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Old 01-12-2012, 08:51 AM   #131
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उन पर अन्न जाय स्थित होता है और चित्तसत्ता जो चित्त में प्रतिबिम्बित है वह चित्तनाड़ी उसके तले आ जाती है तब प्राणवायु भी उस नाड़ी में ठहर जाता है और चित्त स्पन्द भी ठहर जाता है तब सुषुप्ति होती है | जो चित्त बहुत होता है तो सूर्य, अग्नि आदिक उष्ण पदार्थ स्वप्ने में दिखते हैं और जब वह अन्न पचता है और उन नाड़ियों में प्राण जाते हैं तब स्वप्न अवस्था आती है | जब जल के शोषने को वायु बहता है तब जीव स्वप्ने में उड़ता है और जो कफ बहुत होता है तब जल को देखता है और नदियाँ, ताल आदि देखता है और जाकर डूबता है | जब उष्ण नाड़ी में अन्न-जल पहुँचता है तब जाग्रत् अवस्था होती है | इसी प्रकार जीव तीनों अवस्थाओं में भटकता है | जगत् न कुछ भीतर है और न बाहर है केवल अद्वैतसत्ता ज्यों की त्यों है | उसके प्रमाद से चित्त की वृत्ति जब बहिर्मुख फुरती है तब जगत् को जाग्रत् देखता है, जब बाहर की इन्द्रियों को त्याग के भीतर आती है तब अन्तर स्वप्न जगत् देखता है और जब अपने स्वभाव में स्थित होती है तब और कल्पना मिट जाती है सर्वब्रह्म ही भासता है इससे सर्वकल्पना को त्यागकर अपने स्वरूप में स्थित रहो |
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है।
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Old 01-12-2012, 08:51 AM   #132
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मुनीश्वर बोले, हे बधिक! यह तीनों अवस्था आती और जाती हैं इनके अनुभव करनेवाली जो सत्ता है सो आत्मसत्ता है और वह सदा एक रस है | जिस पुरुष को अपने स्वरूप का अनुभव हुआ है उसको अपना किञ्चन भासता है और जिसको प्रमाद है उसको जगत् भासता है यह जगत् चित्त का कल्पा हुआ है और स्वरूप का जिसको प्रमाद है उसको जगत् भासता है | जब इन्द्रियाँ विषयों के सम्मुख होती हैं तब जगत् देखती हैं और उस संकल्पजगत् को देखकर राग-द्वेषवान् होती हैं | फिर इन्द्रियों के अर्थ पाकर जीव हर्ष शोकवान् होता है | हे वधिक! जिस चिद्अणु का इन्द्रियों से सम्बन्ध है उसको संसार का अभाव नहीं होता | नेत्र, त्वचा, जिह्वा, नासिका और श्रोत्र से देखता,स्पर्श करता, रस लेता, सूँघता, सुनता और मानता है तब संसारी होकर दुःख पाता है और जब इनके अर्थ को त्याग के अपने स्वभाव की ओर आता है तब सर्व जगत् को आत्मरूप जानकर सुखी होता है |
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Old 01-12-2012, 08:51 AM   #133
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हे बधिक! चित्त के फुरने का नाम जगत् है और चित्त के स्थित होने का नाम ब्रह्म है-जगत् और कुछ वस्तु नहीं इसी का अभास है चित्त के आश्रय सब नाड़ी हैं उनमें स्थित होकर जीव तीनों अवस्था देखता है पर वास्तव में जीव चिदाकाश आत्मा है-अज्ञान से जीवसंज्ञा पाई है | हे वधिक! ओज धातु जो हृदय है उसमें चिद्अणु स्थित होकर-दीपक की ज्योतिवत् प्रकाशता है और उसी के ओज के आश्रय सब नाड़ी हैं सो अपने-अपने रस को ग्रहण करती हैं | जब प्राणी भोजन करता है और अन्न जाग्रत नाड़ी में पूर्ण होता है तब जाग्रत् का अभाव हो जाता है और चित्त की वृत्ति और प्राण आने-जाने से रहित हो जाते हैं-वह नाड़ी मुँद जाती है | फिर जब कफनाड़ी में प्राण फुरते हैं तब स्वप्ना भासता है | हे बधिक! जब इन्द्रियों को ग्रहण करके चित्त की वृत्ति बाहर निकलती है तब जाग्रत् जगत् हो भासता है | जब तन्मात्रा को लेकर चित्त की वृत्ति ओज धातु में फुरती है तब स्वप्ना भासता है और जब ओज धातु पर अन्न आदिक द्रव्य का बोझ पड़ता है तब सुषुप्ति होती है
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Old 01-12-2012, 08:51 AM   #134
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जब निद्रा और जाग्रत का बल होता है तब दोनों भासते हैं और जब दोनों में से एक का बल अधिक होता है तब वही जाग्रत् अथवा सुषुप्ति भासती है | जब निद्रा से रहित मन्द संकल्प होता है- तब उसको मनोराज कहते हैं और जब बाह्य विषयों को त्याग कर चित्त की वृत्ति अन्तर्मुख होती हैं तब स्वप्ना होता है | वहाँ जिस सिद्धान्त में जाता है उसके अनुसार भीतर जगत् भासता है | कफ के बल से चन्द्रमा, क्षीरसमुद्र, नदियाँ, जल से पूर्ण ताल और ताल और वृक्ष, फूल, फल, बगीचे, सुन्दरवन, हिमालय, कल्पवृक्ष, तमाल, सुन्दर स्त्रियाँ, बेलें, बावलियाँ, इत्यादि सुन्दर और शीतल स्थान देखता है | जब पित्त का बल अधिक होता है तब सूर्य, अग्नि और सूखे वृक्ष, फल और टास देखता है, सन्ध्याकाल के मेघ की लाली देखता है, वन और दूसरे स्थानों में अग्निलगी देखता है और पृथ्वी और रेत तपी हुई और मरुस्थल की नदी दृष्टि आती हैं, जल उष्ण लगता है, हिमालय का शिखर भी उष्ण लगता है और नाना उष्ण पदार्थ दृष्टि आते हैं |
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Old 01-12-2012, 08:53 AM   #135
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जब वायु का बल अधिक होता है तब स्वप्ने में अधिक वायु देखता है और पाषाण की वर्षा होती दृष्टि आती है, अन्धे कूप में गिरता देखता है और हाथी घोड़े दृष्टि आते हैं, आपको उड़ता फिरता देखता है, अप्सरा के पीछे दौड़ता है, पहाड़ों की वर्षा होती, वायु तीक्ष्णवेग से चलती और अन्न से आदि लेकर पदार्थ चलते दृष्टि आते हैं और विपरीत होकर भासते हैं | इस प्रकार वात, पित्त और कफ से स्वप्ने में जगत् देखता है और जिसका बल विशेष होता है वह उस धर्म में दृष्टि आता है | वासना के अनुसार जीव न्यूनाधिक राजसी, तामसी और सात्त्विकी पदार्थ देखता है और जब तीनों इकट्ठे होकर कुपित होते हैं तब प्रलयकाल दृष्टि आता है हे बधिक! जबतक वात, पित्त और कफ के अंश के साथ मिला हुआ पुर्यष्टक कफ के स्थान में प्रवेश करता है तबतक समान जल के क्षोभ भासते हैं |
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Old 01-12-2012, 08:54 AM   #136
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इसी प्रकार वात्, पित्त और कफ जिसके स्थान में जाता है और अन्य के स्वभाव को लेता है तबतक समान क्षोभ भासता है, जब केवल वात का क्षोभ होता है तब महाप्रलय काल के पवन चलते और पहाड़ पर पहाड़ गिरते और भूकम्प आदि क्षोभ होते हैं, जब कफ का क्षोभ होता है तब समुद्र उछलते हैं और पित्त से अग्नि लगती है और महाप्रलय की नाईं तत्त्व क्षोभवान् होते हैं | जब प्राण जाग्रत् नाड़ी में जाते हैं और वह अन्न से पूर्ण होती है तब संवित् उसके नीचे आ जाती है | जैसे भीत के नीचे दर्दुर आवे, पाषाण की शिला में कीट आ जावे और काष्ठ की पुतली काष्ठ में हो | जैसे इनमें अवकाश नहीं रहता तैसे ही और नाड़ी में फुरने का अवकाश नहीं रहता रुक जाती है तब इसको सुषुप्ति होती है | जब कुछ अन्न पचता है तब चित्त संवित् अपने भीतर स्वप्ना देखती है जिसको जिसका विकार विशेष होता है उसी का कार्य देखता है |
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Old 01-12-2012, 08:55 AM   #137
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जब अन्न और जल पचता है तब फिर जाग्रत् जगत् देखता है और जब जाग्रत् और स्वप्न दोनों का बल सम होता है तब दोनों को देखता और अनुभव करता है | हे वधिक! इसी प्रकार तीनों अवस्था होती और मिट जाती है सो तीनों गुणों से होती है | इनका द्रष्टा इनको अनुभव करनेवाला है सो गुणों से अतीत है और सर्व का आत्मा है | यह जगत् और स्वप्न-जगत् संकल्पमात्र है, कुछ बना नहीं ब्रह्मसत्ता ही किञ्चन करके जगत््रूप हो भासता है परन्तु अज्ञानी उसको जगत् जानते हैं और जगत् को सत्य जानकर इष्ट-अनिष्ट में राग द्वेष करते हैं जब बाहर की इन्द्रियाँ सुषुप्ति हो जाती हैं तब भीतर स्वप्ने में भटकता है और उसमें सूर्य, चन्द्रमा, वन,फूल, फल, वृक्ष आदिक जगत् देखता है और जब स्वरूप का अनुभव होता है तब सर्व भटकना मिट जाती है तब शान्ति पाता है |
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Old 01-12-2012, 08:55 AM   #138
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बधिकबोला, हे मुनीश्वर! उस पुरुष के हृदय में जो तुमने जगत् और प्रलय देखी थी उसके अनन्तर क्या किया और क्या अवस्था देखी? मुनीश्वर बोले, हे बधिक! उसके चित्तस्पन्द में मैंने देखा कि बड़े बड़े पहाड़ प्रलय की वायु से सूखे तृण की नाईं उड़ते हैं और पाषाण की वर्षा होती है | इस प्रकार मैंने प्रलय के क्षोभ को देखा और मेरे देखते देखते जाग्रतवाली नाड़ी में अन्न स्थित हुआ तो वहाँ जो अन्न के दाने गिरे सो पर्वत वत् भासे और चित्तस्पन्द जो संवित् थी सो रोकी गई एवं उसमें मैं था सो तामस नरक में जा पड़ा-मानो वहाँ मैं भी जड़ हो गया- और मुझको कुछ ज्ञान न रहा | जब कुछ अन्न पचा और कुछ अवकाश हुआ तब प्राण का स्पन्द फुरा और जैसे वायु निस्पन्द हुई स्पन्द होकर चले तैसे ही वहाँ संवित् फुरी तब सुषुप्ति होकर भासने लगी-मानो आत्मा दृष्टा ही दृश्यरूप होकर भासने लगा परन्तु और कुछ नहीं बना |
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Old 01-12-2012, 08:55 AM   #139
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जैसे अग्नि और उष्णता, जल और द्रवता और मिरच और तीक्ष्णता में भेद नहीं तैसे ही आत्मा और दृश्य में कुछ भेद नहीं | हे बधिक! इस प्रकार मैंने जगत् को देखा और सुषुप्ति से जाग्रत् दृश्य उपजी भासी और मुझको दृष्टि आई-जैसे कुमारी कन्या से सन्तान उपजे | वधिक बोला, हे मुनीश्वर! जो सुषुप्ति आत्मा में दृश्य उपजी सो सुषुप्ति क्या है जिसमें तुम दब गये थे वही सुषुप्ति है जिससे जगत् उपजता है? मुनीश्वर बोले, हे बधिक! जहाँ सर्वसम्बन्ध का अभाव है केवल आत्मसत्ता से भिन्न कुछ कहना नहीं बनता उसका नाम सुषुप्ति है और उसमें जो फुरना हुआ उसके तीन पर्याय हैं सो सब सन्मात्र में हैं | जो वस्तु देश, काल और वस्तु के परिच्छेद से रहित है वह सन्मात्र है, उस सन्मात्र में और कुछ बना नहीं उसके जो पर्याय हैं वे ही रूप हैं | वही सत्य वस्तु अपने आपमें विराजता है और कदाचित् अन्यथाभाव को नहीं प्राप्त होता, किञ्चन में भी वही रूप है और अकिञ्चन में भी वही रूप है |
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Old 01-12-2012, 08:56 AM   #140
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आत्मा ही का नाम सुषुप्ति है और उसी से सब जगत् होता है | जिस सत्ता का नाम सुषुप्ति है वही स्वप्नदृश्य होकर भासता है-उससे भिन्न कुछ नहीं | जैसे वायु निस्स्पन्द स्पन्द में वही रूप है, तैसे ही आत्मा दोनों अवस्थाओं में एक ही है | हे वधिक! हम सरीखों की बुद्धि में और कुछ नहीं बना आत्मा ही सदा ज्यों का त्यों स्थित है और शरीर के आदि भी और अन्त भी वही रूप है | उसमें जो किञ्चन द्वारा भासित हुआ है वह भी वही रूप है | जैसे सुषुप्ति अवस्था में मुझको अद्वैत का अनुभव होता है और कहीं फुरना नहीं होता और उसमें जो स्वप्न और जाग्रत् भासि आता है सो भी वही रूप है और जिसमें फुरती और जिसमें भासती है उससे भिन्न कुछ नहीं इससे यह जगत् आत्मा का किञ्चन आत्मरूप है | जब तू जागकर देखेगा तब तुझको आत्मरूप ही भासेगा | जैसे स्वप्नपुर और संकल्पनगर का अनुभव होता है वह आकाशरूप है तैसे ही यह जगत् आकाश रूप है और शक्ति भी वही है |
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