13-02-2011, 01:02 PM | #131 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है सबसे ख़तरनाक नहीं होता कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है जुगनुओं की लौ में पढ़ना मुट्ठियां भींचकर बस वक्*़त निकाल लेना बुरा तो है सबसे ख़तरनाक नहीं होता सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना तड़प का न होनासब कुछ सहन कर जाना घर से निकलना काम पर और काम से लौटकर घर आना सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो आपकी नज़र में रुकी होती है सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्*बत से चूमना भूल जाती है और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर गुंडों की तरह अकड़ता है सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है जो हर हत्*याकांड के बाद वीरान हुए आंगन में चढ़ता है लेकिन आपकी आंखों में मिर्चों की तरह नहीं पड़ता सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है जिसमें आत्*मा का सूरज डूब जाए और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा आपके जिस्*म के पूरब में चुभ जाए मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती । पाश
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13-02-2011, 01:05 PM | #132 |
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मैंने उम्र भर उसके खिलाफ सोचा और लिखा है
अगर उसके अफसोस में पूरा देश ही शामिल है तो इस देश से मेरा नाम खारिज कर दें मैं खूब जानता हूं नीले सागरों तक फैले हुए इस खेतों, खानों,भट्ठों के भारत को वह ठीक इसी का साधारण-सा एक कोना था जहां पहली बार जब दिहाड़ी मजदूर पर उठा थप्पड़ मरोड़ा गया किसी के खुरदरे बेनाम हाथों में ठीक वही वक्त था जब इस कत्ल की साजिश रची गयी कोई भी पुलिस नहीं खोज पायेगी इस साजिश की जगह क्योंकि ट्यूबें सिर्फ राजधानी में जगमगाती हैं और खेतों, खानों व भट्ठों का भारत बहुत अंधेरा है और ठीक इसी सर्द अंधेरे में होश संभालने पर जीने के साथ-साथ पहली बार जब इस जीवन के बारे में सोचना शुरू किया मैंने खुद को इस कत्ल की साजिश में शामिल पाया जब भी वीभत्स शोर का खुरा खोज-मिटा कर मैंने टर्राते हुए टिड्डे को ढूंढ़ना चाहा अपनी पुरी दुनिया को शामिल देखा है मैंने हमेशा ही उसे कत्ल किया है हर परिचित की छाती में ढूंढ़ कर अगर उसके कातिलों को इस तरह सड़कों पर देखा जाना है तो मुझे भी मिले बनती सजा मैं नही चाहता कि सिर्फ इस आधार पर बचता रहूं कि भजनलाल बिशनोई को मेरा पता मालूम नहीं इसका जो भी नाम है-गुंडों की सल्तनत का मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूं मैं उस पायलट की चालाक आंखों में चुभता भारत हूं हां मैं भारत हूं चुभता हुआ उसकी आंखों में अगर उसका अपना कोई खानदानी भारत है तो मेरा नाम उसमें से अभी खारिज कर दो। पाश
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13-02-2011, 01:19 PM | #133 |
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दीप आज भी लड़ता है संग्राम
जिस देहरी पर दीप रखने के लिए तरसते रहते थे महीनों वह छूटी जा रही है धीरे-धीरे जिस दीये की बाती बनाने के लिए लड़ते थे सारे भाई-बहन उसने भी बदल ली है अपनी शक्ल जिन नए कपड़ों के लिए नाराज हो जाते थे पिता से उन्हें बेटे को दिलाने में अब फूल जाता है दम जिन सपनों को देखकर आखें रोज़ मनाती थीं दिवाली आज वे हो रहे हैं अमावस से भी काले पहले हम दिवाली मनाते थे अब दिवाली हमें मनाती है पहले हम ज़िंदगी जीते थे अब ज़िंदगी हमें जीती है। लेकिन दीप कल भी लड़ता था अंधेरे से संग्राम आज भी लड़ता है कल भी लड़ेगा। ओम द्विवेदी
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15-02-2011, 09:49 AM | #134 |
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छिप-छिप आंसू बहाने वालों
छिप-छिप आंसू बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है सपना क्या है, नयन सेज पर सोया हुआ आँख का पानी और टूटना है उसका ज्यों जागे कच्ची नींद जवानी गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है माला बिखर गयी तो क्या है खुद ही हल हो गयी समस्या आँसू गर नीलाम हुए तो समझो पूरी हुई तपस्या रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर केवल जिल्द बदलती पोथी जैसे रात उतार चाँदनी पहने सुबह धूप की धोती वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों चँद खिलौनों के खोने से, बचपन नहीं मरा करता है लाखों बार गगरियाँ फ़ूटी, शिकन न आयी पर पनघट पर लाखों बार किश्तियाँ डूबीं, चहल पहल वो ही है तट पर तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों, लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है। लूट लिया माली ने उपवन, लुटी ना लेकिन गंध फ़ूल की तूफ़ानों ने तक छेड़ा पर, खिड़की बंद ना हुई धूल की नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों कुछ मुखड़ों के की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है। - गोपालदास "नीरज"
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15-02-2011, 10:01 AM | #135 |
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वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो चट्टानों की छाती से दूध निकालो है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है चिनगी बन फूलों का पराग जलता है सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है तलवार प्रेम से और तेज होती है छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है मरता है जो एक ही बार मरता है तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे जब कभी अहम पर नियति चोट देती है कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा! रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar)
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15-02-2011, 10:15 AM | #136 |
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रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है । उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है । जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ? मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते । और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते। आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का आज उठता और कल फिर फूट जाता है । किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है । मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली, देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू? स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी, आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू? मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते, आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ । और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की, इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ । मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी कल्पना की जीभ में भी धार होती है । वाण ही होते विचारों के नहीं केवल, स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है। स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे । रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को, स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे। (nm)
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15-02-2011, 11:59 AM | #137 |
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वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज? अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है? तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है? सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में? उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध रामधारी सिंह "दिनकर"
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21-02-2011, 01:29 AM | #138 |
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कैदी और कोकिला'
क्या गाती हो? क्यों रह-रह जाती हो? कोकिल बोलो तो ! क्या लाती हो? सन्देशा किसका है? कोकिल बोलो तो ! ऊँची काली दीवारों के घेरे में, डाकू, चोरों, बटमारों के डेरे में, जीने को देते नहीं पेट भर खाना, मरने भी देते नहीं, तड़प रह जाना ! जीवन पर अब दिन-रात कड़ा पहरा है, शासन है, या तम का प्रभाव गहरा है? हिमकर निराश कर चला रात भी काली, इस समय कालिमामयी जगी क्यूँ आली ? क्यों हूक पड़ी? वेदना-बोझ वाली-सी; कोकिल बोलो तो ! बन्दी सोते हैं, है घर-घर श्वासों का दिन के दुख का रोना है निश्वासों का, अथवा स्वर है लोहे के दरवाजों का, बूटों का, या सन्त्री की आवाजों का, या गिनने वाले करते हाहाकार । सारी रातें है-एक, दो, तीन, चार-! मेरे आँसू की भरीं उभय जब प्याली, बेसुर! मधुर क्यों गाने आई आली? क्या हुई बावली? अर्द्ध रात्रि को चीखी, कोकिल बोलो तो ! किस दावानल की ज्वालाएँ हैं दीखीं? कोकिल बोलो तो ! निज मधुराई को कारागृह पर छाने, जी के घावों पर तरलामृत बरसाने, या वायु-विटप-वल्लरी चीर, हठ ठाने दीवार चीरकर अपना स्वर अजमाने, या लेने आई इन आँखों का पानी? नभ के ये दीप बुझाने की है ठानी ! खा अन्धकार करते वे जग रखवाली क्या उनकी शोभा तुझे न भाई आली? तुम रवि-किरणों से खेल, जगत् को रोज जगाने वाली, कोकिल बोलो तो ! क्यों अर्द्ध रात्रि में विश्व जगाने आई हो? मतवाली कोकिल बोलो तो ! दूबों के आँसू धोती रवि-किरनों पर, मोती बिखराती विन्ध्या के झरनों पर, ऊँचे उठने के व्रतधारी इस वन पर, ब्रह्माण्ड कँपाती उस उद्दण्ड पवन पर, तेरे मीठे गीतों का पूरा लेखा मैंने प्रकाश में लिखा सजीला देखा। तब सर्वनाश करती क्यों हो, तुम, जाने या बेजाने? कोकिल बोलो तो ! क्यों तमोपत्र पत्र विवश हुई लिखने चमकीली तानें? कोकिल बोलो तो ! क्या?-देख न सकती जंजीरों का गहना? हथकड़ियाँ क्यों? यह ब्रिटिश-राज का गहना, कोल्हू का चर्रक चूँ? -जीवन की तान, मिट्टी पर अँगुलियों ने लिक्खे गान? हूँ मोट खींचता लगा पेट पर जूआ, खाली करता हूँ ब्रिटिश अकड़ का कूआ। दिन में कस्र्णा क्यों जगे, स्र्लानेवाली, इसलिए रात में गजब ढा रही आली? इस शान्त समय में, अन्धकार को बेध, रो रही क्यों हो? कोकिल बोलो तो ! चुपचाप, मधुर विद्रोह-बीज इस भाँति बो रही क्यों हो? कोकिल बोलो तो ! काली तू, रजनी भी काली, शासन की करनी भी काली काली लहर कल्पना काली, मेरी काल कोठरी काली, टोपी काली कमली काली, मेरी लोह-श्रृंखला काली, पहरे की हुंकृति की व्याली, तिस पर है गाली, ऐ आली ! इस काले संकट-सागर पर मरने की, मदमाती ! कोकिल बोलो तो ! अपने चमकीले गीतों को क्योंकर हो तैराती ! कोकिल बोलो तो ! तेरे `माँगे हुए' न बैना, री, तू नहीं बन्दिनी मैना, न तू स्वर्ण-पिंजड़े की पाली, तुझे न दाख खिलाये आली ! तोता नहीं; नहीं तू तूती, तू स्वतन्त्र, बलि की गति कूती तब तू रण का ही प्रसाद है, तेरा स्वर बस शंखनाद है। दीवारों के उस पार ! या कि इस पार दे रही गूँजें? हृदय टटोलो तो ! त्याग शुक्लता, तुझ काली को, आर्य-भारती पूजे, कोकिल बोलो तो ! तुझे मिली हरियाली डाली, मुझे नसीब कोठरी काली! तेरा नभ भर में संचार मेरा दस फुट का संसार! तेरे गीत कहावें वाह, रोना भी है मुझे गुनाह ! देख विषमता तेरी मेरी, बजा रही तिस पर रण-भेरी ! इस हुंकृति पर, अपनी कृति से और कहो क्या कर दूँ? कोकिल बोलो तो! मोहन के व्रत पर, प्राणों का आसव किसमें भर दूँ! कोकिल बोलो तो ! फिर कुहू !---अरे क्या बन्द न होगा गाना? इस अंधकार में मधुराई दफनाना? नभ सीख चुका है कमजोरों को खाना, क्यों बना रही अपने को उसका दाना? फिर भी कस्र्णा-गाहक बन्दी सोते हैं, स्वप्नों में स्मृतियों की श्वासें धोते हैं! इन लोह-सीखचों की कठोर पाशों में क्या भर देगी? बोलो निद्रित लाशों में? क्या? घुस जायेगा स्र्दन तुम्हारा नि:श्वासों के द्वारा, कोकिल बोलो तो! और सवेरे हो जायेगा उलट-पुलट जग सारा, कोकिल बोलो तो ! माखनलाल चतुर्वेदी
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Last edited by Sikandar_Khan; 21-02-2011 at 01:37 AM. Reason: edit |
21-02-2011, 01:33 AM | #139 |
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पुष्प की अभिलाषा चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूथा जाऊँ चाह नहीं प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ चाह नहीं देवों के सिर पर चढूँ भाग्य पर इतराऊँ मुझे तोड़ लेना बनमाली उस पथ पर तुम देना फेंक मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएँ वीर अनेक माखनलाल चतुर्वेदी
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Last edited by Sikandar_Khan; 21-02-2011 at 01:36 AM. Reason: edit |
21-02-2011, 01:41 AM | #140 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
नहुष का पतन
मत्त-सा नहुष चला बैठ ऋषियान में व्याकुल से देव चले साथ में, विमान में पिछड़े तो वाहक विशेषता से भार की अरोही अधीर हुआ प्रेरणा से मार की दिखता है मुझे तो कठिन मार्ग कटना अगर ये बढ़ना है तो कहूँ मैं किसे हटना? बस क्या यही है बस बैठ विधियाँ गढ़ो? अश्व से अडो ना अरे, कुछ तो बढ़ो, कुछ तो बढ़ो बार बार कन्धे फेरने को ऋषि अटके आतुर हो राजा ने सरौष पैर पटके क्षिप्त पद हाय! एक ऋषि को जा लगा सातों ऋषियों में महा क्षोभानल आ जगा भार बहे, बातें सुने, लातें भी सहे क्या हम तु ही कह क्रूर, मौन अब भी रहें क्या हम पैर था या सांप यह, डस गया संग ही पमर पतित हो तु होकर भुंजग ही राजा हतेज हुआ शाप सुनते ही काँप मानो डस गया हो उसे जैसे पिना साँप श्वास टुटने-सी मुख-मुद्रा हुई विकला "हा ! ये हुआ क्या?" यही व्यग्र वाक्य निकला जड़-सा सचिन्त वह नीचा सर करके पालकी का नाल डूबते का तृण धरके शून्य-पट-चित्र धुलता हुआ सा दृष्टि से देखा फिर उसने समक्ष शून्य दृष्टि से दीख पड़ा उसको न जाने क्या समीप सा चौंका एक साथ वह बुझता प्रदीप-सा - “संकट तो संकट, परन्तु यह भय क्या ? दूसरा सृजन नहीं मेरा एक लय क्या ?” सँभला अद्मय मानी वह खींचकर ढीले अंग - “कुछ नहीं स्वप्न था सो हो गया भला ही भंग. कठिन कठोर सत्य तो भी शिरोधार्य है शांत हो महर्षि मुझे, सांप अंगीकार्य है" दुख में भी राजा मुसकराया पूर्व दर्प से मानते हो तुम अपने को डसा सर्प से होते ही परन्तु पद स्पर्श भुल चुक से मैं भी क्या डसा नहीं गया हुँ दन्डशूक से मानता हुँ भुल हुई, खेद मुझे इसका सौंपे वही कार्य, उसे धार्य हो जो जिसका स्वर्ग से पतन, किन्तु गोत्रीणी की गोद में और जिस जोन में जो, सो उसी में मोद में काल गतिशील मुझे लेके नहीं बेठैगा किन्तु उस जीवन में विष घुस पैठेगा फिर भी खोजने का कुछ रास्ता तो उठायेगें विष में भी अमर्त छुपा वे कृति पायेगें मानता हुँ भुल गया नारद का कहना दैत्यों से बचाये भोग धाम रहना आप घुसा असुर हाय मेरे ही ह्रदय में मानता हुँ आप लज्जा पाप अविनय में मानता हुँ आड ही ली मेने स्वाधिकार की मुल में तो प्रेरणा थी काम के विकार की माँगता हुँ आज में शची से भी खुली क्षमा विधि से बहिर्गता में भी साधवी वह ज्यों रमा मानता हुँ और सब हार नहीं मानता अपनी अगाति आज भी मैं जानता आज मेरा भुकत्योजित हो गया है स्वर्ग भी लेके दिखा दूँगा कल मैं ही अपवर्ग भी तन जिसका हो मन और आत्मा मेरा है चिन्ता नहीं बाहर उजेला या अँधेरा है चलना मुझे है बस अंत तक चलना गिरना ही मुख्य नहीं, मुख्य है सँभलना गिरना क्या उसका उठा ही नहीं जो कभी मैं ही तो उठा था आप गिरता हुँ जो अभी फिर भी ऊठूँगा और बढ़के रहुँगा मैं नर हूँ, पुरुष हूँ, चढ़ के रहुँगा मैं चाहे जहाँ मेरे उठने के लिये ठौर है किन्तु लिया भार आज मेने कुछ और है उठना मुझे ही नहीं बस एक मात्र रीते हाथ मेरा देवता भी और ऊंचा उठे मेरे साथ मैथिलीशरण गुप्त
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