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Old 04-06-2015, 11:04 PM   #141
Dark Saint Alaick
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Default Re: कुतुबनुमा

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में - 2

चैनल और बीमारी डिवेट की

इंडियन चैनल्स को डिवेट की बीमारी है। गाहे-ब-गाहे जरूरी नहीं होने पर भी वे डिवेट पर सन्नद्ध नज़र आते हैं। किन्तु हमें तकलीफ डिवेट से नहीं है। खूब करें-कराएं। तकलीफ़ तब होती है, जब एंकर शुरुआत में ही अपने चैनल के मंतव्य का संकेत अपने वक्तव्य में दे देता है और उस लाइन से हट कर बोलने वालों पर या तो व्यंग्यपूर्ण मुस्कान की बारिश करता है (संभवतः मन ही मन यह कहते हुए - अगली बार आपको बुलाना संभव नहीं है) अथवा बोलने से ही रोक कर मनपसंद वक्तव्य प्रदाता को एक सुदीर्घ भाषण की छूट दे देता है।
एक उदाहरण देता हूं। 'सबसे धीमे' चैनल पर भूमि अधिग्रहण बिल पर बहस का कार्यक्रम था। एंकर थे 'बहुत ही क्रांतिकारी' जर्नलिस्ट। कांग्रेस की तरफ से श्री दिग्विजय सिंह और बीजेपी की ओर से श्री नितिन गडकरी। शुरुआत दिग्गी बाबू ने की। शुरू हुए पंडित जवाहर लाल नेहरू से, उसके बाद इंदिराजी, राजीवजी ने ग़रीब और किसानों के लिए क्या-क्या किया, यह सब बताने के बाद समापन किया श्री राहुल गांधी इस वर्ग के कितने हितैषी हैं, इस पर। शुक्र है कि श्री नरसिम्हा राव, श्री मनमोहन सिंह आदि अपने प्रधानमंत्री उन्हें याद ही नहीं थे, अन्यथा वक्तव्य और लंबा होता।
अब बारी थी श्री गडकरी की। जैसे ही श्री गडकरी ने पंडित नेहरू की नीतियों पर सवाल खड़ा किया, 'बहुत ही क्रांतिकारी' जर्नलिस्ट फ़ौरन हस्तक्षेप कर बैठे - गडकरी जी, इतिहास में न जाएं। ऐसे तो हमारे सारे कार्यक्रम का समय इसी में निकल जाएगा।
क्या मेरी तरह आपके मन में भी सवाल उठता है - दिग्गी बाबू को इतिहास पुराण का वाचन करने की छूट किस बिना पर दी गई थी ? किन्तु स्मरण रखें, 'थर्ड डिग्री' में से एक डिग्री अपनी दाढ़ी में छुपाए ये सज्जन इस प्रश्न का जवाब देने के बजाय इसे प्रेस की स्वतंत्रता का हनन बता सकते हैं।
अब आगे चलिए, 'बहुत ही क्रांतिकारी' महाशय ने 2013 के बिल और वर्तमान एनडीए सरकार द्वारा किए गए संशोधनों की तुलना दिखानी शुरू की। पहली ही तुलना पर श्री गडकरी ने जोरदार प्रतिवाद किया। उन्होंने कहा - अरे, यह आप क्या दिखा रहे हैं? यह सब आप कहां से लाए हैं ? मेरे पास दोनों बिल हैं और उनमें यह सब कहीं नहीं है।
किन्तु 'बहुत ही क्रांतिकारी' जर्नलिस्ट पर कोई असर नहीं हुआ। वे बोले - अभी हमें दिखाने दीजिए। आप अपनी बात बाद में रखिएगा। .... और एक केन्द्रीय मंत्री की मौजूदगी में उन्होंने संदिग्ध अथवा कहूं, झूठे आंकड़े मज़े से दिखाए और केन्द्रीय मंत्री महोदय खीजते हुए देखते रहे। मैंने पूरा कार्यक्रम देखा, केन्द्रीय मंत्री महोदय को उन आंकड़ों पर सफाई का मौक़ा एक क्षण को भी नहीं दिया गया।
मेरे मन में सवाल उठता है - क्या यही वह पत्रकारिता है, जिसके लिए श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकारिता के लिए जीवन होम कर देने वाले लोगों के नाम पर हम कई पुरस्कार प्रति वर्ष उन लोगों को प्रदान करते हैं, जो इसके योग्य तो दूर, पासंग भी नहीं हैं। क्या सोचते हैं आप ?
__________________
दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
Dark Saint Alaick is offline   Reply With Quote
Old 05-06-2015, 10:23 AM   #142
rajnish manga
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Default Re: कुतुबनुमा

Quote:
Originally Posted by dark saint alaick View Post
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में - 1

देश का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अज़ब चीज़ है, विशेषकर ख़बरिया चैनल। ....
......इस ख़बरिया चैनल ने उस पर सवाल उठाने वालों से क्यों नहीं पूछा कि आप ऐसा बेतुका मुद्दा क्यों छेड़ रहे हैं ? और नहीं पूछा, तो स्वयं न्यायाधीश बन जाने की जल्दबाज़ी क्यों की ? आप सूचना देते, फैसला जनता को करने देते कि बेतुका सवाल था या जवाब ?
आप क्या सोचते हैं ?
ख़ुश'आमदीद, अलैक जी. आपने जो परिदृश्य सामने रखा उसमे कोई अतिशयोक्ति नहीं है. आम तौर पर टीवी के एंकरगण पूर्वाग्रह से ग्रस्त नज़र आते हैं और बहस जैसे जैसे आगे बढ़ती है, इसका प्रमाण भी मिलता जाता है. नतीजा यह होता है कि वे जाने-अनजाने निर्णायक की भूमिका अख्तियार कर लेते हैं.

टीवी पर आज दर्जनों न्यूज़ चैनल अपने अपने ढंग से देश की समस्याओं का हल ढूँढने में व्यस्त नज़र आते हैं. बहुत से चैनल तो नयी समस्यायें ढूँढने और उनको परोसने में ही व्यस्त रहते हैं. किसी निष्कर्ष तक पहुँचने के लिये इनके पास सबसे सरल रास्ता होता है, बहस करवाने का. यहाँ पर यह हाल होता है कि प्रतिभागी एक दूसरे का गला पकड़ने को तैयार दिखाई देते हैं. अंत में थर्ड अंपायर की तरह सूत्रधार ही सारी बहस पर निर्णय सुना देता है.

पिछली महाशिवरात्रि के अवसर पर एक मुस्लिम विद्वान् (?) ने घोषणा कर दी कि हिन्दुओं के देवता शिव जी ही मुसलमानों के पैगम्बर हैं. फिर तो हर चैनल में इसी विषय पर बहस-मुबाहिसे शुरू हो गये. मेरे कहने का अर्थ यह है कि कई बार ख़ामख्वाह के मुद्दे गढ लिए जाते हैं जिनमे कोई तंत नहीं होता.

अभी पिछले दिनों एक टीवी बहस के दौरान आप पार्टी के नेता आशुतोष बीजेपी के प्रवक्ता की बातों पर पूरा समय हँसते रहे. उन्हें एंकर ने एक बार भी ऐसा न करने से नहीं रोका. अभी कल ही एक बहस में किसी रिपोर्ट पर चर्चा चली तो बीजेपी के नुमाइंदे ने जानना चाहा कि यह रिपोर्ट किसने जारी की है तो उसे कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया गया. यदि इसी प्रकार की बे-सिर-पैर की बहस करवानी है तो उसका उद्देश्य क्या हुआ?
__________________
आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)

Last edited by rajnish manga; 05-06-2015 at 07:15 PM.
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