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Old 14-10-2014, 04:58 PM   #151
rajnish manga
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

ग्यारह बजे जब विविध भारती पर गूंज की आज का कार्यक्रम अब यहीं समाप्त होता है तो उसे बंद कर थोड़ी देरे सोने का नाटक किया और फिर निकल गया। घर का दरबाजा बाहर से बद कर दिया। बरगद के पेंड़ के नीचे बैठे हुए करीब तीन से चार धंटा हो चुका होगा। सुबह के होने का एहसास भी होने लगा। वह नहीं आई। जब मैं वहां से उठ कर जाने ही वाला था कि एक छाया सी हिलती हुई दिखाई दी। वह आ रही थी। चांदनी रात थी। टहापोर अंजोरिया। पर उस चांद की चांदनी ने मेरे प्रियतम का जैसे श्रृंगार कर दिया हो। सफेद सलबार सूट में आज वह चमक रही थी। मैंने बांहें फैला दी और वह आकर उसी तरह समा गई जैसे....गाय के बछरे को गहीरबाल खरीद कर ले गया हो और वह खुंटा तोड़ कर भागी और मां से मिल रही हो।

शिकवे शिकायत। रोना धोना। सब हुआ। पर हां आज रोना मेरा अधिक हुआ
, रीना का कम। मैं फफक फफक कर रोने लगा। ओह-जैसे जान जाते जाते बची हो। वह मुझे बच्चे की तरह दुलार रही थी। आंसू पोंछ रही थी। ‘‘चुप रहीं न तो। हमरा रहते तों कोई परबाह काहे करो ही। हमरा कुछ होतै तब तोरा कुछ होतै। इहे कठीन घड़ी में तो प्रेम के परीक्षा होबो हई औ हमरा दुनु के पास करे के है अग्निपरीक्षा।’’
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
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Old 18-10-2014, 11:33 PM   #152
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

देर तक संवेदनाओं का ज्वार उठता गिरता रहा। दोनों ने इस विपरीत घड़ी में एक दूसरे का हाथ नहीं छोड़ने का निर्णय लिया। चाहे जो हो। साथ देखेगे।

अब अंतिम निर्णय करना ही होगा। तय हो गया। परसों घर से भाग जाना है। उसने कल रात अपना सामान मुझे लाकर देने की बात कही। ले जाने वाला सब सरिया लेना है।

सबकुछ वैसा ही नहीं होता जैसा की हम सोचतें है और वही हो रहा था। सोंचा था क्या, हो गया क्या? पर इस सब के बीच कशमकश जारी थी। हां उसमें अंतर आया था और वह यह कि जहां कल तक कभी कभी अपनी जिंदगी के बारे मे सोचता, वहीं आज हर पल उसी पर विचार कर रहा था। पर इस सोंच-विचार के निहातार्थ बहुत लधु था। क्योंकि वैसा कुछ हो नहीं रहा था जो मैं सोंच रहा था। फिर भी निर्णय के अंतिम पड़ाव पर आकर ही यह खत्म होना था और तब तक लिए यह जारी था। हां, आस पास की घटनाओं और परिस्थितियों का सीधा असर जिंदगी पर पड़ती है और यह हो रहा था। सालों से मनोरंजन के नाम पर एक अदद रेडियो सुनने की आदत थी और उसमें शामिल थी विविध भारती। देर रात विविध भारती को सुनते हुए एक गाना ने जिंदगी में कठोर निर्णय लेने को वाध्य कर दिया। यह गीत लगातार बजा करता थी और संयोग कि आज रात भी बजने लगा-

‘‘जो सोंचते रहोगे
तो काम न चलेगा
जो बढ़ते चलोगे
तो रास्ता मिलेगा।’’

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Last edited by rajnish manga; 18-10-2014 at 11:39 PM.
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Old 18-10-2014, 11:36 PM   #153
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

सो बस बढ़ते जाने का निर्णय ले लिया। आज रात को करीब ग्यारह बजे मैं घर से निकल गया। यह भादो का बरसाती महीना था राजंगीर में मलमास मेला लगा हुआ था। यह दो मासू महिना था और इस अपवित्र माना जाता था।

इस समय गांव में सन्नाटा छाया हुआ था। कहीं एक चराग भी नहीं जल रहा था। करीब आधा धंटा यूं ही इंतजार करता रहा, मन में कई तरह के ख्यालात आते रहे और जिंदगी बार बार इस दौर में मुझे दोराहे पर लाकर खड़ा करती रही। एक मन प्रेम को छोड़ कर भाग जाने को कह रहा था तो एक मन प्रेम के साथ भाग जाने को। माथा सांय सांय कर रहा था और मन में भारी घबराहट हो रही थी। इसी उधेरबुन में उलझा था कि सामने रीना थी।

‘‘की यार, की सोंचो ही।’’

‘‘सोंचे तो पड़बे करो है, जिंदगी है, पता नै कहां कहां ले जइतै।’’

‘‘चल छोड़ यार, जहां जहां ले जइतै हम दोनो साथ साथ जइबै।’’

बस यही एक ऐसा आश्वासन या यूं कहे की भरोसा था जो दिमाग को दिल से अलग कर देता। जिंदगी के होने का मतलब बदल जाता था और खुद को सबसे बड़ा भाग्यवान समझने लगता।
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Old 18-10-2014, 11:38 PM   #154
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

उसके हाथ में एक बड़ा सा थैला था जिसमें कपड़ा-लत्ता रखा हुआ था। उसने उसे मुझे थमा दिया और इसे सावधानी से रखने की बात कही।
‘‘कौची है एकरा में हो।’’

‘‘तेरा एकरा से की मतलब, हमर समान है, सब बता दिऔ’’

‘‘काहे नै बतइमहीं।’’

‘‘कपड़ा लत्ता है और जेवर और रूपया भी।’’

‘‘तब जेवर और रूपया के की काम। केतना है।’’

यह कहते हुए मैंने थैले से सामान निकाल कर देखना प्रारंभ कर दिया। कई जोड़ी कपड़े से लेकर श्रृंगार तक का सारा सामान था और फिर एक थैले में जेबरात और नकदी। बड़ी मात्रा में। यह क्या। मैंने पूछ लिया। वह ठकमका गई।

‘‘केतना रूपया और जेवर है।’’

‘‘ नब्बे हजार रूपया और बीस भर जेबर, सब हमर वियाह के है हमरे पास रख हलै हम ले ले लिऐ।’’

मैं स्तब्ध रह गया। इतना अधिक रूपया और जेवर ले जाने का मतलब था गांव में बदनामी। यह की रूपया और जेवर के लोभ में भगा ले गया। मैंने उसे ले जाने से इंकार कर दिया।
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Old 18-10-2014, 11:42 PM   #155
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

‘‘की चाहों हीं, भागला के बाद गांव में सब गरियाबै।’’

‘‘काहे, काहे गरियैतै, हमर चीज हम ले जाहीऐ।’’

फिर काफी तकरार और अंत में मैंने इसे लौटा दिया
, यह कहते हुए कि जब गरीबी में ंनहीं जीना तो फिर अभी भी समय है, वापस चली जाओ। यह रामवाण था और वह मान गई।

फिर थके हुए कदमों से बुढ़ा बरगद की गोद में चला गया। सबसे पहले थैले को बुढ़ा बरगद की खोंधड़ में छुपा दिया
, कल के लिए। और बातचीत होने लगी। आज और अब हम दोनों सहज नहीं थे। मैं उदास था और वह नर्वस। देर तक बैठे रहे चुपचाप, खामोश। उसकी इस खामोशी ने मुझे भी डरा दिया। मैंने उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया। किसी चुंबकत्व की तरह वह आकर मेरे सीने में समा गई।

मैंने महसूस किया उसके आंखों में आंसू थे। यह पेंड़ से पत्ते के टूटने का दर्द था और इसमें कोई विदाई गीत गाने वाला नहीं था। मैंने उसे अपने आगोश में छुपा लिया। देर तक खामोशी की एक चादर लिपटी रही और दोनों एक दूसरे से बातचीत करते रहे। मैं समझ गया वह इस तरह से नहीं भागना चाहती पर जब सारे रास्ते बंद हो गए तो हमदोनों ने यह निर्णय लिया या यूं कि परिस्थिति के हाथों खुद को छोड़ दिया।

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Old 26-10-2014, 07:44 PM   #156
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

हम दोनों के जीवन में सिनेमाई कुछ नहीं था बस थी एक कठोर सच्चाई और जीवन का पथरीला रास्ता। मैंने अपनी अंगुली को उसके चेहरे पर सरका दिया और पलकों से टपकते आंसू को सहारा दे दिया पर आंसूओं के बहने का प्रवाह और तेज हो गई और तब मैं खुद को नहीं रोक सका। मेरे आंखों से भी आश्रू की धारा बहने लगी और वह रीना के चेहरे पर आकर गिरने लगी। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। खोमोशी ने अपना दामन फैला दिया था। कुछ देर यह दौर चला होगा कि मैंने अपने थरथराते हुए अधर उसकी पलको पर रख दिये, फिर अधरों से अधर मिले, फिर दिल से दिल एक हो गये और देह से देह भी। कहीं कोई विरोध नहीं, कहीं कोई प्रतिरोध नहीं, जैसे समर्पण ही प्रेम हो....।

मैं उसके प्रेम से साहस पाता था और वह मेरे। आज दोनों ने खुद को एक दूसरे को समर्पित कर दिया। जो तुम चाहो
, जहां तुम जाओ। दोनों को पता था कि दोनों कितने होशियार थे और कहां तक जा सकते थे। दोनों को पता था कि दोनों दुनियादार नहीं थे, समझदार नहीं थे पर विकल्प के अभाव और विछड़ जाने के भय ने दोनों को मझधार में नय्या उतारने को मजबूर कर दिया। भाग कर जाएगें कहां, दूर दूर तक कोई सहारा देने वाला नहीं, पटना से आगे तक मैं कभी गया नहीं। पर क्या करें, यह कुछ उसी तरह का माहौल था जैसे आत्महत्या के पुर्व का होता है। मेरे मन में हर क्षण यही विचार आ रहे थे कि कोई आये और दोनों को पकड़ ले जाए और भरी समाज में यह बताए कि दोनों भागने वाले थे। फिर क्या, जो हो, सो हो।

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Old 26-10-2014, 07:46 PM   #157
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गांव में हलचल होने लगी। जानवरो को खाना देने के लिए किसान जगने लगे थे और दूर कहीं प्रतकाली ....की आवजा गुंजने लगी। गांव में बड़े बुजुर्ग प्रतकाली गाते थे जिससे भोर होने का पता चल जाता था। पर आज दोनों में से किसी को भी जाने का मन नहीं था जैसे सूरज उगे भी और दोनों यूं ही बैठे रहंे और रौशनी में प्यार जगमागा जाए।
**

आज सूरज उगा तो है पर उसे एक उम्मीद भरी नजर से मैं देख रहा था और सोंच रहा था कल फिर सूरज तो उगेगा पर अपनी जिंदगी के सूरज का उगना और अस्त होना ईश्वर के हाथों ही तय होना है। वह तो चली गई आहिस्ते से दामन छुड़ा कर पर मैं उसी बुढ़ा बरगद की गोद में बैठा रहा। एक अलबेलापन, एक अलमस्तपन सा छा गया था, जैसे जिन्दगी देने वाले के हवाले ही जिंदगी कर दी हो। फैसला तो कर लिया पर उस राह पर चलना उतना भी दूभर था जितना एक नवजात के लिए संसार। रीना को जाते जाते रूपया और जेवर तो लौटा दिया पर अपने हाथ में एक रूपया नहीं था और सबसे पहले उसकी व्यवस्था ही करनी थी। इस विपरीत परिस्थितियों में भी हमेशा प्राकृति का सान्ध्यि मुझे संबल देता था सो बरगद की गोद में बैठे बैठे जब समाधान नहीं सूझा तो निकल गया खेतों की ओर। मीलों दूर चला गया चुपचाप और विचारता हुआ कि कल क्या होगा। हर बार मन के अंदर से यही आवाज आई कि यह गलत है पर फिर दिल की आवाज प्रतिकार की स्वर में गरज उठती। प्रेम करने और विछड़ने के भय ने मन की बात नहीं मानी। प्रतिकार का एक तेज स्वर अंदर से उठता और मन को खामोश कर देता।
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Old 26-10-2014, 07:47 PM   #158
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यूं ही विचारता हुआ चलता जा रहा था जैसे कोई साधु-सन्यासी बेरहम जिन्दगी से लड़ता हुआ खुद उसके ही प्रति बेरहम हो गया हो। संधर्ष और विरोधाभाष आज भी मन के अंदर चल रहा है पर इस सब पर दिल की आवाज ही भारी पड़ रही है। इस सबके बीच जो निर्णय के रूप में बात सामने आती वह जो तुध भावे नानका, सोई भली तू कर। छोड़ दिया ईश्वर के हवाले और लौट आया घर।

सबसे पहले पैसे का जुगाड़ जरूरी था सो इसके लिए फूफा का जेब ही साफ करने का मन बनाया। कल ही खेत में खाद देने के लिए चावल बेचा गया था और मैंने उसी पर हाथ साफ कर दिया। कुल चौदह सौ रूपये थे। मैं जानता था यह अतिमहत्वपूर्ण पैसा है पर प्रेम से महत्वपूर्ण कुछ और नजर ही नहीं आ रहा रहा था। इससे पहले मैं अपने प्रेम के किसी भी गतिविधी को दोस्तों से सांझा कर लेता था पर इस बार किसी का भरोसा नहीं कर रहा था। शाम के करीब छः बजे होगें। हल्की हल्की बूंदा-बंदी हो रही थी और भादो महीने का अंधेरिया रात अपने पूरे शबाब पर थी।

यह मलमास का महीना था और हिंदू धर्म के अनुसार अपवित्र। शादी व्याह इस माहिने में नहीं होती थी और ऐसे में दोनों ने घर से भागने का निर्णय किया था।

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Old 26-10-2014, 07:48 PM   #159
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मैंने घर से छाता और टार्च लिया और चुपचाप घर से निकल गया। फूआ ने पूछा भी कि छाता लेके कहां जाहीं तो कह दिया कि सिनेमा देखे ले। और हां घर से निकलते वक्त पता नहीं क्या सुझा और कहां से आवाज आई दरवाजे से लौट कर फूआ के सिंदूर के डिबीया से एक चुटकी सिंदूर निकाल कर कागज के टुकडे का पुड़िया बनाया और जेब में रख लिया।

नै से बारह सिनेमा का टिकट कटाया और फिर साहिबां सिनेमा देखने लगा। प्रेम में डूबी एक कहानी। अक्सर सिनेमा प्रेम में डूबी हुई कहानी लेकर ही बनती है पर शायद सिनेमा प्रेम की धरातली सच्चाई से परे ही होती है। हॉल मे बैठा बैठा मैं सोंच रहा था। सिनेमा करीब बारह बजे खत्म हुआ और अंधेरी रात में घर की ओर मैं निकल पड़ा। रास्ते में थाना चौक पर एक मिठाई का ठेला लगा हुआ था उससे सौ ग्राम चिनिया बेदाम लिया।दो रूपया। जेब में मात्र सवा रूपया ही खुदरा था जिसे दुकानदार को दिया और फिर खुदरा नहीं होने की जब बात कही तो उसने फटाक सा कहा कि जाइए न कल दे दिजिएगा। बड़ा नेक बंदा था। मैं चल दिया पर कल की बात कानों में गुंजती रही। पता नहीं कल क्या हो। बहुत भारी डर था कहीं कोने में
, पर प्रेम का साहस उसपर भी भारी पड़ रह था। करीब एक बजे रात्री को फिर उसी बुढ़े बरगद की गोद ने शरण दी।
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वहां बैठे हुए आधा एक धंटा हो गया और बीच बीच में सिगनल के लिए टार्च की हल्की सी एक रौशनी जला देता। उसका कुछ अता पता नहीं था। फिर जोर से बिजली चमकी और बारिस होने लगी। तेज। छाता वहां काम आया और चुक्को-मुक्को बैठ कर छाता लगा लिया। कुछ, एक धंटा तक मुसलाधार बारिस हुई और माहौल डरावना हो गया। आम रात होती तो बिना किसी के साथ लिए घर के बाहर कदम नहीं रखता, पर आज की रात जैसे कयामत की रात थी और जब सबकुछ खत्म ही होने वाला था तो मैं किस की परवाह करता। किसके लिए डरता! जिया तो भी न जिया तो भी। रात खत्म होती जा रही थी और उसका कहीं अता-पता नहीं था। घर से इस तरह भागने का अब भी मन नहीं कर रहा था बस यहीं सोंच रहा था कि सब कुछ सब जान जाए और दोनों को भागते हुए पकड़ ले। जो बात भीतर भीतर चल रही थी वह सर्वजनिक हो जाए, बस। ऐसा इसलिए कि जिस समाज में पला बढ़ा था वह कथित रूप से अगड़ा कहलाता था और उसमें समाज की बुराई को छुपाने का अजीब चलन थी। सब कुछ सब कोई जान रहा है पर जैसे सब अनजान हो। सभ्य होने का एक अजीब फैशन। कर्म कुकर्म की परिभाष भी अपनी गढ़ी हुई। ढंका हुआ आदमी सदकर्मी और उघड़ गया तो कुकर्मी।

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