19-07-2013, 09:46 PM | #121 |
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Re: इधर-उधर से
खोटा सिक्का चलाना बड़ी टेढ़ी खीर है विशेषतया तब जबकि आप जानबूझ कर उसे देने की कोशिश करें. कुछ समय पूर्व पच्चीस पैसे के नीबू ले कर मैंने जान बूझ कर बड़ी निर्दोष मुद्रा मैं सब्जी वाले को एक रूपए का खोटा सिक्का थमा दिया. दुकानदार ने बगैर देखे उसे गल्ले में डाल लिया और बाकी पैसे मुझे लौटा दिए. मैंने मुस्कान को दबाते हुए पैसे जेब के हवाले किये. शाम के समय जरूरत पड़ने पर मैंने जेब से पैसे निकाले तो वहां तीन चवन्नियां थीं और चौंकाने वाली बात यह थी कि तीनों चवन्नी खोटी थीं. मैं सकपकाया लेकिन किस मुँह से दुकानदार से शिकायत करता. अंगरेजी में एक कहावत है “to reply in the same coin” यहाँ चरितार्थ हो रही थी. (मित्रो, यह उन दिनों की बात है जब बाजार में चवन्नियां भी लेन-देन में प्रयुक्त होती थीं) |
26-07-2013, 11:52 PM | #122 |
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Re: इधर-उधर से
गीत: प्यासा का प्यासा आजीवन Last edited by rajnish manga; 26-07-2013 at 11:55 PM. |
01-08-2013, 12:33 PM | #123 |
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Re: इधर-उधर से
Last edited by rajnish manga; 01-08-2013 at 12:38 PM. |
01-08-2013, 10:27 PM | #124 | |
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Re: इधर-उधर से
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हृदय-वीणा को झंकृत कर देने वाली पंक्तियाँ उद्धृत करने के लिए हार्दिक आभार बन्धु।
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
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14-08-2013, 05:13 PM | #125 |
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Re: इधर-उधर से
पार्टी में ताजगी लाती हैं अनूठी कहानियाँ
(उर्फ़ पहली ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग का किस्सा) इस तरह की असामान्य गाथाएं पार्टियों में न सिर्फ नई ताजगी लाती हैं, बल्कि इवेंट को यादगार और विचारोत्तेजक भी बना देती हैं। याद रखें कि पार्टियां खाने-पीने या नाचने-गाने के अलावा भी कुछ हैं। पिछले रविवार को एक पार्टी में एक प्रतिस्पर्धा रखी गई। इसमें हरेक व्यक्ति से ऐसा कोई अनूठा किस्सा पेश करने के लिए कहा गया, जो उसके कार्यस्थल से जुड़ा हो या फिर उसने इसके बारे में कहीं सुना या पढ़ा हो। इसमें जिस किस्से को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया गया, वह कुछ इस तरह से है। ग्रामोफोन का आविष्कार 19 वीं सदी में थॉमस अल्वा एडिसन ने किया था। इलेक्ट्रिक लाइट और मोशन पिक्चर कैमरा जैसे कई अन्य गैजेट्स का आविष्कार करने वाले एडिसन चाहते थे कि ग्रामोफोन के पहले पीस पर किसी प्रतिष्ठित विद्वान की आवाज रिकॉर्ड की जाए। इसके लिए उन्होंने जर्मनी के प्रोफेसर मैक्स मुलर को चुना, जो १९वीं सदी की एक और महान हस्ती थे। उन्होंने मैक्स मुलर को पत्र लिखते हुए कहा, 'मैं आपसे मिलकर आपकी आवाज रिकॉर्ड करना चाहता हूं। कृपया बताएं कि हम कब मिल सकते हैं?' मैक्स मुलर एडिसन का बहुत सम्मान करते थे। उन्होंने जवाब में लिखा कि एक समारोह में यूरोप के कई विद्वान इकट्ठा हो रहे हैं, उसी दौरान उनका मिलना ठीक रहेगा। इसके मुताबिक एडिसन इंग्लैंड पहुंच गए। समारोह में उनका ऑडियंस से परिचय कराया गया। सभी लोगों ने एडिसन का करतल ध्वनि से स्वागत किया। बाद में एडिसन की गुजारिश पर मैक्स मुलर स्टेज पर आए और उस उपकरण के समक्ष कुछ शब्द बोले। इसके बाद एडिसन वापस अपनी प्रयोगशाला में पहुंचे और दोपहर तक एक डिस्क के साथ वापस लौट आए। उन्होंने अपने उपकरण में ग्रामोफोन डिस्क को चलाया। उपस्थित लोग उस उपकरण में से निकलती मैक्स मुलर की आवाजको सुनकर रोमांचित हो उठे। कई लोगों ने मंच पर आकर इस अनूठे आविष्कार के लिए एडिसन की जमकर तारीफ की। इसके बाद मुलर दोबारा स्टेज पर आए और उपस्थित प्रबुद्धजनों को संबोधित करते हुए कहा, 'मैंने जो कुछ सुबह कहा या दोपहर को आपने जो सुना, वह आपको समझ में आया? श्रोताओं में सन्नाटा छा गया, क्योंकि मैक्स मुलर जिस भाषा में बोले थे, वह उन्हें समझ नहीं आई थी। वह उद्बोधन एक ऐसी भाषा में था, जो वहां मौजूद यूरोपीय विद्वानों ने कभी नहीं सुनी थी। मैक्स मुलर ने तब उन्हें बताया कि वह संस्कृत भाषा में बोले थे और यह ऋग्वेद का पहला सूक्त था, जो कहता है, 'अग्नि मीले पुरोहितं'। यह ग्रामोफोन प्लेट पर रिकॉर्डेड पहला लोक-संस्करण था। आखिर मुलर ने इसे क्यों चुना? मुलर ने इसके बारे में कहा, 'वेद इंसानी नस्ल द्वारा रचित सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं और 'अग्नि मीले पुरोहितं' ऋग्वेद का पहला सूक्त है। अति प्राचीन समय में जब इंसान अपने तन को ढंकना भी नहीं जानता था, शिकार पर जीवन-यापन करता था व कंदराओं में रहता था, तब हिंदुओं ने उच्च नागरिक सभ्यता प्राप्त कर ली थी और उन्होंने दुनिया को वेदों के रूप में एक सार्वभौमिक दर्शन प्रदान किया।' हमारे देश की ऐसी वैभवशाली विरासत है। जब 'अग्नि मीले पुरोहितं' को रिप्ले किया गया, तो वहां मौजूद तमाम लोग प्राचीन हिंदू मनीषियों के सम्मान में मौन खड़े हो गए। 'ú अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवं रत्वजीवम। होतारं रत्नधातमम।' ऋग्वेद को आर्यों द्वारा लिखा गया, जो सिंधु घाटी में तब आए, जब हड़प्पा संस्कृति अपने अंत की ओर बढ़ रही थी। उन्होंने इस वेद को 1300 से 1000 ईसापूर्व के दौरान लिखा था। |
17-08-2013, 11:30 PM | #126 |
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Re: इधर-उधर से
कर्तव्य और अधिकार
सी.डी. बर्न्स की उक्ति है, फ्रांस की क्रांति ने कोई दान नहीं माँगा, उसने मनुष्य के अधिकारों की माँग की। अधिकार ऐसी अनिवार्य परिस्थिति है जो मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक है। यह व्यक्ति की माँग है जिसे समाज, राज्य तथा कानून नैतिक मान्यता देते हें और उनकी रक्षा करना अपना परम धर्म समझते हैं। अधिकार वे सामाजिक परिस्थितियाँ तथा अवसर हैं जो मनुष्य के व्यक्तित्व के उच्चतम विकास के लिए आवश्यक होते हैं। इन्हें समाज इसी कारण से स्वीकार करता है और राज्य इसी आशय से इनका सरंक्षण करता है। अधिकार उन कार्यों की स्वतंत्रता का बोध कराता है जो व्यक्ति और समाज दोनों के ही लिए उपयोगी सिद्ध हों। 17वीं और 18वीं शताब्दी के यूरोपीय राजनीतिज्ञों का यह अटल विश्वास था कि मनुष्य के अधिकार जन्मसिद्ध तथा उनके स्वभाव के अंतर्गत हैं। वे प्राकृतिक अवस्था में, जब समाज की स्थापना नहीं हुई थी तो तब, मनुष्य को प्राप्त थे। एथेंस के महान्* विचारक अरस्तू का भी यही विचार था। 1789 में फ्रांस की क्रांति के उपरांत फ्रांस की राष्ट्रीय सभा ने मानवीय अधिकारों की उद्घोषणा की। जिन मौलिक तत्वों को लेकर फ्रांस ने क्रांति का कदम उठाया था उन्हीं सब तत्वों का समावेश इस घोषणा में किया गया था। इस घोषणा के परिणामस्वरूप ्फ्रांस के समाजिक, राजनीतिक एवं मनोवैज्ञानिक जीवन में और तज्जनित सिद्धांतों में परिवर्तन हुआ। मानवीय अधिकारों की घोषणा का प्रभाव आधुनिक संविधानों पर स्पष्ट ही है। यूरोपीय जीवन, विचार, इतिहास और दर्शन पर इस घोषणा की अमिट छाप है। इस घोषणा से प्रत्येक मनुष्य के लिए स्वतंत्रता, संपत्तिसुरक्षा एवं अत्याचार का विरोध करने के अधिकार को मौलिक अधिकार की मान्यता प्रदान की गई। मानवीय अधिकारों की उद्घोषणा का बड़ा व्यापक प्रभाव रहा है। सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक अर्थात्* मनुष्य जीवन से संबंधित सभी क्षेत्रों पर इन विचारों का प्रभाव सुस्पष्ट है। समाजवादी दर्शन ने इन अधिकारों का क्षेत्र और भी विस्तृत कर दिया है। सोवियत संघ ने अपने सामाजिक अधिकारों में इन अधिकारों को प्रमुख स्थान दिया है। सन्* 1946 में जब फ्रांस ने अपने संविधान की रचना की तब इन श्रेष्ठतम अधिकारों को स्थान देते हुए उसने और भी नए सामाजिक अधिकारों का समावेश संविधान की धाराओं में किया। आधुनिकतम सभी संविधानों में इन अधिकारों का समावेश है। नागरिक के मूल अधिकारों में इनकी गणना है। यह जाति और नरनारी की समानता का युग है। नागरिक अधिकारों में इन्हें भी स्थान प्राप्त हो गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इन मानवीय अधिकारों की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर एक विस्तृत सूची बनाई। नागरिक अधिकारों के संबंध में बदलती हुई समाजिक और राजनीतिक प्रक्रिया की छाप उसपर स्पष्ट है। 10 दिसंबर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी साधारण सभा (General Assembly) में सार्वभौम मानवीय अधिकारों (यूनिवर्सल ह्यूमन राइट्स) को घोषित किया। यह सूची 48 सदस्य राज्यों के बहुमत से पारित हुई। मनुष्य जीवन के जितने भी आधुनिक मूल्य हैं उन सारे मूल्यों का समाहार इस सूची में किया गया है। |
17-08-2013, 11:32 PM | #127 |
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Re: इधर-उधर से
सामान्यत: कर्तव्य शब्द का अभिप्राय उन कार्यों से होता है, जिन्हें करने के लिए व्यक्ति नैतिक रूप से प्रतिबद्ध होता है। इस शब्द से वह बोध होता है कि व्यक्ति किसी कार्य को अपनी इच्छा, अनिच्छा या केवल बाह्य दबाव के कारण नहीं करता है अपितु आंतरिक नैतिक प्ररेणा के ही कारण करता है। अत: कर्तव्य के पार्श्व में सिद्धांत या उद्देश्य की प्ररेणा है। उदहरणार्थ, संतान और माता-पिता का परस्पर संबंध, पति-पत्नी का संबध, सत्यभाषण, अस्तेय (चोरी न करना) आदि के पीछे एक सूक्ष्म नैतिक बंधन मात्र है। कर्तव्य शब्द में "कर्म” और "दान” इन दो भावनाओं का सम्मिश्रण है। इस पर नि:स्वार्थता की अस्फुट छाप है। कर्तव्य मानव के किसी कार्य को करने या न करने के उत्तरदायित्व के लिए दूसरा शब्द है। कर्तव्य दो प्रकार के होते हैं-नैतिक तथा कानूनी। नैतिक कर्तव्य वे हैं जिनका संबंध मानवता की नैतिक भावना, अंत:करण की प्रेरणा या उचित कार्य की प्रवृत्ति से होता है। इस श्रेणी के कर्तव्यों का सरंक्षण राज्य द्वारा नहीं होता। यदि मानव इन कर्तव्यों का पालन नहीं करता तो स्वयं उसका अंत:करण उसको धिक्कार सकता है, या समाज उसकी निंदा कर सकता है किंतु राज्य उन्हें इन कर्तव्यों के पालन के लिए बाध्य नहीं कर सकता। सत्यभाषण, संतान संरक्षण, सद्व्यवहार, ये नैतिक कर्तव्य के उदाहरण हैं। कानूनी कर्तव्य वे हैं जिनका पालन न करने पर नागरिक राज्य द्वारा निर्धारित दंड का भागी हो जाता है। इन्हीं कर्तव्यों का अध्ययन राजनीतिक शास्त्र में होता है।
(अभी आगे है) |
17-08-2013, 11:32 PM | #128 |
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Re: इधर-उधर से
हिंदू राजनीति शास्त्र में अधिकारों का वर्णन नहीं है। उसमें कर्तव्यों का ही उल्लेख हुआ है। कर्तव्य ही नीतिशास्त्र के केंद्र हैं।
अधिकार और कर्तव्य का बड़ा घनिष्ठ संबंध है। वस्तुत: अधिकार और कर्तव्य एक ही पदार्थ के दो पार्श्व हैं। जब हम कहते हैं कि अमुक व्यक्ति का अमुक वस्तु पर अधिकार है, तो इसका दूसरा अर्थ यह भी होता है कि अन्य व्यक्तियों का कर्तव्य है कि उस वस्तु पर अपना अधिकार न समझकर उसपर उस व्यक्ति का ही अधिकार समझें। अत: कर्तव्य और अधिकार सहगामी हैं। जब हम यह समझते हैं कि समाज और राज्य में रहकर हमारे कुछ अधिकार बन जाते हैं तो हमें यह भी समझना चाहिए कि समाज और राज्य में रहते हुए हमारे कुछ कर्तव्य भी हैं। अनिवार्य अधिकारों का अनिवार्य कर्तव्यों से नित्यसंबंध है। फ्रांस के क्रांतिकारियों ने लोकप्रिय संप्रभुता के सिद्धांत को संसार में प्रसारित किया था। समता, स्वतंत्रता, भ्रातृत्व, ये क्रांतिकारियों के नारे थे ही। जनसाधारण को इनका अभाव खटकता था, इनके बिना जनसाधारण अत्याचार का शिकार बन जाता है। आधुनिक संविधानों ने नागरिकों के मूल अधिकारों की घोषणा के द्वारा उपर्युक्त राजनीतिदर्शन को संपुष्ट किया है। मनुष्य की जन्मजात स्वतंत्रता को मान्यता प्रदान की गई है, स्वतंत्र जीवनयापन के अधिकार और मनुष्यों की समानता को स्वीकार किया है। आज ये सब विचार मानव जीवन और दर्शन के अविभाज्य अंग हैं। आधुनिक संविधान निर्माताओं ने नागरिक के इन मूलअधिकारों को संविधान में घोषित किया है। भारतीय गणतंत्र संविधान ने भी इन्हें महत्वपूर्ण स्थान दिया है। ** |
17-08-2013, 11:35 PM | #129 |
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Re: इधर-उधर से
कर्तव्य में ही अधिकार निहित है
कर्मयोग तभी होता है, जब मनुष्य अपना कर्तव्य दूसरे के अधिकार की रक्षा के निमित्त करता है | जैसे, माता-पिता की सेवा करना पुत्र का कर्तव्य है और माता-पिता का अधिकार है | जो दुसरे का अधिकार होता है, वही हमारा कर्तव्य होता है| अतः प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्तव्य-पालन के द्वारा दूसरे के अधिकार की रक्षा करनी है तथा दुसरे का कर्तव्य नहीं देखना है | दूसरे का कर्तव्य देखने से मनुष्य स्वयं कर्तव्यच्युत हो जाता है; दूसरे का कर्तव्य देखना हमारा कर्तव्य नहीं है | तात्पर्य है कि दूसरे का हित करना है - यह हमारा कर्तव्य है और दूसरे का अधिकार है | यद्यपि अधिकार कर्तव्य के ही अधीन है, तथापि मनुष्य को अपना अधिकार देखना ही नहीं है, प्रत्युत अपने अधिकार का त्याग करना है | केवल दूसरेके अधिकार कि रक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन करना है | दूसरे का कर्तव्य देखना तथा अपना अधिकार दर्शाना लोक और परलोक में महान पतन करने वाला है | वर्त्तमान समयमें घरों में, समाज में जो अशांति, कलह, संघर्ष देखने में आ रहा है, उसमें मूल मांग तो यही है कि लोग अपने अधिकार कि मांग तो करते हैं, पर अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते ! ** |
17-08-2013, 11:38 PM | #130 |
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Re: इधर-उधर से
हमारे अधिकार और हमारे कर्तव्य
(लेखक: दीपेन्द्र) कुछ समय पहले हमारे देश कि सरकार ने शिक्षा को मूल अधिकारों में शामिल कर दिया. सुन कर बहुत दिल खुश हुआ कि अब हमारे देश में अनपढ़ों की संख्या कम होगी और एक दिन ऐसा भी आएगा की हमारे देश में कोई भी अनपढ़ नहीं होगा. लेकिन समाचार पत्रों और समाचार चैनलों पर अपने देश की वास्तविकता को पढ़ और देख-सुन कर ह्रदय विचलित हो गया. ऐसा क्यूँ है हमारे देश में की कोई सही बात होने को होती है तो दिल में एक बुरी आशंका आ जाती है की क्या ऐसा हो पायेगा? वो शायद इसलिए कि हम लोगो ने कुछ भी पूरी तरह से अच्छा होते हुए नहीं देखा है. कारण ? हम चाहते तो है कि सब अच्छा हो, और अच्छा करना भी चाहते है, लेकिन करते नहीं है. क्योंकि हमे अपने सारे अधिकार पता है लेकिन कर्तव्य, शायद उनका पता, पता नहीं है. और सच्चाई ये है कि जो चीज किसी एक का अधिकार है वो किसी दूसरे का कर्तव्य है, और हम अपने अधिकार के प्रति बहुत ही सजग है. लेकिन कर्तव्य के प्रति सजग नहीं है. हमारे सविधान में मूल अधिकारों के साथ मूल कर्तव्यों का उल्लेख है. लेकिन हम कभी भी शायद उनके बारे में बाते करते हो या सोचते हो. |
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