01-12-2012, 09:03 AM | #161 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
01-12-2012, 09:03 AM | #162 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
हे वधिक! ऐसे कहकर मैं आधिभौतिक देह के अभिमान को त्यागकर अन्तवाहक शरीर से उड़ा और आकाशमार्ग में उड़ता-उड़ता थक गया परन्तु शरीर कहीं न पाया | तब मैं फिर ऋषि के पास आया और कहा हे पूर्व अपर के वेत्ता और भूत भविष्यत् के जाननेवाले! वे दोनों शरीर कहाँ गये? न इस सृष्टि के विराट् का शरीर भासता है जिसके मार्ग से हम आये थे और न अपना शरीर भासता है? हे संशयरूपी अन्धकार के नाशकर्ता सूर्य! आप इसका कारण बताइये | उग्रतपा बोले, हे कमलनयन और तपरूपी कमल की खानि के सूर्य और ज्ञानरूपी कमल के धारण करनेहारे विष्णु की नाभि और आनन्दरूपी कमल की खानि तू सब कुछ जानता है और आत्मपद में जागा है | तू तो योगीश्वर है, ध्यान करके देख कि सब वृत्तान्त तुझको दृष्टि आये आवे | हे मुनीश्वर! यह जगत् असत्यरूप है इसमें स्थिर कोई वस्तु नहीं | विचारकर देखो कि शरीर की अवस्था तुमको दृष्टि आवे और जो मुझको पूछते हो तो मैं कहता हूँ |
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
01-12-2012, 09:03 AM | #163 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
हे मुनीश्वर! जिस वन में तुम रहते थे और जहाँ तुम्हारे शरीर थे उस वन में एक काल में अग्नि लगी और सब प्रकार के वृक्ष और बेलि जल गईं जल भी अग्नि से क्षोभने लगा और वनचारी पशु-पक्षी सब जल गये और महाकष्ट को प्राप्त हुए उसी के साथ तुम्हारा शरीर भी जल गया और कुटी भी जल गई | मुनीश्वर बोले, हे भगवन्! उस अग्नि से जो सम्पूर्ण वन जल गया तो उसका कारण कौन था? उग्रतपा बोले, हे मुनीश्वर! यह जगत् जिसमें हम और तुम बैठे हैं इसी का विराट् है और जिसके शरीर में तुमने प्रवेश किया था और जिसमें उसका और तेरा समाधिवाला शरीर है उसका विराट् और है-वह सृष्टि उस विराट् का शरीर है | हे मुनीश्वर! उस विराट् के शरीर में जो क्षोभ हुआ इस कारण अग्नि उत्पन्न हुई और शरीर, वृक्ष इत्यादिक सब जल गये | इस सृष्टि के विराट् का नाम ब्रह्मा है, उस ब्रह्मा का विराट् और है और उसका विराट् आत्मा है जो सदा अपने आपमें स्थित है |
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01-12-2012, 09:03 AM | #164 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
और उसमें कुछ और नहीं बना | जिस पुरुष को उसका प्रमाद है उसको उपद्रव और कारण कार्यरूप पदार्थ भासते हैं उससे वह कर्मों के अनुसार दुःख सुख भोगता है और जिसको स्वरूप का साक्षात््कार है उसको जगत् आत्मा भासता है अर्थात् सर्वओर से ब्रह्म भासता है | हे मुनीश्वर! जब इस प्रकार वन के पशुपक्षी सब जले तब तुम्हारी कुटी में भी आग लगी इससे वह कुटी और तुम्हारा शरीर अग्नि से जल गया और जिसके शरीर में तुमने प्रवेश किया था वह भी जलगया | तुम्हारे शिष्य और उसका ओज भी जल गया | और तुम दोनों की संवित् आकाशरूप हो गई | वह अग्नि भी वन को जलाकर अन्तर्धान हो गई |जैसे अगस्त्य मुनि समुद्र काआचमन करके अन्तर्धान हो गये थे,तैसे ही वह अग्नि भी वन को जलाकर अन्तर्धान हो गई और अब तुम्हारे शरीर की राख भी नहीं रही |
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01-12-2012, 09:04 AM | #165 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जैसे स्वप्नसृष्टि जाग्रत् में नहीं दिखाई देती तैसे ही तुम्हारे शरीर अदृष्ट हो गये | हे मुनीश्वर! यह सर्वजगत् स्वप्नमात्र है | मैं तेरे स्वप्न में हूँ और सब जगत् का अधिष्ठान ब्रह्मसत्ता है सो सबका अपना आप है, जगत् उसी का आभास है | जैसे संकल्पसृष्टि, स्वप्ननगर और गन्धर्वनगर होता है, तैसे ही यह जगत् भी है | हे मुनीश्वर! यह जगत् तेरे स्वप्ने में स्थित है और तुमको चिरकाल की प्रतीति से जाग्रत् रूप कारण कार्य नाना प्रकार का सत्य होकर भासता है | मुनीश्वर बोले, हे भगवन्! जो यह स्वप्ननगर सत्य हो गया है तो सबही स्वप्ननगर सत्य होंगे? उग्रतपा बोले, हे मुनीश्वर! प्रथम तू सत्य को जान कि सत्य क्या वस्तु है, पर जगत् जो तुझको भासता है सो सबही स्वप्ननगर है इसमें कोई पदार्थ सत्य नहीं |
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01-12-2012, 09:04 AM | #166 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
इस जगत् को तू समाधि वाले शरीर की अपेक्षा से असत्य कहता है और जिसको तू जाग्रत् वपु कहता है सो किसकी अपेक्षा से कहेगा? यह तो अदृष्टिरूप है इससे इसको स्वप्ना जाना | जिस सत्ता में यह समाधिवाला शरीर भी स्वप्ना है उस सत्ता को जान तब तुझको सत्यपद की प्राप्ति होगी | जैसे यह जगत् आत्मसत्ता में आभास फुरा है, तैसे ही वह भी है | तू जागकर देख तो इसमें और उसमें कुछ भेद नहीं और सर्व जगत् जो भासता है सो सब आत्मरूप रत्न का चमत्कार है | जैसे सूर्य की किरणों में अनहोता ही जल भासता है, तैसे ही सब जगत् आत्मा में अनहोता भासता है और आत्मा के प्रमाद से सत्य भासता है | तू अपने स्वभाव में स्थित होकर देख | मुनीश्वर बोले, हे वधिक! उग्रतपा ऋषीश्वर रात्रि के समय इस प्रकार कहते हुए शय्या पर सो गया और जब कुछ काल में जागा तब मैंने कहा कि हे भगवन्! और वृत्तान्त मैं फिर पूछूँगा परन्तु यह संशय प्रथम दूर करो कि व्याध का गुरु तुमने मुझको किस निमित्त कहा, मैं तो व्याध को जानता भी नहीं? उग्र तपा बोले, हे दीर्घतपस्विन्! ध्यान करके देख, तू तो सब कुछ जानता है जिस प्रकार वृत्तान्त है उसको जानेगा |
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01-12-2012, 09:04 AM | #167 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जो मुझ से पूछता है तो मैं भी कहता हूँ और यह वृत्तान्त तो बड़ा है पर मैं तुझको संक्षेप से कहता हूँ, हे मुनीश्वर! तुम्हारे देश में राजा के बान्धव और सब लोग अपना धर्म छोड़ देंगे तब दुर्भिक्ष पड़ेगा और वर्षा न होगी इससे लोग दुःख पावेंगे और मर-मर जावेंगे | तेरे कुटुम्बी भी मरेंगे और कुटी भी नष्ट हो जावेगी और वृक्ष, फल, फूल से रहित होवेंगे | केवल तू और मैं दोनों वन में रह जावेंगे क्योंकि हमको सुख-दुःख की वासना नहीं हम विदितवेद हैं- विदितवेद को दुःख कैसे हो? हे मुनीश्वर! कुछ काल तो इस प्रकार चेष्टा होगी, फिर कुटी के चौफैर फूल, फल तमाल वृक्ष, कल्पतरु, कमलताल आदि नाना प्रकार की सामग्री होगी, बड़ी सुगन्ध फैलेगी, मोर और कोकिला विराजेंगे और भँवरे कमल पर गुञ्जार करेंगे निदान ऐसा विलास प्रकट होगा मानो इन्द्र का नन्दनवन आन लगा है और ऐसी दशा फिर होगी |
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01-12-2012, 09:05 AM | #168 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
मुनीश्वर बोले, हे वधिक! उग्रतपा ऋषीश्वर ने मुझसे फिर कहा कि हे मुनीश्वर! इस प्रकार वह वन होगा तब तू और मैं एक समय तप करने को उठेंगे और वहाँ एक व्याध मृग के पीछे दौड़ता तेरी कुटी के निकट आवेगा, उसको तू सुन्दर और पवित्र कथा उपदेश करेगा और उसमें स्वप्ने का प्रसंग चलेगा | उस प्रसंग को पाकर स्वप्न और जाग्रत् का वृत्तान्त वह पूछेगा, उससे तू स्वप्ने का प्रसंग कहेगा और उस स्वप्ने के प्रसंग में उसको तू परमार्थ उपदेश करेगा, क्योंकि संत का स्वभाव यही है और मेरे समागम का वृत्तान्त उपदेश करेगा | तेरे वचनों को पाकर वह पुरुष विरक्तचित्त होकर तप करेगा, उससे उसका अन्तःकरण निर्मल होगा और सत्यपद को प्राप्त होगा | हे मुनीश्वर! इस प्रकार होगा सो मैंने तुझे संक्षेप से कहा है, तू भी ध्यान करके देख इस कारण मैंने तुझको व्याध का गुरु कहा है |
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01-12-2012, 09:05 AM | #169 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
हे व्याध! इस प्रकार जब उग्रतपा ने मुझसे कहा तब मैं सुनकर विस्मित हुआ कि इसने क्या कहा? बड़ा आश्चर्य है, ईश्वर की नीति जानी नहीं जाती कि क्या होना है हे वधिक! इस प्रकार मेरी और उसकी चर्चा हुई तब रात्रि व्यतीत हो गई और मैंने स्नान करके प्रीति बढ़ाने के निमित्त भली प्रकार उसकी टहल की तब वह वहाँ रहने लगा | फिर मैं विचार करने लगा कि यह जगत् क्या है, इसका कारण कौन है और मैं क्या हूँ | तब मैंने विचार किया कि यह जगत् अकारण है, किसी का बनाया नहीं और स्वप्नमात्र है | आत्मरूपी चन्द्रमा की जगत््रूपी चाँदनी है, उसी का चमत्कार है और वही आत्मसत्ता घट, पट आदिक आकार हो भासती है वास्तव में न कोई कर्म है, न क्रिया है, न कर्त्ता है, न मैं हूँ और न जगत् है |
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01-12-2012, 09:05 AM | #170 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जो तू कहे कि क्यों नहीं सर्व अर्थ और ग्रहण त्याग तो सिद्ध होते हैं तो ग्रहण त्याग पिण्ड से होता है और पिण्ड तत्त्वों से होता है, सो तो यह पिण्ड न किसी तत्त्व से बना है और न किसी माता-पिता से है, यह तो स्वप्ने में फुर आया है तो इसका कारण किसे कहिये? और जो कहिये कि भ्रममात्र है तो भ्रम का कारण कौन है और भ्रान्ति का दृष्टा कौन है? जिस शरीर से दृष्टि आता था उसका दृष्टारूप मैं तो भस्म हो गया इससे जगत् और कुछ वस्तु नहीं, केवल आदि अन्त से रहित आत्मसत्ता अपने आप में स्थित है सो ही मेरा स्वरूप है | वहाँ यह जगत््रूप होकर भासता है, पर केवल ब्रह्मसत्ता स्थित है और पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश आदिक पदार्थ सब आत्मरूप हैं | जैसे समुद्र तरंगरूप हो भासता है परन्तु कुछ और नहीं होता, तैसे ही आत्मा नाना प्रकार हो भासता है पर कुछ और नहीं होता ब्रह्मसत्ता ही निराभास है और आभास भी कुछ हुआ नहीं केवल चैतन्यसत्ता ऐसे रूप होकर भासती | हे वधिक! इस प्रकार विचार करके मैं विगत मैं विगतज्वर हुआ और मुनीश्वर के वचनों से पर्वत की नाईं अपने स्वभाव में अचल स्थित हुआ | जो कुछ इष्ट-अनिष्ट पदार्थ प्राप्त हो उसमें सम रहूँ अभिलाषा से रहित सब अपनी चेष्टा को करूँ अपने स्वभाव में स्थित रहूँ | हे बधिक! सुख भोगने के निमित्त न मुझको जीने की इच्छा है और न मरने की इच्छा है, न जीने में हर्ष है और न मरने में शोक है, मैं सदा आत्मपद में स्थित हूँ कुछ संशय मुझको नहीं | संपूर्ण संशय फुरने में है सो फुरना मेरे में नहीं रहा इसलिये संसार भी नहीं है |
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