ति से करने दो।
इस बार कॉमरेड तैश में आ गया। वह एक झटके में उठ बैठा और बोला, तुम मूर्ख हो और मूर्ख ही रहोगे। राजनीति में ईमानदारी ही सब कुछ नहीं होती। समझदारी का भी महत्व है। समझदारी में गड़बड़ी हो, तो ईमानदारी अकेले क्या कर लेगी? मुझे भी तैश आ गया। मैंने कहा, तो तुम्हारा कहना यह है कि प्रधानमंत्री की ईमानदारी में सन्देह नहीं है, पर उनकी समझदारी पर हमें भरोसा नहीं है। इसीलिए तुम्हारी पार्टी समय-समय पर हस्तक्षेप करती रहती है।
कॉमरेड बोला, इस बारे में मैं कुछ कहना नहीं चाहता। देखते हैं, कॉमरेड करात अपने अगले इंटरव्यू में क्या कहते हैं!
मुझे हँसी आ गई - यानी तुम्हें अपनी ही समझदारी पर भरोसा नहीं है। यह हुई न ईमानदारी की बात।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 02:40 PM   #117
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

कल्याण सिंह की अंतरात्मा
राजकिशोर





संवाददाताओं को संबोधित करने के बाद कल्याण सिंह घर लौटे, तो सीधे बेडरूम में गए। वहाँ उनकी अंतरात्मा उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। कल्याण को देखते ही वह उनकी ओर लपकी जैसे कोई लंबे समय से विरह की मारी युवती अपने प्रिय की वापसी पर उसकी ओर लपकती है। हालाँकि कल्याण सिंह की अंतरात्मा जवान नहीं रह गई थी। उसके चेहरे पर झुर्रियाँ दिखाई पड़ने लगी थीं और उसे दिखने भी कम लगा था। पर नाक और कान पहले से ज्यादा सजग हो गए थे। वह सब कुछ सुनने और सूँघने की कोशिश करती थी। इससे उसे जो सामग्री मिलती, उसके कारण वह बहुत चिंतित रहती थी और कल्याण सिंह से बातचीत करने का मौका ढूँढ़ती रहती थी। कल्याण सिंह थे कि अकसर उसे धता बता कर कहीं निकल जाते थे। उनकी अधेड़ अंतरात्मा घर में अकेले बैठी कुढ़ती रहती थी। कभी-कभी उसका मन करता था कि वह कल्याण सिंह को हमेशा के लिए छोड़ कर गोमती में छलाँग लगा दे। पर अंतरात्माएँ बेवफा नहीं होतीं। सो वह उस समय का इंतजार करती रहती थी जब कल्याण सिंह सुबह के भटके की तरह शाम को घर लौट आएँगे।
आज कुछ वैसा ही वाकया हुआ। कल्याण सिंह ने अपनी अंतरात्मा को दोनों हाथों से हौले से उठाया और छाती से लगा लिया। अंतरात्मा के सामने के तीन दाँत टूट चुके थे, इसके बावजूद उसकी हँसी में सम्मोहन बरकरार था। उसने कल्याण से कहा, ‘मुझे हमेशा यह लगता रहा है कि तुम मुझे सच्चे दिल से प्यार करते हो। तुम लौट आए, तो मेरी सारी शिकायत जाती रही।’
कल्याण सिंह ने अपनी अंतरात्मा को रिझाते हुए कहा, ‘मुझ पर तुम्हारा बोझ बढ़ता जा रहा था। आज मैंने सारा हिसाब चुकता कर दिया। मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण तुम दोनों ही हो। एक वह और एक तुम। उसके साथ तो मैंने हर हाल में वफा की, पर तुम्हारा दर्द कचोटता रहता था। आज मैंने सब कुछ स्वीकार कर अपने को हलका कर लिया।’
अंतरात्मा कुछ क्षणों के लिए ठिठकी, फिर बोली, ‘उसकी बात छोड़ो। मैं बच्ची नहीं हूँ। दिल के मामलों में कुछ भी बोलना मैंने छोड़ दिया है। बस दूर से देखती रहती हूँ कि क्या गुल खिल रहा है। मुझे पता है कि यही वह जगह है जहाँ अंतरात्मा को दरवाजे के बाहर छोड़ दिया जाता है। लेकिन तुमने ऐसा क्या किया कि मेरा दूसरा बोझ हलका हो गया?’
कल्याण सिंह ने मुसकराते हुए कहा, ‘आज मैंने सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया कि बाबरी मस्जिद के गिरने की पूरी नैतिक जिम्मेदारी मैं लेता हूँ।’
‘लेकिन यह नैतिक जिम्मेदारी तो तुम पहले ही स्वीकार कर चुके थे। बावरी मस्जिद गिरते ही तुमने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा नहीं दे दिया था?’
‘वह नैतिक जिम्मेदारी नहीं, राजनीतिक जिम्मेदारी थी। मुख्यमंत्री का पद नैतिक पद नहीं, राजनीतिक पद होता है। इसलिए मेरा वह इस्तीफा राजनीतिक था। असली नैतिक जिम्मेदारी तो मैं अब स्वीकार कर रहा हूँ। अब मुसलमान मुझ पर भरोसा कर सकते हैं।’
अंतरात्मा अचानक जोर-जोर से हँसने लगी। इससे उसे खाँसी आ गई। कल्याण सिंह ने उसे पास रखे गिलास से पानी पिलाया और उसकी पीठ सहलाई। खाँसी रुक गई, तो अंतरात्मा कल्याण सिंह की गोद में लेटते हुए गुनगुनाने लगी, ‘सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है।’
कल्याण सिंह लजा गए। मुसकराते हुए बोले, ‘खुदा से ही तो समझौता करके आ रहा हूँ। अब उसकी गाज गिरेगी तो आडवाणी, राजनाथ सिंह वगैरह पर। मैं तो मुक्त हो गया।’
अंतरात्मा गोद से छिटक कर पलंग पर सीधे बैठ गई। बोली, ‘मुझसे मत बनो। मैं तुम्हें बचपन से जानती हूँ। तुम्हें सत्ता चाहिए। वह चाहे रामलला की कृपा से मिले या खुदा की मेहरबानी से। इसके लिए तुम मस्जिद भी तुड़वा सकते हो, चर्च भी और मंदिर भी। तुम हमेशा अपने चक्कर में रहते हो। मेरी बात तुमने कभी सुनी। इसी तरह कुढ़ते-कुढ़ते एक दिन कूच कर जाऊँगी।’
कल्याण सिंह पुचकारने लगे, ‘तुम्हारे साथ यही परेशानी है। जमाना बदल गया, मैं बदल गया, पर तुम नहीं बदली। मुलायम सिंह जी को देखो। उन्होंने किससे समझौता नहीं किया? कभी मायावती का हाथ पकड़ा, कभी कांग्रेस के साथ लेटे। कभी-कभी भाजपा की कलाई भी थाम लेते हैं। आज उन्हें मेरी जरूरत है। मुझे भी उनकी जरूरत है। तो साथ आने में बुराई क्या है?’
कल्याण सिंह की अंतरात्मा ने खिसियाई हुई आवाज में कहा, ‘मेरे सामने मुलायम सिंह का नाम मत लो। मैं तो फिर भी कुछ ठीक-ठाक हूँ। उनकी अंतरात्मा अधमरी हो चुकी है। एक दिन हजरतगंज के पास मिली थी। बोल रही थी -- ‘बहन, अब हद हो गई। मुलायम तो मेरे पास अब आता ही नहीं है। कहता है, चुपचाप एक किनारे पड़ी रहो। मैं राजनीति में हूँ। इसमें तुम्हारा कोई काम नहीं।’
कल्याण सिंह की अंतरामा की पीठ पर धौल जमाते हुए बोले, ‘फिर भी तुम्हारी आँख नहीं खुली! एक राज की बात बताता हूँ। इन दिनों सभी अंतरात्माओं का यही हाल है। इसलिए तुम्हें अफसोस नहीं करना चाहिए।’
कल्याण सिंह की अंतरात्मा ने तुनक कर कहा, ‘खबरदार जो मुझे छुआ। आज से मैंने अपने आपको विधवा मान लिया। अब मैं विधवा की तरह ही रहूँगी। तुम्हें जो करना है, शौक से करते रहो।’
तभी कल्याण सिंह का मोबाइल बज उठा। फोन सुनने के बाद कल्याण सिंह गंभीर हो गए। फोन करनेवाले से उन्होंने कहा, ‘रात को एक बज रहे हैं। फिर भी आता हूँ। आप लोग वहीं मेरा इन्तजार करें।’
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 02:40 PM   #118
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

क्या हालचाल है?
राजकिशोर








वह मेरे प्रिय मित्रों में एक था। बहुत दिनों के बाद उससे मुलाकात हुई थी। उसने पूछा, क्या हालचाल है? मैंने जवाब दिया, सब ठीक-ठाक है। वह हँसने लगा, खाक ठीक-ठाक है? सुना, पिछले साल तुम्हारे छोटे भाई की मृत्यु हो गई। मैंने कहा, हाँ, उसकी दोनों किडनियाँ फेल हो गई थीं। वह थोड़ा गंभीर होते हुए बोला, और तुम्हें अपना मकान बेचना पड़ा? दिल्ली छोड़ कर तुम गाजियाबाद चले गए हो। मैंने स्वीकार किया, हाँ, दिल्ली का मकान अच्छे दामों पर जा रहा था। हमने सोचा, इसे बेचकर सस्ते में गाजियाबाद में मकान ले लें। रिटायर होने के बाद कहीं भी रहो, क्या फर्क पड़ता है। उसने आगे पूछा, सुना है, भाभी जी आजकल चल-फिर नहीं पातीं। बेड पर ही पड़ी रहती हैं। मुझे कहना पड़ा, दरअसल, उसका गँठिया बहुत बढ़ गया है। कोई भी दवा काम नहीं कर रही है। इस पर भी वह शांत नहीं हुआ। पूछा, और तुम्हारा बेटा जर्मनी चला गया है। वहीं उसने शादी भी कर ली है। मैंने स्वीकार किया, तुम्हारी सूचना सही है। छह-छह महीने तक उसका ईमेल नहीं आता। आता भी है, तो मुख्तसर-सा - उम्मीद है, आप लोग मजे में हैं। दफ्तर से छुट्टी नहीं मिलती। इंडिया आने का प्लान बनाता रह जाता हूँ।
मित्र हँसने लगा, फिर भी तुम कहते हो, सब ठीक-ठाक है? लानत है तुम पर। मैंने जवाब दिया, यार, इतने दिनों के बाद तो मिले हो। मैंने सोचा, अपनी मुसीबतें बता कर तुम्हें बोर क्यों करूँ। थोड़ी देर बाद चलते-चलते उसने कहा - तुमने मेरा हाल नहीं पूछा? मैंने कहा, चुस्त-दुरुस्त आदमी हो। सब ठीक-ठाक ही होगा। वह बोला, अभी कुछ दिन दिल्ली में ही हूँ। सारा किस्सा अगली मुलाकात में बताऊँगा। अभी इतना ही जान लो कि हैदराबाद वाली मेरी नौकरी छूट गई है। तीन महीने से कोशिश कर रहा हूँ, पर नई नौकरी नहीं खोज पाया हूँ। इसी सिलसिले में दिल्ली आना हुआ। पर यहाँ भी गुंजाइश दिखाई नहीं पड़ती।
बाई-बाई करता हुआ वह चला गया। उसके लिबास और चलने के अंदाज से लगा जैसे वह किसी फैशन शो की अध्यक्षता करने जा रहा हो।
यह हम दो मित्रों की मुलाकात थी। सोचो तो यह किन्हीं दो मित्रों की मुलाकात हो सकती है। थोड़ा और सोचो, तो यह किन्हीं दो व्यक्तियों की मुलाकात हो सकती है। ऐसी मुलाकातों की विडंबना यह है कि जब क ख से पूछता है कि क्या हालचाल है, तो क्या वह वाकई ख का हालचाल जानना चाहता है? ऐसा नहीं है कि उसे ख से कोई मतलब नहीं है। लेकिन जब क उसका हालचाल पूछता है, तो मईज एक शिष्टाचार निभा रहा होता है।
जरा सोचिए, जवाब में आप अपना पूरा हालचाल बताने लग जाएँ, तो पूछने वाले पर क्या गुजरेगी? अगर वह कुछ कम शिष्ट हुआ तो कहेगा, मैं अभी जरा जल्दी में हूँ। इस बारे में बाद में बात करूँगा। अगर वह शिष्ट हुआ, तो बात-बात पर 'अच्छा! अच्छा!' कहता रहेगा और थोड़ी देर बाद उसके चेहरे पर यह लिखा हुआ मिलेगा कि यार, कब तक बोर करोगे? वह बहुत शिष्ट हुआ, तो काफी देर तक धैर्यपूर्वक सुनता रहेगा, लेकिन सिर्फ सुनता ही रहेगा। वास्तव में उसका ध्यान कहीं और भटक रहा होगा। इसकी कल्पना आप स्वयं कर लें कि वह अशिष्ट हुआ, तो उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी। सभी शिष्ट लोग एक जैसे होते हैं, पर अशिष्ट लोगों में विविधता दिखाई देती है। शिष्टाचार का एक शास्त्र है, पर अशिष्टता हमेशा अराजक होती है। एक को अर्जित करना होता है और दूसरे का आविष्कार।
इसीलिए जब हालचाल पूछे जाने पर कोई 'सब ठीक-ठाक है' कहता है, तो वह प्रश्न से पलायन नहीं करना चाहता है। वह जानता है कि आप सचमुच उसका हालचाल नहीं जानना चाहते, बस शिष्टाचार निभा रहे हैं। इसीलिए 'सब ठीक-ठाक है' कह कर वह शिष्टाचार का जवाब शिष्टाचार से देता है। वह जानता है कि अगर वह सचमुच अपना हाल-चाल बताने लगा, तो आप उसे छोड़ कर उठ भागेंगे। समझिए कि वह एक तरह से आप पर करुणा करता है। वैसी ही करुणा, जैसी आपने उसके प्रति की थी।
बहुत कम लोग होते हैं, जो 'सब कुछ ठीक-ठाक होने' का दावा कर सकते हैं। सच पूछिए तो किसी का हाल ठीक-ठाक नहीं होता। इस धरती पर कोई ऐसा जूता नहीं बना जो कहीं न कहीं काटता न हो। दिनकर के शब्दों में कहा जाए तो, आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है; उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, और फिर बेचैन हो जगता न सोता है। धरती को मृत्यु लोक कहने के बजाय अगर चिन्ता लोक कहा जाए, तो ज्यादा सही होगा। लेकिन स्वर्ग भी चिन्ता-विहीन लोक है, इसका प्रमाण नहीं मिलता। वहाँ भी सत्ता खोने की चिन्ता होती है, एक-दूसरे से प्रतिद्वंद्विता होती है और बीच-बीच में शान्ति भंग होने लगती है। अप्सराएँ भी इन समस्याओं से मुक्त नहीं हैं। उर्वशी, मेनका और रंभा की कथाओं से तो यही जाहिर होता है। आजकल देवताओं के बीच क्या चल रहा है, इसकी खबर नहीं आती, इसलिए उनके जीवन के बारे में हम भ्रम में पड़े रहते हैं। वैसे, अगर 'इतिहास का अन्त' मुहावरा किसी सन्दर्भ में सत्य है, तो देवताओं के सन्दर्भ में ही। वे चिर काल तक एक ही स्थिति में रहते हैं। अमेरिका अपने को पृथ्वी का एकमात्र देवता समझता है, क्या इसीलिए उसने इतिहास के अन्त की घोषणा कर दी है? लेकिन उसका अपना हालचाल ही कौन-सा ठीक है?
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 02:43 PM   #119
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

कमजोर की मजबूती
राजकिशोर








मेरी समझ में नहीं आता कि कमजोर प्रधानमंत्री कहे जाने से डॉ. मनमोहन सिंह दुखी क्यों होते हैं। या, कांग्रेस यह साबित करने में क्यों तुली हुई है कि उनका प्रधानमंत्री कमजोर नहीं, मजबूत है। ऐसा लगता है कि ये लोग भारत में कमजोर की स्थिति को वाकई कमजोर समझते हैं। यह सच्चाई से कई किलोमीटर दूर है।
इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि मनमोहन सिंह इसीलिए प्रधानमंत्री बने क्योंकि राजनीतिक दृष्टि से वे एक कमजोर व्यक्ति थे। आज भी कांग्रेस उन्हें अपना अगला प्रधानमंत्री घोषित करके प्रसन्न है, तो इसीलिए कि वे राजनीतिक दृष्टि से कमजोर आदमी हैं। जब सोनिया गांधी ने तय कर लिया कि उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ नहीं लेनी है, तो उन्होंने कांग्रेस के ब्वायज में नजर दौड़ाई कि उनमें कौन ऐसा है, जिसे प्रधानमंत्री बनाने से बहुत ज्यादा बदनामी नहीं होगी और जो सचमुच प्रधानमंत्री बनने की कोशिश नहीं करेगा। इस नुस्खे के सबसे करीब मनमोहन सिंह दिखाई पड़े और उन्हें प्रधानमंत्री की कुरसी पर बैठा दिया गया। जो बात पूरा देश जानता है, उसे स्वीकार लेने से मनमोहन सिंह का बड़प्पन ही सामने आता।
कहने की जरूरत नहीं कि मनमोहन सिंह, प्रधानमंत्री के रूप में, कांग्रेस की नजर में नहीं, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की नजर में पूरी तरह से खरे उतरे। उन्होंने अपना कोई राजनीतिक व्यक्तित्व बनाने की कोशिश नहीं की। यहाँ तक कि उन्होंने लोक सभा का चुनाव भी नहीं लड़ा, जो किसी भी ऐसे प्रधानमंत्री की, जो लोक सभा का सदस्य नहीं है, पहला लोकतांत्रिक फर्ज है। जार्ज फर्नांडिस ने ठीक ही कहा कि मैं अभी ऐसा नाकारा नहीं हो गया हूँ कि राज्यसभा में जा कर बैठूँ। जैसे शेर जंगल में शोभा देता है, किसी अफसर के ड्राइंग रूम में नहीं, वैसे ही सच्चा राजनेता लोक सभा में शोभा देता है, राज्य सभा में नहीं। पर हमारे विद्वान प्रधानमंत्री ने, जो लोकतंत्र के प्रति गहराई से प्रतिबद्ध हैं और दूसरों को भी इतना ही प्रतिबद्ध रहने की प्रेरणा देते हैं, अपने मामले में कभी भी लोक सभा और राज्य सभा में फर्क नहीं किया। आजकल उनके चुनावी भाषणों से पता चलता है कि वे समानता के कितने बड़े पैरोकार हैं। महापुरुष उपदेश देने से पहले उदाहरण पेश करते हैं।
मनमोहन सिंह ने सिर्फ एक बार अपनी मजबूती दिखाई। उन्होंने ऐसा क्यों किया, यह तब तक रहस्य रहेगा, जब तक कोई खोजी पत्रकार इस रहस्य को भेदने के लिए कमर नहीं कस लेता। मामला अमेरिका से परमाणु करार का था। विपक्ष इसका समर्थन नहीं कर रहा था। जिन वामपंथियों के समर्थन के बल पर मनमोहन की सरकार टिकी हुई थी, वे उसका उग्र विरोध कर रहे थे। यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी का बहुमत भी इस परमाणु करार को लेकर असमंजस में था। सोनिया गांधी भी कुछ दिनों तक चुप रहीं। अकेले मनमोहन अड़े हुए थे कि यह करार नहीं हुआ तो मैं प्रधानमंत्री पद छोड़ दूँगा। कमजोर प्रधानमंत्री की इस मजबूती से कांग्रेस दहल गई। वाम मोर्चा ने समर्थन वापस ले लिया, सांसदों को सार्वजनिक तौर पर खरीदा गया और लोक सभा में एक करोड़ रुपए के नोट उछाले गए। यह सब इसलिए सहन किया गया, क्योंकि सोनिया गांधी के पास प्रधानमंत्री पद के लिए दूसरा कोई विश्वस्त आदमी नहीं था। कमजोर की मजबूती का यह अकेला उदाहरण नहीं है। हमारे पुरखे बहुत पहले बता गए हैं कि दुधारू गाय की लात भी सही जाती है।
दुनिया का तौर-तरीका यही है कि टिकता वही है जो कमजोर है। डार्विन का सिद्धान्त कि जो सबसे दुरुस्त होता है, इस मामले में फेल है। या, शायद कमजोर होना ही सामाजिक संरचना में दुरुस्त होने की निशानी है। कहते हैं कि जब तूफान आता है, तो बड़े-बड़े शक्तिशाली पेड़ जमीन पर आ गिरते हैं, पर विनम्र दूब का कुछ नहीं बिगड़ता। इसीलिए दुनियादार लोग यह सीख देते हैं कि जमे रहना है, तो दूब बन कर रहो। कारखाने में, दफ्तर में, दुकान में, संस्थान में - तुम जहाँ भी काम करते हो, दूब की-सी विनम्रता बनाए रखो। तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा। जो चीखते हैं, चिल्लाते हैं, अहंकार दिखाते हैं, वे बहुत जल्द खलास हो जाते हैं। गुलामी के सर्वव्यापक माहौल में उनके लिए कोई जगह नहीं है। भारत के सभी संस्थान इसी नियम पर चलते हैं। राजनीतिक दलों में यही संस्कृति पाई जाती है, तभी ये दल टिके हुए हैं। कांग्रेस और दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों पर यह बात सबसे ज्यादा लागू होती है। संस्थाएँ भी वही टिकी हुई हैं जहाँ के अधिकांश लोग अधीनस्थता के इस सिद्धांत का पालन करते हैं। इसलिए मनमोहन सिंह को यह घोषित करने में देर नहीं करनी चाहिए कि हाँ, मैं कमजोर आदमी हूँ और भारत का सच्चा प्रतिनिधित्व करता हूँ, क्योंकि देश ऐसे ही कमजोर व्यक्तियों की मजबूती के बल पर चल रहा है।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 02:43 PM   #120
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: व्यंग्य सतसई

कभी अलविदा न कहना
राजकिशोर








राज्य सभा के नव निर्वाचित सांसद जॉर्ज फर्नांडिस के सोने का समय हो गया था। दो-तीन लोग उन्हें सहारा दे कर बिछौने तक ले जा रहे थे। तभी बैठकखाने से आ कर सेवक ने खबर दी कि सरदार बूटा सिंह मिलने आए हैं। जॉर्ज ने इशारे से पूछा, ये कौन हैं? सहयोगियों ने बूटा सिंह के बारे में बताया। तब भी जॉर्ज के चेहरे पर विस्मय के निशान बने रहे, तो एक सहयोगी ने उन्हें बूटा सिंह का फोटो दिखाया, जो उसी दिन के अखबार में छपा था। फोटो देखते ही जॉर्ज ने पहचान लिया। उनके चेहरे पर खुशी के निशान प्रगट हुए। उन्होंने पीछे मुड़ने की कोशिश की, ताकि बैठकखाने में जा कर बूटा सिंह का स्वागत कर सकें। पर विशेष सफलता नहीं मिली, क्योंकि सहयोगी उन्हें कस कर पकड़े हुए थे। सहयोगियों ने समझाया कि आप सोने के कमरे में ही चलिए, बूटा सिंह को वहीं ले आते हैं।
बूटा सिंह ने जॉर्ज फर्नांडिस को आदरपूर्वक नमस्कार किया। जॉर्ज ने उन्हें और नजदीक आने को कहा। बूटा सिंह आगे बढ़े। जॉर्ज ने उन्हें गले लगा लिया। बूटा सिंह की आँखों में आँसू आ गए। अपनी पगड़ी सँभालते हुए उन्होंने कहा, देखिए, मेरे बेटे को फँसाया जा रहा है। हमारे दुश्मन उसकी जिंदगी तबाह करने की कोशिश कर रहे हैं। जॉर्ज ने कुछ शब्दों से, कुछ हावभाव से कहा, वे ठीक कर रहे हैं। भ्रष्टाचार के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता। बूटा सिंह हैरत में पड़ गए। बूटा सिंह ने कहा, आप भी ऐसा कहते हैं? इस तरह के आरोप तो आप पर भी लगाए जा चुके हैं। जॉर्ज ने उसी शैली में जवाब दिया, अच्छे नेता को इस तरह के आरोपों का सामना करने की कला आनी चाहिए। बूटा सिंह की बाँछें खिल गईं। बोले, आपसे मुझे इसी की उम्मीद थी।
इसके बाद बूटा सिंह जॉर्ज फर्नांडिस को बधाई देने लगे। बोले, मैं तो इतनी रात को छिप कर आपको हार्दिक बधाई देने आया था। राज्य सभा का सदस्य बन कर आपने अनुकरणीय कदम उठाया है। दूसरा कोई नेता होता, तो हिचकता। वह सोचता, अब इस उम्र में और इस हालत में सांसद क्या बनना। बहुत दिनों तक सांसदी कर ली। मंत्री भी रह लिए। घर में सब कुछ है। कोई कमी नहीं है। तबीयत भी ठीक नहीं रहती। न कुछ सुना जाता है, न बोला जाता है। लोगों को पहचान भी नहीं पाता। याददाश्त बिल्कुल चली गई है। कुछ याद नहीं रहता। अखबार तक नहीं पढ़ पाता। ऐसे हालात में संसद में बैठ कर क्या करूँगा? अभी तक मैं दूसरों पर हँसता रहा हूँ, अब दूसरे मुझ पर हँसेंगे। घर पर ही मैं ठीक हूँ।
जॉर्ज फर्नांडिस की कातर आँखें गीली हो आईं। लग रहा था, अब रोए कि तब रोए। सरदार बूटा सिंह ने उन्हें सँभाल लिया। बोले, जॉर्ज साहब, मैं आपको बहुत-बहुत बधाई देता हूँ कि आप इस फालतू की बकवास में नहीं पड़े। यह सोच औसत दर्जे के नेताओं का है। असल में ये डरपोक किस्म के लोग हैं। सोचते हैं, दुनिया क्या कहेगी? अरे, दुनिया क्या कहेगी? दुनिया वही कहेगी जो हम कहेंगे। आप औसत आदमी नहीं हैं। शेर हैं, शेर। बुढ़ापे में शेर गीदड़ नहीं हो जाता। वह शेर ही रहता है। शेर ही तय करता है कि संसद में किस रास्ते से जाएगा। आपने राज्य सभा का ऑफर ठुकरा कर शेर की तरह लोक सभा का चुनाव लड़ा। कामयाबी नहीं मिली तो आप शेर की तरह राज्य सभा में आ गए। आप जैसे नेताओं को देख कर हम जैसे मामूली लोगों का भी हौसला बढ़ता है।
यह सुन कर जॉर्ज के बदन में ऐसी ताकत आ गई कि उन्होंने बूटा सिंह को खींच कर फिर गले लगा लिया। उनकी पीठ थपथपाते हुए साफ शब्दों में बोले, नहीं, बूटा सिंह जी, आप मामूली आदमी नहीं हैं। आपका यह बयान मुझे बहुत पसंद आया कि मैं जान दे दूँगा, पर इस्तीफा नहीं दूँगा। क्या बात है! आज तक किसी ने भी इतना उम्दा जुमला नहीं कहा है। जान दे दूँगा, इस्तीफा नहीं दूँगा। क्या कहने! नेता वही है जो जान हथेली पर ले कर चलता है। ऐसे ही हिम्मतवालों की वजह से हमें आजादी मिली है। अगर वे कहते कि आजादी मिले या न मिले, मैं जान नहीं दे सकता, तो हम अभी तक गुलाम ही रहते। आपका यह हिम्मत भरा बयान सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा। क्या बात है! जान दे दूँगा, पर इस्तीफा नहीं दूँगा। मैं तो जब से राजनीति में आया, तभी से जान हथेली पर ले कर चलता आया हूँ। बड़ौदा डायनामाइट काण्ड के बारे में तो आपने सुना ही होगा। बूटा सिंह जी, आपने बहुत हिम्मत का काम किया है। मैं आपको बधाई देता हूँ।
बधाइयों के आदान-प्रदान के बाद बूटा सिंह जॉर्ज की कोठी से बाहर आए, तो जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला पर उनकी नजर पड़ी। ओमर किसी वजह से अपनी गाड़ी के बाहर खड़े थे। बूटा सिंह ने लपक कर उनका हाथ अपने हाथ में लिया और बोले, बधाई अब्दुल्ला साहब, दिली बधाई। आपने कमाल कर दिया। मैडम महबूबा की अच्छी काट निकाली। आपने सीएम के पोस्ट से इस्तीफा दे दिया और सीएम भी बने रहे।
ओमर अब्दुल्ला झेंप गए। उन्होंने झुक कर सलाम किया और अपनी गाड़ी की ओर बढ़ चले।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Reply

Bookmarks


Posting Rules
You may not post new threads
You may not post replies
You may not post attachments
You may not edit your posts

BB code is On
Smilies are On
[IMG] code is On
HTML code is Off



All times are GMT +5. The time now is 04:54 AM.


Powered by: vBulletin
Copyright ©2000 - 2024, Jelsoft Enterprises Ltd.
MyHindiForum.com is not responsible for the views and opinion of the posters. The posters and only posters shall be liable for any copyright infringement.