04-01-2013, 09:28 PM | #161 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
फिल्में तो हम सभी देखते हैं। यदि कभी हम फिल्मी कहानियों पर गौर करें तो पाएंगे कि कमोबेश हर फि ल्म में नायक-नायिका के अतिरिक्त एक खलनायक या एक खलनायिका भी कहानी में जरूर मौजूद रहते हैं। और फिर इन्हीं के प्रताप से कहानी आगे बढ़ती है। खलनायक और खलनायिका बाधा उत्पन्न करते रहते हैं और कहानी जितना चाहो आगे बढ़ती रहती है। जीवन में ऐसा नहीं होना चाहिए। जिस कहानी में खलनायक अथवा खलनायिका नहीं होते वहां अनेक विषम परिस्थितियां ही खलनायक की भूमिका का निर्वाह करते हुए कहानी के विस्तार में सहायक बनती हैं। जीवन के हर क्षेत्र में यही क्रम लागू होता है। जहां खलनायक अथवा खलनायिका का काम खत्म हुआ नायक-नायिका का मिलन हो जाता है। इसके साथ ही फिल्म की कहानी भी पूरी हो जाती है। फिल्मी कहानी में नायक-नायिका के मिलन में बाधा डालने वालों की तरह ही हमारे अनेक कार्यों अथवा संकल्पों की पूर्ति में भी एक ऐसा ही बाधक खलनायक होता है और वह है द्वन्द्व। हमारे संकल्पों के पूरा न होने का एक कारण तो यही है कि हम अपने संकल्प के प्रति आश्वस्त ही नहीं होते। यानी हमें विश्वास ही नहीं होता कि हमारा संकल्प पूरा हो जाएगा। और इस प्रकार हम एक संकल्प विरोधी बात सोच लेते हैं कि मेरे संकल्प कभी पूरे नहीं होते। असल में यह भी एक संकल्प है लेकिन एकदम नकारात्मक और अनुपयोगी। जिस प्रकार किसी कहानी के सृजन अथवा कथा के विस्तार के लिए द्वन्द्व जरूरी तत्व होता है उसी प्रकार से कार्यों की पूर्णता या संकल्प पूर्ति के लिए नकारात्मक और अनुपयोगी संकल्प अथवा विचारों में द्वन्द्व की समाप्ति उससे भी ज्यादा जरूरी है। द्वन्द्व की स्थिति में हमारे संकल्प की भावना पर बार-बार प्रहार होता है और मूल संकल्प कब और किस रूप में प्रभावी होकर वास्तविकता ग्रहण करता है हमें पता ही नहीं लग पाता। इसलिए कोशिश करें कि कभी द्वन्द्व की स्थिति ना बने।
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04-01-2013, 09:28 PM | #162 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
सुखी और दुखी सन्त
एक आश्रम में दो संत रहते थे। दोनों नियमित सत्संग करते थे। हर समय ईश्वर की आराधना में ही लगे रहते थे। लेकिन फिर भी खास बात यह था कि दोनों में से एक संत हमेशा प्रसन्न रहते थे और दूसरे संत अत्यंत दुखी। इस कारण लोगों ने दोनों के नाम ही सुखी व दुखी संत रख दिया था। लोग इनके पास परामर्श लेने के लिए तो आते ही थे, साथ ही यह भी देखते थे कि एक जैसे ही कार्य करने के कारण भी दोनों में एक सुखी हैं और एक दुखी। दोनों ही लोगों की समस्याओं के समाधान भी बताते थे। हैरानी इस बात की थी कि दुखी संत के समाधान भी सही और प्रेरणादायक होते थे। दुखी संत अपने दुख का कारण जानना चाहते थे। यह जानने की इच्छा लिए वह सुखी संत के साथ अपने वयोवृद्ध गुरु के पास पहुंचे। दुखी संत बोले, गुरुजी मेरा नाम तो सात्विक था, लेकिन लोगों ने मेरे चेहरे पर दुख के भावों को देखकर मुझे दुखी संत की संज्ञा दे दी। इस पर सुखी संत बोल, मेरा नाम भी पहले सत्गुण था, लेकिन मेरे चेहरे पर प्रसन्नता के भावों को देखकर मुझे सुखी नाम दे दिया गया। दुखी संत बोले, हम दोनों की सभी गतिविधियां एक जैसी हैं लेकिन फिर भी मैं दुखी रहता हूं और सुखी खुश। भला ऐसा क्यों होता है? गुरु दोनों की बात सुनकर मुस्कराते हुए बोले, दुखी बेटा, दरअसल एक जैसे काम करते हुए भी सुख और दुख के भाव अलग-अलग हो सकते हैं। उसके पीछे कारण यह है कि जो व्यक्ति हमेशा हर समस्या और दुख का सामना शांत व निश्चल मन से करता है उसका मन प्रसन्न रहता है क्योंकि वह जानता है कि उसकी आंतरिक शक्तियां इतनी शक्तिशाली हैं कि कोई भी विकराल समस्या या दुख उनके आगे ठहर ही नहीं सकता। यही भावना उसे प्रसन्न रखती है। पर यदि व्यक्ति का आत्मविश्वास डगमगाने लगता है तो वह दुखी हो जाता है। आत्मविश्वास की मजबूत डोर ही व्यक्ति को हर परिस्थिति में सुखी बनाए रखती है। दुखी संत को बात समझ आ गई।
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08-01-2013, 12:03 AM | #163 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
हर हाल में खुश रहें
हम आम लोगों में एक बहुत बड़ी कमजोरी होती है कि हम जिंदगी का कोई एक ही पहलू देखते हैं और दूसरे को नजरअंदाज कर देते हैं। जैसे सिक्के के दो पहलू होते हैं, इसी तरह जीवन के भी दो रूप हैं। यह हम पर निर्भर करता है कि हम इसके किस पहलू को देख कर जीना चाहते हैं। हर हाल में संतुष्ट और खुश रहना इस जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। जिस दिन जीवन की अनमोलता का बोध हो जाएगा,उस दिन हमें जिंदगी से असली प्यार होगा और हम सदा खुश रहना सीख जाएंगे क्योंकि आंतरिक खुशी किसी चीज की मोहताज नहीं होती। वह अपने आप से प्राप्त होती है। धन-वैभव जिंदगी को खुशनुमा नहीं बना सकते। ईश्वर का प्रेम हमें आनंद देता है और यह अंतर्मुख होने तथा पूर्ण समर्पण से संभव होता है। कबीर ने इसी के बारे में लिखा- चाह गई, चिंता गई, मनुवा बेपरवाह। जाको कछु ना चाहिए वो ही शहंशाह। ईश्वर निरंतर हमारे साथ ही होता है पर हम उसे भुलाए रहते हैं । ऐसा नहीं होना चाहिए। एक मजदूर से पूछें तो वह बताएगा जीवन का अनुभव कि भगवान की कृपा से पेट का गुजारा हो ही जाता है। और कभी-कभी इससे थोड़ा ज्यादा भी मिल जाता है। लेकिन यही बात किसी धनवान से पूछें तो वह मायूस होकर बोलेगा कि क्या करें? दिन भर कितने तरह की परेशानियां बनी रहती हैं। जीवन की शांति कहां गायब हो गई? वह यह नहीं समझ पाता कि शांति नहीं गायब हुई है, बल्कि वह खुद असंतोष से भर उठा है। तो मित्रो! जिंदगी जिंदादिली का नाम है। और इसे खुशनुमा बनाना हम पर निर्भर करता है। ईश्वर के प्रति समर्पण का भाव हमारे भीतर संतोष का गुण विकसित करता है। धूप-छांव की तरह सुख-दुख तो आने ही है, लेकिन दोनों ही स्थितियों में जीवन खुशनुमा रहे, इसके लिए जरूरी है कि हम अपने भीतर जिंदगी के प्रति खुशी और संतोष का भाव विकसित करें। तभी हम जिंदगी का सही महत्व जान सकेंगे और जब हम ऐसा करेंगे तभी हम खुश रह पाएंगे।
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08-01-2013, 12:04 AM | #164 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
तराजू कहीं और से ले लो
एक बार एक आदमी को अपना सोना तोलना था। सोना तोलने के लिए वह घर से बाहर निकला और तलाश करने लगा कि आखिर तराजू उसे कहां मिलेगा। तभी उसे एक सुनार की दुकान दिखाई दी। वह सुनार के पास पहुंचा और उससे आग्रह किया कि वह कुछ देर के लिए उसका तराजू दे दे। सुनार ने एक बार तो उसकी तरफ देखा ही नहीं। उसे लगा कि वह आदमी केवल उसका समय खराब करने ही आया है। बाद में ना जाने क्या सोच कर उससे कहा, मियां, अपना रास्ता लो। मेरे पास छलनी नहीं है। उसने सुनार से कहा, मजाक मत करो भाई। मुझे छलनी नहीं, तराजू चाहिए। इस पर सुनार ने अजीब सा जवाब देते हुए कहा, मेरी दुकान में झाडू नहीं हैं। वह आदमी परेशान हो गया और बोला, मसखरी करना छोड़ो। मैं आपसे तराजू मांगने आया हूं वह दे दो और जान बूझकर बहरा बन कर ऊटपटांग बातें मत करो। इस पर सुनार पहले तो हंसा फिर बोला मित्र, मैंने तुम्हारी बात पहले ही सुन ली थी। तुमको यह बता दूं कि मैं बहरा नहीं हूं। तुम यह न समझो कि मैं गोलमाल कर रहा हूं। तुम बूढ़े आदमी सूखकर कांटा हो रहे हो। शरीर कांपता हैं। तुम्हारा सोना भी कुछ बुरादा है और कुछ चूरा है। इसलिए तौलते समय तुम्हारा हाथ कांपेगा और सोना गिर पड़ेगा तो तुम फिर आओगे कि जरा झाड़ू देना ताकि मैं सोना इकट्ठा कर लूं और जब बुहार कर मिट्टी और सोना इकट्ठा कर लोगे तो फिर कहोगे कि मुझे छलनी चाहिए ताकि खाक को छानकर सोना अलग कर सको। हमारी दुकान में छलनी कहां? मैंने पहले ही तुम्हारे काम के अन्तिम परिणाम को देखकर दूरदर्शिता से कहा था कि तुम कहीं दूसरी जगह से तराजू मांग लो। जो मनुष्य केवल काम के प्रारम्भ को देखता है वह अन्धा है। जो परिणाम को ध्यान में रखे वह बुद्धिमान है। जो मनुष्य आगे होने वाली बात को पहले ही से सोच लेता है उसे अन्त में लज्जित नहीं होना पड़ता।
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08-01-2013, 06:44 PM | #165 | |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
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अलैक जी, आपने बड़े रोचक अंदाज़ में उक्त सूत्र कोसमझाया है. दृढ़ निश्चय, लगन, लक्ष्य के प्रति एकाग्रता, शांत चित्त ये सब उद्देश्यप्राप्ति के आवश्यक उपादान है. महर्षि पतंजलि ने भी अपने ग्रन्थ योग दर्शन में (विभूतिपाद: ३/२४) एकबड़ा प्रभावी सूत्र दिया है: बलेषु हस्तिबलादीनि II बलेषु = (भिन्न भिन्न) बलों में (संयम करने से), हस्तिबलादीनि = हाथी आदि के बल के सदृश (संयम के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार के) बल प्राप्त होते हैं. अर्थात यदि कोई व्यक्ति हाथी के बल में संयम करता है तो उसे हाथी के बल के समान बल मिल जाता है. इसी प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का श्लोक भी दृष्टव्य है: व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन I बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् II (2/33) भावार्थ: (हे अर्जुन! इस कर्मयोग में) निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है; किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनंत होती हैं. |
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13-01-2013, 12:56 AM | #166 | |
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13-01-2013, 12:58 AM | #167 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
रचनात्मकता को निखारें
हर इंसान में किसी न किसी तरह की रचनात्मकता जरूर होती है। आप यह कहकर चुप नहीं बैठ सकते कि मैं क्रिएटिव नहीं हूं। सॉफ्टवेयर इंजीनियर, बिजनेसमैन व सोशल साइट ट्विटर के सह-संस्थापक बिज स्टोन का उदाहरण सामने रख कर हम इसे और भी आसानी से समझ सकते हैं। बिज स्टोन हाई स्कूल पास करने के बाद न्यूयॉर्क की एक पब्लिशिंग कंपनी में काम करने लगे। उनका काम बॉक्स उठाकर रखना था। एक दिन जब स्टाफ के लोग लंच के लिए बाहर गए हुए थे, तब उन्होने एक किताब का कवर डिजाइन कर दिया और चुपके से उन कवर डिजाइन के बीच रख दिया जो संपादकीय टीम की मंजूरी के लिए जाने थे। आर्ट डायरेक्टर की उस कवर पर नजर पड़ी, तो उन्हें शक हुआ। उन्होंने स्टोन को बुलाकर पूछा कि इस कवर को किसने डिजाइन किया है? स्टोन ने बताया कि यह मैंने डिजाइन किया है। वह स्टोन की ओर पलटे और कहा, तुम्हारा डिजाइन चुन लिया गया है। उन्होंने स्टोन को कवर डिजाइनर की फुलटाइम नौकरी का आफर दिया। स्टोन इस बेहतरीन मौके को गंवाना नहीं चाहते थे। स्टोन ने कॉलेज छोड़ यह नौकरी करने का फैसला किया। स्टोन के आर्ट डायरेक्टर स्टोन से 30 साल बड़े थे। उनके साथ काम करके स्टोन को पता चला कि रचनात्मकता की कोई सीमा नहीं है। आप लगातार नए प्रयोग कर सकते हैं। प्रयोग करने की संभावनाएं असीमित हैं। हमें लगातार अपनी रचनात्मकता को निखारने की कोशिश करनी चाहिए ताकि हम और बेहतर कर सकें। इतना तो तय है कि हम जितना बेहतर करेंगे उसका फल भी हमे उतना ही बेहतर मिलेगा। बस जरूरत तो केवल इस बात की है कि हम जो भी काम करें पूरे मन से करें और उसमें अपनी पूरी रचनात्मकता झौंक दें। तय मानिए, जब हम कोई काम पूरे मनोयोग और रचनात्मकता के साथ करते हैं, तो हमें उसका परिणाम भी बेहतर ही मिलता है।
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13-01-2013, 01:01 AM | #168 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
बुद्ध के प्रवचन का भाव
एक बार बुद्ध एक गांव में अपने किसान भक्त के यहां गए। शाम को किसान ने उनके प्रवचन का आयोजन किया। बुद्ध का प्रवचन सुनने के लिए गांव के सभी लोग उपस्थित थ लेकिन वह किसान भक्त ही कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। गांव के लोगों में कानाफूसी होने लगी कि कैसा भक्त है कि प्रवचन का आयोजन करके स्वयं गायब हो गया। प्रवचन खत्म होने के बाद सब लोग घर चले गए। रात में किसान घर लौटा। बुद्ध ने पूछा, तुम कहां चले गए थे? गांव के सभी लोग तुम्हें पूछ रहे थे। किसान ने कहा, दरअसल प्रवचन की सारी व्यवस्था हो गई थी, पर तभी अचानक मेरा बैल बीमार हो गया। पहले तो मैंने घरेलू उपचार करके उसे ठीक करने की कोशिश की, लेकिन जब उसकी तबीयत ज्यादा खराब होने लगी, तो मुझे उसे लेकर पशु चिकित्सक के पास जाना पड़ा। अगर नहीं ले जाता, तो वह नहीं बचता। आपका प्रवचन तो मैं बाद में भी सुन लूंगा। अगले दिन सुबह जब गांव वाले पुन: बुद्ध के पास आए, तो उन्होंने किसान की शिकायत करते हुए कहा, यह तो केवल आपका भक्त होने का दिखावा करता है। प्रवचन का आयोजन कर स्वयं ही गायब हो जाता है। बुद्ध ने उन्हें पूरी घटना सुनाई और फिर समझाया कि उसने प्रवचन सुनने की जगह कर्म को महत्व देकर यह सिद्ध कर दिया कि मेरी शिक्षा को उसने बिल्कुल ठीक ढंग से समझा है। उसे अब मेरे प्रवचन की आवश्यकता नहीं है। मैं यही तो समझाता हूं कि अपने विवेक और बुद्धि से सोचो कि कौन सा काम पहले किया जाना जरूरी है। यदि किसान बीमार बैल को छोड़ कर मेरा प्रवचन सुनने को प्राथमिकता देता, तो दवा के बगैर बैल के प्राण निकल जाते। उसके बाद मेरा प्रवचन देना ही व्यर्थ हो जाता। मेरे प्रवचन का सार यही है कि सब कुछ त्याग कर प्राणी मात्र की रक्षा करो। इस घटना से गांववालों ने भी उनके प्रवचन का भाव समझ लिया।
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16-01-2013, 03:07 AM | #169 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
खुद को छोटा न समझें
हमारे अंदर परमात्मा छुपे हैं। अपने मन वाले तिल को पीस कर खली अलग कर दो तो तेल मिल जाएगा। तुम्हारे मन वाले दही का मंथन करो तो मट्ठा और मक्खन अलग हो जाएगा। मन वाली दरिया का बालू हटा दो तो पानी निकल आएगा। तुम्हारे मन में जो अपवित्रताएं हैं, जो पाप हैं, जो गुनाह हैं, जो संकीर्णताएं है, जो खुदपरस्ती हैं उन्हें हटा दो। परमपिता खुश हो जाएंगे। यह जो भक्तिमूलक साधना है जिसमें है मैं और मेरा ईश्वर। और मुझे चलना है परमपिता की ओर। यह जो उपासना है यही सही उपाय है और उसी को लेकर जो आगे चलते हैं वे परमपिता को अवश्य पाएंगे। यह काम कौन कर सकता है? जो बहादुर है, जो वीर है, जो संग्रामी है। यह बहादुरी का, वीरता का, संग्रामी का काम कौन कर सकता है? जो भक्त है वही कर सकता है। जो भक्त है वही हिम्मती है, वही बहादुर है। हिम्मत के साथ भक्ति का बहुत निकट संपर्क है। जो पापी है वही डरपोक है। तुम लोग साधक हो। तुम लोग भक्त बनो। अपनी भक्ति की बदौलत मन के मैल को हटा दो। परमपिता तुम्हारे हैं। तुम उनके बेटा हो, तुम उनकी बेटी हो, उनके पास पहुंचना तुम्हारा फर्ज है। थोड़ी चेष्टा करने से आसानी से पहुंच जाओगे। तुम्हारे लिए कोई बड़ी बात नहीं है। अपने पिता के पास पहुंचना तो स्वाभाविक है। अपने आप को कभी छोटा मत समझो, नीच मत समझो। और कोई नीच समझे मगर यह याद रखोगे कि परमपुरुष के पास तुम छोटे नहीं हो, नीच नहीं हो। तुम उनके बेटा-बेटी हो तो अपने आदर्श को सामने रखो। हिम्मत के साथ आगे बढ़ो, जय अवश्य ही होगी। लेकिन इस यात्रा में सिर्फ अपने बारे में न सोचो। उनके बारे में भी सोचो, जो पीछे छूट गए हैं। हो सके,तो उनकी मदद भी करो। कहा तो यही जाता है कि जो दूसरों की मदद करता है ईश्वर इनकी मदद जरूर करता है। मतलब खुद में इच्छा शक्ति हो तो इंसान कोई भी काम आसानी से कर सकता है। इसलिए जो भी करो पूरी लगन के साथ करो।
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16-01-2013, 03:07 AM | #170 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
मुफ्त अनारों की कीमत
एक समय की बात है। एक शहर में एक धनी आदमी रहता था। उसकी लंबी-चौड़ी खेती-बाड़ी थी और उसके अलावा वह कई तरह के व्यापार करता था। बड़े विशाल क्षेत्र में उसके बगीचे फैले हुए थे जहां पर भांति-भांति के फल लगते थे। उसके कई बगीचों में अनार के पेड़ बहुतायत में थे जो दक्ष रखवालोंं की देख-रेख में दिन दूनी और रात चौगुनी गति से फल-फूल रहे थे। उस व्यक्ति के पास अपार संपदा थी किंतु उसका हृदय संकुचित न होकर अति विशाल था। वह दिल खोल कर अपना काम किया करता था। शिशिर ऋतु आते ही वह अनारों को चांदी के थालों में सजाकर अपने द्वार पर रख दिया करता था। उन थालों पर लिखा होता था,आप कम से कम एक अनार तो ले ही लें। मैं आपका स्वागत करता हूं।् लोग इधर-उधर से देखते हुए निकलते रहते थे किंतु कोई भी व्यक्ति फल को हाथ तक नहीं लगाता था। लोग ऐसा क्यों करते ते वह उसके कबी समझ में नहीं आता था। तब उस आदमी ने गंभीरतापूर्वक इस पर विचार किया और किसी निष्कर्ष पर पहुंचा। अगली शिशिर ऋतु में उसने अपने घर के द्वार पर उन चांदी के थालों में एक भी अनार नहीं रखा बल्कि उन थालों पर उसने बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा,हमारे पास अन्य सभी स्थानों से कहीं अच्छे अनार मिलेंगे, किंतु उनका मूल्य भी दूसरे के अनारों की अपेक्षा अधिक लगेगा। और तब उसने पाया कि न केवल पास-पड़ोस के, बल्कि दूरस्थ स्थानों के नागरिक भी उन अनारों को खरीदने के लिए टूट पड़े। कथा का संकेत यह है कि भावना से दी जाने वाली अच्छी वस्तुओं को हेय दृष्टि से देखने की मानसिकता गलत है। सभी सस्ती या नि:शुल्क वस्तुएं या सेवाएं निकृष्ट नहीं होतीं। वस्तुत: आवश्यकता वह दृष्टि विकसित करने की है जो भावना और व्यापार में फर्क कर सके और वस्तुओं की गुणवत्ता का ठीक-ठाक निर्धारण कर सके।
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