22-08-2012, 01:44 AM | #111 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
कई बार खुशी को लेकर भ्रम हो जाता है। कई बार आपको लगता है कि भौतिक चीजों से मिलने वाली संतुष्टि आपको सच्ची खुशी दे सकती है, लेकिन यह सच नहीं है। जैसे-जैसे आप जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव से गुजरेंगे, आपको लगेगा कि भौतिक चीजों से मिलने वाली संतुष्टि आपको सच्ची खुशी नहीं दे सकती। हो सकता है कि आज आपके पास सब कुछ हो। सफलता, शोहरत और दौलत भी। सुख-आराम की तमाम चीजें, लेकिन कभी आजमा कर देखिए। इन चीजों से आपको वह खुशी नहीं मिलती, जो आपको किसी से मिले प्यार के कारण मिलती है। वे लोग भाग्यशाली होते हैं, जिनके माता-पिता उनके साथ रहते हैं। जब वे साथ रहेंगे, तो आपको अपने आप यह अहसास होने लगेगा कि आपके पास ऐसे लोग हैं, जो आपसे प्यार करते हैं। यह प्यार ही सबसे बड़ी खुशी है। सच्ची खुशी उन चीजों में छिपी होती है, जिन्हें आप अपनी दौलत में नहीं गिनते। बच्चों के साथ खेलना, उनके साथ वक्त बिताना सबसे बड़ी खुशी है। जीवन के वे पल सबसे बेहतरीन क्षण होते हैं, जब आप अपने ऐेसे लोगों के साथ होते हैं, जो आपसे प्यार करते हैं। इसलिए आपको इस पल में मिलने वाली खुशी को समझना होगा। माता-पिता जीवन भर आपके लिए बहुत कुछ करते हैं, लेकिन बदले में वे आपसे कुछ नहीं मांगते। आप चाहे जो गलती करें, आप चाहे जैसी शरारतें करें, आपके माता-पिता हर हाल में आपके सच्चे दोस्त होते हैं। जब भी आप मुसीबत में होते हैं, सबसे पहले आपके माता-पिता आपके पास होते हैं, क्योंकि वे आपके दर्द को बेहतर समझते हैं। जो लोग बचपन में अपने माता-पिता को खो देते हैं, वही समझ सकते हैं कि उनके न होने का गम क्या होता है। उन्हें जीवन भर उनकी कमी बहुत खलती है। माता-पिता ही एकमात्र आपके ऐसे दोस्त हैं, जो आपको बिना शर्त प्यार करते हैं। इसलिए भरपूर कोशिश करो कि उनका साथ आपको मिले। वही सबसे बड़ी खुशी है।
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22-08-2012, 01:47 AM | #112 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
धर्म का आचरण
कवि कनकदास का जन्म विजय नगर साम्राज्य के बंकापुर प्रांत में एक गड़रिया परिवार में हुआ था। वह अपना अधिकांश समय ईश्वर की भक्ति साधना तथा अपने इष्टदेव तिरुपति के प्रति पदों की रचना में व्यतीत करते थे। गरीबों की सेवा करने के लिए वह हमेशा तत्पर रहते थे। एक बार उन्हें सोने की मुद्राओं से भरा एक बड़ा घड़ा प्राप्त हुआ। उन्होंने यह बात जब अपने सभी मिलने वालों को बताई तो सभी ने घड़े के मालिक को खोजने के प्रयास किए, पर अथक प्रयासों के बाद भी घड़े का कोई मालिक सामने नहीं आया। आखिरकार घड़ा कनकदास को सौंप दिया गया। कनकदास उस धन को अपने ऊपर खर्च करना पाप समझते थे। काफी सोच - विचार करके उन्होंने उस धन में से आधा हिस्सा निर्धनों के कल्याण पर खर्च कर दिया तथा आधे से कुलदेवता आदि केशव का मंदिर बनवाया। इसके बाद भी थोड़ा बहुत धन बच गया। वह यह विचार करने लगे कि इस धन को कहां खर्च किया जाए, तभी उनके परिवार के एक सदस्य ने कहा कि इसका कुछ अंश क्यों न परिवार की आवश्यकताओं पर खर्च किया जाए। यह सुनकर वह अपने घर के सदस्यों से बोले - बिना परिश्रम के प्राप्त हुए कोई भी धन का अपनी सुख-सुविधाओं के लिए उपयोग करना तो सरासर धर्म के विरुद्ध है। मैं अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों को धर्माचरण का उपदेश देता हूं, फिर स्वयं अधर्म का आचरण कैसे कर सकता हूं? मैं अपने परिवार की आवश्यकता के लिए परिश्रम से धन अर्जित कर सकता हूं। आप सभी जानते हैं कि मुझे लेखन तथा काव्य से अत्यंत प्रेम है। मुझे अपनी इस प्रतिभा को निखारकर धन अर्जित करना चाहिए। उसी धन का उपयोग मेरे लिए सही है। कनकदास की बात सुनकर उनके परिवार के सदस्य चुप हो गए। कनकदास ने बचे धन को अपंगों में बांट दिया। इसके कुछ समय बाद ही कनकदास के साहस, निकलंक छवि और समर्पण भाव को देखते हुए बंकापुर राज्य का सेनाध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया।
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23-08-2012, 01:01 PM | #113 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
हार के पीछे ही छिपी होती है जीत
कामयाबी एक खूबसूरत अहसास है। हर कोई सफलता चाहता है लेकिन सफलता आपको बुद्धिमान नहीं बनाती। आप अपनी सफलता किसी और को नहीं दे सकते। अगर आप सफल हैं तो जरूरी नहीं है कि आपके बच्चे भी सफल हों। सफलता के सूत्र पर बात करना समय की बरबादी है। कई बार लोग इसलिए भी सफल हो जाते हैं कि क्योंकि उन्हे असफलता से बहुत डर लगता है। कई लोगों को जीत की खुशी से ज्यादा हार का डर सताता रहता है। ऐसा तब होता है जब या तो मनुष्य कमजोर हो या ऐसे हालात में होता है वह कुछ कर नहीं पाता। ये हालात मनुष्य के भीतर तनाव और निराशा पैदा करते हैं। कई बार मनुष्य मैंने अपने आस पास के वातावरण को देख कर भी हतोत्साहित हो जाता है। ऐसे में उसके अंदर हार और नाकामयाबी का डर बढ़ जाता है। ऐसा नही होना चाहिए। प्रयास तो जारी रखने ही चाहिए। पहले भले ही कोई काम छोटा नजर आता हो लेकिन यह तय मानिए कि कोई भी काम छोटा नहीं होता। छोटे काम के साथ ही मनुष्य आगे बढ़ता है और एक दिन ऐसा भी आता है जब वह उसी छोटे काम के दम पर बड़ा काम कर जाता है। बस, यहीं से कामयाबी के दरवाजे खुल जाते हैं। हार के पीछे ही जीत का रहस्य छिपा है। हार आपको खुद को सुधारना सिखाती है। असफलता आपको संघर्ष करना सिखाती है। विफलता आपको हकीकत से रूबरू कराती है। नाकामयाबी आपको सच्चे दोस्तों की पहचान करना सिखाती है क्योंकि जो लोग हार के बाद आपका हौसला बढ़ाने आते हैं वही आपके सच्चे दोस्त होते हैं। कई असफलताओं के बाद आपको खुद को यह अहसास होने लगेगा कि आपके अंदर और बेहतर करने की क्षमता है। हारने बाद आपको यह भी अहसास होने लगेगा कि आपके अंदर जबर्दस्त आत्मविश्वास है। इसलिए हार से मत डरो। कहा भी जाता है कि हार को आत्मविश्वास से जीत में बदला जा सकता है। खुद को पहचाने तो जीत तय है।
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23-08-2012, 01:01 PM | #114 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
सामूहिकता में विश्वास
बात उस समय की है जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने देश को ब्रिटिश गुलामी से मुक्त कराने के लिए आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी। आजाद हिंद फौज के जवानो के साहस और उनकी एकता से अंग्रेज भी खौफ खाया करते थे। सभी जवानो में आपस में ऐसा तालमेल था कि कोई चाहकर भी उन्हे अलग करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज में सभी संप्रदायों के लोगों को शामिल होने का न्यौता दिया था। उनका विचार था कि भारत में रहने वाले सभी हिंदु, मुस्लिम, सिख आदि पहले भारतीय हैं फिर कुछ और। इसलिए वे आजाद हिंद फौज के दरवाजे सभी के लिए खुले रखते थे। जिसके भी सीने में देश को आजाद करने की आग हो और जो फौज के सभी जवानो के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर सके वह उनकी फौज में शामिल हो सकता था। इसलिए आजादी की इस सेना में सभी तरह के लोग थे। उन्ही में से कैप्टन शाहनवाज खान भी आजाद हिंद फौज में शामिल हुए थे। एक बार अंग्रेजों ने उनकी किसी गतिविधि को लेकर उन पर मुकदमा दायर किया। कैप्टन के वकील बने भूलाभाई देसाई। इस बीच मुहम्मद अली जिन्ना ने कैप्टन शाहनवाज खान को संदेश भिजवाया कि यदि आप आजाद हिंद फौज के साथियों से अलग हो जाएं तो मुस्लिम भाई होने के नाते मैं आपका मुकदमा लड़ने को तैयार हूं। शाहनवाज खान ने तत्काल जवाब भिजवाया-हम सब हिंदुस्तानी कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं। हमारे कई साथी इसमें शहीद हो गए और हमें उनकी शहादत पर नाज है। आपकी पेशकश के लिए शुक्रिया। हम सब साथ-साथ ही उठेंगे या गिरेंगे, परंतु साथ नहीं छोड़ेंगे। उनके इस सटीक जवाब से उनके सभी साथी बहुत प्रसन्न हुए। उन्हीं में से एक बोला-धर्म और जाति की संकीर्णता से ऊपर रहने वाला देश ही उन्नति करता है। इसलिए हमें समानता की दृष्टि से सबको देखते हुए सामूहिकता में विश्वास रखना चाहिए।
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27-08-2012, 06:53 AM | #115 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
अच्छी पहल खुद करनी पड़ेगी
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रोफेसर मोहम्मद यूनुस ने अपने माइक्रो फाइनेंस से न केवल बांग्लादेश बल्कि पूरी दुनिया के गरीबों को एक नई राह दिखाई है। यूनुस ने एक अमेरिकी विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पीएचडी की डिग्री हासिल की और वहां की मिडिल टेनिसी यूनिवर्सिटी में बतौर अस्टिस्टेंट प्रोफेसर काम किया। बाद में उन्होंने स्वदेश लौटकर गरीबों के लिए बैंकिंग प्रणाली शुरू करने का फैसला किया। उनकी यह पहल कारगर साबित हुई। ड्यूक यूनिवर्सिटी के छात्रों को संबोधित करते हुए प्रोफेसर यूनुस ने युवाओं को सामाजिक कारोबार की प्रेरणा दी। उन्होने कहा,आप खुशनसीब हैं कि आपकी पीढ़ी को सूचना तकनीक की सुविधाओं का लाभ मिला है। हमारे जमाने में यह सुविधा नहीं थी। तब हमें संदेश भेजने के लिए पत्र लिखना पड़ता था और इसमें लंबा समय लगता था। आज समय बदल गया है। अब आप कुछ सेकंड में दुनिया में किसी भी कोने में बैठे व्यक्ति को ई-मेल के जरिए संदेश भेज सकते हैं। आप हर पल एक दूसरे के संपर्क में रह सकते हैं। संचार और संवाद आसान हुआ है। इंटरनेट के जरिए आपके पास सूचनाओं का अंबार है। तकनीक ने आपके लिए रास्ते आसान किए हैं। सब कुछ अब आपके हाथ में है। अब फैसला आपको करना है कि इस तकनीक का इस्तेमाल कैसे करते हैं। क्या आप तकनीक का इस्तेमाल सिर्फ पैसा कमाने के लिए करेंगे या फिर तकनीक के जरिए इस दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने की कोशिश भी करेंगे? मर्जी आपकी है, फैसला आपका है। आप चाहें तो दुनिया को बदल सकते हैं। आप चाहें तो इस तकनीक की मदद से तमाम जरूरतमंद लोगों की मदद कर सकते हैं। रास्ते खुले हैं। हम पहल कर सकते हैं। आज आपके हाथ में तकनीक नाम का अलादीन का चिराग है। डिजिटल डिवाइस नामक जिन्न है। इसकी मदद से आप सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं। तकनीक का इस्तेमाल समाज के विकास में होना चाहिए।
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27-08-2012, 06:54 AM | #116 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
महत्वाकांक्षा ने खोली आंखें
किसी जमाने में एक बौद्ध मठ में सुवास नामक एक भिक्षु रहता था। वह बहुत ही महत्वाकांक्षी था। इस महत्वाकांक्षा के चक्कर में वह ऐसी बातें भी सोचने लगता था जो उसके वश में नहीं होती थी। वह हमेशा यही सोचता रहता था कि बुद्ध की तरह वह भी नव भिक्षुओं को दीक्षित करे और उसके शिष्य उसकी नियमित चरण वंदना करें। मगर वह यह समझ नहीं पा रहा था कि अपनी इस इच्छा की पूर्ति कैसे करे। अपनी इस आदत के कारण वह मठ में रहने वाले दूसरे भिक्षुओं से आम तौर पर कटा-कटा सा रहता था। कई बार जब दूसरे भिक्षु उसे कुछ कहने का प्रयास करते तो वह उनसे दूरी बनाने की कोशिश करता या ऐसा कुछ कहता जिससे उसकी श्रेष्ठता साबित हो। दूसरे भिक्षु इस कारण उससे नाराज रहते थे लेकिन उसकी आदत को समझ कर उससे ज्यादा तर्क-वितर्क नहीं करते थे। एक दिन बुद्ध ने जब प्रवचन समाप्त किया और सारे शिष्यों के जाने के बाद सभा स्थल खाली हो गया तो अवसर देख सुवास ऊंचे तख्त पर विराजमान बुद्ध के पास जा पहुंचा और कहने लगा- प्रभु,आप मुझे भी आज्ञा प्रदान करें कि मैं भी नव भिक्षुओं को दीक्षित कर उन्हे अपना शिष्य बना सकूं और आपकी तरह महात्मा कहलाऊं। यह सुनकर बुद्ध खड़े हो गए और बोले- जरा मुझे उठाकर ऊपर वाले तख्त तक पहुंचा दो। सुवास बोला-प्रभु इतने नीचे से तो मैं आपको नहीं उठा पाऊंगा। इसके लिए तो मुझे आपके बराबर ऊंचा उठना पड़ेगा। बुद्ध मुस्कराए और बोले-बिल्कुल ठीक कहा तुमने। इसी प्रकार नव भिक्षुओं को दीक्षित करने के लिए तुम्हें मेरे समकक्ष होना पड़ेगा। जब तुम इतना तप कर लोगे तब किसी को भी दीक्षित करने के लिए तुम्हें मेरी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। मगर इसके लिए प्रयास करना होगा। केवल इच्छा करने से कुछ नहीं होगा। सुवास को अपनी भूल का अहसास हो गया। उसने बुद्ध से क्षमा मांगी। उस दिन से उसका व्यवहार और सोच पूरी तरह बदल गई और उसमें विनम्रता आ गई।
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28-08-2012, 11:48 AM | #117 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
जब गूंजा भारत माता की जय
भारत के स्वतंत्र होने के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू पिलानी के एक स्कूल में मुख्य अतिथि बनकर पहुंचे। स्कूल में विद्यार्थियों ने ऐसे विविध रंगारंग कार्यक्रम पेश किए कि पंडित नेहरू मंत्रमुग्ध होकर देखते ही रहे। हर रंगारंग प्रस्तुति के बाद वे जोर-जोर से तालियां बजाकर विद्यार्थियों का खूब उत्साह बढ़ा रहे थे। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद अपने विचार प्रकट करने के लिए पंडित नेहरू को मंच पर आमंत्रित किया गया। पंडित नेहरू मंच पर आकर बोले-आज मुझे इस स्कूल में आकर बेहद गर्व का अनुभव हो रहा है। हमारे नन्हे-मुन्ने बच्चों ने काफी मेहनत से विविध रंगारंग कार्यक्रम पेश किए और मंच पर अपने काम को पूरी कुशलता के साथ अंजाम दिया है। इन्हीं बच्चों को आने वाले समय में हमारे देश की नींव को मजबूत करना है। भारत माता का नाम रोशन करना है। तभी उत्सुकतावश एक छोटे विद्यार्थी ने पंडित नेहरू से पूछा- भारत माता कौन हैं? उस छोटे विद्यार्थी के मुंह से निकले इस सवाल को सुनकर पंडित नेहरू के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। उन्होंने उस विद्यार्थी से कहा-बेटा, सोचो भारत माता कौन हैं? बालक कुछ देर तो सोचता रहा फिर बोला-हमारा देश भारत है। उसकी माता भारत माता हुई। इस पर पंडित नेहरू बोले-बच्चों, हमारा पूरा देश, इसके पहाड़, पवित्र नदियां, गांव, शहर,उद्योग सभी भारत माता हैं। हम सभी भारत माता की संतान हैं। हमारा फर्ज है कि हम अपनी भारत माता की सेवा करें, उसे विकास की नई ऊंचाइयों तक पहुंचाएं। संतान का कर्त्तव्य अपनी माता की देखभाल करना है, उसका नाम रोशन करना है। इसलिए हमें ऐसे कार्य करने होंगे कि हमारा देश विश्व के भाल पर मणि की तरह चमके। यह सुनकर वहां उपस्थित स्वाधीनता सेनानी-उद्योगपति घनश्यामदास बिड़ला के साथ अध्यापक-अध्यापिकाएं भाव-विभोर हो उठे और विद्यालय का प्रांगण भारत माता की जय के उद्घोष से गूंज उठा।
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28-08-2012, 05:21 PM | #118 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
सच्ची कोशिश से मिलती है कामयाबी
सफलता का मतलब जीतना नहीं बल्कि जीतने की सच्ची कोशिश करना है। अगर पूरी कोशिश करने के बाद भी आप सफल नहीं होते हैं तो दिल में यह सुकून होता कि चलो मैंने सच्ची कोशिश की। यह सुकून ही आपकी सफलता है। आप सफल हैं या नहीं यह तय करने का अधिकार सिर्फ आपको है। अधिकांश माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे को क्लास में ए या बी ग्रेड मिले। अगर किसी बच्चे को सी ग्रेड मिले तो कोई मानने को तैयार नहीं होता। उन्हें लगता है कि सी ग्रेड तो उनके बच्चे के लिए बना ही नहीं है। माता-पिता किसी हालत में अपने बच्चों को रैंकिंग में पिछड़ता नहीं देखना चाहते हैं। उनके लिए सफलता का मतलब ऊंची रैंक हासिल करना था। यह सोच सही नहीं है। ईश्वर ने हर इंसान को अलग-अलग प्रतिभा और भिन्न-भिन्न शक्ल-सूरत दी है। सभी लोग एक जैसे नहीं हो सकते। हर बच्चे को क्लास में ए या बी ग्रेड मिले यह जरूरी तो नहीं। जीत का मतलब नंबर वन बनना नहीं है। किसी विषय में अच्छे अंक पाकर या फिर किसी प्रतियोगिता में ऊंची रैंक हासिल करके आप सफल नहीं बन सकते। कहा जाता है कि दूसरों से बेहतर बनने की कोशिश मत करो। दरअसल उनका आशय यह होता है कि दूसरों से होड़ लेने की बजाय बेहतर यह है कि उनकी अच्छी आदतें सीखो। हमें वह कार्य करना चाहिए जो हम कर सकते हैं , जो हमारी क्षमता में है। अगर आप ऐसा कुछ भी करने की कोशिश करेंगे जो आपकी क्षमता से बाहर है तो यह आपके उन लक्ष्यों को भी प्रभावित करेगा जो आप हासिल कर सकते हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आप सफल हुए या नहीं। महत्वपूर्ण यह है कि आपने लक्ष्य को पाने के लिए कितनी मेहनत की। अगर आपने लक्ष्य हासिल करने के लिए भरपूर कोशिश की है, तो निश्चित रूप से आप सफल हैं। अब अगर आपने किसी काम को करने की कोशिश ही नहीं की है और आप सफल होने की उम्मीद करें, तो यह कदापि संभव नहीं है।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु Last edited by Dark Saint Alaick; 29-08-2012 at 12:29 AM. |
30-08-2012, 03:07 PM | #119 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
परिणाम जो भी हो, धैर्य जरूर रखें
अगर आपने कोई काम सच्ची कोशिश के साथ किया लेकिन अगर आपको सफलता न मिले तो मन में एक आत्मसंतोष रहता है कि चलो मैंने पूरी कोशिश की। यह अहसास आपके दिल को सुकून देता है। यह सुकून ही आपकी सफलता है। अगर आप किसी चीज को हासिल करने के लिए सच्ची कोशिश करते हैं और अगर आपको लगता कि आपने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी तो यह आपकी जीत है। सफलता का मतलब पा लेना नहीं बल्कि पाने की सच्ची कोशिश करना है। आप सफल हैं या नहीं इसे तय करने का अधिकार सिर्फ आपको है किसी और को नहीं क्योंकि सिर्फ आप जानते हैं कि आपने सच्ची कोशिश की है। अक्सर लोग अपनी छवि को लेकर चिंतित रहते हैं। आपकी छवि इस बात पर निर्भर है कि आप खुद को कैसे देखना चाहते हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आप कैसे दिखना चाहते है। महत्वपूर्ण यह है कि आप वाकई कैसे हैं। इसी हकीकत पर आपका चरित्र निर्भर है। कई बार हम यह महसूस करते हैं कि मैं वह नहीं बन पाया जो मैं बनना चाहता था लेकिन आपको यह मान कर चलना चाहिए कि आज आप जो भी हैं वही आपके लिए बेहतर है। सफलता के लिए जरूरी है कि जो काम करो उसकी समय सीमा बांधो। समय बहुत कीमती है। हमें इसकी अहमियत समझनी चाहिए। हर इंसान को समय का पाबंद होना चाहिए। आप समय पर काम शुरू करिए और समय पर खत्म भी। इसके अलावा सफलता के लिए मेहनत और उत्साह तो जरूरी है साथ ही आपके अंदर विश्वास और धैर्य भी होना चाहिए। आज जो काम कर रहे हैं उसे पूरे मन से करिए ताकि आपको काम का मजा आए। परिणाम चाहे जो हो धैर्य बनाए रखिए। हम अक्सर बात करते हैं कि युवाओं में धैर्य की कमी है। वे सब कुछ बदलना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि बदलाव ही तरक्की है। जरूरी नहीं है कि जैसा हम चाहते हैं वैसा ही हो। हमें भरोसा होना चाहिए कि जो उचित है उसके लिए हमें हर मुमकिन कोशिश करेंगे।
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30-08-2012, 03:10 PM | #120 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
एक पद ने सिखाया दायित्व
एक भिक्षुक एक बार एक राजा के पास पहुंचा और कहा- राज्य के संचालन का उत्तरदायित्व ऐसे व्यक्ति पर हो जो भगवान बुद्ध के संदेशों को फैला कर उनके अनुसार राज्य व्यवस्था चला सके। इसके लिए हम दोनों में से कौन उपयुक्त है? राजा ने कहा-भंते! आप योग्य हैं। अच्छा हो कि इसका उत्तरदायित्व आप संभालें। आपने त्रिपिटकों का गहरा अनुशीलन किया है पर मेरा निवेदन है कि अगर आप एक बार त्रिपिटकों का अध्ययन और करें तो...। भिक्षुक बोला-इसमें क्या है! अभी मैं त्रिपिटकों का अध्ययन कर लौटता हूं। भिक्षुक कुछ महीने बाद राजसभा में लौटा। उसने स्पष्ट शब्दों में कहा- राजन! राजसत्ता अब मुझे सौप दें। राजा बोले- क्षमा करें एक बार आप फिर त्रिपिटकों का अनुशीलन करने का कष्ट करें। भिक्षुक की आंखों में क्रोध उतरा, परंतु उसने एकांत में समग्र त्रिपिटकों का शीघ्रता से अध्ययन किया, फिर राजसभा में लौटा सत्ता की बागडोर लेने। राजा शांत थे। भिक्षुक का सम्मान करते हुए एक बार फिर उससे त्रिपिटकों का अनुशीलन करने का आग्रह किया। भिक्षुक ने रोष भरे शब्दों में कहा- राजन, यदि तुम राज नहीं देना चाहते तो व्यर्थ मुझे इतना परेशान क्यों किया। राजा विनम्र बने रहे। बोल-भंते! मैं आप को दुखी नहीं करना चाहता। मेरा उद्देश्य तो केवल इतना ही है कि त्रिपिटकों का पारायण ढंग से हो, ताकि आप सभी कार्य सुगमतापूर्वक कर सके। भिक्षुक कुटिया में लौटा। गंभीरतापूर्वक अध्ययन करने लगे। सहसा एक पद आया-अप्प दीपोभव (अपने लिए दीपक बनो) इस बार भिक्षुक के सामने इसका अर्थ खुला। उसने सोचा, यदि उसने इस बात को ठीक से समझा होता, तो विरक्त भाव में रमण करने वाला फिर इस संसार में लौटने का प्रयत्न नहीं करता। वह फिर राजसभा में नहीं गया। राजा कुटिया में पहुंचे। प्रार्थना की- भंते पधारें, सत्ता संभालें। भिक्षु ने एक ही वाक्य कहा- राजन, मैंने अपनी सत्ता संभाल ली है। किसी अन्य सत्ता की अब मुझे कतई अपेक्षा नहीं है।
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