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Old 01-12-2012, 07:43 PM   #1261
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वशिष्ठजी बोले, हे रामजी!जिनको दुःख सुख चलाते हैं और जो इन्द्रियों के इष्ट में सुखी और अनिष्ट में दुःखी होते हैं और रागद्वेष के अधीन बर्तते हैं उनको ऐसे जानो कि वे नष्ट हुए हैं | जिनका पुरुष प्रयत्न नष्ट हुआ है वे बारम्बार जन्म पावेंगे और जिनको सुख दुःख नहीं चलाते उनको अविनाशी जानो | वे जन्ममरण की फाँसी से मुक्त हुए हैं और उनको शास्त्र का उपदेश नहीं है | हे रामजी! रागद्वेष तब फुरता है जब मन में इच्छा होती है और इच्छा तब होती है जब संसार की सत्यता दृढ़ होती है जिसको असत्य जानता है उसको बुद्धि नहीं ग्रहण करती और इच्छा भी नहीं होती और जिसको सत्य जानता है उसमें बुद्धि दौड़ती है |हे रामजी! अज्ञानी को संसार सत्य भासता है इससे वह दुःख पाता है | जब वह शान्तपद का यत्न करे तब दुःख से मुक्त हो |
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है।
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Old 01-12-2012, 07:43 PM   #1262
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जिससे अहं, त्वं, जगत् ब्रह्म आदि शब्द कोई नहीं और जो केवल चिन्मात्र आकाशरूप है उसमें ये शब्द कैसे हों? ये शब्द विचार के निमित्त कहे हैं पर वास्तव में शब्द कोई नहीं अद्वैत और चैत्य से रहित चिन्मात्र है | जब सर्व शब्दों का बोध किया तब शेष शान्तपद रहता है, इसी से आत्मत्वमात्र कहा है और जगत् फुरने से उसी को भासता है | उस जगत् में जहाँ ज्ञप्ति जाती है उसका ज्ञान होता है | हे रामजी! एक अधिष्ठान ज्ञान है और दूसरा ज्ञप्ति ज्ञान है, अधिष्ठान ज्ञान सर्वज्ञ ईश्वर को है और ज्ञप्तिज्ञान जीव को है | एक लिंग शरीर का जिसको अभिमान है वह जीव है और सर्वलिंग शरीरों का अभिमानी ईश्वर है | जहाँ इस जीव की ज्ञप्ति पहुँचती है उसको जानना है | जैसे शय्या पर दो पुरुष सोये हों और एक को स्वप्ना आवे उसमें मेघ गर्जते हैं और दूसरा उस मेघ का शब्द नहीं सुनता, क्योंकि ज्ञप्ति उसको नहीं आई परन्तु मेघ तो उसके स्वप्न में है | जैसे सिद्ध विचरते हैं और जीव को दृष्टि नहीं आते, क्योंकि इसकी ज्ञप्ति नहीं जाती और सब सृष्टि बसती है तिसका ज्ञान ईश्वर को है सृष्टि भी संकल्पमात्र है, कुछ भी नहीं और भ्रम से भासती है |
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Old 01-12-2012, 07:43 PM   #1263
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जैसे बादल में हाथी, घोड़े, मनुष्य आदिक विकार भासते हैं वे भ्रान्तिमात्र हैं तैसे ही आत्मा के अज्ञान से यह सृष्टि नाना प्रकार की भासती है | हे रामजी! यह आश्चर्य है कि आत्मा में अहंकार का उत्थान होता है कि मैं हूँ और अपने को वर्णाश्रमी मानता है पर विचार करके देखिये तो अहं कुछ वस्तु नहीं सिद्ध होती और अहं अहं फुरती है | यह आश्चर्य है कि भूत कहाँ से उठा है और शुद्ध आत्मब्रह्म में कैसे हुआ? अनहोते अहंकार ने तुमको मोहित किया है इसके त्यागने में तो कुछ यत्न नहीं इसका त्याग करो | हे रामजी! यह मिथ्या संकल्प उठा है | जब अहंकार का उत्थान होता है तब जगत होता है- और जब अहन्ता मिट जाती है तब जगत् का भी अभाव हो जाता है, क्योंकि कुछ बना नहीं भ्रममात्र है | जैसे संकल्पनगर और स्वप्न की सृष्टि भ्रममात्र है तैसे ही यह विश्व भी भ्रममात्र है | कुछ बना नहीं और आत्मतत्त्व है-भिन्न नहीं |
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जैसे पवन के दो रूप हैं चलता है तो भी पवन हैं और ठहरता है तो भी पवन हैं, तैसे ही विश्व भी आत्म स्वरूप है जैसे पवन चलता है तब भासता है और ठहर जाता है तब नहीं भासता, तैसे ही चित्त चैत्यशक्ति का चमत्कार है, जब फुरता है तब विश्व भासता है पर तो भी चिद्घन है और जब ठहर जाता है तब विश्व नहीं भासता परन्तु आत्मा सदा एकरस है | जैसे जल में तरंग और सुवर्ण में भूषण हैं सो भिन्न नहीं, तैसे ही आत्मा में विश्व कुछ हुआ नहीं-आत्मस्वरूप ही है | ज्ञप्ति भी ब्रह्म है और ज्ञप्ति में फुरा विश्व भी ब्रह्म है तो विधि निषेध और हर्ष, शोक किसका करें? सब वही है | हे रामजी! संकल्प को स्थिर करके देखो कि सब तुम्हारा ही स्वरूप है | जैसे मनुष्य शयन करता है तो उसको स्वप्नसृष्टि भासती है और जब जागता है तब देखता है कि सब मेरा ही स्वरूप है, तैसे ही जाग्रत विश्व भी तुम्हारा स्वरूप है |
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जैसे समुद्र में तरंग उठते हैं सो जलस्वरूप है तैसे ही विश्व आत्मस्वरूप है और जैसे चितेरा काष्ठ में कल्पना करता है कि इतनी पुतलियाँ निकलेंगी और जैसे मृत्तिका में कुम्हार घटादिक कल्पता है कि इसमें इतने पात्र बनेंगे पर काष्ठ और मृत्तिका में तो कुछ नहीं, ज्यों का त्यों काष्ठ है और ज्यों की त्यों मृत्तिका है परन्तु उनके मन में आकार की कल्पना है, तैसे ही आत्मा में संसाररूपी पुतलियाँ मन कल्पता है जब मन का संकल्प निवृत्त हो तब ज्यों का त्यों आत्मपद भासे | जैसे तरंग जलरूप है, जिसको जल का ज्ञान है तो तरंग भी जलरूप जानता है और जिसको जल का ज्ञाननहीं सो भिन्न भिन्न तरंग के आकार देखता है, तैसे ही जब निस्संकल्प होकर स्वरूप को देखे तब फुरने में भी आत्मसत्ता भासेगी |
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अहंत्वमादिक सब जगत् ब्रह्मस्वरूप ही है तो भ्रम कैसे हो और किसको हो | सब विश्व आत्मस्वरूप है और आत्मा निरालम्ब अर्थात् चैत्य और अहंकार से रहित केवल आकाशरूप है | जब तुम उसमें स्थित होगे तब नाना प्रकार की भावना मिट जावेगी, क्योंकि नाना प्रकार की भावना जगत् में फुरती है | जगत् का बीज अहन्ता है, जब अहन्ता नष्ट हो तब जगत् का भी अभाव हो जावेगा | हे रामजी! अहन्ता का फुरना ही बन्धन है और निरहंकार होना ही मोक्ष है | एक चित्तबोध है और दूसरा ब्रह्मबोध है-चित्तबोध जगत् है और ब्रह्मबोध मोक्ष है | चित्तबोध अहन्ता का नाम है, जबतक चित्तबोध फुरता है तब तक संसार है और जब चित्त का अभाव होता है तब मुक्त होता है | इस चित्त के अभाव का नाम ब्रह्म, बोध है | हे रामजी! जैसे पवन फुरता है तैसे ही ब्रह्म में चित्तबोध है | और जैसे पवन ठहर जाता है तैसे ही चित्त का ठहरना ब्रह्मबोध है |
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जैसे फुर अफुर दोनों पवन ही हैं तैसे ही चित्तबोध और ब्रह्मबोध ब्रह्म ही है-भिन्न कुछ नहीं | हमको तो ब्रह्म ही भासता है जो चैतन्यमात्र और शान्तरूप अपने स्वभाव में स्थित है | जिसको अधिष्ठान का ज्ञान होता है उसको विवर्त भी वही रूप भासता है और जिसको अधिष्ठान का ज्ञान नहीं होता उसको भिन्न भिन्न जगत् भासता है | जैसे एक बीज में पत्र डाल, फूल और फल भासते हैं पर जिसको बीज का ज्ञान नहीं उसको भिन्न भिन्न भासते हैं | हे रामजी! हमको अधिष्ठान आत्मतत्त्व का ज्ञान है इससे सब विश्व आत्म स्वरूप भासता है और अज्ञानी को नाना प्रकार का विश्व और जन्म मरण भासते हैं | हे रामजी! सब शब्द आत्मतत्व में फुरते हैं और सबका अधिष्ठान निराकार निर्विकार, शुद्ध आत्मा सबका अपना आप है, इससे सब विश्व आकाशरूप है कुछ भिन्न नहीं |
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Old 01-12-2012, 07:45 PM   #1268
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जैसे तरंग जलरूप है तैसे ही विश्व आत्मस्वरूप है चित्त जो फुरता है उसके अनुभव करनेवाली चैतन्य सत्ता है सो ही ब्रह्म है और तुम्हारा स्वरूप भी वही हैं, इससे अहं त्वं आदिक जगत् सब ब्रह्मरूप है तुम संशय त्यागकर अपने स्वरूप में स्थित हो | अगे तुमसे जो द्वैत अद्वैत कहा है वह सब उपदेशमात्र है एकचित्त की वृत्ति को स्थित करके देखो सब ब्रह्म है भिन्न कुछ नहीं तो निषेध किसका कीजिये? हे रामजी! चित्त की दो वृत्ति ज्ञानवान् कहते हैं-एक मोक्षरूप है और दूसरी बन्धरूप है जो वृत्ति स्वरूप की ओर फुरती है सो मोक्षरूप और जो दृश्य की ओर फुरती है सो बन्ध रूप है | जो तुमको शुद्ध भासती हो वही करो | जो दृष्टा है सो दृश्य नहीं होता और जो दृश्य है वह दृष्टा नहीं होता पर आत्मा तो अद्वैत है इससे दृष्टा में दृश्य पदार्थ कोई नहीं | तुम क्यों दृश्य की ओर फुरते हो और अनहोती दृश्य को ग्रहण करते हो? दृष्टा भी तुम्हारा नाम दृश्य से होता है |
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जब दृश्य का अभाव जाना तब अवाच्यपद है उसको वाणी से कहा नहीं जाता | हे रामजी! जैसे अंगी और अंग वाले, आकाश और शून्यता, जल और द्रवता और बरफ और शीतलता में कुछ भेद नहीं तैसे ही ब्रह्म और जगत् में कुछ भेद नहीं | कोई जगत् कहे अथवा ब्रह्म कहे एक ही पर्याय है, जगत् ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही जगत् है | इससे आत्मपद में स्थित हो रहो, भ्रम करके जो आपको कुछ और मानते हो उसको त्यागकर ब्रह्म ही की भावना करो और आपको मनुष्य कदाचित् न जानो जो आपको मनुष्य जानोगे तो यह निश्चय अधोगति को प्राप्त करनेवाला है इससे अपने स्वरूप में स्थित हो रहो |
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Old 01-12-2012, 07:45 PM   #1270
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परमार्थयोगोपदेश......
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