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Old 02-08-2013, 10:42 AM   #131
VARSHNEY.009
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Default Re: प्रेरक प्रसंग

मृग और चूहे की कहानी

गोदावरी के तीर पर एक बड़ा सैमर का पेड़ है। वहाँ अनेक दिशाओं के देशों से आकर रात में पक्षी बसेरा करते हैं। एक दिन जब थोड़ी रात रह गई ओर भगवान कुमुदिनी के नायक चंद्रमा ने अस्ताचल की चोटी की शरण ली तब लघुपतनक नामक काग जगा और सामने से यमराज के समान एक बहेलिए को आते हुए देखा, उसको देखकर सोचने लगा, कि आज प्रातःकाल ही बुरे का मुख देखा है। मैं नहीं जानता हूँ कि क्या बुराई दिखावेगा।
फिर उस व्याध ने चावलों की कनकी को बिखेर कर जाल फैलाया और खदु वहाँ छुप कर बैठ गया। उसी समय में परिवार सहित आकाश में उड़ते हुए चित्रग्रीव नामक कबूतरों के राजा ने चावलों की कनकी को देखा, फिर कपोतराज चावल के लोभी कबूतरों से बोला-- इस निर्जन वन में चावल की कनकी कहाँ से आई ? पहले इसका निश्चय करो। मैं इसको कल्याणकारी नहीं देखता हूँ। अवश्य इन चावलों की कनकी के लोभ से हमारी बुरी गति हो सकती है।
यह सुनकर एक कबूतर घमंड से बोला ,""अजी, तुम क्या कहते हो
जब आपत्तिकाल आए तब वृद्धों की बात माननी चाहिए, परंतु उस समय सब जगह मानने से तो भोजन भी न मिले।
इस पृथ्वी तल पर अन्न और पान संदेहोंसे भरा है, किस वस्तु में खाने- पीने की ईच्छा करे या कैसे जिये ?
ईष्या करने वाला, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा संदेह करने वाला और पराये आसरे जीने वाला ये छः प्रकार के मनुष्य हमेशा दुखी होते हैं। यह सुनकर भी सब कबुतर बहेलिये के चावल के कण जहाँ छीटे थे, वहाँ बैठ गये।
क्योंकि अच्छे बड़े- बड़े शास्रों को पढ़ने तथा सुनने वाले और संदेहों को दूर करने वाले भी लोभ के वश में पड़ कर दुख भोगते हैं।
लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है, लोभ से विषय भोग की इच्छा होती है और लोभ से मोह और नाश होता है, इसलिए लोभ ही पाप की जड़ है।
सोने के मृग का होना असंभव है, तब भी रामचंद्रजी सोने के मृग के पीछे लुभा गये, इसलिये विपत्तिकाल आने पर महापुरुषों की बुद्धियाँ भी बहुधा मलिन हो जाती है। दाना पाने के लालच से उतरे सब कबूतर जाल में फँस गये और फिर जिसके वचन से वहाँ उतरे से उसका तिरस्कार करने लगे।
समूह के आगे मुखिया होकर न जाना चाहिये। क्योंकि यदि काम सिद्ध हो गया तो फल सबों को बराबर प्राप्त होगा, और अगर काम बिगड़ गया तो मुखिया ही मारा जाएगा। सबको उसकी निंदा करते देख चित्रग्रीव बोला -- "" इसका कुछ दोष नहीं है। हितकारक पदार्थ भी आने वाली आपत्तियों का कारण हो जाती है, जैसे गोदोहन के समय माता की जाँघ ही बछड़े के बाँधने का खूँटा हो जाती है।
बंधु वह है, जो आपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों को निकालने में समर्थ हो और जो दुखियों की रक्षा करने के उपाय बताने की बजाय उलाहना देने में चतुराई समझे, वह बंधु नहीं है। आपत्ति से घबरा जाना तो कायर पुरुष का चिन्ह है, इसलिये इस काम में धीरज धर कर उपाय सोचना चाहिए।
आपदा में धीरज, बढ़ती में क्षमा, सभा में वाणी की चतुरता, युद्ध में पराक्रम, यश में रुचि और शास्र में अनुराग ये बातें महात्माओं में स्वाभाव से ही होती है। जिसे संपत्ति में हर्ष और आपत्ति में खेद न हो और संग्राम में धीरता हो, ऐसा तीनों लोक में तिलक का जन्म विरला होता है और उसको विरली माता ही जनती है। इस संसार में अपना कल्याण चाहने वाले पुरुष को निद्रा, तंद्रा, भय, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता ये छः अवगुण छोड़ देने चाहिए। अब भी ऐसा करो, सब एक मत होकर जाल को ले उड़ो।
छोटी- छोटी वस्तुओं के समूह से भी कार्य सिद्ध हो जाता है, जैसे घास की बटी हुई रस्सियों से मतवाला हाथी भी बाँधे जाते हैं। अपने कुल के थोड़े मनुष्यों का समूह भी कल्याण का करने वाला होता है, क्योंकि तुस (छिलके) से अलग हुए चावल फिर नहीं उगते हैं। यह सोच कर सब कबूतर जाल को लेकर उड़े और वह बहेलिया जाल को लेकर उड़ने वाले कबूतरों को दूर से देख कर पीछे दौड़ता हुआ सोचने लगा, ये पक्षी मिल कर मेरे जाल को लेकर उड़ रहे हैं, परंतु जब ये गिरेंगे तब मेरे वश में हो जायेंगे। फिर जब वे पक्षी आँखों से ओझल हो गये तब व्याध लौट गया। जब कबूतर ने देखा कि लोभी व्याध लौट रहा है तब कबूतर ने कहा कि अब क्या करना चाहिए।
माता, पिता और मित्र ये तीनों स्वभाव से हितकारी होते हैं और दूसरे लोग कार्य और किसी कारण से हित की इच्छा करने वाले होता हैं। इसलिए मेरा मित्र हिरण्यक नामक चूहों का राजा गंडकी नदी के तीर पर चित्रवन में रहता है, वह हमारे फंदों को काटेगा। यह विचार कर सह हिरण्यक के बिल के पास गये। हिरण्यक सदा आपत्ति आने की आशंका से अपना बिल सौ द्वार का बना कर रहता था। फिर हिरण्यक कबूतरों के उतरने की आहट से डर कर चुपके से बैठ गया। चित्रग्रीव बोला -- हे मित्र हिरण्यक, हमसे क्यों नहीं बोलते हो ? फिर हिरण्यक उसकी बोली पहचान कर शीघ्रता से बाहर निकल कर बोला -- अहा ! मैं पुण्यवान हूँ कि मेरा प्यारा मित्र चित्रग्रीव आया है।
जिसकी मित्र के साथ बोल- चाल है, जिसका मित्र के साथ रहना- सहना हो, और जिसकी मित्र के साथ गुप्त बात- चीत हो, उसके समान कोई इस संसार में पुण्यवान नहीं है। अपने मित्र को जाल में फँसा देखकर आश्चर्य से क्षण भर ठहर कर बोला"-- मित्र, यह क्या है ? चित्रग्रीव बोला" -- मित्र, यह हमारे पूर्वजन्म के कर्मो का फल है।
जिस कारण से, जिसके करने से, जिस प्रकार से, जिस समय में, जिस काल तक और जिस स्थान में जो कुछ भला और बुरा अपना कर्म है, उसी कारण से , उसी के द्वारा, उसी प्रकार से, उसी समय में, वही कर्म, उसी काल तक, उसी स्थान में, प्रारब्ध के वश से पाता है।
रोग, शोक, पछतावा, बंधन और आपत्ति ये देहधारियों (प्राणियों) के लिए अपने अपराधरुपी वृक्ष के फल हैं। यह सुनकर हिरण्यक चित्रग्रीव के बंधन काटने के लिए शीघ्र पास आया। चित्रग्रीव बोला -- मित्र, ऐसा मत करो, पहले मेरे उन आश्रितों के बंधन काटो, मेरा बंधन बाद में काटना। हिरण्यक ने भी कहा -- मित्र, मैं निर्बल हूँ और मेरे दाँत भी कोमल हैं, इसलिए इन सबका बंधन काटने के लिए कैसे समर्थ हूँ ? इसलिए जब तक मेरे दाँत नहीं टूटेंगे, तब तक तुम्हारा फंदा काटता हूँ। बाद में इनके भी बंधन जहाँ तक कट सकेंगे तब तक काटूँगा। चित्रग्रीव बोला -- यह ठीक है, तो भी यथाशक्ति पहले इनके काटो। हिरण्यक ने कहा-- अपने को छोड़कर अपने आश्रितों की रक्षा करना यह नीति जानने वालों को संमत नहीं है। क्योंकि मनुष्य को आपत्ति के लिए धन की, धन देकर स्री की और धन और स्री देकर अपनी रक्षा सर्वदा करनी चाहिए।
दूसरे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों की रक्षा के लिए प्राण कारण हैं, इसलिए जिसने इन प्राणों का घात किया, उसने क्या घात नहीं किया ? अर्थात सब कुछ घात किया और जिसने प्राणों का रक्षण किया उसने क्या रक्षण न किया ? अर्थात सबका रक्षण किया। चित्रग्रीव बोला -- मित्र, नीति तो ऐसी ही है, परंतु मैं अपने आश्रितोंका दुख सहने को सब प्रकार से असमर्थ हूँ।
चित्रग्रीव कहता है कि पण्डित को पराये उपकार के लिए अपना धन और प्राणों को भी छोड़ देना चाहिए, क्योंकि विनाश तो अवश्य होगा, इसलिये अच्छे पुरुषों के लिए प्राण त्यागना अच्छा है। दूसरा यह भी एक विशेष कारण है कि इन कबूतरों का और मेरा जाति, द्रव्य और बल समान है, तो मेरी प्रभुता का फल कहो, जो अब न होगा तो किस काल में और क्या होगा ? आजीविका के बिना भी ये मेरा साथ नहीं छोड़ते हैं, इसलिए प्राणों के बदले भी इन मेरे आश्रितों को जीवनदान दो। हे मित्र, मांस, मल, मूत्र तथ हड्डी से बने हुए इस विनाशी शरीर में आस्था को छोड़ कर मेरे यश को बढ़ाओ। जो अनित्य और मल- मूत्र से भरे हुए शरीर से निर्मल और नित्य यश मिले तो क्या नहीं मिला ? अर्थात सब कुछ मिला।
शरीर और दयादि गुणों में बड़ा अंतर है। शरीर तो क्षणभंगुर है और गुण कल्प के अंत तक रहने वाले हैं। यह सुनकर हिरण्यक प्रसन्नचित्त तथा पुलकित होकर बोला-- धन्य है, मित्र, धन्य है। इन आश्रितों पर दया विचारने से तो तुम तीनों लोक की ही प्रभुता के योग्य हो। ऐसा कह कर उसने सबका बंधन काट डाला। बाद में हिरण्यक सबका आदर- सत्कार कर बोला -- मित्र चित्रग्रीव, इस जाल बंधन के विषय में दोष की शंका कर अपनी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए।
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जो पक्षी सैकड़ों योजना से भी अधिक दूर से अन्न के दाने को या माँस को देखता है, वही बुरा समय आने पर जाल की बड़ी गाँठ नहीं देखता है। चंद्रमा तथा सूर्य को ग्रहण की पीड़ा, हाथी और सपं का बंधन और पण्डित की दरिद्रता, देख कर मेरी तो समझ में यह आता है कि प्रारब्ध ही बलवान है। और आकाश के एकांत स्थान में विहार करने वाले पक्षी भी विपत्ति में पड़ जाते हैं। और चतुर धीवर मछलियों को अथाह समुद्र में भी पकड़ लेते हैं। इस संसार में दुर्नीति क्या है और सुनीति क्या है और विपत्तिरहित स्थान के लाभ में क्या गण है ? अर्थात कुछ नहीं है। क्योंकि काल आपत्तिरुप अपने हाथ फैला कर बैठा है और कुछ समय आने पर दूर ही से ग्रहण कर झपट लेता है। यों समझा कर और अतिथि सत्कार कर तथा मिल भेटकर उसने चित्रग्रीव को विदा किया और वह अपने परिवारसमेत अपने देश को गया। हिरण्यक भी अपने बिल में घुस गया। इसके बाद लघुपतनक नामक कौवा सब वृत्तांत को जानने वाला आश्चर्य से यह बोला -- हे हिरण्यक, तुम प्रशंसा के योग्य हो, इसलिए कृपा करके मुझसे भी मित्रता कर लो। यह सुन कर हिरण्यक भी बिल के भीतर से बोला-- तू कौन है ? वह बोला -- मैं लघुपतनक नामक कौवा हूँ। हिरण्यक हँस कर कहने लगा-- तेरे संग कैसी मित्रता ? क्योंकि पंडित को चाहिए कि जो वस्तु संसार में जिस वस्तु के योग्य हो उसका उससे मेल आपस में कर दें, मैं तो अन्न हूँ और तुम खाने वाले हो। इस लिए भक्ष्य और भक्षक की प्रीति कैसी होगी ? कौवा बोला -- तुझे खा लेने से भी तो मेरा बहुत आहार नहीं होगा, मैं निष्कपट चित्रग्रीव के समान तेरे जीने से जीता रहूँगा। पुण्यात्मा मृग- पक्षियों का भी विश्वास देखा जाता है, क्योंकि पुण्य ही करने वाले सज्जनों का स्वभाव सज्जनता के कारण कभी नहीं पलटता है।
चाहे जैसे क्रोध में क्यों न हो सज्जन का स्वभाव कभी डामाडोल न होगा, जैसे जलते हुए तनकों की आँच से समुद्र का जल कौन गरम कर सकता है ? हिरण्यक ने कहा -- तू चंचल है, ऐसे चंचल के साथ स्नेह कभी नहीं करना चाहिए। दूसरा तुम मेरे वैरियों के पक्ष के हो।
और यह कहा है कि वैरी चाहे जितना मीठा बन कर मेल करे, परंतु उसके साथ मेल न करना चाहिये, क्योंकि पानी चाहे जितना भी गरम हो आग को बुझा ही देता है। दुर्जन विद्यावान भी हो, परंतु उसे छोड़ देना चाहिये, क्योंकि रत्न से शोभायमान सपं क्या भयंकर नहीं होता है जो बात नही हो सकती, वह कदापि नहीं हो सकती है और जो हो सकती है, वह हो ही सकती है, जैसे पानी पर गाड़ी नहीं चलती और जमीन पर नाव नहीं चल सकती है। लघुपतनक कौवा बोला-- मैंने सब सुन लिया, तो भी मेरा इतना संकल्प है कि तेरे संग मित्रता अवश्य करनी चाहिए। नहीं तो भूखा मर अपघात कर्रूँगा। दुर्जनों के मन में कुछ, वचन में और काम में कुछ, और सज्जनों के जी में, बचन में और काम में एक बात होती है। इसलिये तेरा भी मनोरथ हो। यह कह कर हिरण्यक मित्रता करके विविध प्रकार के भोजन से कौवे को संतुष्ट करके बिल में घुस गया और कौवा भी अपने स्थान को चला गया। उस दिन से उन दोनों का आपस में भोजन के देने- लेने से, कुशल पूछने से और विश्वासयुक्त बातचीत से समय कटने लगा। एक दिन लघुपतनक ने हिरण्यक से कहा -- मित्र, इस स्थान में बड़ी मुश्किल से भोजन मिलता है, इसलिए इस स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान में जाना चाहता हूँ। हिरण्यक ने कहा -- मित्र, कहाँ जाओगे ? बुद्धिमान एक पैर से चलता है और दूसरे से ठहरता है। इसलिए दूसरा स्थान निश्चत किये बिना पहला स्थान नहीं छोड़ना चाहिये। कौवा बोला -- एक अच्छी भांति देखा भाला स्थान है। हिरण्यक बोला-- कौन सा है ? कौआ बोला -- दण्डकवन में कर्पूरगौर नाम का एक सरोवर है, उसमें मन्थरनामक एक धर्मशील कछुआ मेरा बहुत पुराना और प्यारा मित्र रहता है। वह विविध प्रकार के भोजन से मेरा सत्कार करेगा। हिरण्यक भी बोला-- तो मैं यहाँ रह कर क्या कर्रूँगा
क्योंकि जिस देश में न सन्मान, न जीविका का साधन, न भाई या संबंधी और कुछ विद्या का भी लाभ न हो, उस देश को छोड़ देना चाहिये। अर्थात दूसरे शब्दों में जीविका, अभय, लज्जा, सज्जनता और उदारता ये पाँचों बातें जहाँ न हो, वहाँ नहीं रहना चाहिये। साथ ही, जहाँ ॠण देने वाला, वैद्य, वेदपाठी और सुंदर जल से भरी नदी, ये चारों न हो, वहाँ नहीं रहना चाहिए। इसलिये मुझे भी वहाँ ले चलो। बाद में कौवा उस मित्र के साथ अच्छी अच्छी बातें करता हुआ बेखटके उस सरोवर के पास पहुँचा। फिर मन्थर ने उसे दूर से देखते ही लघुपतनक का यथोचित अतिथिसत्कार करके चूहे का भी अतिथिसत्कार किया। क्योंकि बालक, बूढ़ा और युवा इनमें से घर पर कोई आया हो, उसका आदर सत्कार करना चाहिये, क्योंकि अभ्यागत सब वर्णो का पूज्य है। ब्राह्मणों को अग्नि, चारों वणाç को ब्राह्मण, स्रियों को पति और सबको अभ्यागत सर्वदा पूजनीय है। कौवा बोला -- मित्र मन्थर, इसका अधिक सत्कार करो, क्योंकि यह पुण्यात्माओं का मुखिया और करुणा का समुद्र हिरण्यक नामक चूहों का राजा है। इसके गुणों की बड़ाई दो सहस्त्र जीभों से शेष नाग भी कभी नहीं कर सकता है। यह कह कर चित्रग्रीव का वृत्तांत कह सुनाया। मन्थर बड़े आदर से हिरण्यक का सत्कार करके पूछने लगा -- हे मित्र, यह निर्जन वन में अपने आने का भेद तो कहो। विपत्तियों के आ जाने पर निर्णय करके काम करना ही चतुराई है, क्योंकि बिना विचारे काम करने वालों को पद में विपत्तियाँ हैं। कुल की मर्यादा के लिए एक हो, गाँवभर के लिए कुल को, देश के लिए गाँव को और अपने लिये पृथ्वी को छोड़ देना चाहिये। अनायास मिला हुआ जल और भय से मिला मीठा भोजन उन दोनों में विचार कर देखता हूँ, तो जिसमें चित्त बेखटक रहे उसी में सुख है या पराधीन भोजने से सवाधीन जल का मिलना उत्तम है। यह विचार कर मैं निर्जन वन में आया हूँ।
सिंह और हाथियों से भरे हुए वन के नीचे रहना, पके हुए कंद मूल फल खाकर जल पान करना तथा घास के बिछौने पर सोना और छाल के वस्र पहनना अच्छा है, पर भाई बंधुओं के बीच धनहीन जीना अच्छा नहीं है। फिर मेरे पुण्य से उदय से इस मित्र ने परम स्नेह से मेरा आदर किया और अब पुण्य की रीति से तुम्हारा आश्रय मुझे स्वर्ग के समान मिल गया। मंथन बोला -- धन तो चरणों की धूलि के समान है, यौवन पहाड़ की नदी के वेग के समान है, आयु चंचल जल की बिंदु के समान चपल है और जीवन फेन के समान है, इसलिए जो निर्बुद्धि स्वर्ग की आगल को खोलने वाले धर्म को नहीं करता है, वह पीछे बुढ़ापे में पछता कर शोक की अग्नि में जलाया जाता है।
गंभीर सरोवर में भरे हुए जल के चारों ओर निकलने के (बार- बार जल निकाल देना जैसा सरोवर की शुद्धि का कारण है, उसी के) समान कमाये हुए धन का सत्पात्र में दान करना ही रक्षा है। लोभी जिस धन को धरती में अधिक नीचे गाड़ता है, वह धन पाताल में जाने के लिए पहले से ही मार्ग कर लेता है। और जो मनुष्य अपने सुख को रोक कर धनसंचय करने की इच्छा करता है, वह दूसरों के लिए बोझ ढ़ोने वाले मजदूर के समान क्लेश ही भोगने वाला है।
दान और उपभोगहीन धन से जो धनी होते हैं, तो क्या उसी धन से हम धनी नहीं हैं ? अर्थात अवश्य है।
जो मनुष्य धन को देवता के, ब्राह्मण के तथा भाई बंधु के काम में नहीं लाता है, उसे कृपण का धन तो जल जाता है या चोर चुरा ले जाते हैं अथवा राजा छीन लेता है।
प्रिय वाणी के सहित दान, अहंकाररहित ज्ञान, क्षमायुक्त शूरता, और दानयुक्त धन, ये चार बातें दुनिया में दुर्लभ हैं। और संचय नित्य करना चाहिये, पर अति संचय करना योग्य नहीं है।
महात्माओं का स्नेह मरने तक, क्रोध केवल क्षणमात्र और परित्याग केवल संगरहित होता है अर्थात वे कुछ बुराई नहीं करते हैं। यह सुनकर लघुपतनक बोला -- हे मन्थर, तुम धन्य हो, और तुम प्रशंसनीय गुणवाले हो।
सज्जन ही सज्जनों की आपत्ति को सर्वदा दूर करने के योग्य होते हैं। जैसे कीचड़ में फँसे हाथियों के निकालने के लिए हाथी ही समर्थ होते हैं। तब वे इस प्रकार अपनी इच्छानुसार खाते - पीते, खेलते- कूदते संतोष कर सुख से रहने लगे। एक दिन चित्रांग नामक मृग किसी के डर के मारे उनसे आ कर मिला, इसके पीछे मृग को आता हुआ देख भय को समझ मन्थर तो पानी मे घुस गया, चूहा बिल में चला गया और काक भी उड़ कर पेड़ पर बैठ गया। फिर लघुपतनक ने दूसरे से निर्णय किया कि, भय का कोई भी कारण नहीं है, यह सोचकर बाद में सब मिल कर वहाँ ही बैठ गये। मन्थरने कहा -- कुशल हो ? हे मृग, तुम्हारा आना अच्छा हुआ। अपनी इच्छानुसार जल आहार आदि भोग करो अर्थात खाओ, पीयो, और यहाँ रह कर इस वन को सनाथ करो। चित्रांग बोला -- व्याध के डर से मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ और तुम्हारे साथ मित्रता करनी चाहता हूँ। हिरण्य बोला -- मित्रता तो हमारे साथ तुम्हारी अनायास हो गई है। क्योंकि मित्र चार प्रकार के होते हैं, एक तो वो जिनका जन्म से ही जैसे पुत्रादि, दूसरे विवाहादि संबंध से हो गये हो, तीसरे कुल परंपरा से आए हुए हों तथा चौथे वे जो आपत्तियों से बचावें। इसलिए यहाँ तुम अपने घर से भी अधिक आनंद से रहो। यह सुन कर मृग प्रसन्न हो अपनी इच्छानुसार भोजन करके तथा जल पी कर जल के पास वृक्ष की छाया में बैठ गया। मन्थर ने कहा कि -- हे मित्र मृग, इस निर्जन वन में तुम्हें किसने डराया है क्या कभी कभी व्याध आ जाते हैं मृग ने कहा -- कलिंग देश में रुक्मांगद नामक राजा है और वह दिग्विजिय करने के लिये आ कर चंद्रभागा नदी के तीर पर अपनी सेना को टिका कर ठहरा है। और प्रातःकाल वह यहाँ आ कर कर्पूर सरोवर के पास ठहरेगा, यह उड़ती हुई बात शिकारियों के मुख से सुनी जाती है। इसलिये प्रातःकाल यहाँ रहना भी भय का कारण है। यह सोच कर समय के अनुसार काम करना चाहिये। यह सुन कर कछुआ डर कर बोला -- मैं तो दूसरे सरोवर को जाता हूँ। काग और मृग ने भी कहा -- ऐसा ही हो अर्थात चलो। फिर हिरण्यक हँस कर बोला-- दूसरे सरोवर तक पहुँचने पर मंथर जीता बचेगा। परंतु इसके पटपड़ में चलने का कौन सा उपाय है।
जल के जंतुओं को जल का, गढ़ में रहने वालों को गढ़ का, सिंहादि वनचरों को अपनी भूमि का और राजाओं को अपने मंत्री का परम बल होता है। उसके हितकारक वचनों को न मान कर बड़े भय से मूर्ख की भांति वह मन्थर उस सरोवर को छोड़ कर चला। वे हिरण्यक आदि भी स्नेह से विपत्ति की शंका करते हुए मन्थर के पीछे- पीछे चले। फिर पटपड़ में जाते हुए मन्थर को, वन में घूमते हुए किसी व्याध ने पाया। वह उसे पा कर धनुष मे बांध घुमता हुआ क्लेस से उत्पन्न हुई क्षुधा ओर प्यास से व्याकुल, अपने घर की ओर चला। पीछे मृग, काग और चूहा वे बड़ा विषाद करते हुए उसके पीछे- पीछे चले। हिरण्यक विलाप करने लगा -- समुद्र के पार के समान नि:सीमा एक दुख के पार जब तक मैं नहीं जाता हूँ, तब तक मेरे लिए दूसरा दुख आ कर उपस्थित हो जाता है, क्योंकि अनर्थ के साथ बहुत से अनर्थ आ पड़ते हैं। स्वभाव से स्नेह करने वाला मित्र तो प्रारब्ध से ही मिलता है कि जो सच्ची मित्रता को आपत्तियों में भी नहीं छोड़ता है।
न माता, न स्री में, न सगे भाई में , न पुत्र में ऐसा विश्वास होता है कि जैसा स्वाभाविक मित्र में होता है। इस संसार में अपने पाप- पुण्यों से किये गये और समय के उलट- पलट से बदलने वाले सुख- दुख, पुर्वजन्म के किये हुए पाप- पुण्यों के फल मैंने यहाँ ही देख लिये।
अथवा यह ऐसे ही है -- शरीर के पास ही उसका नाथ है और संपत्तियाँ आपत्तियों का मुख्य स्थान है और संयोग के साथ वियोग है, अर्थात अस्थिर है और उत्पन्न हुआ सब सब नाथ होने वाला है। और विचार कर बोला -- शोक और शत्रु के भय से बचाने वाला तथा प्रीति और विश्वास का पात्र, यह दो अक्षर का मित्र रुपी रत्न किसने रचा है ? और अंजन के समान नेत्रों को प्रसन्न करने वाला, चित्त को आनंद देने वाला और मित्र के साथ सुख दुख में साथ देने वाला, अर्थात दुख में दुखी, सुख में सुखी हो ऐसा मित्र होना दुर्लभ है और संपत्ति के समय में धन हरने वाले मित्र हर जगह मिलते हैं। परंतु विपत्काल ही उनके परखने की कसौटी है। इस प्रकार बहुत- सा विलास करके हिरण्यने चित्रांग और लघुपतनक से कहा -- जब तक यह व्याध वन से न निकल जाए, तब तक मन्थर को छुड़ाने का यत्न करो। वे दोनों बोले-- शीघ्र कार्य को कहिये। हिरण्यक बोला -- चित्रांग जल के पास जा कर मरे के समान अपना शरीर दिखावे और काक उस पर बैठ के चोंच से कुछ- कुछ खोदे। यह व्याध कछुए को अवश्य वहाँ छोड़ कर मृगमाँस के लोभ से शीघ्र जाएगा। फिर मैं मन्थर के बंधन काट डालूँगा। और जब व्याध तुम्हारे पास आवे तब भाग जाना। तब चित्रांग और लघुपतनक ने शीघ्र जा कर वैसा ही किया तो वह व्याध पानी पी कर एक पेड़ के नीचे बैठा मृग को उस प्रकार देख पाया। फिर छुरी लेकर आनंदित होता हुआ मृग के पास जाने लगा। इतने ही में हिरण्यक ने आ कर कछुए को बंधन काट डाला। तब वह कछुआ शीघ्र सरोवर में घुस गया। वह मृग उस व्याध को पास आता हुआ देख उठ कर भाग गया। जब व्याध लौट कर पेड़ के नीचे आया, तब कछुए को न देखकर सोचने लगा -- मेरे समान बिना विचार करने वाले के लिए यही उचित था।
जो निश्चित को छोड़ कर अनिश्चित पदार्थ का आसरा करता है, उसके निश्चित पदार्थ नष्ट हो जाते हैं और अनिश्चित भी जाता रहता है। फिर वह अपने प्रारब्ध को दोष लगाता हुआ निराश होकर अपने घर गया। मन्थर आदि भी सब आपत्ति से निकल अपने- अपने स्थान पर जा कर सुख से रहने लगे।
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धूर्त गीदड़ की कहानी

मगध देश में चंपकवती नामक एक महान अरण्य था, उसमें बहुत दिनों में मृग और कौवा बड़े स्नेह से रहते थे। किसी गीदड़ ने उस मृग को हट्ठा- कट्ठा और अपनी इच्छा से इधर- उधर घूमता हुआ देखा, इसको देख कर गीदड़ सोचने लगा -- अरे, कैसे इस सुंदर (मीठा) माँस खाऊँ ? जो हो, पहले इसे विश्वास उत्पन्न कराऊँ। यह विचार कर उसके पास जाकर बोला -- हे मित्र, तुम कुशल हो ? मृग ने कहा "तू कौन है ?' वह बोला -- मैं क्षुद्रबुद्धि नामक गीदड़ हूँ। इस वन में बंधुहीन मरे के समान रहता हूँ, और सब प्रकार से तुम्हारा सेवक बन कर रहूँगा। मृग ने कहा -- ऐसा ही हो, अर्थात रहा कर। इसके अनंतर किरणों की मालासे भगवान सूर्य के अस्त हो जाने पर वे दोनों मृग के घर को गये और वहाँ चंपा के वृक्ष की डाल पर मृग का परम मित्र सुबुद्धि नामक कौवा रहता था। कौए ने इन दोनों को देखकर कहा -- मित्र, यह चितकवरा दूसरा कौन है ? मृग ने कहा -- यह गीदड़ है। हमारे साथ मित्रता करने की इच्छा से आया है। कौवा बोला -- मित्र, अनायास आए हुए के साथ मित्रता नहीं करनी चाहिये।
कहा भी गया है कि -- जिसका कुल और स्वभाव नहीं जाना है, उसको घर में कभी न ठहराना चाहिए, क्योंकि बिलाव के अपराध में एक बूढ़ा गिद्ध मारा गया। यह सुनकर सियार झुंझलाकर बोला -- मृग से पहले ही मिलने के दिन तुम्हारी भी तो कुल और स्वभाव नहीं जाना गया था। फिर कैसे तुम्हारे साथ इसकी गाढ़ी मित्रता हो गई।
जहाँ पंडित नहीं होता है, वहाँ थोड़े पढ़े की भी बड़ाई होती है। जैसे कि जिस देश में पेड़ नहीं होता है, वहाँ अरण्डाका वृक्ष ही पेड़ गिना जाता है। और दूसरे यह अपना है या पराया है, यह अल्पबुद्धियों की गिनती है। उदारचरित वालों को तो सब पृथ्वी ही कुटुंब है। जैसा यह मृग मेरा बंधु है, वैसे ही तुम भी हो। मृग बोला -- इस उत्तर- प्रत्युत्तर से क्या है ? सब एक स्थान में विश्वास की बातचीत कर सुख से रहो। क्योंकि न तो कोई किसी का मित्र है, न कोई किसी का शत्रु है। व्यवहार से मित्र और शत्रु बन जाते हैं। कौवे ने कहा -- ठीक है। फिर प्रातःकाल सब अपने अपने मनमाने देश को गये। एक दिन एकांत में सियार ने कहा -- मित्र मृग, इस वन में एक दूसरे स्थान में अनाज से भरा हुआ खेत है, सो चल कर तुझे दिखाऊँ। वैसा करने पर मृग वहाँ जा कर नित्य अनाज खाता रहा। एक दिन उसे खेत वाले ने देख कर फँदा लगाया। इसके बाद जब वहाँ मृग फिर चरने को आया सो ही जाल में फँस गया और सोचने लगा -- मुझे इस काल की फाँसी के समान व्याध के फंदे से मित्र को छोड़कर कौन बचा सकता है ? इस बीच में सियार वहाँ आकर उपस्थित हुआ और सोचने लगा -- मेरे छल की चाल से मेरा मनोरथ सिद्ध हुआ और इस उभड़े हुए माँस और लहू लगी हुई हड्डियाँ मुझे अवश्य मिलेंगी और वे मनमानी खाने के लिए होंगी। मृग उसे देख प्रसन्न होकर बोला -- हो मित्र मेरा बंधन काटो और मुझे शीघ्र बचाओ।
आपत्ति में मित्र, युद्ध में शूर, उधार में सच्चा व्यवहार, निर्धनता में स्री और दु:ख में भाई (या कुटुंबी) परखे जाते हैं। और दूसरे विवाहादि उत्सव में, आपत्ति में, अकाल में, राज्य के पलटने में, राजद्वार में तथा श्मशान में, जो साथ रहता है, वह बांधव है। सियार जाल को बार- बार देख सोचने लगा -- यह बड़ा कड़ा बंध है और बोला -- ""मित्र, ये फँदे तांत के बने हुए हैं, इसलिए आज रविवार के दिन इन्हें दाँतों से कैसे छुऊँ मित्र जो बुरा न मानो तो प्रातः काल जो कहोगे, सो कर्रूँगा। ऐसा कह कर उसके पास ही वह अपने को छिपा कर बैठ गया। पीछे वह कौवा सांझ होने पर मृग को नहीं आया देख कर इधर- उधर ढ़ूढ़ते- ढ़ूंढ़ते उस प्रकार उसे (बंधन में) देख कर बोला -- ""मित्र, यह क्या है ? मृग ने कहा -- ""मित्र का वचन नहीं मानने का फल है।
जैसा कहा गया है कि जो मनुष्य अपने हितकारी मित्रों का वचन नहीं सुनता है, उसके पास ही विपत्ति है और अपने शत्रुओं को प्रसन्न करने वाला है। कौवा बोला -- ""वह ठग कहाँ है ? मृग ने कहा -- ""मेरे मांस का लोभी यहाँ ही कहाँ बैठा होगा ? कौवा बोला -- मैंने पहले ही कहा था। मेरा कुछ अपराध नहीं है, अर्थात मैंने इसका कुछ नहीं बिगाड़ा है, अतएव यह भी मेरे संग विश्वासघात न करेगा, यह बात कुछ विश्वास का कारण नहीं है, क्योंकि गुण और दोष को बिना सोचे शत्रुता करने वाले नीचों से सज्जनों को अवश्य भय होता ही है। और जिनकी मृत्यु पास आ गयी है, ऐसे मनुष्य न तो बुझे हुए दिये की चिरांद सूंघ सकते हैं, न मित्रता का वचन सुनते हैं और न अर्रूंधती के तारे को देख सकते हैं।
पीठ पीछे काम बिगाड़ने वाले और मुख पर मीठी- मीठी बातें करने वाले मित्र को, मुख पर दूध वाले विष के घड़े के समान छोड़ देना चाहिए। कौवे ने लंबी सांस भर कर कहा कि -- ""अरे ठग, तुझ पापी ने यह क्या किया ? क्योंकि अच्छे प्रकार से बोलने वालों को, मीठे- मीठे वचनों तथा मि कपट से वश में किये हुओं को, आशा करने वालों को, भरोसा रखने वालों को और धन के याचकों को, ठगना क्या बड़ी बात है ? और हे पृथ्वी, जो मनुष्य उपकारी, विश्वासी तथा भोले- भाले मनुष्य के साथ छल करता है उस ठग पुरुष को हे भगवति पृथ्वी, तू कैसे धारण करती है
दुष्ट के साथ मित्रता और प्रीति नहीं करनी चाहिये, क्योंकि गरम अंगारा हाथ को जलाता है और ठंढ़ा हाथ को काला कर देता है। दुर्जनों का यही आचरण है। मच्छर दुष्ट के समान सब चरित्र करता है, अर्थात् जैसे दुष्ट पहले पैरों पर गिरता है, वैसे ही यह भी गिरता है। जैसे दुष्ट पीठ पीछे बुराई करता है, वैसे ही यह भी पीठ में काटता है। जैसे दुष्ट कान के पास मीठी मीठी बात करता है, वैसे ही यह भी कान के पास मधुर विचित्र शब्द करता है और जैसे दुष्ट आपत्ति को देखकर निडर हो बुराई करता है, वैसे ही मच्छर भी छिद्र अर्थात् रोम के छेद में प्रवेश कर काटता है।
और दुष्ट मनुष्य का प्रियवादी होना यह विश्वास का कारण नहीं है। उसकी जीभ के आगे मिठास और हृदय में हालाहल विष भरा है। प्रातःकाल कौवे ने उस खेत वाले को लकड़ी हाथ में लिये उस स्थान पर आता हुआ देखा, उसे देख कर कौवे ने मृग से कहा -- ""मित्र हरिण, तू अपने शरीर को मरे के समान दिखा कर पेट को हवा से फुला कर और पैरों को ठिठिया कर बैठ जा। जब मैं शब्द कर्रूँ तब तू झट उठ कर जल्दी भाग जाना। मृग उसी प्रकार कौवे के वचन से पड़ गया। फिर खेत वाले ने प्रसन्नता से आँख खोल कर उस मृग को इस प्रकार देखा, आहा, यह तो आप ही मर गया। ऐसा कह कर मृग की फाँसी को खोल कर जाल को समेटने का प्रयत्न करने लगा, पीछे कौवे का शब्द सुन कर मृग तुरंत उठ कर भाग गया। इसको देख उस खेत वाले ने ऐसी फेंक कर लकड़ी मारी कि उससे सियार मारा गया।
जैसा कहा गया है कि प्राणी तीन वर्ष, तीन मास, तीन पक्ष और तीन दिन में, अधिक पाप और पुण्य का फल यहाँ ही भोगता है।
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धोख़ेबाज़ सियार

तीसरी कथा धोख़ेबाज़ सियार पर आधारित है। कौआ और हिरन दो दोस्त थे। भोले हिरन को धूर्त सियार अपना दोस्त बना लेता है।
सियार हिरन को एक हरे-भरे खेत में ले जाता है। हरी घास के लालच में आकर हिरन किसान द्वारा फैलाए जाल में फंस जाता है। जब हिरन सियार से मदद की गुहार करता है तो सियार व्रत धारण का बहाना बनाकर चमड़े के जाल में मुँह लगाने से इन्कार कर देता है। तभी हिरन का मित्र कौआ वहाँ आ जाता है। कौआ हिरन को मर जाने का स्वांग करने को कहता है। तभी वहाँ किसान लाठी लेकर आता है। कौआ भी हिरन के शरीर में चांेच मारने का नाटक करता है। किसान हिरन को मरा हुआ समझ कर जाल खोल देता है। हिरन झट से उठ कर भाग पड़ता है। किसान हिरन पर लाठी फेंकता है। लाठी झाड़ी में छिपे सियार पर जा लगती है। सियार दम तोड़ देता है।
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शिकारी, मृग और शूकर की कहानी

कल्याणकटक बस्ती में एक भैरव नामक व्याध (शिकारी) रहता था। वह एक दिन मृग को ढ़ूढ़ता- ढ़ूंढ़ता विंध्याचल की ओर गया, फिर मारे हुए मृग को ले कर जाते हुए उसने एक भयंकर शूकर को देखा। तब उस व्याध ने मृग को भूमि पर रख कर शूकर को बाण से मारा। शूकर ने भी भयंकर गर्जना करके उस व्याध के मुष्कदेश मे ऐसी टक्कर मारी कि, वह कटे पेड़ के समान जमीन पर गिर पड़ा। क्योंकि जल, अग्नि, विष, शस्र, भूख, रोग और पहाड़ से गिरना इसमें से किसी- न- किसी बहाने को पा कर प्राणी प्राणों से छूटता है। उन दोनों के पैरों की रगड़ से एक सपं भी मर गया। इसके पीछे आहार को चाहने वाले दीर्घराव नामक गीदड़ ने घूमते घूमते उन मृग, व्याध, सपं और शूकर को मरे पड़े हुए देखा और विचारा कि आहा, आज तो मेरे लिए बड़ा भोजन तैयार है। अथवा, जैसे देहधारियों को अनायास दु:ख मिलते हैं वैसे ही सुख भी मिलते हैं, परंतु इसमें प्रारब्ध बलवान है, ऐसा मानता हूँ। जो कुछ हो, इनके माँसों से मेरे तीन महीने तो सुख से कटेंगे। एक महीने को मनुष्य होगा, दो महीने को हरिण और शूकर होंगे और एक दिन को सपं होगा और आज धनुष की डोरी चाबनी चाहिये। फिर पहले भूख में यह स्वादरहित, धनुष में लगा हुआ तांत का बंधन खाउँ। यह कह कर वैसा करने पर तांत के बंधन के टूटते ही उछटे हुए धनुष से हृदय फट कर वह दीर्घराव मर गया। इसलिए कहा गया है, संचय नित्य करना चाहिये।
शास्र पढ़ कर भी मूर्ख होते हैं, परंतु जो क्रिया में चतुर हैं, वहीं सच्चा पण्डित है, जैसे अच्छे प्रकार से निर्णय की हुई औषधि भी रोगियों को केवल नाममात्र से अच्छा नहीं कर देती है। शास्र की विधि, पराक्रम से डरे हुए मनुष्य को कुछ गुण नहीं करती है, जैसे इस संसार में हाथ पर धरा हुआ भी दीपक अंधे को वस्तु नहीं दिखा सकती है। इस शेष दशा में शांति करनी चाहिये और इसे भी अधिक क्लेश तुमको नहीं मानना चाहिये। क्योंकि राजा, कुल की वधु, ब्राह्मण, मंत्री, स्तन, दंत, केश, नख और मनुष्य ये अपने स्थान से अलग हुए शोभा नहीं देते हैं। यह जान कर बुद्धिमान को अपना स्थान नहीं छोड़ना चाहिये। यह कायर पुरुष का वचन है।
क्योंकि, सिंह, सज्जन पुरुष और हाथी ये स्थान को छोड़ कर जाते हैं और काक, कायर पुरुष और मृग ये वहाँ ही नाश होते हैं। वीर और उद्योगी पुरुषों को देश और विदेश क्या है ? अर्थात जैसा देश वैसा ही विदेश। वे तो जिस देश में रहते हैं, उसी को अपने बाहु के प्रताप से जीत लेते हैं। जैसे सिंह वन में दांत, नख, पूँछ के प्रहार करता हुआ फिरता है, उसी वन में (अपने बल से) मारे हुए हाथियों के रुधिर से अपने प्यास बुझाता है। और जैसे मैण्डक कूप के पास पानी के गड्ढ़े में और पक्षी भरे हुए सरोवर को आते हैं, वैसे ही सब संपत्तियाँ अपने आप उद्योगी पुरुष के पास आती हैं।
और आए हुए सुख और दु:ख को भोगना चाहिये। क्योंकि सुख और दु:ख पहिये की तरह घुमते हैं (यानि सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख आता जाता है।) और दूसरे- उत्साही तथा आलस्यहीन, कार्य की रीति को जानने वाला, द्यूतक्रीड़ा आदि व्यसन से रहित, शूर, उपकार को मानने वाला और पक्की मित्रता वाला ऐसे पुरुष के पास रहने के लिए लक्ष्मी आप ही जाती है। 5. धूर्त गीदड़ और कर्पूरतिलक हाथी की कहानी ब्रह्मवन में कर्पूरतिलक नामक हाथी था। उसको देखकर सब गीदड़ों ने सोचा,""यदि यह किसी तरह से मारा जाए तो उसकी देह से हमारा चार महीने का भोजन होगा। उसमें से एक बूढ़े गीदड़ ने इस बात की प्रतिज्ञा की -- मैं इसे बुद्धि के बल से मार दूँगा। फिर उस धूर्त ने कर्पूरतिलक हाथी के पास जा कर साष्टांग प्रणाम करके कहा -- महाराज, कृपादृष्टि कीजिये। हाथी बोला -- तू कौन है, सब वन के रहने वाले पशुओं ने पंचायत करके आपके पास भेजा है, कि बिना राजा के यहाँ रहना योग्य नहीं है, इसलिए इस वन के राज्य पर राजा के सब गुणों से शोभायमान होने के कारण आपको ही राजतिलक करने का निश्चय किया है। जो कुलाचार और लोकाचार में निपुण हो तथा प्रतापी, धर्मशील और नीति में कुशल हो वह पृथ्वी पर राजा होने के योग्य होता है।
पहले राजा को ढ़ूंढ़ना चाहिये, फिर स्री और उसके बाद धनको ढूंढ़े, क्योंकि राजा के नहीं होने से इस दुनिया में कहाँ स्री और कहाँ से धन मिल सकता है ? राजा प्राणियों का मेघ के समान जीवन का सहारा है और मेवके नहीं बरसने से तो लोक जीता रहता है, परंतु राजा के न होने से जी नहीं सकता है। इस राजा के अधीन इस संसार में बहुधा दंड के भय से लोग अपने नियत कार्यों में लगे रहते है और न तो अच्छे आचरण में मनुष्यों का रहना कठिन है, क्योंकि दंड के ही भय से कुल की स्री दुबले, विकलांग रोगी या निर्धन भी पति को स्वीकार करती है। इस लिए लग्न की घड़ी टल जाए, आप शीघ्र पधारिये। यह कह उठ कर चला फिर वह कर्पूरतिलक राज्य के लोभ में फँस कर गीदड़ों के पीछे दौड़ता हुआ गहरी कीचड़ में फँस गया। फिर उस हाथी ने कहा -- ""मित्र गीदड़, अब क्या करना चाहिए ? कीचड़ में गिर कर मैं मर रहा हूँ। लौट कर देखो। गीदड़ ने हँस कर कहा -- ""महाराज, मेरी पूँछ का सहारा पकड़ कर उठो, जैसा मुझ सरीखे की बात पर विश्वास किया, तैसा शरणरहित दुख का अनुभव करो।
जैसा कहा गया है -- जब बुरे संगत से बचोगे तब जानो जीओगे, और जो दुष्टों की संगत में पड़ोगे तो मरोगे। फिर बड़ी कीचड़ में फँसे हुए हाथी को गीदड़ों ने खा लिया।
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पक्षी और बंदरों की कहानी

नर्मदा के तीर पर एक बड़ा सेमर का वृक्ष है।
उस पर पक्षी घोंसला बनाकर उसके भीतर, सुख से रहा करते थे। फिर एक दिन बरसात में नीले- नीले बादलों से आकाशमंडल के छा जाने पर बड़ी- बड़ी बूँदों से मूसलाधार बारिश बरसने लगा और फिर वृक्ष के नीचे बैठे हुए बंदरों को ठंडी के मारे थर थर काँपते हुए देख कर पक्षियों ने दया से विचार कहा -- अरे भाई बंदरों, सुनों :-
हमने केवल अपनी चोंचों की मदद से इकट्ठा किये हुए तिनकों से घोंसले बनाये हैं और तुम तो हाथ, पाँव आदि से युक्त हो कर भी ऐसा दुख क्यों भोग रहे हो ?
यह सुन कर बंदरों ने झुँझला कर विचारा -- अरे, पवनरहित घोंसलों के भीतर बैठे हुए सुखी पक्षी हमारी निंदा करते हैं, करने दो। जब तक वर्षा बंद हो बाद जब पानी का बरसना बंद हो गया, तब उन बंदरों ने पेड़ पर चढ़ कर सब घोंसले तोड़ डाले और उनके अंडे नीचे गिरा दिया।
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Old 02-08-2013, 11:12 AM   #137
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बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताए

उज्जयिनी नगरी में माधव नामक ब्राह्मण रहता था। उसकी ब्राह्मणी के एक बालक हुआ। वह उस बालक की रक्षा के लिये ब्राह्मण को बैठा कर नहाने के लिये गई। तब ब्राह्मण के लिए राजा का पावन श्राद्ध करने के लिए बुलावा आया। यह सुन कर ब्राह्मण ने जन्म के दरिद्री होने से सोचा कि
"जो मैं शीघ्र न गया तो दूसरा कोई सुन कर श्राद्ध का आमंत्रण ग्रहण कर लेगा। शीघ्र न किये गये लेन- देन और करने के काम का रस समय पी लेता है। परंतु बालक का यहाँ रक्षक नहीं है, इसलिये क्या कर्रूँ ? जो भी हो बहुत दिनों से पुत्र से भी अधिक पाले हुए इस नेवले को पुत्र की रक्षा के लिए रख कर जाता हूँ।
ब्राह्मण वैसा करके चला गया,
फिर वह नेवला बालक के पास आते हुए काले साँप को देखकर, उसे मार कोप से टुकड़े- टुकड़े करके खा गया।
फिर वह नेवला ब्राह्मण को आता देख लहु से भरे हुए मुख और पैर किये शीघ्र पास आ कर उसके चरणों पर लोट गया।
फिर उस ब्राह्मण ने उसे वैसा देख कर सोचा कि इसने मेरे बालक को खा लिया है। ऐसा समझ कर नेवले को मार डाला।
बाद में ब्राह्मण ने जब बालक के पास आ कर देखा तो बालक आनंद में है और सपं मरा हुआ पड़ा है। फिर उस उपकारी नेवले को देख कर मन में घबड़ा कर बड़ा दुखी हुआ।
काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार तथा मद इन छः बातों को छोड़ देना चाहिये, और इसके त्याग से ही राजा सुखी होता है।
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Old 02-08-2013, 11:12 AM   #138
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धोबी का गधा और खेतवाला

हस्तिनापुर में एक विलास नामक धोबी रहता था। उसका गधा अधिक बोझ ढ़ोने से दुबला मरासू- सा हो गया था। फिर उस धोबी ने इसे बाघ की खाल ओढ़ा कर वन के पास नाज के खेत में रख दिया।
फिर दूर से उसे देख कर और बाघ समझ, खेत वाले शीघ्र भाग जाते थे। इसके अनन्तर एक दिन कोई खेत का रखवाला धूसर रंग का कंबल ओढ़े हुए धनुष बाण चढ़ा कर शरीर को ओढ़ कर एकांत में बैठ गया।
उधर मन माना अन्न चरने से बलवान हुआ गधा, उसे देखकर गधा जान कर ढ़ेंचू- ढ़ेंचू स्वर में रेंकता हुआ उसके सामने दौड़ा। तब खेतवाले ने, रेंकने के शब्द से इसको गधा निश्चय करके सहज में ही मार डाला।
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Old 02-08-2013, 11:13 AM   #139
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हंस, कौआ और एक मुसाफिर

उज्जयिनी के मार्ग में एक पाकड़ का पेड़ था। उस पर हंस और काग रहते थे। एक दिन गरमी के समय थका हुआ, कोई मुसाफिर उस पेड़ के नीचे धनुषबाण रखकर सो गया। वहाँ थोड़ी देर में उसके मुख पर से वृक्ष की छाया ढल गई। फिर सूर्य के तेज से उसके मुख को तपता हुआ देख कर उस पेड़ पर बैठे हुए हँस ने दया विचार कर पंखों को पसार फिर उसके मुख पर छाया कर दी। फिर गहरी नींद के आनंद से उसने मुख फाड़ दिया।
बाद में पराये सुख को नहीं सहने वाला वह काब दुष्ट स्वभाव से उसके मुख में बीट करके उड़ गया। फिर जो उस बटोही ने उठ कर ऊपर जब देखा तब हंस दीख गया, उसे बाण मारा उसे बाण से मार दिया और हंस मर गया।
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Old 02-08-2013, 11:14 AM   #140
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केंकड़े की कहानी

मालव देश में पद्मगर्भ नामक एक सरोवर है। वहाँ एक बूढ़ा बगुला सामर्थ्य रहित सोच में डूबे हुए के समान अपना स्वरुप बनाये बैठा था।
तब किसी कर्कट (केंकड़े) ने उसे देखा और पूछा-- यह क्या बात है ? तुम भूखे प्यासे यहाँ क्यों बैठे हो ?
बगुला कहा -- मच्छ (मछली) मेरे जीवनमूल हैं। उन्हें धीवर आ कर मारेंगे यह बात मैंने नगर के पास सुनी है। इसलिए जीविका के न रहने से मेरा मरण ही आ पहुँचा, यह जान कर मैंने भोजन में भी अनादर कर रक्खा है।
फिर मच्छों (मछली) ने सोचा -- इस समय तो यह उपकार करने वाला ही दिखता है, इसलिए इसी से जो कुछ करना है सो पूछना चाहिये।
जैसा कहा है कि -- उपकारी शत्रु के साथ मेल करना चाहिये और अपकारी मित्र के साथ नहीं करना चाहिये, क्योंकि निश्चय करके उपकार और अपकार ही मित्र और शत्रु के लक्षण हैं।
मच्छ बोले -- हे बगुले, इसमें रक्षा का कौन सा उपाय है ?
तब बगुला बोला-- दूसरे सरोवर का आश्रय लेना ही रक्षा का उपाय है। वहाँ मैं एक- एक करके तुम सबको पहुँचा देता हूँ।
मच्छ बोले -- अच्छा, ले चला।
बाद में यह बगुला उन मच्छों को एक एक करनके ले जाकर खाने लगा।
इसके बाद कर्कट उससे बोला -- हे बगुले, मुझे भी वहाँ ले चल।
फिर अपूर्व कर्कट के माँस का लोभी बगुले ने आदर से उसे भी वहाँ ले जा कर पटपड़ में धरा।
कर्कट भी मच्छों की हड्डियों से बिछे हुए उस पड़ाव को देख कर चिंता करने लगा-- हाय मैं मन्दभागी मारा गया।
जो कुछ हो, अब समय के अनुसार उचित काम कर्रूँगा।
यह विचार कर कर्कट ने उसकी नाड़ काट डाली और बगुला मर गया।
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