30-11-2012, 06:13 PM | #151 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! |
30-11-2012, 06:13 PM | #152 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
थायस चकित होकर बोली-'अरे अलबीना ! कैसर की बेटी, समराट केरस की भतीजी ! वह भोगविलास छोड़कर आश्रम में तप कर रही है ?'
पापनाशी ने कहा-'हां, हां, वही ! अलबीना, जो महल में पैदा हुई और सुनहरे वस्त्र धारण करती रही, जो संसार के सबसे बड़े नरेश की पुत्री है, उसे मसीह की दासी का उच्चपद पराप्त हुआ है। वह अब झोंपड़े में रहती है, मोटे वस्त्र पहनती है और कई दिन तक उपवास करती है। वह अब तेरी माता होगी, और तुझे अपनी गोद में आश्रय देगी।' थायस चौकी पर से उठ बैठी और बोली-'मुझे इसी क्षण अलबीना के आश्रम में ले चलो।' पापनाशी ने अपनी सफलता पर मुगध होकर कहा-'तुझे वहां अवश्य ले चलूंगा और वहां तुझे एक कुटी में रख दूंगा जहां तू अपने पापों का रोरोकर परायश्चित करेगी, क्योंकि जब तक तेरे पाप आंसुओं से धुल न जायें, तू अलबीना की अन्य पुत्रियों से मिलजुल नहीं सकती और न मिलना उचित ही है। मैं द्वार पर ताला डाल दूंगा, और तू वहां आंसुओं से आद्र होकर परभु मसीह की परतीक्षा करेगी, यहां तक कि वह तेरे पापों को क्षमा करने के लिए स्वयं आयेंगे और द्वार पर ताला खोलेंगे। और थायस, इसमें अणुमात्र भी संदेह न कर कि वह आयेंगे। आह ! जब वह अपनी कोमल, परकाशमय उंगलियां तेरी आंखों पर रखकर तेरे आंसू पोंछेगे, उस समय तेरी आत्मा आनन्द से कैसी पुलकित होगी ! उनके स्पर्शमात्र से तुझे ऐसा अनुभव होगा कि कोई परेम के हिंडोले में झुला रहा है।'
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30-11-2012, 06:13 PM | #153 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
थायस ने फिर कहा-'पिरय पिता, मुझे अलबीना के घर ले चलो।'
पापनाशी का हृदय आनन्द से उत्फुल्ल हो गया। उसने चारों तरफ गर्व से देखा मानो कोई गंगाल कुबेर का खजाना पा गया हो। निस्संक होकर सृष्टि की अनुपम सुषमा का उसने आस्वादन किया। उसकी आंखें ईश्वर के दिये हुए परकाश को परसन्न होकर पी रही थीं। उसके गालों पर हवा के झोंके न जाने किधर से आकर लगते थे। सहसा मैदान के एक कौने पर थायस के मकान का छोटासा द्वार देखकर और यह याद करके कि जिन पत्तियों की शोभा का वह आनन्द उठा रहा था वह थायस के बाग के पेड़ों की हैं। उसे उन सब अपावन वस्तुओं की याद आ गयी जो वहां की वायु को, जो आज इतनी निर्मल और पवित्र थी, दूषित कर रही थी, और उसकी आत्मा को इतनी वेदना हुई कि उसकी आंखों में आंसू बहने लगे।
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30-11-2012, 06:13 PM | #154 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
उसने कहा-'थायस, हमें यहां से बिना पीछे मुड़कर देखे हुए भागना चाहिए। लेकिन हमें अपने पीछे तेरे संस्कार के साधनों, साक्षियों और सहयोगियों को भी न छोड़ना चाहिए। वह भारीपरदे, वह सुन्दर पलंग, वह कालीनें, वह मनोहर चित्र और मूर्तियां, वह धूप आदि जलाने के स्वर्णकुण्ड, यह सब चिल्लाचिल्लाकर तेरे पापाचरण की घोषणा करेंगे। क्या तेरी इच्छा है कि ये घृणित सामगिरयां, जिनमें परेतों का निवास है, जिनमें पापात्माएं त्र्कीड़ा करती हैं मरुभूमि में भी तेरा पीछा करें, यही संस्कार वहां तेरी भी आत्मा को चंचल करते रहें ? यह निरी कल्पना नहीं है कि मेजें पराणाघातक होती हैं, कुरसियां और गद्दे परेतों के यन्त्र बनकर बोलते हैं, चलतेफिरते हैं, हवा में उड़ते हैं, गाते हैं। उन समगर वस्तुओं को, जो तेरी विलसलोलुपता के साथी हैं; मिआ दे, सर्वनाश कर दे। थायस, एक क्षण भी विलम्ब न कर अभी सारा नगर सो रहा है, कोई हलचल न मचेगी, अपने गुलामों को हुक्म दे कि वह स्थान के मध्य में एक चिता बनाये, जिस पर हम तेरे भवन की सारी सम्पदा की आहुति कर दें। उसी अग्निराशि में तेरे कुसंस्कार जलकर भस्मीभूत हो जायें !'
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30-11-2012, 06:14 PM | #155 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
थायस ने सहमत होकर कहा-'पूज्य पिता, आपकी जैसी इच्छा हो, वह कीजिये। मैं भी जानती हूं कि बहुधा परेतगण निजीर्व वस्तुओं में रहते हैं। रात सजावट की कोईकोई वस्तु बातें करने लगती हैं, किन्तु शब्दों में नहीं या तो थोड़ीथोड़ी देर में खटखट की आवाज से या परकाश की रेखाएं परस्फुटित करके। और एक विचित्र बात सुनिए। पूज्य पिता, आपने परियों के कुंज के द्वार पर, दाहिनी ओर एक नग्न स्त्री की मूर्ति को ध्यान से देखा है ? एक दिन मैंने आंखों से देखा कि उस मूर्ति ने जीवित पराणी के समान अपना सिर फेर लिया और फिर एक पल में अपनी पूर्व दशा में आ गयी, मैं भयभीत हो गयी। जब मैंने निसियास से यह अद्भुत लीला बयान की तो वह मेरी हंसी उड़ाने लगा। लेकिन उस मूर्ति में कोई जादू अवश्य है; क्योंकि उसने एक विदेशी मनुष्य को, जिस पर मेरे सौन्दर्य का जादू कुछ असर न कर सका था, अत्यन्त परबल इच्छाओं से परिपूरित कर दिया। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि घर की सभी वस्तुओं में परेतों का बसेरा है और मेरे लिए यहां रहना जानजोखिम था, क्योंकि कई आदमी एक पीतल की मूर्ति से आलिंगन करते हुए पराण खो बैठे हैं। तो भी उन वस्तुओं को नष्ट करना जो अद्वितीय कलानै पुण्य परदर्शित कर रही हैं और मेरी कालीनों और परदों को जलाना घोर अन्याय होगा। यह अद्भुत वस्तुएं सदैव के लिए संसार से लुप्त हो जाएंगी। उमें से कई इतने सुन्दर रंगों से सुशोभित हैं कि उनकी शोभा अवर्णनीय है, और लोगों ने उन्हें मुझे उपहार देने के लिए अतुल धन व्यय किया था। मेरे पास अमूल्य प्याले, मूर्तियां और चित्र हैं। मेरे विचार में उनको जलाना भी अनुचित होगा। लेकिन मैं इस विषय में कोई आगरह नहीं करती। पूज्य पिता, आपकी जैसी इच्छा हो कीजिए।'
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30-11-2012, 06:14 PM | #156 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
यह कहकर वह पापनाशी के पीछेपीछे अपने गृहद्वार पर पहुंची जिस पर अगणित मनुष्यों के हाथों से हारों और पुष्पमालाओं की भेंट पा चुकी थी, और जब द्वार खुला तो उसने द्वारपाल से कहा कि घर के समस्त सेवकों को बुलाओ। पहले चार भारतवासी आये जो रसोई का काम करते थे। वह सब सांवले रंग के और काने थे। थायस को एक ही जाति के चार गुलाम, और चारों काने, बड़ी मुश्किल से मिले, पर यह उसकी एक दिल्लगी थी और जब तक चारों मिल न गये थे, उसे चैन न आता था। जब वह मेज पर भोज्यपदार्थ चुनते थे तो मेहमानों को उन्हें देखकर बड़ा कुतूहल होता था। थायस परत्येक का वृत्तान्त उसके मुख से कहलाकर मेहमानों का मनोरंजन करती थी। इस चारों के उनके सहायक आये। तब बारीबारी से साईस, शिकारी, पालकी उठाने वाले, हरकारे जिनकी मासपेशियां अत्यन्त सुदृ़ थीं, दो कुशल माली, छः भयंकर रूप के हब्शी और तीन यूनानी गुलाम, जिनमें एक वैयाकरण था, दूसरा कवि और तीसरा गायक सब आकर एक लम्बी कतार मंें खड़े हो गये। उनके पीछे हब्शिनें आयीं जिनकी बड़ीबड़ी गोल आंखों में शंका, उत्सुकता और उद्विग्नता झलक रही थी, और जिनके मुख कानों तक फटे हुए थे। सबके पीछे छः तरुणी रूपवती दासियां, अपनी नकाबों को संभालती और धीरेधीरे बेड़ियों से जकड़े हुए पांव उठाती आकर उदासीन भाव से खड़ी हुईं।
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30-11-2012, 06:14 PM | #157 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
जब सबके-सब जमा हो गये तो थायस ने पापनाशी की ओर उंगली उठाकर कहा-'देखो, तुम्हें यह महात्मा जो आज्ञा दें उसका पालन करो। यह ईश्वर के भक्त हैं। जो इनकी अवज्ञा करेगा वह खड़ेखड़े मर जायेगा।'
उसने सुना था और इस पर विश्वास करती थी कि धमार्श्रम के संत जिस अभागे पुरुष पर कोप करके छड़ी से मारते थे, उसे निगलने के लिए पृथ्वी अपना मुंह खोल देती थी। पापनाशी ने यूनानी दासों और दासियों को सामने से हटा दिया। वह अपने ऊपर उनका साया भी न पड़ने देना चाहता था और शेष सेवकों से कहा-'यहां बहुतसी लकड़ी जमा करो, उसमें आग लगा दो और जब अग्नि की ज्वाला उठने लगे तो इस घर के सब साजसामान मिट्टी के बर्तन से लेकर सोने के थालों तक, टाट के टुकड़े से लेकर, बहुमूल्य कालीनों तक, सभी मूर्तियां, चित्र, गमले, गड्डमड्ड करके इसी चिता में डाल दो, कोई चीज बाकी न बचे।'
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30-11-2012, 06:14 PM | #158 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
यह विचित्र आज्ञा सुनकर सबके-सब विस्मित हो गये, और अपनी स्वामिनी की ओर कातर नेत्रों से ताकते हुए मूर्तिवत खड़े रह गये। वह अभी इसी अकर्मण्य दशा में अवाक और निश्चल खड़े थे, और एकदूसरे को कुहनियां गड़ाते थे, मानो वह इस हुक्म को दिल्लगी समझ रहे हैं कि पापनाशी ने रौद्ररूप धारण करके कहा-'क्यों बिलम्ब हो रहा है ?'
इसी समय थायस नंगे पैर, छिटके हुए केश कन्धों पर लहराती घर में से निकली। वह भद्दे मोटे वस्त्र धारण किये हुए थी, जो उसके देहस्पर्श मात्र से स्वगीर्य, कामोत्तेजक सुगन्धि से परिपूरित जान पड़ते थे। उसके पीछे एक माली एक छोटीसी हाथीदांत की मूर्ति छाती से लगाये लिये आता था।
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30-11-2012, 06:15 PM | #159 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
पापनाशी के पास आकर थायस ने मूर्ति उसे दिखाई और कहा-'पूज्य पिता, क्या इसे भी आग में डाल दूं ? पराचीन समय की अद्भुत कारीगरी का नमूना है और इसका मूल्य शतगुण स्वर्ण से कम नहीं। इस क्षति की पूर्ति किसी भांति न हो सकेगी, क्योंकि संसार में एक भी ऐसा निपुर्ण मूर्तिकार नहीं है जो इतनी सुन्दर एरास (परेम का देवता) की मूर्ति बना सके। पिता, यह भी स्मरण रखिए कि यह परेम का देवता है; इसके साथ निर्दयता करना उचित नहीं। पिता, मैं आपको विश्वास दिलाती हूं कि परेम का अधर्म से कोई सम्बन्ध नहीं, और अगर मैं विषयभोग में लिप्त हुई तो परेम की परेरणा से नहीं, बल्कि उसकी अवहेलना करके, उसकी इच्छा के विरुद्ध व्यवहार करके। मुझे उन बातों के लिए कभी पश्चात्ताप न होगा जो मैंने उसके आदेश का उल्लंघन करके की हैं। उसकी कदापि यह इच्छा नहीं है कि स्त्रियां उन पुरुषों का स्वागत करें जो उसके नाम पर नहीं आते। इस कारण इस देवता की परतिष्ठा करनी चाहिए। देखिए पिताजी, यह छोटासा एरास कितना मनोहर है। एक दिन निसियास ने, जो उन दिनों मुझ पर परेम करता था इसे मेरे पास लाकर कहा-आज तो यह देवता यहीं रहेगा और तुम्हें मेरी याद दिलायेगा। पर इस नटखट बालक ने मुझे निसियास की याद तो कभी नहीं दिलाई; हां, एक युवक की याद नित्य दिलाता रहा जो एन्टिओक में रहता था और जिसके साथ मैंने जीवन का वास्तविक आनन्द उठाया। फिर वैसा पुरुष नहीं मिला यद्यपि मैं सदैव उसकी खोज में तत्पर रही। अब इस अग्नि को शान्त होने दीजिए, पिताजी ! अतुल धन इसकी भेंट हो चुका। इस बालमूर्ति को आश्रय दीजिए और इसे स्वरक्षित किसी धर्मशाला में स्थान दिला दीजिए। इसे देखकर लोगों के चित्त ईश्वर की ओर परवृत्त होंगे, क्योंकि परेम स्वभावतः मन में उत्कृष्ट और पवित्र विचारों को जागृत करता है।'
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30-11-2012, 06:15 PM | #160 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
थायस मन में सोच रही थी कि उसकी वकालत का अवश्य असर होगा और कमसे-कम यह मूर्ति तो बच जायेगी। लेकिन पापनाशी बाज की भांति झपटा, माली के हाथ से मूर्ति छीन ली, तुरन्त उसे चिता में डाल दिया और निर्दय स्वर में बोला-'जब यह निसियास की चीज है और उसने इसे स्पर्श किया है तो मुझसे इसकी सिफारिश करना व्यर्थ है। उस पापी का स्पर्शमात्र समस्त विकारों से परिपूरित कर देने के लिए काफी है।'
तब उसने चमकते हुए वस्त्र, भांतिभांति के आभूषण, सोने की पादुकाएं, रत्नजटित कंघियां, बहुमूल्य आईने, भांतिभांति के गानेबजाने की वस्तुएं सरोद, सितार, वीण, नाना परकार के फानूस, अंकवारों में उठाउठाकर झोंकना शुरू किया। इस परकार कितना धन नष्ट हुआ, इसका अनुमान करना है। इधर तो ज्वाला उठ रही थी, चिनगारियां उड़ रही थीं, चटाकपटाक की निरन्तर ध्वनि सुनाई देती थी, उधर हब्शी गुलाम इस विनाशक दृश्य से उन्मत्त होकर तालियां बजाबजाकर और भीषण नाद से चिल्लाचिल्लाकर नाच रहे थे। विचित्र दृश्य था, धमोर्त्साह का कितना भयंकर रूप !
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