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Old 01-12-2012, 08:56 AM   #141
ravi sharma
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सर्वशक्ति आत्मा निष्किञ्चन भी और किञ्चन भी और शून्य भी वही है जो वाणी से कहा नहीं जाता | उस अवस्था में ज्ञानी स्थित है | हे बधिक! ज्ञानवान् को प्रत्यक्ष करके अनुभवरूप ही भासता है जैसे स्वप्ने में जीव और ईश्वर भिन्न-भिन्न भासते हैं और उपाधि करके अनुभवभेद भासता है-वास्तव में कुछ भेद नहीं, तैसे ही जाग्रत् में अज्ञान उपाधि से भेद भासता है पर स्वरूप से आत्मा एकरूप है और जब अज्ञान निवृत्त होता है तब सर्व आत्मरूप ही भासता है | हे वधिक! सर्व जगत् अपना स्वरूप है परन्तु अज्ञान से भेद होता है, जब आपको जाने तब द्वैतभेद भी मिट जावे | जैसे किसी पुरुष ने अपनी भुजा पर सिंह की मूर्ति लिखी हो और उसके भय से दौड़ता फिरे और कष्ट पावे तो वह प्रमाद से भयवान् होता है, क्योंकि वह तो अपना ही अंग है और अपने अंग के जाने से भय मिट जाता है, तैसे ही स्वरूप के ज्ञान से जगत्-भय मिट जाता है | जैसे स्वप्ने में अज्ञान से नानात्व भासता है पर बना कुछ नहीं, तैसे ही जाग्रत् में नानात्व भासता है परन्तु बना कुछ नहीं | जब मनुष्य अन्तर्मुख होता है तब बोध की दृढ़ता हो आती है | जैसे प्रातःकाल को ज्यों-ज्यों सूर्य की किरणें प्रकट होती हैं त्यों-त्यों सूर्यमुखी कमल खिलते हैं, तैसे ही ज्यों ज्यों मनुष्य अन्त र्मुख होता है त्यों-त्यों बोध खिलता है | विषयों से वैराग्य और आत्मा के अभ्यास से बुद्धि अन्तर्मुख होकर आत्मपद की प्राप्ति होती है तब आत्मा सर्व एकरस भासता है |
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है।
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Old 01-12-2012, 08:58 AM   #142
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मुनीश्वर बोले, हे वधिक! तब मैंने उसकी सुषुप्ति से जागकर जगत् को देखा-जैसे कोई पुरुष समुद्र से निकल आवे जैसे संकल्प सृष्टि फुर आवें, जैसे आकाश में बादल फुरते हैं और वृक्ष से फल निकल आते हैं, तैसे ही उसकी सुषुप्ति से सृष्टि निकल आई-मानो आकाश से उड़ आई वा मानो कल्पवृक्ष से चिन्तामणि निकल आई है | जैसे शरीर के रोम खड़े हो आते हैं, जैसे गम्धर्वनगर फुरि आता है, अथवा जैसे पृथ्वी अंकुर निकल आता है, तैसे ही सृष्टि फुरि आई | जैसे भीत पर पुतलियाँ लिखी हों और जैसे थम्भ में पुतलियाँ हों, तैसे ही मैंने सृष्टि को देखा | जैसे थम्भे में पुतलियाँ निकली नहीं परन्तु शिल्पी कल्पता है कि इतनी पुतलियाँ निकलेंगी, तैसे ही अनहोनी सृष्टि आत्मरूपी थम्भ से निकल आती है | आत्मरूपी माटी से पदार्थरूपी बासन निकलते हैं परन्तु यह आश्चर्य है कि आकाश में चित्र होते हैं और निराकार चैतन्य आकाश में पुतलियाँ मनुष्य कल्पता है |
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Old 01-12-2012, 08:58 AM   #143
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हे वधिक! जैसे आकाश में मकड़ी के समूह निकल आते हैं, तैसे ही शून्याकाश से सृष्टि निकल उस पुरुष के हृदय में मुझको स्पष्ट भासने लगी | देश काल क्रिया और द्रव्य से अकस्मात् सत्यासत्य पदार्थ भासने लगते हैं और असत्य पदार्थ सत्य हो भासते हैं | जैसे मणि मन्त्र औषधद्रव के बल से असत्य पदार्थ सत्य हो भासने लगते हैं और सत्य पदार्थ असत्य भासते हैं, तैसे ही अभ्यास के बल से मुझको उस पुरुष के हृदय में सृष्टि भासने लगी | हे वधिक! जैसे निश्चय संवित् में दृढ़ होता है तैसा ही रूप होकर भासता है, वास्तव में न कोई पदार्थ है, न भीतर है, न बाहर है, न जाग्रत है, न स्वप्न है और न सुषुप्ति है, यह सब सृष्टि इसके भीतर ही स्थित है और प्रमाददोष से बाहर से उत्पन्न होते देखता है | जैसे स्वप्न में सब पदार्थ अपने भीतर-बाहर होते भासते हैं तैसे ही ये पदार्थ अपने भीतर से बाहर फुरते भासते हैं
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Old 01-12-2012, 08:58 AM   #144
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हे वधिक! यह जगत् जो आकारसंयुक्त दृष्टि आता है सो सब निराकार है और कुछ बना नहीं ब्रह्मसत्ता ही अज्ञान से जगत्-रूप हो भासती है, जो ज्ञानवान् पुरुष हैं उनको जगत् सत्य-असत्य कुछ नहीं भासता केवल ब्रह्मसत्ता ही अपने आपमें स्थित भासती है और जो अज्ञानी हैं उनको भिन्न-भिन्न नाम रूप भासता है | जब चित्त की वृत्ति वाह्य फुरती है उसको जाग्रत् कहते हैं, जब अन्तर फुरती है तब उसको स्वप्न कहते हैं और जब स्थिर होती है तब उसको सुषुप्ति कहते हैं, तो एक ही चित्तवृत्ति के तीन पर्याय हुए कुछ वास्तव से नहीं | जगत् के आदि शुद्ध केवल आत्मसत्ता थी और उसमें जब चित्तसंवित् फुरी तब जगत् रूप भासने लगी और किसी कारण जगत् उपजा नहीं | जिसका कारण कोई नहीं उसको असत्य जानिये-वास्तव में कुछ बना नहीं सर्वजगत् शान्तरूप ब्रह्म ही है |
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Old 01-12-2012, 08:59 AM   #145
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वधिक बोला, हे मुनीश्वर! प्रलय के अन्तर तुमको क्या अनुभव हुआ था? मुनीश्वर बोले, हे वधिक! तब मुझको उसके भीतर सृष्टि फुर आई और अपने पुत्र, कलत्र, स्त्री आदि सम्पूर्ण कुटुम्ब भासि आये | उनको देखकर मुझको मनत्व फुर आया और पूर्व की स्मृति भूल गई | अपनी षोडशवर्ष की आयु भासी और गृहस्थाश्रम में स्थित हुआ तब राग-द्वेषसहित मुझको जीव के धर्म फुर आये, क्योंकि दृढ़ बोध मुझको न हुआ था | हे वधिक! जब दृढ़ बोध होता है तब राग-द्वेषादिक जीव धर्म चला नहीं सकते और संसार को सत्य जानकर कोई वासना नहीं होती उसी कारण चलायमान नहीं होता | जिसको बोध की दृढ़ता नहीं हुई उसको जगत् की वासना खैंच ले जाती है | हे बधिक! अब मुझको दृढ़बोध हुआ है | इस वासना को तरना महाकठिन है, यह पिशाचिनी महाबली है, क्योंकि चिरकाल से दृश्य का अभ्यास हुआ इस कारण चला ले जाती है |
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Old 01-12-2012, 08:59 AM   #146
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जब सत्शास्त्र का विचार और सन्तों का संग जीव को प्राप्त होता है और अभ्यास दृढ़ होता है तब दृश्य का सद्भाव निवृत्त हो जाता है | जबतक यह मोक्ष का उपाय नहीं प्राप्त होता तब तक वह भ्रम दृढ़ रहता है और जब सन्तों के संग और सत््शास्त्रों के विचार से यह विचार उपजते हैं कि `मैं कौन हूँ' और यह जगत् क्या है' और इसको विचारकर आत्मपद का दृढ़ अभ्यास होता है तब दृश्यभ्रम मिट जाता है, क्योंकर असम्यक््ज्ञान से जगत् सत् भासित हुआ है, जब सम्यक्ज्ञान हुआ तब जगत् का सद्भाव कैसे रहे | जैसे आकाश में नीलता, बाजीगर की बाजी और रस्सी में सर्प भ्रम से भासते हैं तैसे ही आत्मा में जगत् भ्रम से भासता है | जब प्राणी अपने स्वरूप में जागता है तब जगत््भ्रम मिट जाता है- पर जबतक स्वरूप में नहीं जागता तबतक जगत््भ्रम नहीं मिटता | बधिक बोला, हे मुनीश्वर जगत्भ्रम यह तुम सत्य कहते हो कि जगत््भ्रम मिटना कठिन है | मैं तुम्हारे मुख से बारम्बार सुनता हूँ और बिचारता हूँ और पदपदार्थ का ज्ञान भी मुझको दृढ़ हो गया है परन्तु संसारभ्रम नष्ट नहीं होता |
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यह मैं जानता और सुनता हूँ कि सन्तों के संग और सत्शास्त्रो के विचार बिना शान्ति नहीं होती पर यह संशय मुझको होता है कि तुम जाग्रत् को स्वप्नवत् कैसे कहते हो? कई पदार्थ सत्य भासते हैं और कई असत्य भासते हैं | मुनीश्वर बोले, हे बधिक! यह सर्वजगत् पृथ्वी आदिक पदार्थ सत्य भासते हैं और शशे के सींग आदिक असत्य भासते हैं सो सब मिथ्या हैं जैसे स्वप्ने में सत्य-असत्य पदार्थ भासते हैं सो सर्व असत्य हैं, तैसे ही यह जगत् असत्य है पर उसमें अल्प और चिरकाल की प्रतीति का भेद है | जाग्रत चिरकाल की प्रतीति है उसमें पदार्थ सत्य भासते हैं और स्वप्ना अल्पकाल की प्रतीति है इससे स्वप्ने के पदार्थ असत्य भासते हैं परन्तु दोनों भ्रमरूप और असत्य हैं इस कारण मैं तुल्य- कहता हूँ | असत्य ही पदार्थ भ्रम से सत्य की नाईं भासते हैं और यह सर्व जगत् स्वप्नमात्र है उसमें सत्य और असत्य क्या कहूँ | जैसे स्वप्न में कई पदार्थ सत्य और कई असत्य भासते हैं पर सब ही असत्य हैं, तैसे ही जाग्रत् में कई पदार्थ सत्य भासते और कई असत्य भासते हैं परन्तु दोनों भ्रममात्र हैं इसी से असत्य हैं | हे वधिक! प्रतीति का भेद है, पदार्थोंमें भेद कुछ नहीं |
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Old 01-12-2012, 08:59 AM   #148
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जिसमें प्रतीति दृढ़ हो रही है उसको सत्य कहते हैं और जिसमें प्रतीति दृढ़ नहीं उसको असत्य कहते हैं | एक ऐसे पदार्थ हैं कि स्वप्ने में उनकी भावना दृड़ हो गई है सो जाग्रत् में भी प्रत्यक्ष भासते हैं और मनोराज की दृढ़ता जाग्रत््रूप हो जाती है सो भावना ही की दृढ़ता है और भेद नहीं | जिसमें भावना दृढ़ हो गई है वह सत्य भासने लगा है जो ज्ञानवान् पुरुष हैं उनको जगत् संकल्पमात्र ही भासता है संकल्प से भिन्न जगत् का कुछ रूप नहीं तो उनमें मैं सत्य और असत्य क्या कहूँ? सब जगत् भ्रममात्र है, जो ज्ञानवान् हैं उनको सत्य-असत्य कुछ नहीं सब ज्ञानरूप ही भासता है | जैसे जिसको स्वप्ने में जाग्रत् की स्मृति आई है उसको फिर स्वप्ना नहीं भासता है, तैसे ही जिसको स्वप्न में भी स्वरूपका बोध हुआ है वह फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता | इससे न कोई जाग्रत् है, न कोई स्वप्ना है और न कोई नेति है, क्योंकि नेति भी कुछ और वस्तु नहीं | जैसे स्वप्ने में नाना प्रकार के पदार्थ भासते हैं और उनकी मर्यादा नेति भी भासती है तो वह नेति किससे है? सब ज्ञानरूप होती है, तैसे ही जाग्रत् में भी सब ज्ञानरूप है और संवित् के फुरने से नाना प्रकार के पदार्थ भासते हैं और उसमें नेति भी भासती है, इससे न कोई जगत् और न कोई नेति है |
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Old 01-12-2012, 09:00 AM   #149
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इसका कारण कोई नहीं, कारण बिना ही जगत् अकस्मात् फुर आता है और मिट भी जाता है | संवेदन के फुरने से जगत् फुर आता है और संवेदन के मिटे से मिट जाता है-इससे जगत् संवेदनरूप है | जैसे वायु स्पन्दरूप होती है, तैसे ही संवेदन ही जगत््रूप हो भासता है | जैसे वायु स्पन्दरूप होती है तब फुरनरूप हो भासती है और निस्स्पन्द को कोई नहीं जानता परन्तु वायु को दोनों तुल्य हैं, तैसे ही चित्तसंवेदन के फुरने में जगत् भासता है और ठहरने में जगत् किञ्चन मिट जाता है-फुरना और ठहरना दोनों उसके किञ्चन हैं और आप दोनों में तुल्य है | हे वधिक! नेति भी अज्ञानी के समझाने के निमित्त कही है | स्वप्ना भी असत्य है सब कोई जानता है पर स्वप्ने का वृत्तान्त जाग्रत् में सिद्ध होता दृष्टि आता है, कोई कहता है कि रात्रि में मुझको स्वप्ना आया है कि अमुक कार्य इसी प्रकार होगा और जाग्रत् में वैसा ही होता दृष्टि आता है, पिता पुत्र से कहजाता है कि मेरी गति करना और अमुक स्थान में द्रव्य गड़ा है तुम निकाल लो सो उसी प्रकार होता दृष्टि आया है | जो नेति होती तो कोई कार्य सिद्ध न होता पर सो तो होता है इससे नेति भी कुछ वस्तु नहीं | आत्मा से भिन्न कुछ वस्तु नहीं |
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जाग्रत् उसका नाम है जिसको आत्मशब्द कहते हैं और जिसको तुम जाग्रत् कहते हो सो कुछ वस्तु नहीं | और जिसको तुम जाग्रत् कहते हो सो कुछ वस्तु नहीं | जाग्रत् मन सहित षटइन्द्रियों की संवेदन होती है सो स्वप्न में भी मानसहित षटइन्द्रियों की संवेदन होती हैं और उनमें ग्रहण होता है इससे जाग्रत कुछ वस्तु नहीं | जो जाग्रत् में अर्थ सिद्ध होता है और स्वप्ने में भी होवे तो जाग्रत् कुछ वस्तु न हुई और जो तू कहे कि स्वप्ना कुछ वस्तु है तो स्वप्ना भी कुछ वस्तु नहीं, क्योंकि स्वप्ना तहाँ होता है जहाँ निद्राभ्रम होता है | केवल शुद्ध चिन्मात्र सत्ता का जगत् किञ्चन है जैसे रत्नों का चमत्कार स्थित होता है सो रत्नों से भिन्न कुछ वस्तु नहीं रत्न ही व्यापा है, तैसे ही जाग्रत् स्वप्न जगत् आत्मा का चमत्कार है | बोध सत्ता केवल अपने आपमें स्थित है सो अनन्त है उसमें जगत् कुछ बना नहीं |
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