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Old 18-09-2011, 04:27 PM   #131
abhisays
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प्रेम नहीं करोगे तो जानोगे कैसे?



एक बार की बात है एक प्रेमी को किसी महलों में रहने वाली लड़की से प्यार हो गया। जब ये बात उसके परिवार वालों को पता चली तो उन्होंने उस लड़के के मरवाने के लिए कुछ गुंडों को भेजा। जब उस लड़की तक यह खबर पहुंची कि उसके प्रेमी को मरवाने की साजिश रची गई है तो उसने सबका विरोध किया। विरोध करने पर जब उसके घरवालों ने उस पर पहरे लगवा दिए तो वो अपने प्रेमी को बचाने के लिए पहरों को तोड़कर जब उस जगह पर पहुंची जहां उसके प्रेमी के सिर पर बंदुक रखे कुछ लोग खड़े थे। तब लड़की दौड़कर उसके प्रेमी के आगे खड़ी हो गई और बोली मुझे मार डालो। उसके बाद इसे मार देना तब उसे मारने वाले लोगों में से एक व्यक्ति बोला लड़की तू मौत को गले लगाने के लिए इतनी उतावली क्यों हो रही है।

तब उसने कहा कि मैं जानती हूं कि जिंदगी से बढ़कर कुछ भी नहीं है लेकिन मैं मानती हूं कि प्रेम ही मेरे लिए सबकुछ है क्योंकि बिना प्रेम के जीवन कुछ भी नहीं। जो एक बार सचमुच प्रेेम के अर्थ को समझ लेता है।

उसे महसूस कर लेता है। उसकी पवित्रता को समझ लेता है। उसके मूल्यों को जान लेता है। बिना प्रेम के जीवन कुछ भी नहीं प्रेम से जीवन है बिना प्रेम जीवन नहीं। इसका कारण यही है कि प्रेम संसार का नहीं प्रेम तो ईश्वर का अंग है। जो प्रेम की गहराई को समझने लगता है। वह यह जानता है कि प्रेम जो सच्चाई वो कहीं और नहीं। प्रेम में जो ताकत है वह और कहीं नहीं इसीलिए मेरा प्रेम ही मर जाए उससे अच्छा है कि मैं ही अपने प्राण त्याग दूं। लेकिन तुम मुझे मार सकते हो क्योंकि शायद तुमने कभी किसी से प्रेम नहीं किया। इसीलिए तुम मेरी भावनाओं को जानोगे कैसे? इसीलिए शायद जिस दिन तुम्हे प्रेम की अनुभुति हो उस दिन तुम मेरी मौत का प्रायश्चित कर लोगे।
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Old 18-09-2011, 04:27 PM   #132
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आपको कोई नहीं हरा सकता..


उज्जैन. हार और जीत के बीच का फासला बहुत थोड़ा होता है। इस फासले को हमारी इच्छाशक्ति, अहंकार, आत्म विश्वास, विवेक, बुद्धिमानी या संकल्प कुछ भी कह सकते हैं। इनमें से एक ही बात हमारी जीत को हार में या हार को जीत में बदल देती है।

जो लोग हारते हैं, वे या तो निराशा में डूबकर कभी उससे उबर नहीं पाते या फिर सारे प्रयास ही छोड़ देते हैं। जो हार को प्रेरणा बनाते हैं वे अपनी हार से आगे बढ़कर उसे जीत में बदल लेते हैं। हार-जीत कुछ नहीं होती, ये तो केवल परिस्थितियों के नाम हैं, असल हार-जीत तो हमारे स्वभाव, व्यवहार और व्यक्तित्व की होती है।

एक नगर में दो योद्धा कृतसेन और विश्वजीत थे। दोनों ही जितने ताकतवर थे, उतना ही प्रभावशाली उनका व्यक्तित्व भी था। इनमें हमेशा एक प्रतिस्पर्धा जैसी स्थिति रहती। दोनों खुद को श्रेष्ठ साबित करने में लगे रहते थे।

एक दिन दोनों में ठन गई। अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने लिए उन्होंने एक प्रतिस्पर्धा रखने का निर्णय लिया। दोनों नगर के बाहर जंगल में स्थित एक ब्राह्मण शिक्षक के पास पहुंचे। उन्होंने शिक्षक से कहा कि हम दोनों में से कौन श्रेष्ठ है आप इसका निर्णय करें। शिक्षक ने कुछ देर विचार किया और दोनों के बीच एक स्पर्धा रखी।

शिक्षक ने कहा कि इस जंगल के बीच एक नदी है, नदी के उस पार एक उद्यान है, वहां बहुत कीमती औषधियां होती हैं। तुम दोनों में से जो उन औषधियों को पहले लाएगा वह विजेता होगा। उस उद्यान में एक बूढ़ा चौकीदार भी है जो तुम्हें रोकेगा। तुम लोग अपनी बुद्धिमानी और शक्ति से उससे निपट सकते हो।

दोनों ही अपने अभियान पर निकल पड़े। कृतसेन की दौडऩे की गति तेज थी, वह विश्वजीत से काफी आगे निकल गया। पहले नदी भी उसने पार की और उद्यान में भी पहले वही पहुंचा। विश्वजीत उससे काफी पीछे रह गया। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी।

कृतसेन ने जैसे उद्यान से औषधियां लेना शुरू की, बूढ़ा चौकीदार वहां पहुंच गया। उनसे कृतसेन को रोका लेकिन वो चौकीदार को धक्का देकर निकल गया। उसके बाद विश्वजीत वहां पहुंचा। उसे अपने हारने का अनुमान हो चुका था। उसने देखा बूढ़ा चौकीदार घायल पड़ा हुआ है। उसने सबसे पहले औषधियों से उसका उपचार किया। फिर सारी बात बताई। चौकीदार समझ गया।

उसने विश्वजीत को बहुत सारी औषधियां दी। खुद उसे अपने रथ में बैठाकर जंगल के पार चल दिया। तब तक कृतसेन औषधियां लेकर शिक्षक के पास पहुंच गया। उसे अपनी जीत पर गर्व हो रहा था। थोड़ी ही देर में विश्वजीत भी चौकीदार के साथ वहां पहुंच गया। उसे अपने हारने का एहसास हो चुका था।

शिक्षक इस बात को समझ गया। उसने अपना निर्णय सुनाया कि विश्वजीत विजेता है। कृतसेन ने आपत्ति ली। उसने कहा कि औषधियां लेकर पहले वो पहुंचा था। शिक्षक ने कहा कि तुम भले ही पहले आए हो लेकिन तुमने एक बूढ़े चौकीदार का अपमान किया, उसे घायल किया। तुम शक्ति में भले ही थोड़े ज्यादा हो लेकिन तुम्हारे व्यक्तित्व में दया, सम्मान और धैर्य नहीं है। जो कि विश्वजीत के व्यक्तित्व में है।
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Old 18-09-2011, 04:28 PM   #133
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ये है हमारे दुख का असली कारण...


कई बार हम योजनाएं बनाते हैं लेकिन काम फिर भी बिगड़ ही जाता है। जिस तरह के परिणामों की अपेक्षा हम करते हैं उससे अलग ही या उल्टे ही परिणाम हमें मिलते हैं। कई लोग सोचते हैं कि हमने तो सारी योजनाएं ठीक बनाई थीं, उस पर काम भी किया था फिर परिणाम क्यों नहीं मिले।

इसका जवाब है हमने योजनाएं तो बनाई लेकिन भविष्य में ऐसा ही होगा, जैसा हम सोच रहे हैं, यह मानना गलत है। भविष्य की गर्त में क्या छिपा है कोई नहीं जानता, हम सिर्फ कर्म करें, अगर हम अपने हर कर्म से ज्यादा फायदे की अपेक्षा करेंगे तो यह बात हमें सिर्फ पीड़ा ही देगी। हम कर्म करें, लेकिन उससे अपेक्षा को निकाल दें
एक नगर सेठ था। उसने एक आलीशान महल बनवाया। बड़ी धनराशि खर्च करके तैयार किए गए महल के रंगरोगन का काम चल रहा था। सेठ महल के बाहर खड़ा-खड़ा कारीगरों को निर्देश दे रहा था। सेठ ने मुख्य कारीगर से कहा कि इस महल पर ऐसे रंगों से बेल-बूटे बनाओ कि मेरी सात पुश्तों तक इसके रंग फीका ना पड़े। कारीगर भी उसके बताएं अनुसार काम कर रहे थे। तभी वहां से एक संत गुजरे।


उन्होंने सेठ की बातें सुनीं, सेठ को देखकर मुस्कुराए और चले गए। सेठ को यह बात अजीब लगी। उसी दिन दोपहर को सेठ अपने घर में भोजन कर रहा था, उसके चार साल के बच्चे ने उसकी थाली को ठोकर मार दी। सेठ की पत्नी ने उसे डांटा तो सेठ ने कहा कि इसे मत डांट, यह तो कुल का चिराग है। हमारी पीढिय़ां इसी से चलेंगी। तभी वहां वही संत भिक्षा मांगने पहुंचे। उन्होंने सेठ की बात सुनी और मुस्कुराकर चल दिए। सेठ को फिर अजीब लगा। सेठ से रहा नहीं गया। वह संत के पीछे चल दिया।

एक जगह एकांत में जाकर उसने संत से पूछा आपने दो बार मेरी बात सुनी और दोनों बार मुस्कुराकर चल दिए। ेऐसा क्यों? संत ने कहा तुम्हें भविष्य का कुछ पता नहीं और तुम जानें क्या-क्या योजना बना रहे हो। तुम जिस महल पर सात पुश्तों तक दिखने वाली बेल-बूटे बनवा रहे हो, वह तुम सात दिन भी नहीं देख पाओगे, क्योंकि आज से सातवें दिन तुम्हारी मौत हो जाएगी।

यही सोचकर मैं मुस्कुरा दिया। सेठ का दिल बैठ गया, आंखों में आंसू आ गए। उसने पूछा फिर आप दूसरी बार क्यों मुस्कुराए मेरे घर आकर। संत ने कहा जिस बेटे ने तुम्हारी थाली को ठोकर मारी और तुमने उसका ठुकराया हुआ खाना भी बड़े प्रेम से खाया, वो तुम्हारे कुल का नाश कर देगा। वो पिछले जन्म की तुम्हारी पत्नी का प्रेमी है, जो इस जन्म में तुम्हारा बेटा बना है।

उसे ही तुम इतने प्यार से रख रहे हो, वो तुम्हारी सारी कमाई बुरे कामों में उड़ा देगा। सेठ जोरों से रोने लगा, संत ने उसे समझाया कि तुमने अपने लिए योजनाएं तो बहुत अच्छी बनाई लेकिन उन योजनाओं से तुम परिणाम भी अपने अनुकूल चाहते हो, जो कि गलत है। परिणाम तो नियति के हाथों में है। हमारे हाथों में नहीं।
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Old 18-09-2011, 04:28 PM   #134
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वाह! धनवान हो तो एंड्रयू कारनेगी जैसा

दुनिया के इतिहास में एक से बढ़कर एक धनवान और समृद्ध व्यक्ति हुए हैं। लेकिन उनमें से धन की सार्थकता बहुत थोड़े से ही लोग समझ पाते हैं। अक्सर देखने में आता है कि धनवान बनने के बाद व् यक्ति अहंकारी, स्वार्थी और ऐशो-आराम के रास्ते पर चल पड़ता है। बहुत थोड़े ही इंसान ऐसे होते हैं जो पद, पैसा और प्रतिष्ठा पाने के बाद इस शक्ति को शालीनता से संम्हाल पाते हैं।

पानी की तरह बहने के स्वाभाव वाला धन-वैभव कभी किसी एक स्थान पर टिकता नहीं है। मेहनत, सौभाग्य या संयोग से धन-समृद्धि पा लेने के बाद जो इस शक्ति का सार्थक प्रयोग कर लेते हैं, इतिहास में उन्हीं नाम सदियों बाद भी चमकता-दमकता रहता है और अनेकों को प्रेरणा देता रहता है।

आइये चलते हैं ऐसी ही एक शख्सियत- एंड्रयू कारनेगी के जीवन से जुड़ी कुछ बेहद प्रेरणादायक घटनाओं की ओर, जो 100 वर्षों से अधिक समय बीत जाने के बाद भी असंख्यों लोगों को गहरी प्रेरणा दे रही हैं...

अपने समय में दुनिया के दूसरे सबसे धनी व्यक्ति के रूप में विख्यात-एंड्रयू कारनेगी का जन्म एक बहुत ही गरीब परिवार में हुआ। पिता रुई के कारखाने में कारीगर और मां जूते की सिलाई का काम करके जैसे-तैसे परिवार को चला पाते थे। ऐसी कठिन परिस्थियों में उधार की पुस्तकों से एंड्रयू कारनेगी ने अपनी पढ़ाई पूरी की और कड़ी मेहनत और लगन से टेलीग्राफ ऑपरेटर के पद पर पहुंचे। ठीक-ठाक नोकरी पा जाने के बाद भी कड़ी मेहनत का सिलसिला रुका नहीं बल्कि तब तक चलता रहा जब तक कि वे सफलता और समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर नहीं पहुंच गए। गहन परिश्रम और अदम्य इच्छाशक्ति ने उन्हें दुनिया की विशालतम स्टील कंपनी का मालिक बना दिया।

प्रशंसा की बात यह है कि जब उनके समय के दूसरे धनपति, अपनी धन-दौलत को अनाप-शनाप कामों और ऐशो-आराम में बहा रहे थे, तब एंड्रयू कारनेगी ने अपनी आधे से ज्यादा संपत्ति इंग्लैंड, अमेरिका, यूरोप व ऑस्ट्रेलिया में नि:शुल्क पुस्तकालयों व विश्वविद्यालयों को स्थापित करने में खर्च कर दी।

वे कहा करते थे- ''धन के अभाव में शिक्षा प्राप्त करने में उन्हें जिन मुश्किलों का सामना करना पड़ा, वे नहीं चाहते गरीबी के कारण किसी जुरुरतमंद को शिक्षा से वङ्क्षचत रहना पड़े।''

आज के दौर में जो लोग सिर्फ अपना सुख, अपना नाम और अपना ही अपना स्वार्थ खोजते और साधते फिरते हैं, उनके लिये एंड्रयू कारनेगी का दिव्य जीवन सैकड़ों साल बीत जाने के बाद आज भी गहरा और प्रखर सबक है।
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Old 18-09-2011, 04:28 PM   #135
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पेशवा की उदारता
एक बार पेशवा बाजीराव ने अपने शत्रु राज्य के एक नगर को घेर लिया। घेरेबंदी कई दिनों तक चली। पेशवा इस प्रतीक्षा में थे कि शत्रु खुद ही आकर आत्मसमर्पण कर दे। तभी एक दिन उनके पास सूचना आई कि नगर में लोग भूख-प्यास से मर रहे हैं। न उनके पास खाने के लिए अन्न है न ही पीने के लिए पानी। पेशवा के सेनापति ने उनसे कहा, 'यही उपयुक्त समय है कि हम इस नगर पर आक्रमण कर दें। जीत हमारी ही होगी। हमारी सेना तैयार है। आप हमें आक्रमण की आज्ञा दें।' पेशवा ने कहा, 'बाजीराव नगर को जीतने आया है, इसे निगलने नहीं।'

सेनापति कुछ समझ न सका। अगले दिन पेशवा ने अपनी ओर से एक दरवाजा खोल दिया ताकि वहां की प्रजा के लिए अन्न-पानी और अन्य आवश्यक वस्तुएं भेजी जा सके। पेशवा के इस निर्णय पर उनके कुछ और सरदारों ने भी सवाल उठाए तो उन्होंने कहा, 'मैं युद्ध लड़ने के लिए जरूर आया हूं पर इतना निर्दयी नहीं हूं कि भूखे मनुष्य को मारकर उसकी छाती पर विजय पताका लहराऊं।

सच्चा योद्धा युद्ध में अपने कौशल से विजय प्राप्त करता है। वह छल से या मासूम लोगों को पीड़ा पहुंचाकर युद्ध नहीं जीतता। मनुष्यता के खिलाफ जाकर जीत हासिल करने का कोई अर्थ नहीं है।' जब वहां के राजा को इस बात का पता चला तो उसने तय किया कि वह पेशवा से नहीं लड़ेगा। उसने पेशवा के सामने हथियार डाल दिए और कहा कि पेशवा जो चाहें फैसला करें। पेशवा ने उसे मित्र बनाने का फैसला किया।
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Old 18-09-2011, 04:29 PM   #136
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स्वाभिमान की रक्षा
एक बार एक विद्यालय के कुछ छात्रों ने मिलकर पहाड़ी क्षेत्र में पिकनिक पर जाने की योजना बनाई। इसके लिए यह तय किया गया कि सभी बच्चे घर से खाने का कुछ न कुछ सामान लाएंगे। इनमें से एक बालक अपने घर आया और उसने मां को सारी बात बताई।

यह सुनकर मां उदास हो गई। दरअसल घर में कुछ भी ऐसा नहीं था कि वह ले जा सके। न खाने का सामान, न उसे खरीदने के पैसे। कुछ खजूर अवश्य पड़े थे। लेकिन पिकनिक पर खजूर ले जाना बालक को अच्छा नहीं लगा। कुछ देर बाद बालक के पिता घर आए। बालक की मां ने उन्हें पिकनिक के बारे में बताया।

दुर्भाग्य से उस दिन बालक के पिता की जेब भी खाली थी। लेकिन पिता बालक का दिल नहीं तोड़ना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि उनका बच्चा भी और बच्चों की तरह खुश रहे। उसे किसी भी चीज की कमी न महसूस हो। इसलिए उन्होंने कर्ज लेकर अपने बेटे को पिकनिक पर भेजने का निश्चय किया। वह जब पड़ोसी के घर जाने लगे तो बालक को सब कुछ समझ में आ गया।

उसने दौड़कर पिता की बांह पकड़ी और पूछा, 'आप कहां जा रहे हैं?' पिता ने कहा, 'मैं पड़ोसी के यहां जा रहा हूं ताकि तुम्हारे लिए खाने के कुछ सामान का प्रबंध किया जा सके। घर में तो कुछ है नहीं।' इस पर बालक बोला, 'नहीं पिताजी, किसी से अनावश्यक उधार मांगना ठीक नहीं है। वैसे भी पिकनिक पर जाने की मेरी कोई बहुत इच्छा भी नहीं है।

अगर जाना ही होगा तो खजूर हैं ही। मैं वही लेकर चला जाऊंगा। कर्ज लेकर शान दिखाना अच्छी बात नहीं।' यह सुनकर पिता के कदम रुक गए। भावुकतावश वह कुछ बोल नहीं सके। मन ही मन वह बेटे को आशीर्वाद दे रहे थे। यह असाधारण बालक आगे चलकर लाला लाजपत राय के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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Old 13-12-2011, 03:58 PM   #137
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दर्द ...मोनिका गुप्ता

पचास वर्षीय राजेश बाबू ने सुबह सुबह करवट् ली और हमेशा की तरह अपनी पत्नी मीता को चाय बनाने को कहा और फिर रजाई ढक कर करवट ले ली. कुछ पल उन्होने इंतजार की पर कोई हलचल ना होने पर उन्होने दुबारा आवाज दी. ऐसा कभी भी नही हुआ था इसलिए राजेश बाबू ने लाईट जलाई और मीता को हिलाया पर कोई हलचल ना होने पर ना जाने वो घबरा से गए. रजाई हटाई तो मीता निढाल सी एक ओर पडी थी.
ना जाने रात ही रात मे क्या हो गया. अचानक मीता का इस तरह से उनकी जिंदगी से हमेशा हमेशा ले लिए चले जाना .... असहनीय था.धीरे धीरे जैसे पता चलता रहा लोग इकठठे होते रहे और उसका अंतिम संस्कार कर दिया. एक हफ्ता किस तरह बीता उन्हे कुछ याद ही नही. उन का एक ही बेटा था जोकि अमेरिका रहता था. पढाई के बाद वही नौकरी कर ली थी. बेटा आकर जाने की भी तैयारी कर रहा था. उसने अपने पापा को भी साथ चलने को कहा और वो तैयार भी हो गए. पर मीता की याद को अपने दिल से लगा लिया था. अब उन्हे हर बात मे उसकी अच्छाई ही नजर आने लगी.उन्हे याद आता कि कितना ख्याल रखती थी मीता उनका पर वो कोई भी मौका नही चूकते थे उसे गलत साबित करने का. ना कभी उसकी तारीफ करते और ना कभी उसका मनोबल बढाते बल्कि कर काम मे उसकी गलती निकालने मे उन्हे असीम शांति मिलती थी.
उधर मीता दिनभर काम मे जुटी रहती थी. एक बार् जब काम वाली बाई 2 महीने की छुट्टी पर गई थी तब भी मीता इतने मजे से सारा काम बिना किसी शिकन के आराम से गुनगुनाते हुए किया जबकि कोई दूसरी महिला होती तो अशांत हो जाती . दिन रात राजेश बाबू उनकी यादो के सहारे जीने लगे.काश वह तब उसकी कीमत जान पाते. काश वो तब उसकी प्रशंसा कर पाते. काश .... !!! पर अब बहुत देर हो चुकी थी.

आज राजेश अमेरिका जाने के लिए सामान पैक कर रहे थे. पैक करते करते मीता की फोटो को देख कर अचानक फफक कर रो पडे और बोले मीता मुझे माफ कर दो. प्लीज वापिस आ जाओ . मै तुम्हारे बिना कुछ नही हू. आज जाना है कि मै तुमसे कितना कितना प्यार करता हू... तभी उन्हे किसी मे पीठ से झकोरा. इससे पहले वो खुद को सम्भाल पाते अचानक उनकी आखं खुल गई. मीता उन्हे घबराई हुई आवाज मे उठा रही थी.

वो सब सपना था. एक बार तो उन्हे विश्वास ही नही हुआ पर दूसरे पल उन्होने मीता का हाथ अपने हाथो मे ले लिया पर आखो से आसू लगातार बहे जा रहे थे. बस एक ही बात कह पाए ... आई लव यू मीता !!!! आई लव यू !!!और मीता नम हुई आखो से अपलक राजेश को ही देखे जा रही थी.
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मांगो तो अपने रब से मांगो;
जो दे तो रहमत और न दे तो किस्मत;
लेकिन दुनिया से हरगिज़ मत माँगना;
क्योंकि दे तो एहसान और न दे तो शर्मिंदगी।
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Old 30-04-2012, 01:24 PM   #138
abhisays
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बहुत बढ़िया malethia ji.
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Old 24-09-2012, 05:08 PM   #139
vijaysr76
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बुद्धिमान कौन




वजीर के अवकाश लेने के बाद बादशाह ने वजीर के रिक्त पद पर नियुक्ति के लिए उम्मीदवार बुलवाए। कठिन परीक्षा से गुज़र कर 3 उम्मीदवार योग्य पाए गए।


तीनों उम्मीदवारों से बादशाह ने एक-एक कर एक ही सवाल किया, “मान लो मेरी और तुम्हारी दाढ़ी में एकसाथ आग लग जाए तो तुम क्या करोगे?”
“जहाँपनाह, पहले मैं आप की दाढ़ी की आग बुझाऊँगा,” पहले ने उत्तर दिया।
दूसरा बोला, “जहाँपनाह पहले मैं अपनी दाढ़ी की आग बुझाऊँगा।”
तीसरे उम्मीदवार ने सहज भाव से कहा, “जहाँपनाह, मैं एक हाथ से आपकी दाढ़ी की आग बुझाऊँगा और दूसरे हाथ से अपनी दाढ़ी की।”
इस पर बादशाह ने फ़रमाया, “अपनी ज़रूरत नज़रंदाज़ करने वाला नादान है। सिर्फ़ अपनी भलाई चाहने वाला स्वार्थी है। जो व्यक्तिगत जिम्मेदारी निभाते हुए दूसरे की भलाई करता है। यही बुद्धिमान है।”
इस तरह बादशाह ने वजीर के पद पर तीसरे उम्मीदवार की नियुक्ति कर दी।
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Old 24-09-2012, 05:11 PM   #140
vijaysr76
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उसी से गर्म उसी से ठंडा : विरोधाभास



सर्दियों के दिन थे । कड़ाके की ठंड पड़ रही थी । गुरु और शिष्य यात्रा पर थे । सुबह-सुबह उठे तो ठंड से ठिठुरे जा रहे थे । गुरु ने सहसा अपनी दोनों हथेलियों को रगड़ना शुरु किया और उनमें मुंह से फूंक मारना शुरु किया । यह देख कर शिष्य ने गुरु से जानना चाहा- “गुरु जी ! आप हाथों को क्यों रगड़ रहें हैं और उसमें फूंक क्यों रहें हैं ?” गुरु ने कहा कि हाथों को रगड़ने और उसमें गर्म फूंक मारने से शरीर को ठंड नहीं लगती, इससे शरीर में गर्माहट आती है । कुछ देर बाद उन्होंने आग जलाई और उसमें खाने के लिए आलू भूने । गुरु ने आलू आग से निकाले । आलू अभी गर्म थे । आलू छीलना शुरु किया और मुंह से फूंक-फूंक कर उन्हें ठंडा करने लगे । शिष्य ने पूछा गुरु जी आप आलू में फूंक क्यों मार रहें हैं ? गुरु ने कहा फूंक कर आलू को ठंडा कर रहा हूँ । शिष्य ने पूछा, कुछ देर पहले आप फूंक कर अपनी हथेलियों को गर्म कर रहे थे और अब फूंक कर आलुओं को ठंडा कर रहे हो । यह कैसे संभव है कि उसी से गर्म और उसी से ठंडा ? गुरु ने कहा- “ऐसा ही है, जीवन में बहुत सी चीजों का स्वभाव गर्म या ठंडा हो सकता है, लेकिन उनका उपयोग हम कैसे करते हैं, उस से वे हमारे लिए उपयोगी और सार्थक बन जाती हैं ।” फूंक की तरह जो कभी हथेलियों को गर्म करने के काम आती है तो कभी आलुओं को ठंडा करने के लिए । वह स्वयं में गर्म है, लेकिन अलग-अलग परिस्थितियों में इसका प्रयोग बड़ा विरोधाभासी है । बुद्ध पुरुषों के वचन भी ऐसे ही होते हैं । जो बहुत बार हमें विरोधाभासी लगते हैं लेकिन हर परिस्थिति में सार्थक होते हैं।
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