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Old 09-01-2011, 11:09 AM   #121
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Old 02-09-2011, 09:03 AM   #122
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कृपया सूत्र को निरंतरता प्रदान करें ...
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Old 18-09-2011, 03:23 PM   #123
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स्वाभिमान की रक्षा
एक बार एक विद्यालय के कुछ छात्रों ने मिलकर पहाड़ी क्षेत्र में पिकनिक पर जाने की योजना बनाई। इसके लिए यह तय किया गया कि सभी बच्चे घर से खाने का कुछ न कुछ सामान लाएंगे। इनमें से एक बालक अपने घर आया और उसने मां को सारी बात बताई।

यह सुनकर मां उदास हो गई। दरअसल घर में कुछ भी ऐसा नहीं था कि वह ले जा सके। न खाने का सामान, न उसे खरीदने के पैसे। कुछ खजूर अवश्य पड़े थे। लेकिन पिकनिक पर खजूर ले जाना बालक को अच्छा नहीं लगा। कुछ देर बाद बालक के पिता घर आए। बालक की मां ने उन्हें पिकनिक के बारे में बताया।

दुर्भाग्य से उस दिन बालक के पिता की जेब भी खाली थी। लेकिन पिता बालक का दिल नहीं तोड़ना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि उनका बच्चा भी और बच्चों की तरह खुश रहे। उसे किसी भी चीज की कमी न महसूस हो। इसलिए उन्होंने कर्ज लेकर अपने बेटे को पिकनिक पर भेजने का निश्चय किया। वह जब पड़ोसी के घर जाने लगे तो बालक को सब कुछ समझ में आ गया।

उसने दौड़कर पिता की बांह पकड़ी और पूछा, 'आप कहां जा रहे हैं?' पिता ने कहा, 'मैं पड़ोसी के यहां जा रहा हूं ताकि तुम्हारे लिए खाने के कुछ सामान का प्रबंध किया जा सके। घर में तो कुछ है नहीं।' इस पर बालक बोला, 'नहीं पिताजी, किसी से अनावश्यक उधार मांगना ठीक नहीं है। वैसे भी पिकनिक पर जाने की मेरी कोई बहुत इच्छा भी नहीं है।

अगर जाना ही होगा तो खजूर हैं ही। मैं वही लेकर चला जाऊंगा। कर्ज लेकर शान दिखाना अच्छी बात नहीं।' यह सुनकर पिता के कदम रुक गए। भावुकतावश वह कुछ बोल नहीं सके। मन ही मन वह बेटे को आशीर्वाद दे रहे थे। यह असाधारण बालक आगे चलकर लाला लाजपत राय के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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Old 18-09-2011, 03:23 PM   #124
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लाभ और हानि में.


एक संत के पास कोई युवक आया। उसने संत से शांति का रास्ता पूछा। संत ने उसको उसी शहर में किसी सेठ के पास भेज दिया। सेठ ने युवक की बात सुनी। उसने युवक को बैठने के लिए कहा और अपने काम में व्यस्त हो गया।

कभी वह ग्राहकों से बात करता, कभी फाइलें देखता, कभी मुनीम को निर्देश देता और कभी फोन पर सूचनाएं भेजता। काफी देर तक उसकी व्यस्तता देख युवक ने सोचा, यह मुझे क्या बताएगा, इसे तो दम मारने की भी फुर्सत नहीं है। अचानक सबसे बड़ा मुनीम हांफता हुआ आया और सेठ को संबोधित कर कहा, गजब हो गया।

अपना मालवाही जहाज समुदी तूफान में फंस गया है। उसके डूबने की आशंका है। सेठ बोला, मुनीम जी! अधीर क्यों हो रहे हैं? अनहोनी कुछ भी नहीं हुआ है। जहाज डूबने की नियति थी तो उसे कोई कैसे बचा सकता है? सेठ की बात सुन कर मुनीम कुछ आश्वस्त होकर चला गया। दो घंटे बाद मुनीम फिर वापस आया और उल्लसित होकर बोला, सेठ जी! तूफान शांत हो गया।

हमारा जहाज डूबा नहीं, सुरक्षित तट पर आ गया। माल उतारते ही दुगुनी कीमत में बिक गया। सेठ पहले की ही तरह शांत और गंभीर रहा। फिर बोला, मुनीम जी! इसमें खुशी की क्या बात है? व्यापार में घाटा और मुनाफा होता ही रहता है।

पैसा आता है तो जा भी सकता है। युवक साक्षी भाव से सेठ का प्रत्येक व्यवहार देख रहा था। वह बोला, सेठ साहब! मैं जाता हूं। मुझे आपके जीवन से सही पाठ मिल गया। अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही स्थितियों में संतुलन बनाए रखना, यही शांति का अमोघ उपाय है।
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Old 18-09-2011, 03:24 PM   #125
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महानता के लक्षण


एक संत थे। वह नदी तट पर आश्रम बनाकर रहते और अपने शिष्यों को शिक्षा देते थे। कुंभी नामक उनका एक शिष्य दिन-रात उनके पास ही रहता था। संत उसके प्रति काफी स्नेह रखते थे। एक दिन उसने संत से सवाल किया, 'गुरुजी, मनुष्य महान किस तरह बन सकता है?' संत बोले, 'कोई भी मनुष्य महान बन सकता है लेकिन उसके लिए कुछ बातों को अपने दिलो-दिमाग में उतारना होगा।'

इस पर कुंभी बोला, 'कौन सी बातों को?' संत ने कुंभी की बात सुनकर एक पुतला मंगवाया। संत के आदेश पर पुतला लाया गया। संत ने कुंभी से कहा कि वह उस पुतले की खूब प्रशंसा करे। कुंभी ने पुतले की तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए। वह बड़ी देर तक ऐसा करता रहा। इसके बाद संत बोले, 'अब तुम पुतले का अपमान करो।'

संत के कहने पर कुंभी ने पुतले का अपमान करना शुरू कर दिया। पुतला क्या करता! वह अब भी शांत रहा। संत बोले, 'तुमने इस पुतले की प्रशंसा व अपमान करने पर क्या देखा?' कुंभी बोला, 'गुरुजी, मैंने देखा कि पुतले पर प्रशंसा व अपमान का कुछ भी फर्क नहीं पड़ा।'

कुंभी की बात सुनकर संत बोले, 'बस महान बनने का यही एक सरल उपाय है। जो व्यक्ति मान-अपमान को समान रूप से सह लेता है, वही महान कहलाता है। महान बनने का इससे बढ़िया उपाय कोई और नहीं हो सकता।'

संत की इस व्याख्या से उनके सभी शिष्य सहमत हो गए और सबने प्रण किया कि वे अपने जीवन में प्रशंसा व अपमान को समान रूप से लेने का प्रयास करेंगे।
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Old 18-09-2011, 03:24 PM   #126
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मानवता का कल्याण

बात उस समय की है जब रामानुजाचार्य आश्रम में रह कर विद्याध्ययन कर रहे थे। वह अपने गुरु के सबसे प्रिय शिष्यों में थे। इसका कारण यह था कि वह कभी गुरु की आज्ञा की अवहेलना नहीं करते थे। एक दिन रामानुजाचार्य को उनके गुरु ने अष्टाक्षर नारायण मंत्र का ज्ञान देते हुए कहा कि यह जिसके कानों में पड़ता है वह पापमुक्त होकर सीधे वैकुंठ जाता है। गुरु ने यह भी कहा कि यह गुप्त मंत्र है जिसे किसी अयोग्य को कभी भी नहीं सुनाना। उन्होंने बार-बार उन्हें मंत्र को गुप्त रखने का आदेश दिया।

रामानुजाचार्य ने उस समय बात मान तो ली लेकिन उनके मन में इसे लेकर सवाल उठने लगा था। उनके भीतर यह मंथन शुरू हो गया कि क्यों नहीं मंत्र समस्त प्राणियों को सुनाया जाए ताकि वे भी पापमुक्त हो सकें। आखिर एक ही व्यक्ति क्यों पापमुक्त हो। लेकिन यह गुरु की आज्ञा का उल्लंघन था। रात हो गई लेकिन रामानुजाचार्य का द्वंद जारी रहा। आखिर रात के तीसरे पहर वह आश्रम की छत पर चढ़कर उस मंत्र के बोल चिल्लाने लगे। सारे लोग जाग गए। गुरु ने डांटते हुए पूछा, 'यह क्या कर रहा है?' रामानुजाचार्य बोले, 'गुरुदेव मैं आपकी आज्ञा भंग कर महापापी भले हो जाऊं लेकिन मुझे खुशी है कि आसपास के सारे प्राणी यह मंत्र सुन वैकुंठ जाएंगे।' गुरु ने उन्हें गले लगा लिया और बोले 'तेरे मन में विश्व कल्याण की भावना है इसलिए तू आज्ञा भंग करके भी मेरा सच्चा शिष्य है। तेरे माध्यम से मानवता के कल्याण का मेरा स्वप्न पूरा होगा।'
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Old 18-09-2011, 03:25 PM   #127
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छत पर ऊँट



बल्ख के शासक इब्राहीम अपना ज्यादातर वक्त ईश्वरोपासना में बिताते थे। एक रात जब वह अपने महल में सो रहे थे, तो उनकी नींद छत पर किसी के चलने-फिरने की आहट से टूट गई। उत्सुकतावश वह बाहर आए। उन्होंने देखा कि छत पर कोई व्यक्ति कुछ खोज रहा था।

उन्होंने आवाज लगाई, 'तुम कौन हो और यहां इस वक्त राजमहल की छत पर क्यों घूम रहे हो?' लेकिन वह व्यक्ति अपने काम में तल्लीन रहा। इब्राहिम गुस्से से आग बबूला हो गए और बोले, 'मूर्ख, तुम नहीं जानते कि तुम कितना जघन्य अपराध कर रहे हो? हो सकता है कि तुम्हें सजा-ए-मौत दी जाए।' इस बार उस व्यक्ति के कानों में आवाज पड़ी, वह बोला, 'हुजूर, शायद आप यह तो नहीं पूछ रहे कि इस अंधेरी रात में मैं यहां क्या कर रहा हूं? सो बतला दूं हुजूर, मैं यहां छत पर अपना ऊंट खोज रहा हूं।'

इब्राहिम ने अपना माथा पीट लिया। सोचने लगे कि शायद दुनिया में इससे बड़ा मूर्ख कोई न होगा। यह सोचते हुए इब्राहिम बोले, 'ऊंट, वह भी छत पर। तुम्हारा दिमाग तो नहीं फिर गया।' इस पर वह शख्स बोला, 'इसमें दिमाग फिरने वाली क्या बात है? आप भी तो ऐशोआराम भरे महल में खुदा को खोजने की कोशिश कर रहे हैं।'

यह कहकर वह व्यक्ति वहां से खिसक गया। इब्राहिम सन्न खड़े रहे। वह उसकी बात पर सोचने लगे। उन्हें महसूस हुआ कि न तो वह व्यक्ति साधारण था और न उसकी बात। वाकई विलासिता भरी जिंदगी में ईश्वरोपासना का क्या अर्थ है? राजमहल में खुदा की खोज क्या वैसी ही नहीं, जैसे छत पर ऊंट की तलाश? यह अहसास होते ही इब्राहीम उस व्यक्ति को खोजने दौड़े।

आखिरकार वह सड़क पर मिला। इब्राहिम उसके चरणों में लोट गए और कहने लगे, 'मुझे अपनी शरण में ले लो।' इब्राहीम उस व्यक्ति के शिष्य हो गए। वह व्यक्ति थे संत खिज्र।
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Old 18-09-2011, 03:25 PM   #128
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योग्य उत्तराधिकारी


राजा प्रसेनजित के कई पुत्र थे। वह अपना उत्तराधिकारी किसी सुयोग्य पुत्र को बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने पुत्रों की परीक्षा लेने का निश्चय किया। एक दिन उन्होंने अपने पुत्रों को बुलाकर कहा, 'मेरे लिए तुम सब समान रूप से प्रिय हो। मैं चाहता हूं कि अपनी रुचि के अनुसार तुम सभी मेरे खजाने से एक-एक चीज चुन लो।'

खजाना खोला गया। सभी राजकुमार अपनी पसंद की चीज चुनने लगे। पर राजकुमार श्रेणिक ने महल के चबूतरे पर रखी तुरही (आपातकाल के समय नागरिकों को सचेत करने वाला बिगुल जैसा वाद्य, जिसे युद्ध की भाषा में रणभेरी कहते हैं) उठा ली। राजा ने श्रेणिक से पूछा, 'इतने मूल्यवान रत्नों को छोड़कर तुमने इसे ही क्यों चुना? अगर वाद्यों में तुम्हारी रुचि है तो हमारे महल में एक से एक बढि़या वाद्य रखे हुए हैं, तुम उन्हें चुन सकते थे।'

राजकुमार श्रेणिक ने कहा, 'महाराज, यह वाद्य मैंने संगीत में रुचि के कारण नहीं चुना, बल्कि प्रतीक रूप में चुना है। यह प्रतीक है राज्य की प्रजा को एकत्र कर उनसे प्रत्यक्ष संवादकरने का। मैं इस वाद्य के माध्यम से प्रजा का आह्वान करूंगा कि राज्य का हर नागरिक मुझे समान रूप से प्रिय है। मैं सबका हूं और सब मेरे हैं। प्रजा के लिए मेरा सब कुछ हाजिर है और अपने नागरिकों से भी मैं ऐसी ही अपेक्षा रखता हूं।'

राजा प्रसेनजित ने अपने अन्य पुत्रों की धनलिप्सा को समझ लिया। अकेले राजकुमार श्रेणिक ने राज्य के हितचिंतक और श्रेष्ठ रक्षक के रूप में स्वयं को स्थापित किया। प्रसेनजित ने श्रेणिक को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
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Old 18-09-2011, 03:26 PM   #129
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आत्मनिर्भरता का पाठ



एक भिखारी बाजार में गा-गाकर भीख मांग रहा था। वहां से गुजर रहे लोगों में से कोई उसे कुछ दे रहा था तो कोई बस उसे देखकर निकल जा रहा था। कुछ लोग उसे दुत्कार भी रहे थे। वहां मौजूद प्रसिद्ध व्यवसायी हेनरी फोर्ड को उसकी हालत देख तरस आ गया।

उन्होंने सोचा कि उस भिखारी को भी अपनी हालत सुधारने का मौका मिलना चाहिए। फोर्ड ने भिखारी को भीख देने की जगह कुछ सामान खरीद कर दिए और उन्हें आसपास के गांवों में बेच कर अपना पेट भरने को कहा। कुछ दिन बीत गए तो फोर्ड को वही भिखारी बाजार में फिर हाथ फैलाए खड़ा दिखा।

जब फोर्ड ने उससे काम के बारे में पूछा तो उसने बताया, 'मैं सामान बेच रहा था, तब एक गांव में मुझे एक अंधा बाज पेड़ के नीचे दिखा। मैंने देखा, दूसरा बाज चोंच में खाना लाया और उसे खिलाने लगा। यह देख मुझे लगा कि भगवान सबकी परवाह करता है। अगर उसने अंधे बाज के लिए भोजन का प्रबंध किया है तो मेरे लिए भी जरूर करेगा, यही सोच मैंने काम छोड़ दिया।' उसका किस्सा सुन फोर्ड मुस्कराए।

फिर उन्होंने कहा, 'यह सही है कि ऊपर वाला कमजोरों का भी ख्याल रखता है, लेकिन वह तुम्हें सबल बनने का विकल्प भी देता है। फिर तुमने अंधा बाज बनने की बजाय खाना खिलाने वाला बाज बनने का विकल्प क्यों नहीं चुना?' भिखारी निरुत्तर हो गया। उसने फिर कभी भीख न मांगने की कसम खाई। वह फोर्ड के कार कारखाने में सुपरवाइजर बन गया और मेहनत से काम करने लगा।
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अति सर्वत्र वर्जते

कहते हैं अति सर्वत्र वर्जते यानी किसी भी चीज की अति दुखदायी होती है। चाहे वह अति खाने-पीने को लेकर हो, प्रेम या नफरत की हो, या अन्य किसी तरह की अति हमेशा दुख ही देती है।

एक बार की बात है पृथ्वीपति भरत जिनके नाम पर भारत का नाम रखा गया। एक दिन वे नदी पर नहाने के लिए गए। वहां उस समय एक हिरनी पानी पीने आई। उस समय जब वह पानी पी चुकी थी। वहां अचानक शेर की आवाज सुनकर वह उछलकर नदी के तट पर चढ़ गई। बहुत ऊंचे स्थान पर चढऩे के कारण उसका गर्भपात हो गया। नदी लहरो के साथ उसके गर्भ से निकला बच्चा राजा भरत के पास पहुंचा। राजा भरत उसे अपने साथ आश्रम ले आए। वे उसका अपने बच्चों की तरह पालन-पोषण करने लगे।

उसी के कारण उनका पूजा-पाठ आदि सब छुट गए। वे दिन रात बस उसी के चिंतन में लगे रहते। एक दिन आश्रम के पास एक हिरणों का झुंड आया। वह हिरण उन्हीं के साथ चला गया। जब वह बच्चा वापस नहीं लौटा तो राजा भरत सोचने लगे कि कहीं उसे किसी भेडि़ए ने तो नहीं खा लिया। क्या वह आज जंगल से लौटेगा या नहीं वे दिन रात बस उसी हिरण के बच्चे की चिंता करते रहते। जब उनकी मृत्यु का समय आया तब भी वे उसी हिरण के बारे में सोचते रहते थे। इसी तरह हिरण के वियोग में राजा भरत ने अपने प्राण त्याग दिए। यही कारण था कि उन्हें अगला जन्म हिरण के रूप में लेना पड़ा। इतने महान राजा को भी हिरण से प्रेम आसक्ति हो जाने के कारण अगला जन्म हिरण के रूप में लेना पड़ा।
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