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Old 24-09-2012, 04:12 PM   #141
vijaysr76
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दिन और रात


सृष्टि की शुरुआत ही हुई थी। दिन और रात नाम के दो प्रेमी थे। दोनों में खूब गहरी पटती पर दोनों का स्वभाव बिल्कुल ही अलग-अलग था। रात सौंदर्य-प्रिय और आराम-पसंद थी तो दिन कर्मठ और व्यावहारिक, रात को ज़्यादा काम करने से सख़्त नफ़रत थी और दिन काम करते न थकता था। रात आराम करना, सजना-सँवरना पसंद करती थी तो दिन हरदम दौड़ते भागते रहना। रात आराम से धीरे-धीरे बादलों की लटों को कभी मुँह पर से हटाती तो कभी वापस उन्हें फिर से अपने चेहरे पर डाल लेती। कभी आसमान के सारे तारों को पिरोकर अपनी पायल बना लेती तो कभी उन्हें वापस अपनी चूनर पर टाँक लेती। लेटी-लेटी घंटों बहती नदी में चुपचाप अपनी परछाई देखती रहती। कभी चंदा-सी पूरी खिल जाती तो कभी सिकुड़कर आधी हो जाती। दूसरी तरफ़ बौखलाया दिन लाल चेहरा लिए हाँफता पसीना बहाता, हर काम जल्दी-जल्दी निपटाने की फिक्र में लगा रहता।


आमने-सामने पड़ते ही दिन और रात में हमेशा बहस शुरू हो जाती। दिन कहता काम ज़्यादा ज*रूरी है और रात कहती आराम। दोनों अपनी-अपनी दलीलें रखते, समझने और समझाने की कोशिश करते पर किसी भी नतीजे पर न पहुँच पाते। जान नहीं पाते कि उन दोनों में आखिर कौन बड़ा है, गुणी है. . .सही है या ज़्यादा महत्वपूर्ण है। हारकर दोनों अपने रचयिता के पास पहुँचे। भगवान ने दोनों की बातें बड़े ध्यान से सुनीं और कहा कि मुझे तो तुम दोनों का महत्व बिल्कुल बराबर का लगता है तभी तो मैंने तुम दोनों को ही बनाया और अपनी सृष्टि में बराबर का आधा-आधा समय दिया। गुण-अवगुण कुछ नहीं, एक ही पहलू के दो दृष्टिकोण हैं। हर अवगुण में गुण बनने की क्षमता होती है। पर रात और दिन को उनकी बात समझ में न आई और वहीं पर फिर से उनमें वही तू-तू, मैं-मैं शुरू हो गई।
हारकर भगवान ने समझाने की बजाय, थोड़े समय के लिए रात को दिन के उजाले वाली चादर दे दी और दिन को रात की अँधेरे वाली, ताकि दोनों रात और दिन बनकर खुद ही फ़ैसला कर सकें। एक दूसरे के मन में जाकर दूसरे का स्वभाव और ज़रूरतें समझ सकें। तकलीफ़ और खुशियाँ महसूस कर पाएँ। और उस दिन से आजतक सुबह बनी रात जल्दी-जल्दी अपने सारे काम निपटाती है और रात बने दिन को आराम का महत्व समझ में आने लगा है। अब वह रात को निठल्ली और आलसी नहीं कहता बल्कि थकने पर खुद भी आराम करता है। सुनते हैं अब तो दोनों में कोई बहस भी नहीं होती। दोनों ही जान जो गए हैं कि अपनों में छोटा या बड़ा कुछ नहीं होता।
इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति कम या ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं। सबके अपने-अपने काम हैं, अपनी-अपनी योग्यता और ज़रूरतें हैं। जीवन सुचारु और शांतिमय हो इसके लिए काम और आराम, दोनों का ही होना ज़रूरी है। आराम के बिना काम थक जाएगा और काम के बिना आराम परेशान हो जाएगा। अब दिन खुश-खुश सूरज के संग आराम से कर्मठता का संदेश देता है। जीवन पथ को उजागर करता है और रात चंदा की चाँदनी लेकर घर-घर जाती है, थकी-हारी दुनिया को सुख-शांति की नींद सुलाती है। हर शाम-सुबह वे दोनों आज भी अपनी-अपनी चादर बदल लेते हैं. . .प्यार से गले मिलते हैं इसीलिए तो शायद दिन और रात के वह संधि-पल जिन्हें हम सुबह और शाम के नाम से जानते हैं आज भी सबसे ज़्यादा सुखद और सुहाने लगते हैं।
कौन जाने यह विवेक का जादू है या संधि और सद्भाव का. . .या फिर उस संयम का जिसे हम प्यार से परिवार कहते हें। शायद सच में अच्छा बुरा कुछ नहीं होता प्यार और नफ़रत बस हमारी निजी ज़रूरतों का ही नाम है. . .बस हमारी अपनी परछाइयाँ हैं। पर अगर कोण बदल लो तो परछाइयाँ भी तो घट और बढ़ जाती हैं। तभी तो हम आप उनके बच्चे, जो यह मर्म समझ पाए, अपने पूर्वजों की बनाई राह पर आजतक खुश-खुश चलते हैं।
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Old 04-01-2013, 11:09 AM   #142
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सुखी होना हे तो प्रसन्न रहो




दो सन्यासी थे एक वृद्ध और एक युवा। दोनों साथ रहते थे। एक दिन महिनों बाद वे अपने मूल स्थान पर पहुंचे, जो एक साधारण सी झोपड़ी थी। जब दोनों झोपड़ी में पहुंचे। तो देखा कि वह छप्पर भी आंधी और हवा ने उड़ाकर न जाने कहां पटक दिया। यह देख युवा सन्यासी बड़बड़ाने लगा- अब हम प्रभु पर क्या विश्वास करें? जो लोग सदैव छल-फरेब में लगे रहते हैं, उनके मकान सुरक्षित रहते हैं। एक हम हैं कि रात-दिन प्रभु के नाम की माला जपते हैं और उसने हमारा छप्पर ही उड़ा दिया।
वृद्ध सन्यासी ने कहा- दुखी क्यों हो रहे हों? छप्पर उड़ जाने पर भी आधी झोपड़ी पर तो छत है ही। भगवान को धन्यवाद दो कि उसने आधी झोपड़ी को ढंक रखा है। आंधी इसे भी नष्ट कर सकती थी किंतु भगवान ने हमारी भक्ति-भाव के कारण ही आधा भाग बचा लिया।
युवा सन्यासी वृद्ध सन्यासी की बात नहीं समझ सका। वृद्ध सन्यासी तो लेटते ही निंद्रामग्न हो गया किंतु युवा सन्यासी को नींद नहीं आई।
सुबह हो गई और वृद्ध सन्यासी जाग उठा। उसने प्रभु को नमस्कार करते हुए कहा- वाह प्रभु, आज खुले आकाश के नीचे सुखद नींद आई। काश यह छप्पर बहुत पहले ही उड़ गया होता।
यह सुनकर युवा सन्यासी झुंझला कर बोला- एक तो उसने दुख दिया, ऊपर से धन्यवाद। वृद्ध सन्यासी ने हंसकर कहा- तुम निराश हो गए। इसलिए रातभर दुखी रहे। मैं प्रसन्न ही रहा। इसलिए सुख की नींद सोया।
कथा का संकेत यही है कि निराशा दुखदायी होती है। हर परिस्थिति में प्रसन्न रहकर ही हम ईश्वर के समीप पहुंच सकते हैं और शांति को उपलब्ध हो सकते हैं। यह काम किसी भी प्रार्थना से अधिक शक्तिशाली है।
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Old 04-01-2013, 11:12 AM   #143
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साहस और कर्तव्यनिष्ठा




आरुणी ऋषि अरुणी का पुत्र था। ऋषि धौम्य के आश्रम में वह कृषिविज्ञान और पशुपालन से
संबंधित विषयों का अध्ययन कर रहा था।


आरुणी ने देखा कि आश्रम की जमीन
ऊबड़-खाबड़ होने से वर्षाकाल में जमीन से बहते पानी के साथ बहुत सी मिट्टी भी बह जाती
है। इससे इस जमीन से अधिक पैदावार नहीं मिल पाती। उसने अपने गुरु से इसकी चर्चा की।
ऋषि धौम्य ने अपने शिष्य को सलाह दी कि वह जमीन को समतल करे और पानी के बहाव को
रोकने के लिए जमीन को एक बंध से घेर दे। आरुणी पूरे उत्साह से इस काम में लग गया और
कुछ ही समय में उसे पूरा कर दिया।
जब बारिश आई तो ऋषि धौम्य ने आरुणी से
कहा, “वत्स, वर्षा आरंभ हो गई है। मैं चाहता हूं कि तुम जाकर देख आओ कि जमीन के
चारों ओर का बंध सही-सलामत है कि नहीं। यदि वह कहीं पर से टूटा हो तो उसकी मरम्मत
कर दो।”
गुरु की आज्ञा शिरोधार्य मानते हुए आरुणी खेतों का मुआयना करने निकल
पड़ा। एक जगह बंध सचमुच टूटा हुआ था और वर्षा का पानी वहां से बह रहा था। बहते पानी
के वेग से बंध का और हिस्सा भी टूटने लगा था। आरुणी ने देखा कि यदि जल्द ही कुछ न
किया गया तो पूरे बंध के ही बह जाने का खतरा है। उसने आसपास की मिट्टी से बंध में
पड़ी दरार को भरने की कोशिश की, पर जब इससे कुछ फायदा नहीं हुआ, तो वह स्वयं ही दरार
के आगे लेट गया। उसके शरीर के दरार से लग जाने से पानी का बहना तो बंद हो गया, पर
सारा कीचड़ उसके शरीर से चिपकने लगा। लेकिन आरुणी ने इसकी कोई परवाह नहीं
की।
बहुत समय बीतने पर भी जब आरुणी आश्रम नहीं लौटा तो ऋषि धौम्य को चिंता
होने लगी। बरसात के रहते हुए भी कुछ शिष्यों को साथ लेकर वे आरुणी की खोज में निकल
पड़े।
आरुणी को कीचड़ से लथपथ जमीन पर लेटे देखकर वे दंग रह गए। पर उन्हें
सारी बात समझने में देर नहीं लगी। उन्होंने आरुणी को गले से लगा लिया और उसकी
प्रशंसा करते हुए बोले, “मैं तुम्हारे साहस और कर्तव्यनिष्ठा से बहुत प्रसन्न हूं।
तुमने अपनी जान की बाजी लगाकर तुम्हें सौंपा गया काम पूरा किया। ऐसी बहादुरी इस
दुनिया में बिरले ही देखने को मिलती है। दुनिया में इसी प्रकार के लोग महान कार्य करते हे”
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Old 04-01-2013, 11:13 AM   #144
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स्वामी तीर्थराम





लाहौर कालेज का प्रतिभाशाली छात्र फारसी के साथ स्नातक परीक्षा देना चाहता था ।


किसी ने जब उसे यह उलाहना दिया कि - ”तुम ब्राह्माण के बेटे हो तुम्हें संस्कृत लेकर स्नातक करना चाहिए।”
कम समय होने का बावजूद उन्होंने संस्कृत में स्नातक करने का विचार किया और निश्चय कर संस्कृत के अध्यापक को अपना विचार बताया तो उन्होंने कहाँ – “इतने कम समय में तुम संस्कृत शिक्षा ग्रहण कर सकोगे , मैं तो तुम्हें पढ़ाने की चेष्ठा करुगा पर यह कैसे सम्भव हो सकेगा। ”
तब छात्र ने कहाँ – “गुरुवर आपने शिक्षा देना स्वीकार कर लिया , मैं धन्य हो गया । मेरा प्रयास यही रहेगा कि आपको अपने निर्णय पर पछताना न पड़े। ”
इसके पश्चात वे सर्वप्रथम श्रेणी में परीक्षा उत्तीर्ण कर आगे चलकर वे ” स्वामी तीर्थराम” के नाम से प्रसिद्ध सन्त बने ।
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Old 04-01-2013, 11:15 AM   #145
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ज्ञान का खजाना




गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) में पैदा हुआ तीर्थराम असाधारण प्रतिभाशाली बालक था। न केवल पढ़ाई-लिखाई में बल्कि जीवन के और प्रसंगों में भी उसने अद्भुत योग्यता दिखाई। जो भी उससे मिलता उससे प्रभावित हुए बगैर नहीं रह पाता। हर किसी के मन में यही भाव उठता कि बड़ा होकर यह जरूर बड़ा आदमी बनेगा। तीर्थराम ने पूरे पंजाब में प्रथम स्थान पाकर एंट्रेस परीक्षा उत्तीर्ण की। लाहौर जैसे शहर में छात्रवृत्ति एवं ट्यूशन द्वारा खर्च निकालकर उसने पढ़ाई की। बी.ए. में फिर उसे प्रथम स्थान मिला।


जब तीर्थराम एम. ए. का फार्म भर रहा था तो उसके कॉलेज के अंग्रेज प्रिंसिपल ने बड़े स्नेह से पूछा, ‘क्या मैं तुम्हारा नाम इंडियन सिविल सर्विसेज (आईसीएस) की परीक्षा के लिए भेज दूं। तुम सुयोग्य हो। तुम यह परीक्षा पास करोगे और बेहतर प्रशासक बनोगे। देश की सेवा करोगे।’ तीर्थराम ने उत्तर दिया, ‘सर! मैंने यह ज्ञान का खजाना धन या उच्च पद पाने के लिए नहीं पाया। मैं इस दौलत को बांटना चाहता हूं। मैं सारा जीवन प्रभु की, मानव जाति की सेवा करूंगा।’
तीर्थराम पर स्वामी विवेकानन्द, जो उनसे दस वर्ष बड़े थे, का गहरा प्रभाव पड़ा। एक दिन तीर्थराम उत्तराखंड के जंगलों की ओर निकल गए। नारायण स्वामी से उनका साक्षात्कार हुआ और वह स्वामी रामतीर्थ के रूप में सामने आए। टेहरी नरेश के आग्रह पर स्वामी रामतीर्थ टोकियो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में गए। जापान, अमेरिका, यूरोप तथा मिस्त्र में उन्होंने व्यवाहारिक वेदांत की शिक्षा दी। सन् 1906 की दीपावली पर उन्होंने अपनी रचना ‘मौत का आह्वान’ अपने शिष्य को सौंपने के बाद तैंतीस वर्ष की अल्पायु में ही जल समाधि ले ली।
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Old 04-01-2013, 11:17 AM   #146
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किसान का खरबूज




स्वामी श्रद्धानंद अपने कुछ शिष्यों और दर्शनार्थ आए भक्तों के साथ बैठे हुए थे। भक्त अपने साथ लाए फल-फूल और मिठाइयां आदि स्वामी जी को भेंट कर रहे थे। स्वामी जी हमेशा की तरह फल काटकर उसे प्रसाद के रूप में वहां उपस्थित लोगों को बांट रहे थे। तभी एक बुजुर्ग किसान अपने खेत का एक खरबूज लेकर आया। उसने स्वामी जी से उसे खाने का अनुरोध किया। स्वामी जी ने उसका अनुरोध स्वीकार कर खरबूज को काटा और उसकी एक फांक खा ली। फिर तो उन्होंने बाकी खरबूज भी एक-एक फांक काट कर पूरा खा लिया। उनका यह व्यवहार भक्तों को थोड़ा अटपटा लगा पर वे चुप रहे। पर वह किसान काफी खुश होकर चला गया। उसके जाने के बाद एक भक्त ने पूछा- स्वामी जी, क्षमा करें। एक बात पूछना चाहता हूं। आप तो हर किसी के फल को प्रसाद की तरह बंटवा देते हैं पर ,आपने उस, किसान, के खरबूज ,को प्रसाद, की तरह, काटकर ,क्यों नहीं बांटा? स्वामी जी बोले- प्रिय भाई, अब क्या बताऊं, वह फल बहुत फीका था। किसी को भी पसंद नहीं आता। अगर मैं इसे भक्तों में बांटता तो मुझे ही अच्छा नहीं लगता और अगर उस किसान भाई के सामने ही इसे फीका कह देता तो उस बेचारे का दिल ही टूट जाता। वह बड़े प्रेम से उसे मेरे पास लाया था। उसके स्नेह का सम्मान करना आवश्यक था। खरबूजे में उसके स्नेह के अद्भुत मधुर रस को मैं अब तक अनुभव कर रहा हूं। यह सुनकर सभी भक्त स्वामी जी के प्रति श्रद्धा से भर उठे।
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Old 04-01-2013, 11:18 AM   #147
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राजा और दर्जी




स्वामी सहजानंद के भक्तों में एक दर्जी भी था। वह रोज अपने काम से समय निकालकर उनका प्रवचन सुनने जाया करता था। एक दिन उसने सोचा कि क्यों न अपने गुरु को कोई उपहार दिया जाए। उसने बड़ी मेहनत से एक अंगरखा तैयार किया। फिर बहुत सकुचाते हुए स्वामी जी को वह अंगरखा भेंट करने पहुंचा। जब वह वहां पहुंचा तो राज्य के राजा भी अपने मंत्रियों के साथ वहां स्वामी जी के दर्शन करने पहुंचे हुए थे।


दर्जी बाहर ही इंतजार करने लगा, लेकिन स्वामी जी ने उसे देख लिया और अपने पास बुला लिया। दर्जी अंगरखा लेकर गया और उसने स्वामी जी को प्रणाम कर वह अंगरखा उनके चरणों में रख दिया। वहां उपस्थित सारे लोग अंगरखा देखकर चकित रह गए। इतनी संदर कारीगरी उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी। उसे देखकर राजा की आंखें भी फटी रह गईं। उन्होंने कहा- क्या तुम मेरे लिए भी बिल्कुल ऐसा ही अंगरखा बना सकते हो? छूटते ही दर्जी ने कहा-नहीं।
सब सन्न रह गए। वहां मौजूद मंत्रियों की भौंहें तन गईं। लेकिन राजा ने सहज भाव से पूछा- ऐसा क्यों? दर्जी बोला-राजन, बिल्कुल ऐसा ही अंगरखा बनाना मेरे लिए बहुत मुश्किल है क्योंकि मेरे रोम-रोम में गुरुदेव के प्रति जो प्रीति रही है, वैसी प्रीति मैं आपके अंगरखे में नहीं ला सकता। प्रेम भाव से सामान्य वस्तु भी बड़ी मूल्यवान बन जाती है और साधारण व्यक्ति भी असाधारण बन जाता है। वैसे मैं आपके लिए भी अंगरखा बना सकता हूं, पर वह ऐसा ही होगा, नहीं कह सकता। राजा ने दर्जी की बेबाकी की तारीफ की।
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Old 04-01-2013, 11:20 AM   #148
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अनमोल उपहार




एक राजा था। उसके मंत्री के दो पुत्र थे। बड़ा वाला अल्पबुद्धि का था जबकि छोटा तीव्र बुद्धि का। राजा ने छोटे को अपना दीवान नियुक्त कर दिया, जबकि बड़े को रसोई की जिम्मेवारी दे दी। मगर वह रसोई की व्यवस्था भी ढंग से न संभाल सका। कभी खाने में देर हो जाती तो कभी भोजन बेस्वाद बनता। छोटा भाई खाने को लेकर शिकायत करता तो बड़ा भाई कहता, ‘खाना बनाना कलम चलाने जैसा आसान काम नहीं है।’ एक दिन छोटे भाई ने पूछा, ‘तो क्या आप मेरा काम कर लेंगे?’ बड़े भाई ने सरलता से कहा, ‘क्यों नहीं। जरूर करूंगा।’ इस तरह दोनों ने काम की अदला-बदली कर ली। अब बड़ा भाई दरबार जाने लगा।


एक दिन राजा ने उसे सोने की एक डिबिया देकर कहा, ‘तुम इसे मेरे मित्र राजा को देकर आना और उसका समाचार भी लेते आना।’ बड़ा भाई पड़ोसी राज्य में गया और मित्र राजा को वह डिबिया दे दी। राजा ने डिबिया खोली तो उसमें मखमल में राख पड़ी थी। इस पर वह चौंका। उसने पूछा, ‘दीवान जी, यह राख कैसी है?’ बड़ा भाई मूर्ख और घमंडी तो था ही उसने झट से कहा, ‘अगर आपने हमारे महाराज की अधीनता स्वीकार नहीं की तो आपका राज उसी तरह उड़ा दिया जाएगा जिस तरह फूंक मारने से राख उड़ जाती है।’ यह सुनकर राजा आगबबूला हो गया।
उसने बड़े भाई को कैद कर लिया। जब छोटे भाई को इसका पता चला तो वह दौड़ता हुआ वहां पहुंचा। उसने राजा से कहा, ‘आपको मेरे महाराज ने एक अनमोल उपहार भेजा था पर आपने उसकी कद नहीं की।’ राजा ने कहा, ‘उसमें तो राख है।’ इस पर छोटे भाई ने कहा, ‘हमारे महाराज ने एक यज्ञ कराया था। उसकी पूर्णाहुति पर उसकी राख को घनिष्ठ मित्र होने के कारण आपको भेजा था। इससे राज्य में शांति और समृद्धि आएगी।’ यह सुनते ही राजा ने छोटे भाई से क्षमा मांगी और बड़े भाई को मुक्त कर दिया।
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Old 04-01-2013, 11:23 AM   #149
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सहयोग की भावना




अफ्रीका में कमेराका नामक एक घमंडी राजा था। उसे अपनी बुद्धि पर बड़ा अभिमान था। उसे लगता था कि उसके जैसा समझदार शासक अफ्रीका में कोई नहीं है। लोग उसकी बातों को चुपचाप सुनते। कोई उसकी बातों का जवाब नहीं देता था क्योंकि सबको डर रहता था कि वह नाराज होकर उसका अहित न कर दे।


एक दिन वह दरबार में बैठकर डींगें हांक रहा था कि सब लोग मेरे सेवक हैं। उस समय बोकबार नामक वृद्ध ने, जो बड़ा बुद्धिमान था, उसके कथन का विरोध किया। बोकबार ने कहा- प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे का सेवक है। राजा यह सुनकर नाराज हो गया। वह बोला- तुम मुझे अपनी सेवा करने के लिए विवश कर दो तो मैं तुम्हें इनाम दूंगा। यदि तुम शाम तक मुझे अपना सेवक साबित न कर पाए तो मैं तुम्हें मार डालूंगा।
यह सुनते ही दूसरे दरबारी सहम गए। वे समझ गए कि बोकबार का अंत समय आ पहुंचा है। लेकिन बोकबार के राजा की चुनौती स्वीकार कर ली। उसके पास सहारे के लिए एक छड़ी थी। जैसे ही वह राजदरबार से बाहर निकला, एक भिखारी आ पहुंचा। उसे देख बोकबार ने राजा से निवेदन किया- मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं इस भिखारी को कुछ खाने के लिए दूं। राजा की स्वीकृति पाकर बोकबार ने दोनों हाथों से भोजन की सामग्री ली, किंतु भिखारी तक पहुंचने से पहले ही वह लड़खड़ाने लगा। छड़ी जमीन पर गिर गई और वह भी गिरने को हुआ। तब उसने राजा से छड़ी उठाने की प्रार्थना की। राजा ने बिना सोचे-समझे छड़ी उठा दी।
तब बोकबार ने हंसते हुए कहा- आपने देखा कि सज्जन लोग एक-दूसरे के सेवक होते है। व्यक्ति एक इकाई से अधिक समाज के सदस्य के रूप में बेहतर स्थिति में होता है। इसलिए परस्पर सहयोग भाव बनाएं रखना चाहिए। इस तरह बोकबार ने अपने मत की सत्यता प्रमाणित की और राजा ने प्रसन्न होकर उसे अपना मंत्री बना लिया।
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Old 04-01-2013, 11:26 AM   #150
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सोने की खेती




एक बार एक चोर चोरीकरते रंगे हाथों पकड़ा गया। उसे राजा के सामने पेश किया गया। राजा ने उसे मौत की सजा सुना दी। फांसी का दिन निश्चित कर दिया गया। उस दिन जब जल्लाद उसे लेने आए तो उसने कहा- मैं सोने की खेती करना जानता हूं। यदि मैं मर गया तो वह हुनर भी मेरे साथ ही खत्म हो जाएगा। जल्लादों ने यह खबर राजा को दी। राजा ने चोर को अपने पास बुलवाया और पूछा- बताओ कैसे की जाती है सोने की खेती? चोर बोला- महाराज, एक किलो सोने के सरसों जैसे दाने सुनार से बनवाकर मंगवा दीजिए और अपने ही राजमहल के प्रांगण में क्यारी बनाने की जगह मुझे बता दीजिए। जब तक सोने के दाने आएंगे, तब तक मैं क्यारियां तैयार कर लूंगा। चोर ने फावड़े से मिट्टी खोदी। फिर खुरपे और हाथों की सहायता से मिट्टी भुरभुरी की। इतने में सोने के दाने आ गए।


चोर ने राजा से कहा- मुझे अपने उस गुरु की बात याद आ गई जिनसे मैंने यह विद्या सीखी थी। चूंकि मैंने चोरी की है इसलिए मैं अपने हाथों से यह सोने के दाने नहीं बो सकता। सोने की खेती सिर्फ वही कर सकता है जिसने कभी चोरी या कोई गलत काम न किया हो। राजा शर्मिंदा होकर बोला- मैंने तो एक षड्यंत्र के तहत पहले राजा को मरवा कर राजगद्दी हथियाई थी, इसलिए मैं भी तो चोर हुआ। राजा ने एक-एक कर सभी मंत्रियों को बुलाया और सोने की खेती की शर्त बताई। लेकिन एक भी मंत्री ऐसा नहीं निकला जिसने कभी हेराफेरी न की हो। राजा चोर से बोला- यहां सभी चोर हैं इसलिए सोने की खेती नहीं हो सकती। राजा की बात सुनकर चोर बोला- जिस राज्य का राजा चोर हो, वहां प्रजा से ईमानदारी की अपेक्षा करना न्यायपूर्ण नहीं है। राजा ने चोर की सजा माफ कर उसे अपना सलाहकार नियुक्त कर लिया।
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