11-12-2012, 09:38 AM | #151 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
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14-12-2012, 12:03 AM | #152 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
समझ की परीक्षा में पास
यूरोप के एक देश में वायरलेस बनाने वाली एक बड़ी कम्पनी में इंजीनियर के पद के लिए साक्षात्कार चल रहा था। सभी प्रत्याशी आरामदेह सोफों पर बैठे गपशप में लीन थे और इंतजार कर रहे थे कि कब उनकी बारी आएगी। इतने उम्मीदवारों में केवल एक उम्मीदवार अकेला एक कुर्सी पर निराश बैठा किसी गहरी सोच में डूबा था। डिग्रियां तो सब के पास समान ही थीं लेकिन उसके पास आकर्षक व्यक्तित्व न था। उसने अत्यंत साधारण कपड़े पहन रखे थे। देखने में भी वह किसी मामूली परिवार का ही लगता था। स्वाभाविक है बाकी लोग उसकी तरफ देख तक नहीं रहे थे। तभी लाउड स्पीकर पर खट-खट की आवाज आई। सबसे अलग-थलग बैठा वह प्रत्याशी उठा और सीधे इंटरव्यू वाले कमरे में चला गया। थोड़ी देर बाद वह मुस्कराता हुआ हाथ में नियुक्ति पत्र लिए कमरे से बाहर आया। उसके साथ कम्पनी का एक अधिकारी भी बाहर आया। अधिकारी ने घोषणा की कि इंटरव्यू पूरा हो गया है। एक ही पद था और उसके लिए उपयुक्त उम्मीदवार का चुनाव हो चुका है। यह सुन कर अन्य उम्मीदवार अवाक रह गए। सबने आपत्तियां उठाईं, भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। उस अधिकारी ने कहा, आप लोगों ने लाउडस्पीकर पर आया संकेत नहीं सुना जबकि आप सभी वायरलेस के एग्जीक्यूटिव इंजीनियर के पद के लिए आए थे। इंटरव्यू बोर्ड ने सांकेतिक कोड वाली आवाज में संकेत दिया था कि हम ऐसे व्यक्ति को इस पद के लिए चाहते हैं जो पूरी तरह सावधान और सचेत है। जो इस संदेश को सुन कर सबसे पहले आएगा उसे नियुक्ति पत्र तैयार मिलेगा। इस नौजवान ने संकेत को सुना इसलिए हमने इसे नियुक्त कर लिया। हम आपकी इसी समझ की परीक्षा ले रहे थे। पर आप में से किसी और ने समझा ही नहीं। हम यही तो परख रहे थे कि कौन कितना सावधान और सतर्क है। यह सुनकर दूसरे प्रत्याशियों का मुंह लटक गया।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
14-12-2012, 12:06 AM | #153 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
धन से नहीं मिलती है खुशी
हम पैसे या ताकत से खुशी नहीं खरीद सकते। जो जितना शक्तिशाली है, उसके अंदर उतनी ही ज्यादा चिंता और भय है। यह भय और चिंता ही हमारे दुखों की वजह है। मानसिक सुख आपकी शारीरिक पीड़ा को हल्का कर सकता है लेकिन भौतिक सुख आपकी मानसिक पीड़ा को कम नहीं कर सकता। तिब्बतियों के 14वें धर्मगुरु हैं दलाई लामा। लगभग पूरी दुनिया उन्हें किसी शासनाध्यक्ष की तरह ही सम्मान देती है। यह दलाई लामा की मेहनत ही है जिसने तिब्बत की आजादी के सवाल को कभी मरने नहीं दिया। आज नोबेल पुरस्कार विजेता दलाई लामा को मानवता का सबसे बड़ा हिमायती माना जाता है। आयरलैंड की लिमरिक यूनिवर्सिटी में भाषण देते हुए दलाई लामा ने कहा था कि कि दुनिया में शांति के लिए मानवीय मूल्यों को प्रोत्साहित करना होगा। दरअसल हम सब इंसान हैं। हम सब एक जैसे हैं, हमारी भावनाएं एक हैं, हमारे अहसास समान हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम किस धर्म के हैं, किस जाति के हैं और किस देश के हैं। पूरी दुनिया में मानवता एक है। आज हमारे बीच में जो भी समस्याएं हैं उनकी वजह यह है कि हम इंसानियत को भूल जाते हैं। हमें दूसरों को समझना होगा, उन्हें तवज्जो देनी होगी। आप चाहे जितने अमीर हों,चाहे जितने शक्तिशाली हों, आप इंसान ही रहेंगे। इंसानियत से ऊपर कुछ नहीं है। हम इंसानियत को नजरअंदाज नहीं कर सकते। ज्यादातर लोग ‘मैं’ और ‘मेरा’ के भ्रम में पड़े रहते हैं। पर कोई नहीं जानता कि ‘मैं’ क्या है? ‘मेरा’ से उनका क्या आशय है? कई बार हमारे अंदर मौजूद यह ‘मैं’ की भावना दर्द की वजह बन जाती है। अगर हम सब ‘मैं’ की बजाय एक-दूसरे के बारे में सोचें तो हमारे दुखों का अंत आसानी से हो जाएगा। ‘मैं’की भावना हमारे अंदर स्वार्थ की भावना पैदा करती है और हम दूसरों के दर्द को समझ नहीं पाते हैं। हमें अपने बारे में जरूर सोचना चाहिए पर दूसरों के बारे में भी विचार करना चाहिए।
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14-12-2012, 12:48 AM | #154 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
संकल्प ले आया किनारे पर
ब्रिटेन में एक विख्यात लेखक हुए हैं मार्क रदरफोर्ड। मार्क को पढ़ने के लिए वहां के लोग काफी लालायित रहते थे। उनका लेखन ऐसा था कि सभी को काफी रुचिकर लगता था। सभी वर्गों के लोग उनके लिखे को पढ़ने में रुचि दिखाते थे। रदरफोर्ड के बचपन की घटना है। एक दिन वे समुद्र किनारे बैठे थे। दूर सागर में एक जहाज लंगर डाले खड़ा था। वह जहाज तक तैर कर जाने के लिए मचल उठे। मार्क तैरना तो जानते ही थे, इसलिए मन की इच्छा पूरी करने के लिए कूद पड़े समुद में और तैर कर जहाज तक पहुंच गए। मार्क ने तैरते-तैरते ही जहाज के कई चक्कर लगाए। उनका मन खुशी से झूम उठा। विजय की खुशी और सफलता से उनका आत्मविश्वास काफी बढ़ा हुआ था, लेकिन जैसे ही उन्होंने वापस लौटने के लिए किनारे की तरफ देखा, उन पर निराशा हावी होने लगी, क्योंकि किनारा बहुत दूर लगा। वास्तव में तैरते हुए वे बहुत अधिक दूर निकल आए थे। सफलता के बाद भी निराशा बढ़ रही थी, अपने ऊपर अविश्वास हो रहा था। जैसे-जैसे मार्क के मन में ऐसे विचार आते रहे, उनका शरीर वैसा ही शिथिल होने लगा। फुर्तीले नौजवान होने के बावजूद बिना डूबे ही डूबता सा महसूस करने लगे, लेकिन जैसे ही उन्होंने संयत होकर अपने विचारों को निराशा से आशा की तरफ मोड़ा, क्षण भर में ही चमत्कार सा होने लगा। वह अपने अंदर परिवर्तन अनुभव करने लगे। शरीर में एक नई शक्ति का संचार हुआ। वह तैरते हुए सोच रहे थे कि किनारे तक नहीं पहुंचने का मतलब है मर जाना और किनारे तक पहुंचने का प्रयास है, मरने से पहले का संघर्ष। इस सोच से जैसे उन्हें संजीवनी मिल गई। उन्होंने सोचा कि जब डूबना ही है, तो सफलता के लिए संघर्ष क्यों न करें। भय का स्थान विश्वास ने ले लिया। इसी संकल्प से तैरते हुए किनारे पहुंचने में सफल हुए। इस घटना ने उन्हें आगे भी काफी प्रेरित किया और इसी की वज़ह से वे अन्य अनेक के लिए प्रेरणा स्रोत भी बने।
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14-12-2012, 12:51 AM | #155 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
विवेक नष्ट करती है ईर्ष्या
यदि हम अभावग्रस्त और अज्ञानी लोगों के बीच रहते हैं, तो इतना आप तय मानिए कि आप किसी भी तरह से सुरक्षित नहीं हो सकते। ऐसे समाज में अपनी समृद्धि का प्रदर्शन तो दूर, ऐसे लोगों के बीच सामान्य जीवन व्यतीत करना भी असंभव हो जाता है, क्योंकि अज्ञानी लोग न तो आपकी अहमियत को समझ पाते हैं और न ही आपके विवेक को पढ़ सकते हैं। यदि आपके मित्र और रिश्तेदार अच्छी हैसियत के मालिक हैं, तो आप जैसा सुखी इंसान और कोई नहीं हो सकता। वो आपको बेशक अपनी समृद्धि में शरीक न करें, लेकिन आपको कष्ट तो नहीं देंगे, क्योंकि उन्हें आपसे किसी तरह की परेशानी ही नहीं है। और जब कोई परेशानी ही नहीं रहेगी, तो फिर क्यों कोई ख्वाहमख्वाह आपको परेशान करेगा। यदि हम सकारात्मक सोच से भरे हुए हैं, तो हम उन लोगों से प्रेरणा और प्रोत्साहन लेकर स्वयं भी आगे बढ़ सकते हैं, जो खुद समृद्ध हैं। हमेशा यह देखने में आया है कि जो लोग दूसरों के सुख-समृद्धि में आनंद पाते हैं, वो लोग उन लोगों से बहुत अच्छे हैं, जो दूसरों की सुख-समृद्धि से ईर्ष्या करते हैं। ईर्ष्या हमारे विवेक को ऐसा नष्ट करती है कि हम स्वयं अपने उद्धार से भी विमुख होने लगते हैं। ईर्ष्या ऐसी चीज है, जो अपनी आंख गंवा कर भी दूसरे को अंधा बना देने में संतोष महसूस करती है। ईर्ष्या के कारण तो महाभारत जैसा युद्ध तक हो गया था। इसलिए कहा जाता है कि ईर्ष्या मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन होती है। ईर्ष्या के कारण मनुष्य अपना विकास तो रोक ही देता है, साथ ही वह उस शख्स की नजरों में भी गिर जाता है, जिससे वह ईर्ष्या करता है। हमारी हमेशा ही यह कोशिश होनी चाहिए कि हम किसी से कभी ईर्ष्या न करें। मतलब सीधी सी बात यही है कि यदि समाज में सुख-समृद्धि का स्तर बढ़ता है, तो सारा समाज लाभान्वित होता है और समाज लाभान्वित होता है, तो उसका असर देश पर पड़ता है। जब देश लाभान्वित होता है, तब हम स्वयं भी उस लाभ से वंचित नहीं रहते।
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22-12-2012, 08:04 PM | #156 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
एसी पाठशालाओ की जरूरत है |
बिगडे न सुधर पाए तो कोई बात नहीं पर सुधरे हुए न बिगड़े यह भी जरूरी है
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! |
02-01-2013, 03:15 AM | #157 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
बादशाह के मन में चोर
एक बादशाह इत्र का बहुत शौकीन था। वह हर किस्म के इत्र अपने पास रखता था। दुनिया का कोई ऐेसा इत्र ऐसा नही था जो राजा के पास नहीं हो। लोगों को भी उसके इत्र के शौक के बारे में जानकारी थी इसलिए जब भी कोई उससे मिलने आता था तो उपहार में इत्र लेकर जाता था। उसके पास इत्र का इतना बड़ा भंडार हो गया कि पूरे महल में ही इत्र की खुश्बू फैली रहती थी। एक दिन राजा दरबारियों के साथ बैठा चर्चा में व्यस्त था और बीच-बीच में अपनी घनी दाढ़ी में इत्र भी लगा रहा था। अचानक इत्र की एक बूंद नीचे गिर गई। बादशाह ने चारों तरफ देखा और सबकी नजरें बचाकर उसे उठा लिया। लेकिन पैनी नजर वाले वजीर ने यह देख लिया। बादशाह ने भांप लिया कि वजीर ने उसे देख लिया है। दूसरे दिन जब दरबार लगा तो बादशाह एक मटका इत्र लेकर बैठ गया। वजीर सहित सभी दरबारियों की नजरें बादशाह पर गड़ी थीं। थोड़ी देर बाद जब बादशाह को लगा कि दरबारी चर्चा में व्यस्त हैं तो उसने इत्र से भरे मटके को ऐसे ढुलका दिया मानो वह अपने आप गिर गया हो। इत्र बहने लगा। बादशाह ने ऐसी मुद्रा बनाई जैसे उसे इत्र बह जाने की कोई परवाह न हो। इत्र बह रहा था। बादशाह अनदेखी किए जा रहा था। वजीर ने कहा, जहांपनाह, गुस्ताखी माफ हो। यह आप ठीक नहीं कर रहे हैं। जब इंसान के मन में चोर होता है तो वह ऐसे ही करता है। कल आपने जमीन से इत्र उठा लिया तो आपको लगा कि आपसे कोई गलती हो गई है। आपने सोचा कि आप तो शहंशाह हैं। आप जमीन से भला क्यों इत्र उठाएंगे, लेकिन वह गलती थी नहीं। एक इंसान होने के नाते आपका ऐसा करना स्वाभाविक था, लेकिन आपके भीतर शहंशाह होने का जो घमंड है उस कारण आप बेचैन हो गए और कल की बात की भरपाई के लिए बेवजह इत्र बर्बाद किए जा रहे हैं। सोचिए आपका घमंड आपसे क्या करवा रहा है। बादशाह लज्जित हो गया।
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02-01-2013, 03:17 AM | #158 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
अनिवार्य है मन की साधना
जीवन में द्वन्द्व या शंका के कारण हमारे भीतर परस्पर विरोधी विचार उत्पन्न होते रहते हैं। विचार वास्तविकता का मूल है। पहले एक विचार ने स्वरूप ग्रहण करना प्रारंभ किया ही था कि दूसरे विचार ने दूसरा स्वरूप ग्रहण करना प्रारंभ कर दिया। उसने इस तरह पहले विचार को बरबाद कर दिया। इसी तरह बाद में दूसरे विचार को तीसरे ने और तीसरे विचार को चौथे ने धराशायी कर दिया। हर विचार, हर इच्छा अथवा हर संकल्प के साथ यही क्रम जीवन भर चलता रहता है। जीवन में सफलता हासिल करने के लिए इस निरर्थक और घातक क्रम को रोकना जरूरी है। जिस तरह से हम एक डॉक्टर या न्यूट्रीशियन से परामर्श करके उचित आहार-विहार का चार्ट बनाकर उसका पालन कर सकते हैं, ब्यूटी पार्लर में जाकर चेहरे तथा दूसरे अंगों का ट्रीटमेंट या स्थाई बदलाव के लिए कॉस्मेटिक सर्जरी करा सकते हैं और कपड़ों के चुनाव और डिजाइनिंग के लिए फैशन डिजाइनर की सेवाएं ले सकते हैं उसी प्रकार से विरोधी भावों के त्याग अथवा द्वन्द्व की समाप्ति की ट्रेनिंग लेना भी संभव है। जीवन में यही एक ऐसा क्षेत्र है जिसके प्रशिक्षण की बड़ी आवश्यकता है। लेकिन यही क्षेत्र अधिकाधिक उपेक्षित रहता है। विचारों का उद्गम मन है। अत: मन के उचित प्रशिक्षण द्वारा न केवल उपयोगी विचारों का बीजारोपण संभव है बल्कि साथ ही विचारों के विरोधी भावों का बीजारोपण रोकना भी संभव है। इसके लिए मन की साधना अनिवार्य है। मन की साधना अर्थात मन को विकारों से मुक्त कर उसमें उपयोगी विचार या सुविचार डाल कर उस छवि को निरंतर मजबूत करते जाना। ध्यान द्वारा अपेक्षित उपयोगी विचार, इच्छा अथवा संकल्प को कल्पना चित्र या विजुलाइजेशन द्वारा लगातार मजबूत करके वास्तविकता में परिवर्तित किया जा सकता है। पूरी ऊर्जा को एक केंद्र बिंदु पर एकाग्र करना ही ध्यान, मेडिटेशन अथवा द्वन्द्व का समापन है। सफलता का अंतिम पथ भी यही है।
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03-01-2013, 12:20 AM | #159 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
दो कप चाय की जगह
दर्शन शास्त्र के एक अध्यापक जब भी कक्षा में जाते थे, पढ़ाने के लिए कोई सामान साथ ले जाते और उसी को आधार बना कर बच्चों को पढ़ाते थे। एक बार अध्यापक ने कांच का एक बड़ा सा जार मेज पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद के लिए जगह नहीं बची। फिर उन्होंने छात्रों से पूछा क्या जार पूरा भर गया? हां। आवाज आई। फिर अध्यापक ने छोटे कंकड़ जार में भरने शुरू किए। धीर-धीरे जार को हिलाया तो काफी सारे कंकड़ जहां जगह खाली थी, समा गए। फिर उन्होंने पूछा,क्या अब यह भर गया? छात्रों ने फिर हां कहा। अब अध्यापक ने जार में रेत डालना शुरू किया। रेत भी जहां संभव था बैठ गई। अध्यापक ने फिर पूछा क्यों अब तो यह जार पूरा भर गया ना? हां अब पूरी भर गया है। सभी ने कहा। अध्यापक ने टेबल के नीचे से चाय के दो प्याले निकाल कर उनमें से चाय निकाल जार में डाली। चाय भी रेत के बीच की जगह में सोख ली गई। अध्यापक ने कहा,हमारा जीवन भी इस जार के समान है। टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण अर्थात नैतिकता, शिक्षा, परिवार, मित्र, स्वास्थ्य का प्रतीक हैं। छोटे कंकड़ हमारी नौकरी, मकान और जीने के लिए जरूरी सामान आदि का रूप हैं। रेत का मतलब है छोटी-छोटी बातें, मनमुटाव झगड़े आदि। अब यदि हमने जार में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकड़ों के लिए जगह ही नहीं बचती या कंकड़ भर दिए होते तो गेंदें नहीं भर पाते। हां, रेत जरूर रह सकती थी। ऐसे ही यदि हम छोटी-छोटी बातें जीवन में भरते रहे तो अपनी ऊर्जा उसमें ही नष्ट कर देंगे। हमारे पास मुख्य बातों के लिए अधिक समय नहीं रहेगा। तभी एक छात्र ने पूछा,सर चाय के दो प्याले क्या हैं?अध्यापक हंस कर बोले,जीवन हमें कितना ही संतोषजनक लगे, लेकिन उसमें मित्रों के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिए।
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03-01-2013, 12:21 AM | #160 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
संतुलित ढंग से निभाएं कर्तव्य
बहुत से लोग सोचते हैं कि आध्यात्मिक साधना केवल संन्यासी लोग करेंगे। यह बात बिल्कुल गलत है। अध्यात्म मनुष्य को सहज और समरस बनाने का मार्ग है। यह हमें ईश्वर से जोड़ता है। इसके लिए तो कोई भी साधना कर सकता है। संन्यासी का एक ही कर्त्तव्य रहता है। लेकिन गृहस्थ के कर्त्तव्य दोहरे हो जाते हैं। उसे अपने परिवार का भी पालन करना होता है। स्त्री,पुत्र और परिजनों की देखभाल करनी होती है। उन्हें त्याग कर न संन्यासी ही बना जा सकता है और न अध्यात्म की साधना ही की जा सकती है। चुनौती छोड़ कर भागने वाला कायर बन सकता है, लेकिन भला आध्यात्मिक कैसे हो सकता है। गृहस्थ का दूसरा कर्त्तव्य यह है कि उसे दूसरों के कल्याण के लिए भी कुछ करना होता है। इस दूसरे कर्त्तव्य को खूब संभाल कर संतुलित ढंग से करना होता है। मान लो, कोई व्यक्ति महीने में दो हजार रुपए कमाता है। यदि उसमें से वह एक हजार नौ सौ रुपए दान कर दे तो उसके पास केवल सौ रुपये बचेंगे। तब तो उसके परिवार की बड़ी दुर्दशा हो जाएगी। हर बात का अभाव होगा और परिजनो से भयंकर लड़ाई होगी। पत्नी को घर-संसार संभालना पड़ता है, रसोई बनानी पड़ती है तो वह क्रोधित होगी। इसलिए आध्यात्मिक व्यक्ति को यह सोच कर चलना होगा कि कोई ऐसा काम न हो जिससे पत्नी को यातना से गुजरना पड़े। यह देख कर चलना होगा कि छोटे परिवार की भी देखभाल हो सके और बड़े परिवार के लिए भी थोड़ा-बहुत जो करणीय है, वह कर सके। दोनों ओर संतुलन बना कर चलना पड़ेगा। इसलिए गृहस्थ को आध्यात्मिक बनना है तो उसे अपने छोटे और बड़े संसार दोनों में एक संतुलन रखना होगा और उसको संभाल कर चलना पड़ेगा। यह संतुलन गृही का कर्त्तव्य है, संन्यासी का नहीं। संन्यासी के पास तो जो आता है उसे वह बड़ी आसानी से संसार के लिए दान कर देगा। लेकिन गृही तो ऐसा नहीं कर सकता। गृहस्थ और संन्यासी के जीवन के नियम अलग-अलग हैं।
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