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Old 16-11-2012, 07:13 AM   #141
amol
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भरद्वाज—हां बेटा, वहां के समाचार तो मिलते रहते हैं! भरत तो अयोध्या से दूर एक गांव में कुटी बना कर रहते हैं; किन्तु शत्रुघ्न की सहायता से उन्होंने बहुत अच्छी तरह राज्य का कार्य संभाला है। परजा परसन्न है। अत्याचार का नाम भी नहीं है। किन्तु सब लोग तुम्हारे लिए अधीर हो रहे हैं। भरत तो इतने अधीर हैं कि यदि तुम्हें एक दिन की भी देर हो गयी तो शायद तुम उन्हें जीवित न पाओ।
रामचन्द्र ने उसी समय हनुमान को बुलाकर कहा—तुम अभी भरत के पास जाओ, और उन्हें मेरे आने की सूचना दो। वह बहुत घबरा रहे होंगे। मैं कल सवेरे यहां से चलूंगा। यह आज्ञा पाते ही हनुमान अयोध्या की ओर रवाना हुए और भरत का पता पूछते हुए नन्दिगराम पहुंचे। भरत ने ज्योंही यह शुभ समाचार सुना उन्हें मारे हर्ष के मूर्छा आ गयी। उसी समय एक आदमी को भेजकर शत्रुघ्न को बुलवाया और कहा—भाई, आज का दिन बड़ा शुभ है कि हमारे भाई साहब चौदह वर्ष के देश निकाले के बाद अयोध्या आ रहे हैं। नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि लोग अपनेअपने घर दीप जलायें और इस परसन्नता में उत्सव मनावें। सवेरे तुम उनके उत्सव का परबन्ध करके यहां आना। हम सब लोग भाई साहब की अगवानी करने चलेंगे। दूसरे दिन सबेरे रामचन्द्र जी भरद्वाज मुनि के आश्रम से रवाना हुए। जिस अयोधया की गोद में पले और खेले, उस अयोध्या के आज फिर दर्शन हुए। जब अयोध्या के बड़ेबड़े ऐश्वर्यशाली परासाद दिखायी देने लगे, तो रामचन्द्र का मुख मारे परसन्नता के चमक उठा। उसके साथ ही आंखों से आंसू भी बहने लगे। हनुमान से बोले—मित्र, मुझे संसार में कोई स्थान अपनी अयोध्या से अधिक पिरय नहीं। मुझे यहां के कांटे भी दूसरी जगह के फूलों से अधिक सुन्दर मालूम होते हैं। वह देखो, सरयू नदी नगर को अपनी गोद में लिये कैसा बच्चों की तरह खिला रही है। यदि मुझे भिक्षुक बनकर भी यहां रहना पड़े तो दूसरी जगह राज्य करने से अधिक परसन्न रहूंगा। अभी वह यही बातें कर रहे थे कि नीचे हाथी, घोड़ों, रथों का जुलूस दिखायी दिया। सबके आगे भरत गेरुवे रंग की चादर ओ़े, जटा ब़ाये, नंगे पांव एक हाथ में रामचन्द्र की खड़ाऊं लिये चले आ रहे थे। उनके पीछे शत्रुघ्न थे। पालकियों में कौशिल्या, सुमित्रा और कैकेयी थीं। जुलूस के पीछे अयोध्या के लाखों आदमी अच्छेअच्छे कपड़े पहने चले आ रहे थे। जुलूस को देखते ही रामचन्द्र ने विमान को नीचे उतारा। नीचे के आदमियों को ऐसा मालूम हुआ कि कोई बड़ा पक्षी पर जोड़े उतर रहा है। कभी ऐसा विमान उनकी दृष्टि के सामने न आया था। किन्तु जब विमान नीचे उतर आया, लोगों ने बड़े आश्चर्य से देखा कि उस पर रामचन्द्र, सीता और लक्ष्मण और उनके नायक बैठे हुए हैं। जयजय की हर्षध्वनि से आकाश हिल उठा।
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Old 16-11-2012, 07:14 AM   #142
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ज्योंही रामचन्द्र विमान से उतरे, भरत दौड़कर उनके चरणों से लिपट गये। उनके मुंह से शब्द न निकलता था। बस, आंखों से आंसू बह रहे थे। रामचन्द्र उन्हें उठाकर छाती से लगाना चाहते थे, किन्तु भरत उनके पैरों को न छोड़ते थे। कितना पवित्र दृश्य था! रामचन्द्र ने तो पिता की आज्ञा को मानकर वनवास लिया था, किन्तु भरत ने राज्य मिलने पर भी स्वीकार न किया, इसलिए कि वह समझते थे कि रामचन्द्र के रहते राज्य पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने राज्य ही नहीं छोड़ा, साधुओं कासा जीवन व्यतीत किया, क्योंकि कैकेयी ने उन्हीं के लिए रामचन्द्र को वनवास दिया था। वह साधुओं की तरह रहकर अपनी माता के अन्याय का बदला चुकाना चाहते थे। रामचन्द्र ने बड़ी कठिनाई से उठाया और छाती से लगा लिया। फिर लक्ष्मण भी भरत से गले मिले। उधर सीता जी ने जाकर कौशिल्या और दूसरी माताओं के चरणों पर सिर झुकाया। कैकेयी रानी भी वहां उपस्थित थीं। तीनों सासों ने सीता को आशीवार्द दिया। कैकेयी अब अपने किये पर लज्जित थीं। अब उनका हृदय रामचन्द्र और कौशिल्या की ओर से साफ हो गया था।
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Old 16-11-2012, 07:14 AM   #143
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रामचन्द्र की राजगद्दी

आज रामचन्द्र के राज्याभिषेक का शुभ दिन है। सरयू के किनारे मैदान में एक विशाल तम्बू खड़ा है। उसकी चोबें, चांदी की हैं और रस्सियां रेशम की। बहुमूल्य गलीचे बिछे हुए हैं। तम्बू के बाहर सुन्दर गमले रखे हुए हैं। तम्बू की छत शीशे के बहुमूल्य सामानों से सजी हुई है। दूरदूर से ऋषिमुनि बुलाये गये हैं। दरबार के धनीमानी और परतिष्ठित राजे आदर से बैठे हैं। सामने एक सोने का जड़ाऊ सिंहासन रखा हुआ है।
एकाएक तोपें दगीं, सब लोग संभल गये। विदित हो गया कि श्रीरामचन्द्र राज भवन से रवाना हो गये। उनके सामने घंटा और शंख बजाया जा रहा था। लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, हनुमान, सुगरीव इत्यादि पीछेपीछे चले आ रहे थे। रामचन्द्र ने आज राजसी पोशाक पहनी है और सीताजी के बनाव सिंगार की तो परशंसा ही नहीं हो सकती।
ज्योंही यह लोग तम्बू में पहुंचे, गुरु वशिष्ठ ने उन्हें हवनकुण्ड के सामने बैठाया। बराह्मण ने वेद मन्त्र पॄना आरम्भ कर दिया। हवन होने लगा। उधर राजमहल में मंगल के गीत गाये जाने लगे। हवन समाप्त होने पर गुरु वशिष्ठ ने रामचन्द्र के माथे पर केशर का तिलक लगा दिया। उसी समय तोपों ने सलामियां दागीं, धनिकों ने नजरें उपस्थिति कीं; कवीश्वरों ने कवित्त पॄना परारम्भ कर दिया। रामचन्द्र और सीताजी सिंहासन पर शोभायमान हो गये। विभीषण मोरछल झलने लगा। सुगरीव ने चोबदारों का काम संभाल लिया और हनुमान पंखा झलने लगे। निष्ठावान हनुमान की परसन्नता की थाह न थी। जिस राजकुमार को बहुत दिन पहले उन्होंने ऋष्यमूक पर्वत पर इधरउधर सीता की तलाश करते पाया था, आज उसी को सीता जी के साथ सिंहासन पर बैठे देख रहे थे। इन्हें उस उद्दिष्ट स्थान तक पहुंचाने में उन्होंने कितना भाग लिया था, अभिमानपूर्ण गौरव से वह फूले न समाते थे। भरत बड़ेबड़े थालों में मेवे, अनाज भरे बैठे हुए थे। रुपयों का ेर उनके सामने लगा था। ज्योंही रामचन्द्र और सीता सिंहासन पर बैठे, भरत ने दान देना परारम्भ कर दिया। उन चौदह वर्षों में उन्होंने बचत करके राजकोष में जो कुछ एकत्रित किया था, वह सब किसी न किसी रूप में फिर परजा के पास पहुंच गया। निर्धनों को भी अशर्फियों की सूरत दिखायी दे गयी। नंगों को शालदुशाले पराप्त हो गये और भूखों को मेवों और मिठाइयों से सन्तुष्टि हो गयी। चारों तरफ भरत की दानशीलता की धूम मच गयी। सारे राज्य में कोई निर्धन न रह गया। किसानों के साथ विशेष छूट की गयी। एक साल का लगान माफ कर दिया गया। जहगजगह कुएं खोदवा दिये गये। बन्दियों को मुक्त कर दिया गया। केवल वही मुक्त न किये गये जो छल और कपट के अभियुक्त थे। धनिकों और परतिष्ठितों को पदवियां दी गयीं और थैलियां बांटी गयीं।
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Old 16-11-2012, 07:14 AM   #144
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राम का राज्य

राज्याभिषेक का उत्सव समाप्त होने के उपरांत सुगरीव, विभीषण अंगद इत्यादि तो विदा हुए, किन्तु हनुमान को रामचन्द्र से इतना परेम हो गया था कि वह उन्हें छोड़कर जाने पर सहमत न हुए। लक्ष्मण, भरत इत्यादि ने उन्हें बहुत समझाया, किन्तु वह अयोध्या से न गये। उनका सारा जीवन रामचन्द्र के साथ ही समाप्त हुआ। वह सदैव रामचन्द्र की सेवा करने को तैयार रहते थे। बड़े से बड़ा कठिन काम देखकर भी उनका साहस मन्द न होता था।
रामचन्द्र के समय में अयोध्या के राज्य की इतनी उन्नति हुई, परजा इतनी परसन्न थी कि ‘रामराज्य’ एक कहावत हो गयी है। जब किसी समय की बहुत परशंसा करनी होती है, तो उसे ‘रामराज्य’ कहते हैं। उस समय में छोटेबड़े सब परसन्न थे, इसीलिए कोई चोरी न करता था। शिक्षा अनिवार्य थी, बड़ेबड़े ऋषि लड़कों को पॄाते थे, इसीलिए अनुचित कर्म न होते थे। विद्वान लोग न्याय करते थे इसलिए झूठी गवाहियां न बनायी जाती थीं। किसानों पर सख्ती न की जाती थी, इसलिए वह मन लगाकर खेती करते थे। अनाज बहुतायत से पैदा होता था। हर एक गांव में कुयें और तालाब खुदवा दिये गये थे, नहरें बनवा दी गयी थीं, इसलिए किसान लोग आकाशवर्षा पर ही निर्भर न रहते थे। सफाई का बहुत अच्छा परबन्ध था। खानेपीने की चीजों की कमी न थी। दूधघी विपुलता से पैदा होता था, क्योंकि हर एक गांव में साफ चरागाहें थीं, इसलिए देश में बीमारियां न थीं। प्लेग, हैजा, चेचक इत्यादि बीमारियों के नाम भी कोई न जानता था। स्वस्थ रहने के कारण सभी सुन्दर थे। कुरूप आदमी कठिनाई से मिलता था, क्योंकि स्वास्थ्य ही सुन्दरता का भेद है। युवा मृत्युएं बहुत कम होती थीं, इसलिए अपनी पूरी आयु तक जीते थे। गलीगली अनाथालय न थे, इसलिए कि देश में अनाथ और विधवायें थीं ही नहीं। उस समय में आदमी की परतिष्ठा उसके धन या परसिद्धि के अनुसार न की जाती थी, बल्कि धर्म और ज्ञान के अनुसार। धनिक लोग निर्धनों का रक्त चूसने की चिन्ता में न रहते थे, न निर्धन लोग धनिकों को धोखा देते थे। धर्म और कर्तव्य की तुलना में स्वार्थ और परयोजन को लोग तुच्छ समझते थे। रामचन्द्र परजा को अपने लड़के की तरह मानते थे। परजा भी उन्हें अपना पिता समझती थी। घरघर यज्ञ और हवन होता था।
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Old 16-11-2012, 07:14 AM   #145
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रामचन्द्र केवल अपने परामर्शदाताओं ही की बातें न सुनते थे। वह स्वयं भी परायः वेश बदलकर अयोध्या और राज्य के दूसरे नगरों में घूमते रहते थे। वह चाहते थे कि परजा का ठीकठीक समाचार उन्हें मिलता रहे। ज्योंही वह किसी सरकारी पदाधिकारी की बुराई सुनते, तुरन्त उससे उत्तर मांगते और कड़ा दण्ड देते। सम्भव न था कि परजा पर कोई अत्याचार करे और रामचन्द्र को उसकी सूचना न मिले। जिस बराह्मण को धन की ओर झुकते देखते, तुरन्त उसका नाम वैश्यों में लिखा देते। उनके राज्य में यह सम्भव न था कि कोई तो धन और परतिष्ठा दोनों ही लूटे, और कोई दोनों में से एक भी न पाये।
कई साल इसी तरह बीत गये। एक दिन रामचन्द्र रात को अयोध्या की गलियों में वेश बदले घूम रहे थे कि एक धोबी के घर में झगड़े की आवाज सुनकर वे रुक गये और कान लगाकर सुनने लगे। ज्ञात हुआ कि धोबिन आधी रात को बाहर से लौटी है और उसका पति उससे पूछ रहा है कि तू इतनी रात तक कहां रही। स्त्री कह रही थी, यहीं पड़ोस में तो काम से गयी थी। क्या कैदी बनकर तेरे घर में रहूं? इस पर पति ने कहा—मेरे पास रहेगी तो तुझे कैदी बनकर ही रहना पड़ेगा, नहीं कोई दूसरा घर ूंढ़ ले। मैं राजा नहीं हूं कि तू चाहे जो अवगुण करे, उस पर पर्दा पड़ जाय। यहां तो तनिक भी ऐसीवैसी बात हुई तो विरादरी से निकाल दिया जाऊंगा। हुक्कापानी बन्द हो जायगा। बिरादरी को भोज देना पड़ जायगा। इतना किसके घर से लाऊंगा। तुझे अगर सैरसपाटा करना है, तो मेरे घर से चली जा। इतना सुनना था कि रामचन्द्र के होश उड़ गये। ऐसा मालूम हुआ कि जमीन नीचे धंसी जा रही है। ऐसेऐसे छोटे आदमी भी मेरी बुराई कर रहे हैं! मैं अपनी परजा की दृष्टि में इतना गिर गया हूं! जब एक धोबी के दिल में ऐसे विचार पैदा हो रहे हैं तो भले आदमी शायद मेरा छुआ पानी भी न पियें। उसी समय रामचन्द्र घर की ओर चले और सारी रात इसी बात पर विचार करते रहे। कुछ बुद्धि काम न करती थी कि क्या करना चाहिए! इसके सिवा कोई युक्ति न थी कि सीता जी को अपने पास से अलग कर दें। किन्तु इस पवित्रता की देवी के साथ इतनी निर्दयता करते हुए उन्हें आत्मिक दुःख हो रहा था।
सबेरे रामचन्द्र ने तीनों भाइयों को बुलवाया और रात की घटना की चचार करके उनकी सलाह पूछी। लक्ष्मण ने कहा—उस नीच धोबी को फांसी दे देनी चाहिए, जिसमें कि फिर किसी को ऐसी बुराई करने का साहस न हो।
शत्रुघ्न ने कहा—उसे राज्य से निकाल दिया जाय। उसकी बदजवानी की यही सजा है। भरत बोले—बकने दीजिए। इन नीच आदमियों के बकने से होता ही क्या है। सीता से अधिक पवित्र देवी संसार में तो क्या, देवलोक में भी न होगी।
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Old 16-11-2012, 07:15 AM   #146
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लक्ष्मण ने जोश से कहा—आप क्या कहते हैं, भाई साहब! इन टके के आदमियों को इतना साहस कि सीता जी के विषय में ऐसा असन्टोष परकट करें? ऐसे आदमी को अवश्य फांसी देनी चाहिए। सीता जी ने अपनी पवित्रता का परमाण उसी समय दे दिया जब वह चिता में कूदने को तैयार हो गयीं।
रामचन्द्र ने देर तक विचार में डूबे रहने के बाद सिर उठाया और बोले—आप लोगों ने सोचकर परामर्श नहीं दिया। क्रोध में आ गये। धोबी को मार डालने से हमारी बदनामी दूर न होगी, बल्कि और भी फैलेगी। बदनामी को दूर करने का केवल एक इलाज है, और वह है कि सीताजी का परित्याग कर दिया जाय। मैं जानता हूं कि सीता लज्जा और पवित्रता की देवी हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि उन्होंने स्वप्न में भी मेरे अतिरिक्त और किसी का ध्यान नहीं किया, किन्तु मेरा विश्वास जब परजा के दिलों में विश्वास नहीं पैदा कर सकता, तो उससे लाभ ही क्या। मैं अपने वंश में कलंक लगते नहीं देख सकता। मेरा धर्म है कि परजा के सामने जीवन का ऐसा उदाहरण उपस्थित करुं जो समाज को और भी ऊंचा और पवित्र बनाये। यदि मैं ही लोकनिन्दा और बदनामी से न डरुंगा तो परजा इसकी कब परवाह करेगी और इस परकार जनसाधारण को सीधे और सच्चे मार्ग से हट जाना सरल हो जायगा। बदनामी से ब़कर हमारे जीवन को सुधारने की कोई दूसरी ताकत नहीं है। मैंने जो युक्ति बतलायी, उसके सिवाय और कोई दूसरी युक्ति नहीं है।
तीनों भाई रामचन्द्र का यह वार्तालाप सुनकर गुमसुग हो गये। कुछ जवाब न दे सके। हां, दिल में उनके बलिदान की परशंसा करने लगे। वह जानते हैं कि सीता जी निरपराध हैं, फिर भी समाज की भलाई के विचार से अपने हृदय पर इतना अत्याचार कर रहे हैं। कर्तव्य के सामने, परजा की भलाई के समाने इन्हें उसकी भी परवाह नहीं है, जो इन्हें दुनिया में सबसे पिरय है। शायद यह अपनी बुराई सुनकर इतनी ही तत्परता से अपनी जान दे देते। रामचन्द्र ने एक क्षण के बाद फिर कहा—हां, इसके सिवा अब कोई दूसरी युक्ति नहीं है। आज मुझे एक धोबी से लज्जित होना पड़ रहा है मैं इसे सहन नहीं कर सकता। भैया लक्ष्मण, तुमने बड़े कठिन अवसरों पर मेरी सहायता की है यह काम भी तुम्हीं को करना होगा। मुझसे सीता से बात करने का साहस नहीं है, मैं उनके सामने जाने का साहस नहीं कर सकता। उनके सामने जाकर मैं अपने राष्ट्रीय कर्तव्य से हट जाऊंगा, इसलिए तुम आज ही सीता जी को किसी बहाने से लेकर चले जाओ। मैं जानता हूं कि निर्दयता करते हुए तुम्हारा हृदय तुमको कोसेगा; किन्तु याद रक्खो, कर्तव्य का मार्ग कठिन है। जो आदमी तलवार की धार पर चल सके, वहीं कर्तव्य के रास्ते पर चल सकता है।
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Old 16-11-2012, 07:15 AM   #147
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यह आज्ञा देकर रामचन्द्रजी दरबार में चले गये। लक्ष्मण जानते थे कि यदि आज रामचन्द्र की आज्ञा का पालन न किया गया तो वह अवश्य आत्महत्या कर लेंगे। वह अपनी बदनामी कदापि नहीं सह सकते। सीता जी के साथ छल करते हुए उनका हृदय उनको धिक्कार रहा था, किन्तु विवश थे। जाकर सीता जी से बोले—भाभी ! आप जंगलों की सैर का कई बार तकाजा कर चुकी हैं, मैं आज सैर करने जा रहा हूं। चलिये, आपको भी लेता चलूं।
बेचारी सीता क्या जानती थीं कि आज यह घर मुझसे सदैव के लिए छूट रहा है! मेरे स्वामी मुझे सदैव के लिए वनवास दे रहे हैं! बड़ी परसन्नता से चलने को तैयार हो गयीं। उसी समय रथ तैयार हुआ, लक्ष्मण और सीता उस पर बैठकर चले। सीता जी बहुत परसन्न थीं। हर एक नयी चीज को देखकर परश्न करने लगती थीं, यह क्या है, वह क्या चीज है? किन्तु लक्ष्मण इतने शोकगरस्थ थे कि हूंहां करके टाल देते थे। उनके मुंह से शब्द न निकलता था। बातें करते तो तुरंत पर्दा खुल जाता, क्योंकि उनकी आंखों में बारबार आंसू भर आते थे। आखिर रथ गंगा के किनारे जा पहुंचा।
सीताजी बोलीं—तो क्या हम लोग आज जंगलों ही में रहेंगे? शाम होने को आयी, अभी तो किसी ऋषिमुनि के आश्रम में भी नहीं गयी। लौटेंगे कब तक?
लक्ष्मण ने मुंह फेरे हुए उत्तर दिया—देखिये, कब तक लौटते हैं। मांझी को ज्योंही रानी सीता के आने की सूचना मिली, वह राज्य की नाव खेता हुआ आया। सीता रथ से उतरकर नाव में जा बैठीं, और पानी से खेलने लगीं। जंगल की ताजी हवा ने उन्हें परफुल्लित कर दिया था।
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Old 16-11-2012, 07:15 AM   #148
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सीतावनवास

नदी के पार पहुंचकर सीताजी की दृष्टि एकाएक लक्ष्मण के चेहरे पर पड़ी तो देखा कि उनकी आंखों से आंसू बह रहे हैं। वीर लक्ष्मण ने अब तक तो अपने को रोका था, पर अब आंसू न रुक सके। मैदान में तीरों को रोकना सरल है, आंसू को कौन वीर रोक सकता है !
सीताजी आश्चर्य से बोलीं—लक्ष्मण, तुम रो क्यों रहे हो? क्या आज वन को देखकर फिर बनवास के दिन याद आ रहे हैं ?
लक्ष्मण और भी फूटफूटकर रोते हुए सीता जी के पैरों पर गिर पड़े और बोले—नदी देवी! इसलिए कि आज मुझसे अधिक भाग्यहीन, निर्दय पुरुष संसार में नहीं। क्या ही अच्छा होता, मुझे मौत आ जाती। मेघनाद की शक्ति ही ने काम तमाम कर दिया होता तो आज यह दिन न देखना पड़ता। जिस देवी के दर्शनों से जीवन पवित्र हो जाता है, उसे आज मैं वनवास देने आया हूं। हाय! सदैव के लिए !
सीताजी अब भी कुछ साफसाफ न समझ सकीं। घबराकर बोलीं—भैया, तुम क्या कह रहे हो, मेरी समझ में नहीं आता। तुम्हारी तबीयत तो अच्छी है? आज तुम रास्ते पर उदास रहे। ज्वर तो नहीं हो आया ?
लक्ष्मण ने सीता जी के पैरों पर सिर रगड़ते हुए—माता! मेरा अपराध क्षमा करो। मैं बिल्कुल निरपराध हूं। भाई साहब ने जो आज्ञा दी है, उसका पालन कर रहा हूं। शायद इसी दिन के लिए मैं अब तक जीवित था। मुझसे ईश्वर को यही बधिक का काम लेना था। हाय!
सीता जी अब पूरी परिस्थिति समझ गयीं। अभिमान से गर्दन उठाकर बोलीं—तो क्या स्वामी जी ने मुझे वनवास दे दिया है ? मेरा कोई अपराध, कोई दोष ? अभी रात को नगर में भरमण करने के पहले वह मेरे ही पास थे। उनके चेहरे पर क्रोध का निशान तक न था। फिर क्या बात हो गई ? साफसाफ कहो, मैं सुनना चाहती हूं ! और अगर सुनने वाला हो तो उसका उत्तर भी देना चाहती हूं।
लक्ष्मण ने अभियुक्तों की तरह सिर झुकाकर कहा—माता! क्या बतलाऊं, ऐसी बात है जो मेरे मुंह से निकल नहीं सकती। अयोध्या में आपके बारे में लोग भिन्नभिन्न परकार की बात कह रहे हैं। भाई साहब को आप जानती हैं, बदनामी से कितना डरते हैं। और मैं आपसे क्या कहूं। सीता जी की आंखों में न आंसू थे, न घबराहट, वह चुपचाप टकटकी लगाये गंगा की ओर देख रही थीं, फिर बोलीं—क्या स्वामी को भी मुझ पर संदेह है?
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Old 16-11-2012, 07:15 AM   #149
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लक्ष्मण ने जबान को दांतों से दबाकर कहा—नहीं भाभी जी, कदापि नहीं। उन्हें आपके ऊपर कण बराबर भी सन्देह नहीं है। उन्हें आपकी पवित्रता का उतना ही विश्वास है, जितना अपने अस्तित्व का। यह विश्वास किसी परकार नहीं मिट सकता, चाहे सारी दुनिया आप पर उंगली उठाये। किन्तु जनसाधारण की जबान को वह कैसे रोक सकते हैं। उनके दिल में आपका जितना परेम है, वह मैं देख चुका हूं। जिस समय उन्होंने मुझे यह आज्ञा दी है, उनका चेहरा पीला पड़ गया था, आंखों से आंसू बह रहे थे; ऐसा परतीत हो रहा था कि कोई उनके सीने के अन्दर बैठा हुआ छुरियां मार रहा है। बदनामी के सिवा उन्हें कोई विचार नहीं है, न हो सकता है। सीता जी की आंखों से आंसू की दो बड़ीबड़ी बूंदें टपटप गिर पड़ीं। किन्तु उन्होंने अपने को संभाला और बोलीं—प्यारे लक्ष्मण, अगर यह स्वामी का आदेश है तो मैं उनके सामने सिर झुकाती हूं। मैं उन्हें कुछ नहीं कहती। मेरे लिए यही विचार पयार्प्त है कि उनका हृदय मेरी ओर से साफ है। मैं और किसी बात की चिन्ता नहीं करती। तुम न रोओ भैया, तुम्हारा कोई दोष नहीं, तुम क्या कर सकते हो। मैं मरकर भी तुम्हारे उपकारों को नहीं भूल सकती। यह सब बुरे कर्मों का फल है, नहीं तो जिस आदमी ने कभी किसी जानवर के साथ भी अन्याय नहीं किया, जो शील और दया का देवता है, जिसकी एकएक बात मेरे हृदय में परेम की लहरें पैदा कर देती थी, उसके हाथों मेरी यह दुर्गति होती? जिसके लिए मैंने चौदह साल रोरोकर काटे, वह आज मुझे त्याग देता? यह सब मेरे खोटे कर्मों का भोग है। तुम्हारा कोई दोष नहीं। किन्तु तुम्हीं दिल में सोचो, क्या मेरे साथ यह न्याय हुआ है? क्या बदनामी से बचने के लिए किसी निर्दोष की हत्या कर देना न्याय है? अब और कुछ न कहूंगी भैया, इस शोक और क्रोध की दशा में संभव है मुंह से कोई ऐसा शब्द निकल जाय, जो न निकलना चाहिए। ओह! कैसे सहन करुं? ऐसा जी चाहता है कि इसी समय जाकर गंगा में डूब मरुं! हाय! कैसे दिल को समझाऊं? किस आशा पर जीवित रहूं; किसलिए जीवित रहूं? यह पहाड़सा जीवन क्या रोरोकर काटूं? स्त्री क्या परेम के बिना जीवित रह सकती है? कदापि नहीं। सीता आज से मर गयी।
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Default Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद

गंगा के किनारे के लम्बेलम्बे वृक्ष सिर धुन रहे थे। गंगा की लहरें मानो रो रही थीं ! अधेरा भयानक आकृति धारण किये दौड़ा चला आता था। लक्ष्मण पत्थर की मूर्ति बने; निश्चल खड़े थे मानो शरीर में पराण ही नहीं। सीता दोतीन मिनट तक किसी विचार में डूबी रहीं, फिर बोलीं—नहीं वीर लक्ष्मण; अभी जान न दूंगी। मुझे अभी एक बहुत बड़ा कर्तव्य पूरा करना है। अपने बच्चे के लिए जिऊंगी। वह तुम्हारे भाई की थाती है। उसे उनको सौंपकर ही मेरा कर्तव्य पूरा होगा। अब वही मेरे जीवन का आधार होगा। स्वामी नहीं हैं, तो उनकी स्मृति ही से हृदय को आश्वासन दूंगी! मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है। अपने भाई से कह देना, मेरे हृदय में उनकी ओर से कोई दुर्भावना नहीं है। जब तक जिऊंगी, उनके परेम को याद करती रहूंगी। भैया! हृदय बहुत दुर्बल हो रहा है। कितना ही रोकती हूं, पर रहा नहीं जाता। मेरी समझ में नहीं आता कि जब इस तपोवन के ऋषिमुनि मुझसे पूछेंगे; तेरे स्वामी ने तुझे क्यों वनवास दिया है; तो क्या कहूंगी। कम से कम तुम्हारे भाई साहब को इतना तो बतला ही देना चाहिए था। ईश्वर की भी कैसी विचित्र लीला है कि वह कुछ आदमियों को केवल रोने के लिए पैदा करता है। एक बार के आंसू अभी सूखने भी न पाये थे कि रोने का यह नया सामान पैदा हो गया। हाय! इन्हीं जंगलों में जीवन के कितने दिन आराम से व्यतीत हुए हैं। किन्तु अब रोना है और सदैव के लिए रोना है। भैया, तुम अब जाओ। मेरा विलाप कब तक सुनते रहोगे ! यह तो जीवन भर समाप्त न होगा। माताओं से मेरा नमस्कार कह देना! मुझसे जो कुछ अशिष्टता हुई हो उसे क्षमा करें। हां, मेरे पाले हुए हिरन के बच्चों की खोजखबर लेते रहना। पिंजरे में मेरा हिरामन तोता पड़ा हुआ है। उसके दानेपानी का ध्यान रखना। और क्या कहूं ! ईश्वर तुम्हें सदैव कुशल से रखे। मेरे रोनेधोने की चचार अपने भाई साहब से न करना। नहीं शायद उन्हें दुःख हो। तुम जाओ। अंधेरा हुआ जाता है। अभी तुम्हें बहुत दूर जाना है। लक्ष्मण यहां से चले, तो उन्हें ऐसा परतीत हो रहा था कि हृदय के अन्दर आगसी जल रही है। यह जी चाहता था कि सीता जी के साथ रह कर सारा जीवन उनकी सेवा करता रहूं। पगपग, मुड़मुड़कर सीता जी को देख लेते थे। वह अब तक वहीं सिर झुकाये बैठी हुई थीं। जब अंधेरे ने उन्हें अपने पर्दे में छिपा लिया तो लक्ष्मण भूमि पर बैठ गये और बड़ी देर तक फूटफूटकर रोते रहे। एकाएक निराशा में एक आशा की किरण दिखायी दी! शायद रामचन्द्र ने इस परश्न पर फिर विचार किया हो और वह सीता जी को वापस लेने को तैयार हों। शायद वह फिर उन्हें कल ही यह आज्ञा दें कि जाकर सीता को लिवा लाओ। इस आशा ने खिन्न और निराश लक्ष्मण को बड़ी सान्त्वना दी। वह वेग से पग उठाते हुए नौका की ओर चले।
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