15-11-2014, 11:50 AM | #131 |
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Re: मुहावरों की कहानी
बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने हमेंएकनया ज्ञान दिया है कि हाथ काट लेना एक मुहावरा है जिसका मतलब होता है अधिकार सीमित कर देना। इसका अर्थ यह नहीं होता कि किसी का हाथ ही काट लियाजाएगा। जो मुहावरे का अर्थ नहीं समझते हैं, वे ही हल्ला कर रहे हैं। उन्होंने उनकी बात ना समझने वाले मूर्खों को जमकर कोसा है और कहा है आज का मीडियामुहावरोंका मतलब भी नहींजानता। मेरे उक्त बयानसे डॉक्टरों को खफा होने की जरूरत नहीं है। अर्थ का अनर्थ नहीं निकाले कोई। मुख्यमंत्री पटना मेंपत्रकारों से बात कर रहे थे। उन्होंने 'हाथ काट लेंगे' वाले अपने बयान पर सफाई दी। उन्होंने कहा कि उनके बयान में हाथ काटना महजएक मुहावराथा। उनका आशय था कि गरीबोंकेसाथ खिलवाड़ करने वाले चिकित्सा अधिकारियोंके अधिकार कम कर दिये जायेंगे। विदित हो कि गत माह 17 अक्तूबर 2014 को उन्होंने मोतिहारी में एकअस्पताल के उद्घाटन के अवसर पर कहा था कि जो डॉक्टर मरीजों की इलाज ठीक से नहीं करेंगे उनकाहाथ काट लेंगे। उन्होंने कहा-डॉक्टरों के प्रति मेरा पूरा सम्मान है। 90 फीसदी डॉक्टर अपनीसेवा अच्छी तरह से दे रहे हैं। दस फीसदी डॉक्टर हैं, जो ठीक से काम नहीं करते हैं।ऐसे ही डॉक्टरों के प्रति मेरा सम्मान नहीं है।
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15-11-2014, 12:06 PM | #132 |
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Re: मुहावरों की कहानी
चक्कर आते ही मुहावरा दौड़ शुरू
जॉली अंकल बंसन्ती ने जब बार-बार खाना खाने के लिये मना किया तो उसकी मौसी ने डांटते हुए उससे खाना न खाने का कारण पूछा। बंसन्ती ने डरते हुए बताया कि उसे उल्टी के साथ चक्कर आ रहे है। मौसी ने पूछा कि तेरा पति तो तुझे कब से छोड़ कर जा चुका है, फिर अब यह कैसी उल्टी और कैसे चक्कर आ रहे है? बंसन्ती ने थोड़ा झिझकते हुए कहा मौसी वो बीच में कभी-कभी माफी मांगने आ जाते है बस उसी कारण से यह चक्कर आ रहे है। इतना सुनते ही मौसी को ऐसा लगा जैसे उसके सिर पर घड़ों पानी पड़ गया हो। इससे पहले की मौसी कुछ और कह पाती वो चक्कर खाने के साथ बेहोश होकर गिर पड़ी। कुछ देर बाद जब मौसी को होश आया तो उसने कहा कि तेरा पति तो बहुत चलता-पुर्जा है ही तू भी चकमा देने में कम नही है। मेरे सामने तो हर समय उसकी बुराई करते नही थकती लेकिन मेरी पीठ पीछे झट से उसके साथ घी-खिचड़ी हो जाती है। तेरी इन्ही बेवकूफियों के कारण वो तुझे अपने चक्कर में फंसाने में कामयाब हो जाता है। यह सब कहते सुनते बंसन्ती का चेहरा फ़क पड़ता जा रहा था। वहीं मौसी का चेहरा गुस्से में और अधिक तमतमाने लगा था। वैसे तो चक्कर आने के अलग-अलग कारण और परिस्थितियां होती भी है। कभी सेहत की गड़बड़ी से, कभी दिल के लगाने से और कभी दिल के टूटने से। परंतु तेजी से बदलते जमाने में यदि मुहावरों पर गहराई से विचार किया जाये तो इन्हें देख कर भी कई लोगो को चक्कर आने लगते है। बहुत से ऐसे मुहावरे है जिन को बनाते समय लगता है, कि हमारे बर्जुगो ने बिल्कुल ध्यान नही दिया।
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02-12-2014, 07:28 PM | #133 |
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Re: मुहावरों की कहानी
के पी सक्सेना
व्यंग्यकार व फिल्मों के डायलाग राईटर जन्म: 1934 मृत्यु: 31 अक्तूबर 2013 ^ बरेली में 1934 में जन्मे कालिका प्रसाद सक्सेना, अपने फैंस के बीच केपी नाम से लोकप्रिय हुए। वे पचास के दशक में लखनऊ आए थे। तीन भाषाओं की एक राह केपी को हिन्दी, उर्दू और अवधी समान रूप से आती थी। साहित्य में इनके योगदान के लिए भारत सरकार ने सन 2000 में केपी को पद्मश्री से नवाजा। सहज और जीवंत अंदाज की लेखनी के कारण केपी की फिल्मी राह आसान हुई। उन्होंने 'लगान (2001), स्वदेश (2004), हलचल (2004), जोधा अकबर (2008)' जैसी सुपरहिट फिल्में दी हैं। इनमें से 'जोधा अकबर' बेस्ट डॉयलाग कैटेगरी में फिल्म फेयर अवार्ड के लिए नोमिनेट हुर्इ थी। 'लगान' के संवादों में केपी ने अवधी के अलावा भोजपुरी और ब्रज-भाषा का भी प्रयोग किया। वे पिछले कुछ अर्से से अपनी आत्मकथा लिख रहे थे।
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02-12-2014, 07:38 PM | #134 |
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Re: मुहावरों की कहानी
के पी सक्सेना
केपी ने बॉटनी में एमएससी किया था और वे लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज में लैक्चरार रहे। उन्होंने ग्रेजुएट क्लासेज़ के लिए बॉटनी विषय पर एक दर्जन से ज्यादा किताबें लिखी हैं। वे इंडियन रेलवे की सर्विस के दौरान स्टेशन मास्टर भी रहे। आकाशवाणी, दूरदर्शन और मंच के लिए लिखे गए 'बाप रे बाप' और 'गज फुट इंच' नाटकों के अलावा दूरदर्शन के लिए लिखा गया धारावाहिक 'बीबी नातियों वाली' विशेष रूप से उल्लेखनीय है। केपी का मुहावराना अंदाज़ अकसर उनकी रचनाएं व्यंग्य से शुरू होकर सीरियस मोड पर खत्म होती हैं। 'सखी रे मनभायो मदनलाल', 'पुराने माल के शौकीन' और 'बैंक लाकर' जैसी बहुचर्चित कविताएं इस बात की तसदीक करती हैं। उनकी कविताओं और नाटकों में गढ़े गए मुहावरे और संवाद लोगों की जुबान पर चढ़ गए। किसी के मरने पर 'बेचारे खर्च हो गये' का मुहावरा ख़ासा लोकप्रिय हुआ। इसके अलावा 'बहुत अच्छे', 'लपझप' और 'जीते रहिये' जैसे संवाद खूब इस्तेमाल किए जाने लगे। अकसर केपी अपनी लेखनी में नये-नये मुहावरे खुद गढ़ते थे। जैसे स्वदेश फिल्म का एक संवाद - 'अपने ही पानी में पिघलना बर्फ का मुकद्दर होता है'। इसके अलावा इसी फिल्म में कुंवारे चरित्र के लिए कहा गया था - 'भइयाए कब तक चारपार्इ के दोनों तरफ से उठते रहोगे'। उम्र के आखिरी पड़ाव पर भी उनकी जिंदादिली कायम रही। बुढ़ापे पर उनका नजरिया था - 'बुढ़ापे में जवानी से भी ज्यादा जोश होता है, भड़कता है चिराग-ए-सहरी, जब ख़ामोश होता है'। जीभ के कैंसर ने छीने स्वर केपी को जीभ के कैंसर का पता पिछले साल चला। उनका दो बार सर्जरी हो चुकी है। पहली बार जुलाई 2012 में और दूसरी बार मार्च 2013 में। पिछले महीने ही उनकी जीभ में फिर से ग्रोथ का पता चला।
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05-12-2014, 09:30 PM | #135 |
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Re: मुहावरों की कहानी
के पी सक्सेना जी के बारे में बहुत अच्छी जानकारी दी है आपने इस सूत्र में रजनीश जी ,, एइसे महान लेखक को सादर श्रध्दांजलि सपर्पित है .
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21-12-2014, 10:08 PM | #136 |
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Re: मुहावरों की कहानी
कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर
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21-12-2014, 10:11 PM | #137 |
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Re: मुहावरों की कहानी
कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर
एक व्यक्ति अपने बेटे के साथ बाजार गया. ज़रुरत का सामान खरीदने के बाद वे बाजार से घर जाने के लिए अपने रास्ते पर चल दिए. अभी कुछ ही दूर चले थे कि उन्हें सामने से एक बैल गाड़ी आती हुई दिखाई दी. बैल गाड़ी को और से देखते हुए पिता ने अपने बेटे से कहा, “बेटे देखो, गाड़ी पर नाव आ रही है.” बेटे ने भी उधर देखा तो पाया कि बैलगाड़ी पर नाव लदी हुई थी और वे लोग आगे की ओर चले जा रहे थे. यह दृश्य देख कर बालक को कुछ ध्यान आया तो वह अपने पिता से पूछ बैठा, “पिता जी, नाव तो पानी में चलती है न. यह नाव गाड़ी पर क्यों चल रही है?” “हाँ, तुम ठीक कहते हो, नाव तो पानी पर ही चलती है. लेकिन बेटा, यह एक नयी नाव है जिसे बढइयों ने बनाया है. अब क्योंकि नाव सड़क पर चल नहीं सकती, इसलिए इसे गाड़ी पर लाद कर नदी की ओर ले जाया जा रहा है. जब नाव नदी के किनारे पर पहुच जायेगी तब इसे पानी में उतारा जायेगा. उस समय यह पानी पर चलना शुरू कर देगी. समझ गये?” पिता ने पुत्र को समझाते हुये कहा. >>>
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21-12-2014, 10:12 PM | #138 |
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Re: मुहावरों की कहानी
कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर
“हाँ, पिता जी.” कुछ देर बाद वे दोनों बातें करते करते घर आ पहुंचे. कुछ दिनों बाद किसी काम से पिता पुत्र को गाँव से बाहर जाना पड़ा. रास्ते में नदी पडती थी. उसे आर करने के लिए उन्हें नाव पर सवार होना पड़ा. काम खत्म होने के बाद वे फिर से नदी के किनारे आ पहुंचे और नाँव का इंतज़ार करने लगे. नाँव आने पर वे उस पर सवार हुए और नदी के दूसरे किनारे की ओर जाने लगे. जब उनकी नाव नदी के बीचोबीच पहुंची, तो बालक सामने से आती हुई एक अन्य नाव को देख कर चकित हो कर बोला, “पिता जी .... वो देखो, सामने से बड़ी नाव आ रही है...” नाव जब उनके नज़दीक आयी तो कुछ देख कर पुत्र को उस दिन की घटना याद आ गयी. वह बोला, “पिता जी, उस दिन तो गाड़ी के उपर नाव थी लेकिन देखो, आज नाव में गाड़ी है.” पिता भी उसी दिशा में देख रहे थे. उन्होंने देखा कि नाव पर यात्रियों के साथ साथ एक (बैल) गाड़ी भी सवार थी जिसे दूसरी ओर दूसरे किनारे पर जाना था. पिता ने पुत्र की शंका का समाधान करते हुए कहा, “बेटा, मैंने तुम्हें उस दिन भी बताया था कि नाव पानी पर चलती है, इसलिए सड़क का मार्ग इसे गाड़ी पर तय करना पड़ता है और गाड़ी सड़क का वाहन है और पानी पर नहीं चल सकती, इसलिए नदी का रास्ता इसे नाव पर तय करना पड़ता है. यह तो समय समय की बात है, बेटा. उस दिन नाव गाड़ी पर सवार थी और आज गाड़ी नाव पर सवार है.” नाव में और लोग भी बैठे हुये इन पिता-पुत्र का वार्तालाप सुन रहे थे. उन लोगों में से एक बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा, “यह तो भाइयो, ऐसे समझ लो कि- कभी नाव गाड़ी पर तो कभी गाड़ी नाव पर.” तभी से यह मुहावरा हमें यदा-कदा सुनाई दे जाता है. **
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24-12-2014, 05:39 AM | #139 |
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Re: मुहावरों की कहानी
बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्धक सूत्र है, रजनीश जी को इस सूत्र के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.
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25-12-2014, 11:18 AM | #140 | |
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Re: मुहावरों की कहानी
Quote:
अभिषेक जी को सूत्र विजिट करने और ताजा पोस्टों को पसंद करने के लिए व मित्र राजू जी को उक्त उत्साहवर्धक टिप्पणी देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.
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