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Old 17-07-2014, 12:25 AM   #151
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Default Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक

ईश्वर से प्रेम और उस पर अगाध श्रद्धा केवल हिन्दुस्तान की मीरा बाई और बाई परमेश्वरी सिद्धा तक ही सीमित नहीं है। इस्लाम में भी मीरा और परमेश्वरी जैसी सिद्ध महिलाएं हुईं हैं, जिन्होंने अपने अकेले दम पर पूरी इंसानियत और उसकी रूहानियत को एक नया अंदाज और आयाम दिया। इस महिला का नाम था राबिया। प्रेम और विश्वास की जीती-जागती और हमेशा के लिए अमर हो चुकी राबिया। इतने गरीब परिवार में जन्मी थीं राबिया कि उनकी नाभि पर तेल लगाने तक के लिए जुगाड़ नहीं था। कुछ बड़ी हुईं तो माता-पिता का साया उठ गया। कुछ ही दिन बाद गुलाम बना ली गयीं। क्या क्या जहर नहीं पीना पड़ा लेकिन अल्लाह के प्रति मोहब्बत लगातार बढ़ती ही रही। अपने मालिक के घर का सारा काम निपटाने के बाद अपने कमरे में वे अल्लाह की याद में रोती रहती थीं।


मालिक ने एक दिन सुना कि राबिया नमाज में रो-रोकर कह रही थीं :- मैं तो तुम्हारी गुलाम हूं, मगर या अल्लाह, तूने तो मुझे किसी और की मिल्कियत बना डाला। मालिक पर घड़ों पानी पड़ गया और इस तरह राबिया रिहा हो गयीं। लेकिन केवल मालिक की कैद से, अल्लाह के लिए तो वे पहले की ही तरह गुलाम बनी रहीं। बियावान जंगल मे रह कर तपस्या करती रहीं। आसपास खूंखार जंगली जानवर और परिंदे उनकी हिफाजत करते थे। कहा तो यहां तक जाता है कि एक दिन बुजुर्ग संत इब्राहीम बिन अदहम चौदह साल की यात्रा कर रक्अत करते हुए काबा पहुंचे तो काबा दिखायी ही न पड़ा। कहते हैं कि अल्लाह ने खुद ही काबा को राबिया के इस्तकबाल के लिए रवाना कर दिया था। हालांकि बाद में अल्लाह के इस अहसान का बदला चुकाने के लिए राबिया ने केवल लेटते हुए काबा की यात्रा सात साल में पूरी की।

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Last edited by rajnish manga; 19-07-2014 at 12:19 PM.
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Old 17-07-2014, 12:27 AM   #152
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Default Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक

हां, इस बीच शायद उन्हें कुछ घमंड हो गया, सो अल्लाह से सिजदे में बोल पड़ी :- मैं तो मुट्ठी भर खाक हूं और काबा सिर्फ पत्थर का मकान ही है। यह सब करने की क्या जरूरत है अल्लाह। मुझे खुद में समा ले। लेकिन अचानक ही उन्हें इस बात का अहसास हो गया कि अगर इस तरह अल्लाह ने उनकी बात मान ली तो गजब हो जाएगा। अल्लाह का जलाल जाहिर हुआ, तो कहर हो जाएगा और उसका सारा पाप उनके कर्मों पर हावी हो जाएगा। सो अपने स्वार्थ को त्याग कर वे फौरन चैतन्य हुईं और वापस बसरा लौट आयीं। खुदा की इबादत के लिए।


किंवदंतियों के मुताबिक एक बार बसरा के ही एक प्रख्यात संत हसन बसरी उनसे मिलने पहुंचे तो वे जंगली जानवरों और परिंदों के साथ घूम रही थीं। हसन को आता देखकर जानवर और परिंदे घबरा कर उधर-उधर भागने लगे। हसन चौंक उठे। पूछा तो राबिया ने सवाल उछाला :- आपने आज क्या खाया। 'गोश्त' हसन का जवाब था। राबिया बोलीं :- जब आप उन्हें खा जाते हैं, तभी तो वे आपको देखकर घबराते हैं। सच्चे इंसान उन्हें कैसे खा सकते हैं जो उनके दोस्त हों। यह सब मेरे दोस्त ही तो हैं। जाहिर है कि राबिया गोश्त नहीं खाती थीं।
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Old 17-07-2014, 12:28 AM   #153
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Default Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक

राबिया को लेकर खूब कहानियां हैं। मसलन, एक बार सपने में हजरत मोहम्मद ने राबिया से पूछा :- राबिया, तुम मुझसे दोस्ती रखती हो। ऐ रसूल अल्लाह। ऐसा कौन है जो आपसे दोस्ती न रखना चाहता हो। लेकिन खुदा का मुझ पर इस कदर प्रेम है कि उनके सिवा मुझे किसी से दोस्ती करने की फुरसत ही नहीं मिलती है। ईश्वर तो उनसे ही मोहब्बत और दोस्ती करता है जो उससे मोहब्बत और दोस्ती करते हैं। और मेरे दिल में ईश्वर के अलावा कभी कुछ आ ही नहीं सकता। शैतान से नफरत के सवाल पर भी राबिया एक बार बोली थीं :- पहले खुदा की इबादत से तो मैं निजात पा जाऊं, जो कि मुमकिन ही नहीं। फिर किसी से दोस्ती या दुश्*मनी की बात का कोई सवाल ही नहीं।

बुरे कामों पर पश्चाताप यानी तौबा करने के सवाल पर राबिया का कहना था कि ईश्*वर तब तक पश्चाताप की इजाजत नहीं देता, तब तक कोई भी अपराधी पश्चाताप कर ही नहीं सकता। और जब इसकी इजाजत मिलती है तो तौबा कुबूल होती ही है। यानी, गुनाहों से तौबा करने के लिए आंतरिक यानी दिल से ताकत जुटानी पड़ती है, जुबानी तौबा तो हराम है जो कैसे कुबूल किया जा सकता है। अल्लाह की राह पर पैदल नहीं, दिल और उपासना से ही चला जा सकता है।
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Old 17-07-2014, 12:43 AM   #154
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Default Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक

राबिया ने तो मर्द शब्द की अनोखी ही व्याख्या कर दी। एक सवाल पर बोलीं :- अगर संतोष रखना मर्द होता तो वह बाकायदा करीम बन गया होता। संतोष से बढ़कर कुछ नहीं। जो संतोष रख सकता है, वही मर्द है। जिसे संतोष है, वही मर्द है और वह ही ज्ञानी भी। ऐसा इंसान ईश्वर से अपना ईमान और आत्मा साफ-सुधरी और पवित्र ही चाहता है और फिर उसे ईश्वर को ही सौंप देता है। इस तरह वह हर हाल में दुनिया के नशे से हमेशा के लिए दूर हो जाता है और अल्लाह मेंसमाहित होता है। भारी सिरदर्द से तड़पते हुए माथे पर पट्टी बांधे एक शख्स जब उनके पास राहत के लिए आया, तो उन्होंने उसे जमकर डांटा। बोली कि तीस साल तक जब उसने तुमको स्वस्थ रखा, तब तो तुमने शुक्राने में एक बार भी सिर पर पट्टी नहीं बांधी, और आज जरा सा दर्द उठा तो लगे तमाशा करने। इसे भी अल्लाह की नेमत मान मूर्ख।

अपने अंतिम वक़्त में आठ दिनों तक खाना ही न खाया, पानी भी नहीं। आखिरी दिन सबको हटा कर दरवाजा बंद कर लिया। भीतर से आती राबिया की आवाज सुनी गयी :- चल मेरी निर्दोष आत्मा, चल अल्लाह के पास चल। काफी देर बाद लोगों ने देखा कि राबिया ईश्वर यानी ब्रह्म में विलीन हो चुकी हैं। राबिया कहा करती थीं कि अल्लाह अपने दुश्मनों को दोजख में रखे और अपने उपासकों को बहिश्त में। मुझे इन दोंनों में से कुछ भी न चाहिए। मैं तो बस उसके ही करीब रहना चाहती हूं, जिसे ज़िंदगी भर मोहब्बत करती रही। एक किंवदंती यह भी है कि उन्हें लेने आये मुनकर और नकीर नाम फरिश्तों ने जब उनसे पूछा कि तेरा रब कौन है, तो राबिया ने उन्*हें जमकर लताड़ा। साथ में अल्लाह को भी। बोलीं :- जब अल्लाह ने मुझे कभी नहीं भुलाया तो मैं, जिसे दुनिया से कोई वास्ता कभी न रहा, उसे कैसे भूल सकती थी। फिर वह अल्लाह यह सवाल फरिश्तों के जरिये मुझसे क्यों पुछवा रहा है।
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Old 03-09-2014, 03:06 PM   #155
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Default Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक

राजा अम्बरीष की जीवन गाथा
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भगवान विष्णु के परम उपासक राजर्षि अम्बरीष पृथ्वी के सातों द्वीप, अचल सम्पत्ति और अतुल ऐश्वर्य के शासक होने पर भी इन्हें स्वप्नतुल्य समझते थे। क्योंकि वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पड़कर मनुष्य घोर नरक में जाता है, वह केवल चार दिन की चाँदनी है।
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Old 03-09-2014, 03:07 PM   #156
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Default Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक

राजर्षि अम्बरीष का भगवान श्रीकृष्ण में और उनके प्रेमी साधुओं में प्ररम प्रेम था। उन्होंने अपने मन को श्रीकृष्ण चरणों में, वाणी को भगवान के गुणों के गान करने में, हाथों को श्रीहरि के मन्दिर मार्जन में और अपने कानों को भगवान् की मंगलमयी कथा के श्रवण में लगा रखा था। उन्होंने अपने नेत्रों को श्रीहरि के विग्रह व मन्दिरों के दर्शन में, नासिका को उनके चरणकमलों पर चढ़ी श्रीमती तुलसी की दिव्य गन्ध में और जिह्वा (रसना) को भगवान के प्रति अर्पित नैवेद्य प्रसाद में संलग्न कर दिया था।

राजा अम्बरीष के पैर भगवान् के क्षेत्र आदि की पैदल यात्रा करने में ही लगे रहते और वे सिर से भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की वन्दना किया करते थे। इस प्रकार उन्होंने अपने सारे कर्म यज्ञपुरुष, इन्द्रियातीत भगवान् के प्रति उन्हें सर्वात्मा एवं सर्वस्वरूप समझकर समर्पित कर दिये थे और भगवद्भक्त ब्राह्मणों की आज्ञा के अनुसार वे इस पृथ्वी का शासन करते थे।

उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले अनेकों अश्वमेध यज्ञ करके यज्ञाधिपति भगवान् की आराधना की थी। उनकी प्रजा महात्माओं के द्वारा गाये हुए भगवान् के उत्तम चरित्रों का किसी समय बड़े प्रेम से श्रवण करती और किसी समय उनका गान करती। इस प्रकार उनके राज्य के मनुष्य देवताओं के अत्यन्त प्यारे स्वर्ग की भी इच्छा नहीं करते। राजा अम्बरीष की अनन्य प्रेममयी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् ने उनकी रक्षा के लिये सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया था, जो विरोधियों को भयभीत करनेवाला एवं भगवद्भक्तों की रक्षा करनेवाला है।
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Old 03-09-2014, 03:09 PM   #157
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Default Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक

एक बार उन्होंने अपनी पत्नी के साथ भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करने के लिए एक वर्ष तक द्वादशी प्रधान एकादशी-व्रत करने का नियम ग्रहण किया। व्रत की समाप्ति होने पर कार्तिक महीने में उन्होंने तीन रात का उपवास किया और एक दिन यमुनाजी में स्नान करके भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा की। तत्पश्चात् पहले ब्राह्मणों को स्वादिष्ट और अत्यन्त गुणकारी भोजन कराकर उन लागों के घर साठ करोड़ गऊयें सुसज्जित करके भेज दीं। जब ब्राह्मणों को सब कुछ मिल चुका, तब राजा ने उन लोगों से आज्ञा लेकर व्रत का पारण करने की तैयारी की। उसी समय शाप और वरदान देने में समर्थ स्वयं दुर्वासाजी भी उनके यहाँ अतिथि के रूप में पधारे।

राजा अम्बरीष उन्हें देखते ही उठकर खड़े हो गये, आसन देकर बैठाया और विविध सामग्रियों से उनके चरणों में प्रणाम करके भोजन के लिए प्रार्थना की। दुर्वासाजी ने राजा अम्बरीष की प्रार्थना स्वीकार कर ली और इसके बाद आवश्यक कर्मों से निवृत होने के लिए वे नदीतट पर चले गये। वे ब्रह्म का ध्यान करते हुए यमुना के पवित्र जल में स्नान करने लगे। इधर द्वादशी केवल घड़ी भर शेष रह गयी थी। धर्मज्ञ अम्बरीष ने धर्म-संकट में पड़कर ब्राह्मणों के साथ परामर्श किया। उन्होंने कहा- ब्राह्मण देवताओं! ब्राह्मण को बिना भोजन कराये स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते पारण न करना, दोनों ही दोष हैं। इसलिए इस समय जैसा करने से मेरी भलाई हो और मुझे पाप न लगे, ऐसा काम करना चाहिये। तब ब्राह्मणों के साथ विचार करके उन्होंने कहा- ब्राह्मणों! श्रुतियों में ऐसा कहा गया है कि जल पी लेना भोजन करना भी है, नहीं भी करना है। इसलिए इस समय केवल जल से पारण किये लेता हूँ।ऐसा निश्चय करके मन-ही-मन भगवान का चिन्तन करते हुए राजर्षि अम्बरीष ने जल पी लिया और फिर दुर्वासाजी के आने की बाट देखने लगे।
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Old 03-09-2014, 03:10 PM   #158
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दुर्वासाजी आवश्यक कर्मों से निवृत होकर यमुनातट से लौट आये। जब राजा ने आगे बढ़कर उनका अभिनन्दन किया तब उन्होंने अनुमान से ही समझ लिया कि राजा ने पारण कर लिया है। उस समय दुर्वासाजी बहुत भूखे थे। वे क्रोध से थर-थर काँपने लगे। उन्होंने हाथ जोड़कर खड़े अम्बरीष से डाँटकर कहा - अहो! देखो तो सही, यह कितना क्रूर है! यह धन के मद में मतवाला हो रहा है। भगवान् की भक्ति तो इसे छू तक नहीं गयी और यह अपने को बड़ा समर्थ मानता है। आज इसने धर्म का उल्लघंन करके बड़ा अन्याय किया है। मैं इसका अतिथि होकर आया हूँ किन्तु फिर भी मुझे खिलाये बिना ही इसने खा लिया है। अच्छा देख, ‘तुझे अभी इसका फल चखाता हूँ। यों कहते-कहते वे क्रोध से जल उठे। उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे अम्बरीष को मार डालने के लिए एक कृत्या (राक्षसी) उत्पन्न की। वह आग के समान जलती हुई, हाथ में तलवार लेकर राजा अम्बरीष पर टूट पड़ी।

परमपुरुष परमात्मा ने अपने सेवक की रक्षा के लिये पहले से ही सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर रखा था। जैसे आग क्रोध से गुर्राते हुए साँप को भस्म कर देती है, वैसे ही चक्र ने दूर्वासा जी की कृत्या को जलाकर ढ़ेर कर दिया। जब दुर्वासा जी ने देखा कि मेरी बनायी हुई कृत्या तो जल रही है और चक्र मेरी ओर आ रहा है, तब वे भयभीत हो अपने प्राण बचाने के लिये जी छोड़कर एकाएक भाग निकले।
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Default Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक

जैसे ऊँची-ऊँची लपटों वाला दावानल साँप के पीछे दौड़ता है, वैसे ही भगवान् का चक्र तो मेरे पीछे लग गया है, तब दुर्वासा जी दिशा, आकाश पृथ्वी, अतल-वितल आदि नीचे के लोक, समुद्र, लोकपाल और उनके द्वारा सुरक्षित लोक एवं स्वर्गतक में गये, परन्तु जहाँ-जहाँ वे गये, वहीं-वहीं उन्होंने असह्य तेज-वाले सुदर्शन चक्र को अपने पीछे लगा देखा। जब उन्हें कहीं भी कोई रक्षक न मिला तब तो वे और डर गये। अपने पगाण बचाने के लिये वे देवशिरोमणि ब्रह्माजी के पास गये और बोले ब्रह्माजी! आप स्वयम्भू हैं। भगवान् के इस तेजोमय चक्र से मेरी रक्षा कीजिये

ब्रह्माजी ने कहा- दुर्वासा जी! मैं, शंकरजी, दक्ष-भृगु आदि प्रजापति, भूतेश्वर आदि सब जिनके बनाये नियमों में बंधे हैं तथा जिनकी आज्ञा शिरोधार्य करके हमलोग संसार का हित करते हैं उनके भक्त के द्रोही को बचाने में हम समर्थ नहीं हैं।जब ब्रह्माजी ने इस प्रकार दुर्वासा को निराश कर दिया, तब भगवान के चक्र से संतप्त होकर वे कैलासवासी भगवान् शंकर की शरण में गये।

शंकर जी ने कहा- दुर्वासाजी! जिनसे पैदा हुए अनेकों ब्रह्माण्डों में हमारे जैसे हजारों चक्कर काटते हैं यह चक्र उन्हीं विश्वेश्वर का शस्त्र है। यह हमलोगों के लिए असह है। तुम उन्हीं की शरण में जाओ। वे भगवान ही तुम्हारा मंगल करेंगे।निराश होकर दुर्वासाजी श्रीहरि भगवान के परमधाम वैकुण्ठ की तरफ भागे। दुर्वासाजी भगवान के चक्र की आग से जल रहे थे। वे भगवान के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने कहा- हे अच्युत! हे अनन्त! आप सन्तों के एकमात्र इच्छित हैं। प्रभो! सम्पूर्ण जगत के जीवनदाता! मैं अपराधीहूँ। आप मेरी रक्षा कीजिये। आपका परम प्रभाव न जानने के कारण ही मैंने आपके प्यारे भक्त का अपराध किया है। प्रभो! आप मुझे बचाईये
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श्री भगवान ने कहा-दुर्वासाजी! मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ। मुझमें तनिक भी स्वतंन्त्रता नहीं है। जो भक्त स्त्री, पुत्र, गृह, गुरुजन, प्राण धन इहलोक और परलोक-सबको छोड़कर केवल मेरी शरण में आ गये हैं, उन्हें छोड़ने का संकल्प भी मैं कैसे कर सकता हूँ? इसमें सन्देह नहीं कि ब्रांह्मणों के लिये तपस्या और विद्या परम कल्याण के साधन हैं। परन्तु यदि ब्राह्मण उदृण्ड और अन्यायी हो जाय तो वे ही दोनों उलटा फल देने लगते हैं। दुर्वासाजी! सुनिए, मैं आपको एक उपाय बताता हूँ। जिसका अनिष्ट करने से आपको इस विपत्ति में आना पड़ा है, आप उसी के पास जाईये। उनसे क्षमा माँगिये तब आपको शान्ति मिलेगी।

सुदर्शन चक्र की ज्वाला से जलते हुए दुर्वासा लौटकर राजा अम्बरीष के पास आये और उन्होंने अत्यन्त दुःखी होकर राजा के पैर पकड़ लिये। दुर्वासाजी की यह चेष्टा देखकर और उनके चरण पकड़ने से लज्जित होकर राजा अम्बरीष भगवान् के चक्र की स्तुति करने लगे। अम्बरीष ने कहा- प्रभो सुदर्शन! आप अग्निस्वरूप हैं। भगवान् के प्यारे, हजार दाँतवाले चक्र देव! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। समस्त अस्त्र-शस्त्रों को नष्ट कर देने वाले एवं पृथ्वी के रक्षक! आप इन ब्राह्मण की रक्षा कीजिये। आप कृपा करके हमारे कुल के भाग्योदय के लिये दुर्वासाजी का कल्याण कीजिये। हमारे ऊपर यह आपका महान अनुग्रह होगा। यदि मैंने कुछ भी दान किया हो, यज्ञ किया हो अथवा अपने धर्म का पालन किया हो, यदि हमारे वंश के लोग ब्राह्मणों को ही अपना आराध्य देव समझते रहे हों, तो दुर्वासाजी की जलन मिट जाय। भगवान् समस्त गुणों के एक मात्र आश्रय स्थल हैं यदि मैंने समस्त प्राणियों के आत्मा के रूप में उन्हें देखा हो और वे मुझ पर प्रसन्न हों तो दुर्वासा जी के हृदय की सारी जलन मिट जाय।
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