24-01-2013, 02:45 PM | #171 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
एक बार भगवान बुद्ध एक व्यापारी के घर पैदा हुए। उसी नगर में सेरिव नाम का व्यापारी भी था। जब भगवान बुद्ध बड़े हुए तब उनके व्यापारी पिता ने सेरिव के साथ उन्हें व्यापार के लिए भेजा। सेरिव चतुर और कपटी व्यापारी था। बुद्ध दयालु और सरल हृदय थे। दोनों एक नगर में पहुंचे और फेरी लगाने लगे। एक सेठ परिवार के घर के सामने से सेरिव गुजरा। वह आवाज दे रहा था - मोती की माला ले लो। सेठ की बेटी ने मां से कहा, अगर तुम कहो तो हमारे पास पीतल की एक पुरानी थाली पड़ी है उसे बेचकर माला ले लूं। मां ने उसकी बात मान ली। सेठ की बेटी ने फेरीवाले को बुलाकर कहा,यह थाली ले लो और मुझे एक माला दे दो। सेरिव ने थाली देखी। थाली सोने की। सेरिव बोला,यह तो दो कोड़ी की है। इसमें माला क्या एक मोती भी नहीं मिल सकता। यह तो पीतल की है और वह थाली फेंककर चला गया। सेठ की बेटी निराश हो गई। थोड़ी देर बाद दूसरा फेरीवाला आया। उसने इसे भी थाली दिखाकर एक माला मांगी। यह फेरीवाला भगवान बुद्ध थे। उन्होंने देखकर कहा,यह तो सोने की है और इसका मूल्य बहुत है। मेरे पास तो पांच हजार मुद्रा है। सेठ की बेटी ने खुश होकर कहा ठीक है वही दे दो । बुद्ध ने पांच हजार मुद्रा और एक माला देकर वह थाली खरीद ली और चले गए। कुछ देर बाद सेरिव आया और बोला, लो उस बेकार थाली के बदले ही में एक माला दे दूं। सेठ की बेटी बोली, तुम झूठ बोलते हो। वह थाली सोने की थी। एक फेरीवाला आया था और वह पांच हजार मुद्राओं में खरीदकर ले गया। सेरिव बहुत दुखी हुआ। जब वह बुद्ध से मिला तब वह उसको देखते ही सारी बात समझ गए। उन्होंने कहा, तुम तो पुराने हो लेकिन इतनी सी बात भूल गए की लोभ करने और धोखा देने से व्यापार में बढ़ोतरी नहीं होती है। ईमानदारी से व्यापार करने वाले को ही सोने की थाली मिलती है।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु Last edited by Dark Saint Alaick; 24-01-2013 at 09:54 PM. |
24-01-2013, 02:46 PM | #172 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
पहले अपना लक्ष्य तय करें
अगर हमारे सामने कोई निश्चित लक्ष्य नहीं है तो हम अपनी उर्जा को बरबाद करते रहेंगे और नतीजा कुछ खास नहीं निकलेगा लेकिन इसके विपरीत जब हम लक्ष्य को ध्यान में रखेंगे तो हमारी उर्जा सही जगह उपयोग होगी और हमें सही नतीजे देखने को मिलेंगे। जिससे पूछिए वही कहता है कि मैं एक सफल व्यक्ति बनना चाहता हूं पर अगर ये पूछिए कि क्या हो जाने पर वह खुद को सफल व्यक्ति मानेगा तो इसका उत्तर कम ही लोग पूरे विश्वास से दे पाएंगे। सबके लिए सफलता के मायने अलग अलग होते हैं और यह मायने लक्ष्य द्वारा ही निर्धारित होते हैं। तो यदि आपका कोई लक्ष्य नहीं है तो आप एक बार को औरों की नजर में सफल हो सकते हैं पर खुद कि नजर में आप कैसे तय करेंगे कि आप सफल हैं या नहीं? इसके लिए आपको अपने द्वारा ही तय किए हुए लक्ष्य को देखना होगा। हमारी जिंदगी में कई अवसर आते-जाते हैं। कोई चाह कर भी सभी अवसरों का फायदा नहीं उठा सकता। हमें अवसरों को कभी हां तो कभी ना करना होता है। ऐसे में ऐसी परिस्थितियां आना स्वाभाविक है, जब हम तय नहीं कर पाते कि हमें क्या करना चाहिए। ऐसी स्थिति में आपका लक्ष्य आपको गाइड कर सकता है। जैसे एक महिला का लक्ष्य एक ब्यूटी पार्लर खोलने का है। ऐसे में अगर आज उसे एक ही साथ दो जगह काम करने का प्रस्ताव मिलें, जिसमें से एक किसी पार्लर से हो तो वह बिना किसी सोच विचार के पार्लर ज्वाइन कर लेगी भले ही वहां उसे दूसरे कर्मचारी से कम वेतन मिले। वहीं अगर सामने कोई लक्ष्य ना हो तो हम तमाम प्रस्तावों का आकलन ही करते रह जायें और अंत में शायद ज्यादा वेतन ही निर्णायक फैक्टर बन जाए। अर्नोल्ड एच ग्लासगो का कथन है कि फुटबाल कि तरह जिन्दगी में भी आप तब तक आगे नहीं बढ़ सकते जब तक आपको अपने लक्ष्य का पता ना हो। यह बिलकुल कथन उपयुक्त लगता है। यदि आपने लक्ष्य निर्धारित किया है तो इस दिशा में सोचना शुरू कीजिए।
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03-02-2013, 08:56 PM | #173 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
यह तो संगत का असर है
बादशाह अकबर शाम को टहलने निकला करते थे। शाम को टहलना उनका लगभग रोज का क्रम था। वे इस दौरान अक्सर अपने साथ बीरबल को भी ले जाया करते थे ताकि टहलने के साथ बीरबर से आवश्यक चर्चाएं भी होती रहें। एक शाम अकबर और बीरबल शाही बगीचे में प्रसन्नतापूर्वक टहल रहे थे। चलते चलते बीरबल ने अपनी आदत के अनुसार बादशाह अकबर पर कोई टिप्पणी कर दी। बाहशाह चौंके कि बीरबल ये क्या कह रहा है क्योंकि उन्हें बीरबल की टिप्पणी पसंद नहीं आई। बाहशाह अकबर थोड़े खफा हो गए परन्तु बीरबल ने बादशाह की नाराजगी पर कोई ध्यान ही नहीं दिया। वह अप्रत्यक्ष रूप से बादशाह के साथ मजाक करता ही रहा। कुछ समय तक तो बादशाह खामोश रहे और अपना गुस्सा पीते रहे लेकिन आखिर में उनसे रहा नहीं गया। जब बादशाह अपने क्रोध पर काबू नहीं रख पाए तो चिल्लाते हुए बोले,अपने बादशाह सलामत की शान में इस प्रकार कुछ भी कहने की आखिर तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? यह सच है कि मैं तुम्हारी बुद्धिमता से प्रभावित होता हूं परन्तु मैं यह देख रहा हूं कि तुम तो अपनी सारी सीमाओं को ही पार कर रहे हो। जो मन में आ रहा है लगातार बोले ही जा रहे हो। मैं यह देख रहा हूं कि बात करते-करते तुम्हारा व्यवहार भी असभ्य हो गया है। हमेशा की तरह अपने दिमाग का प्रयोग करते हुए बीरबल बादशाह अकबर के सामने झुका और बोला,महाराज,यह मेरी गलती नहीं है। यह सब मेरी संगत का असर है। दरअसल आपके साथी आपके व्यवहार को प्रभावित करते हैं। यह सुनकर बादशाह ठहाके मार कर हंसे। वह जानते थे कि बीरबल अपना सर्वाधिक समय स्वंय बादशाह के साथ ही बिताता है। इस प्रकार बीरबल ने एक बार फिर अपनी बुद्धिमता से बादशाह को प्रभावित किया। इससे यह साबित होता है कि आपकी संगत हमेशा अच्छी ही होनी चाहिए।
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03-02-2013, 08:56 PM | #174 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
सुख-दुख को समान समझो
नानक दुखिया सब संसार है। यह उद्गार गुरु नानक देव के हैं जिन्होंने संसार को दुख स्वरूप बताया। प्रत्येक व्यक्ति को अपना दुख दूसरे के दुख से अधिक लगता है। लोग एक दूसरे के दुख से दुखी होने की अपेक्षा उसका आनंद लेते हैं । इससे दुख कम होने की अपेक्षा बढ़ जाता है। जब दुख बढ़ जाता तभी ईश्वर याद आता है। संत कबीर ने भी कहा है कि- दुख में सुमिरन सब कर, सुख में करे न कोय। वास्तव में सुख-दुख मन का विकार है। मन अनुकूल परिस्थितियों में सुख तथा प्रतिकूल परिस्थिति में दुख का अनुभव करता है। यह दुख-सुख मनुष्य की बुधि व मन की उपज है। भगवान कृष्ण ने भी गीता के द्वितीय अध्याय के 35 वे श्लोक में कहा है कि हे अर्जुन सुख-दुख व जय-पराजय को समान मानकर कर्तव्य समझ कर युद्ध कर। तुझे पाप नहीं लगेगा। किसी मां को खबर मिली की उसके लड़के का एक्सिडेंट हो गया। उसे दुख हुआ और घटना स्थल पर गई। वहां पता लगा कि दुर्घटना में उसका लड़का नहीं किसी और का लड़का घायल हुआ है तो उसका दुख खत्म हो गया। इस प्रकार जहां मनुष्य का अपनापन जुड़ जाता है उसे उसी प्रकार की अनुभूति होने लगती है। जिसने इस बात को समझ लिया कि दुनिया में क्या साथ लाए थे क्या लेकर जाएंगे,खाली हाथ आए और हाथ पसारे जाएंग वही सुखी है। ईश्वर अंत में सब वापस ले लेता है। शेष रहा जाता है तो पाप-पुण्य मात्र। इसी प्रकार हमारे शास्त्रों में माता कुंती का उदाहरण आता है कि जब महाभारत के बाद भगवान कृष्ण द्वारका जाने लगे तो कृष्ण ने कहा बुआ मैं द्वारका जा रहा हूं तुम्हारी कुछ इच्छा हो तो मांगो। माता कुंती का उत्तर था यों तो आपने सब कुछ दिया है परंतु यदि देना है तो तुम मुझे दुख का वरदान दो। कृष्ण हंसे व कहा बुआ दुख क्यों मांग रही हो? माता ने कहा जब-जब हम पर दुख आया,आपको याद किया और आपने आकर तुरंत सहायता की है। अत: सुख-दुख को समान मान कर चलोगे तो कभी दुख आएगा ही नहीं।
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05-02-2013, 02:55 PM | #175 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
नए विचार ही बढ़ाते हैं आगे
सैम पित्रोदा जाने-माने टेलीकॉम आविष्कारक और उद्यमी हैं। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के अध्यक्ष रह चुके पित्रोदा वर्तमान में पब्लिक इनफॉर्मेशन इन्फ्रास्ट्रक्चर ऐंड इनोवेशन मामलों पर प्रधानमंत्री के सलाहकार हैं। एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उन्होंने देश में इनोवेशन संस्कृति विकसित करने पर जोर दिया और कहा मैं मानता हूं कि इनोवेशन 21वीं सदी की कुंजी है। इतिहास गवाह है कि भारत ने हमेशा से नए विचारों और नई खोजों को प्रोत्साहित किया है। शून्य की खोज हमने की। इस खोज ने गणित में क्रांति कर दी। अगर हम अपनी ऐतिहासिक व सांस्कृतिक धरोहरों पर नजर डालें तो पाएंगे कि भारतीयों ने शिल्प और वास्तुकला के क्षेत्र में अद्भुत नमूने पेश किये। ताजमहल और कुतुबमीनार जैसी इमारतें इसका सबूत हैं। शिल्प कला ही क्यों, हर्बल दवाओं के क्षेत्र में भी हमने तमाम नई खोज कीं। अगर शिक्षा की बात करें तो नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों की स्थापना नए विचारों की ही देन हैं। इनोवेशन्स की वजह से ही गूगल, माइक्रोसाफ्ट, फेसबुक, एप्पल जैसी कंपनियों का जन्म हुआ। आज से 25 साल पहले इन कम्पनियों का कोई अस्तित्व नहीं था। आज ये कम्पनियां खरबों रुपये का व्यापार करती हैं और हजारों लोगों को रोजगार देती हैं। यह सब उन लोगों की वजह से संभव हो पाया है जो लीक से हटकर कुछ नया करने की तमन्ना रखते हैं। एक नया आइडिया क्रांति कर सकता है। मुझे लगता है कि नए आइडिया किसी भी देश का भाग्य बदल सकते हैं। वैसे आजकल हर कोई इनोवेशन पर जोर दे रहा है। दुनिया की हर कम्पनी कुछ नया करना चाहती है। हो सकता है कि कोई बड़ी कम्पनी नई खोज न कर पाएं और एक छोटी कम्पनी एक नए आइडिया की मदद से कुछ बड़ा कमाल कर दे। याने कहा जा सकता है कि हमें हमेशा कुछ ना कुछ नया करने पर ध्यान देना चाहिए। इससे देश व समाज की ही उन्नति होगी।
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05-02-2013, 02:58 PM | #176 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
... और चूहे ने पा लिया लक्ष्य
एक शहर में दूध के कलेक्शन का एक सेंटर था। सेंटर में एक मोटा और एक छोटा चूहा रहते थे और अक्सर खूब धमा-चौकड़ी मचाते रहते थे। इसी उछल-कूद के दौरान एक दिन दोनों ताजा दूध के एक टब में जा गिर। दोनों बाहर निकलने की कोशिश में घंटों तैरते रहे, लेकिन टब की सीधी और फिसलने वाली दीवारें उनकी दुश्मन बनी हुई थीं। अब उन्हें मौत निश्चित दिखने लगी। तैरते-तैरते मोटे चूहे की हिम्मत जवाब दे गई। बचने की कोई उम्मीद ना देखकर वो बुदबुदाया जो भाग्य में निश्चित है उसके खिलाफ लड़ना अब बेकार है। मैं तैरना छोड़ रहा हूं। ये सुनकर छोटा चूहा जोर से बोला, तैरते रहो, तैरते रहो। छोटा चूहा अब भी टब के गोल चक्कर काटता जा रहा था। ये देखकर मोटा चूहा थोड़ी देर और तैरा और फिर रुक कर बोला, छोटे भाई कोई फायदा नहीं। बहुत हो चुका। हमें अब मौत को गले लगा लेना चाहिए। अब बस छोटा चूहा ही तैर रहा था। वो अपने से बोला, कोशिश छोड़ना तो निश्चित मौत है। मैं तो तैरता ही रहूंगा। दो घंटे और बीत गए। आखिर छोटा चूहा भी थक कर चूर हो चुका था। पैर उठाना भी चाह रहा था तो उठ नहीं रहे थे। ऐसे लग रहा था जैसे कि उन्हें लकवा मार गया हो, लेकिन फिर उसके जेहन में मोटे चूहे का हश्र कौंधा। उसने फिर पूरी ताकत के साथ आगे बढ़ना शुरू किया। कुछ देर और उसके तैरने से दूध में लहरें उठती रहीं फिर एक वक्त ऐसा भी आया कि छोटा चूहा भी निढाल हो गया। उसे लगा कि अब वो डूबने वाला है लेकिन ये क्या। उसे अपने पैरों के नीचे कुछ ठोस महसूस हुआ। ये ठोस और कुछ नहीं, बल्कि मक्खन का एक बड़ा टुकड़ा था। वही मक्खन जो चूहे के तैरते-तैरते दूध के मंथन से बना था। थोड़ी देर बाद छोटा चूहा आजादी की छलांग लगा कर दूध के टब से बाहर था। इस कथा से स्वामी विवेकानंद का यह आह्वान सार्थक होता है कि जागो, उठो और लक्ष्य पूरा होने तक मत रुको।
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06-02-2013, 12:00 AM | #177 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
नाकामी के भय से निकलें
जरूरी नहीं है कि इनोवेशन के लिए बहुत सारे लोग काम करें। एक अकेला व्यक्ति भी नया अविष्कार कर सकता है। जरूरी है सिर्फ एक आइडिया। हां, यह सच है कि हमारा इतिहास नई खोजों और नये विचारों से भरपूर रहा है लेकिन आज आधुनिक समय में हमारे यहां इनोवेशन संस्कृति का अभाव है। हमें नए विचारों के लिए अनुकूल माहौल बनाना होगा। लीक से हटकर सोचने की आदत विकसित करनी होगी। इनोवेशन का मतलब प्रयोगशाला या विज्ञान से कतई नहीं है। इसके लिए न केवल हमारे पास नया आइडिया होना चाहिए बल्कि उस पर काम करने का साहस भी। कुछ नया करने के लिए हमें सफलता और असफलता के भय से बाहर निकलना होगा। हर आइडिया अच्छा नहीं होता और हर आईडिया सफल भी नहीं होता। सैम पित्रोदा एक बढ़ई के बेटे हैं। वे टेलीकॉम इंजीनियर बने और मैने खुद को परखने की कोशिश की। अमेरिका गए जहां उन्हे कुछ नया करने का मौका मिला और वे अविष्कारक बन गया। वे वापस भारत आए और सामाजिक क्षेत्र में काम करने का फैसला किया। कुछ नया करने के लिए उनको ऐसे क्षेत्र में काम करना पड़ता है जिसके बारे में पहले किसी ने न सोचा हो। हमारे देश में दिक्कत यह है कि ज्यादातर स्नातक प्रशिक्षित नहीं हैं। विश्वविद्यालय इस क्षेत्र में ज्यादा काम नहीं करते हैं। हमारे प्रोफेसर शोध में दिलचस्पी नहीं रखते। वैसे हर कोई कुछ नया करना चाहता है लेकिन उन्हें नहीं मालूम कि इसे कैसे करें। इनोवेशन का माहौल तैयार करना होगा। हमें माइंडसेट बदलना होगा। हम एक अरब आबादी वाले देश हैं। अच्छी बात यह है कि हमारी आबादी का बड़ा हिस्सा युवा है। युवा हमारी ताकत हैं। युवाओं को इनोवेशन के लिए प्रेरित करना होगा। अगर युवा इस विचारधारा के साथ आगे आएं कि कुछ नया करना है तो देश की प्रगति कोई रोक नहीं सकता। हां, इसके साथ कामयाबी व नाकामी जुड़ी हो सकती हैं पर इससे घबराएं नहीं।
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06-02-2013, 12:01 AM | #178 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
समझदारी ने बचा ली जान
एक गांव के समीप एक नदी बहती थी। नदी के दूसरी तरफ घना जंगल था। जंगल में खरगोश रहता था। एक दिन नदी से बड़ा कछुआ आकर रहने लगा। खरगोश और कछुए में दोस्ती हो गई। एक दिन खरगोश से पूछा तुम क्या क्या जानते हो? कछुए ने घमंड से कहा,मैं बहुत सी विद्या जानता हूं। खरगोश ने मुंह लटकाकर कहा,मैं केवल एक ही विद्या जानता हूं। दोनो रोज साथ-साथ खेलते थे। एक दिन मछुआरे ने नदी में जाल डाला। जाल में कछुआ भी फंस गया। खरगोश को चिंता हुई। वह कछुए से मिलने नदी पर गया तो देखा कछुआ मछुआरे के जाल में फंसा है। खरगोश चुपके से कछुए के पास गया और उससे कहने लगा,क्या हुआ। तुम तो बहुत सारी विद्या जानते हो। कोई उपाय कर बाहर आ जाओ। कछुए ने कोशिश की परन्तु बाहर नहीं निकल पाया। उसने खरगोश से मदद मांगी। खरगोश ने कछुए से कहा,जब मछुआरा यहां आए तो तुम मरने का नाटक करना। वह तुम्हे मरा जानकर जाल से निकाल नदी किनारे रख देगा। उसी समय तुम नदी में चले जाना। कछुए ने ऐसा ही किया। मछुआरे ने कछुए को मरा हुआ जानकर जाल से निकाल नदी के बाहर जमीन पर रख दिया। मौका देख कछुआ उठा और नदी की तरफ चलने लगा। खरगोश ने कछुए से कहा जल्दी करो मछुआरा आ जाएगा। कछुए ने कहा,मेरा पांव घायल है। मुझसे तेज नहीं चला जा रहा है। शायद अब मैं बच न सकूंगा। तुम जाओ और अपनी जान बचाओ। कहीं मछुआरे की नजर तुम पर न पड़ जाए। खरगोश बोला,घबराओ मत मैं कुछ करता हूं। खरगोश लंगड़ा कर चलने लगा। मछुआरा उसे पकड़ने भागा। खरगोश ने मछुआरे को जंगल में खूब भगाया और मछुआरे को दूर ले गया। तब तक कछुआ नदी में जा चूका था। खरगोश को वापस नदी पर देख कछुए ने उसे धन्यवाद दिया। खरगोश ने समझदारी से कछुए को जान बचा ली।
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06-02-2013, 02:43 AM | #179 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
सुनने की क्षमता कुंद न हो
आज के तनाव भरे समय में ऐसा इंसान मिलना मुश्किल है जिसे कोई शारीरिक तकलीफ या मानसिक परेशानी न हो। वैसे तो लोगों को अपने स्वास्थ्य में कुछ गड़बड़ नहीं दिखाई देती पर कुछ ऐसा भी है जो दुरुस्त नहीं लगता। दरअसल नैरोग्य (वैलनेस) की अनुभूति हमसे दूर चली गई है। यह अनुभूति उस समय पैदा होती है जब देह व मन एक स्वर में गुनगुनाते हैं। वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि हमारा संपूर्ण स्वास्थ्य व सुख इस बात पर निर्भर करता है कि हम देह व मस्तिष्क के बीच के इस सम्बंध के प्रति कैसा नजरिया रखते हैं। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि हमें बौद्धिक समझ प्रदान करने वाली हमारे सचेत मन की पतली सी परत हमारे समूचे अस्तित्व के दसवें हिस्से का ही प्रतिनिधित्व कर पाती है। इस चेतन परत की बजाय मन की अवचेतन परतें अधिक महत्वपूर्ण हैं। अवचेतन की इसी शक्ति को ध्यान में रखकर ओशो ने एक प्राचीन तिब्बती पद्धति को पुनर्जीवित किया जिसे बॉडी माइंड बैलेंसिंग कहते हैं। इसमें लोग देह और मन का इस्तेमाल करना सीखते हैं। देह अपने आप बहुत समझदार है क्योंकि वह लाखों साल पुरानी है। मन उसके मुकाबले बहुत नया है। देह अपनी जरूरतों को एकदम ठीक-ठीक समझती है और समय-समय पर हमारी मदद करने के लिए हमें संदेश देती रहती है। दिक्कत यह है कि मीडिया के कोहराम ने हमारी सुनने की क्षमताओं को कुंद कर दिया है और हम देह के संदेशों को सुनना भूल ही गए हैं। यही कारण है कि अब देह आपका ध्यान खींचने के लिए और कठोर भाषा अपनाती है। उसका संदेश तरह-तरह की बीमारियों के रूप में सुनाई देता है जैसे सिरदद, अनिद्रा, दुर्घटनाओं के आघात, लाइलाज बीमारियां, पीठ और पेट के रोग। पीड़ा कोई भी हो वह देह का संदेश है। यह ध्यान पद्धति सिखाती है कि देह की आवाज को एक बार फिर कैसे सुनना शुरू किया जाए। अगर हम देह की आवाज को सुन लें तो शारीरिक तकलीफ परेशानी पैदा नहीं कर सकती।
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06-02-2013, 02:52 AM | #180 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
जब शत्रु मित्र बन जाए
बरगद का एक पुराना पेड़ था। उस पेड़ की जड़ों के पास दो बिल थे। एक बिल में चूहा रहता था और दूसरे में नेवला। पेड़ की खोखली जगह में बिल्ली रहती थी। डाल पर उल्लू रहता था। बिल्ली, नेवला और उल्लू तीनों चूहे पर निगाह रखते कि कब वह पकड़ में आए और उसे खाएं। उधर बिल्ली चूहे के अलावा नेवला तथा उल्लू पर निगाह रखती थी कि इनमें से कोई मिल जाए। इस प्रकार बरगद में ये चारों प्राणी शत्रु बनकर रहते थे। चूहा और नेवला बिल्ली के डर से दिन में नहीं निकलते थे। रात में भोजन की तलाश करते। उल्लू तो रात में निकलता था। बिल्ली इन्हें पकड़ने के लिए रात में भी चुपचाप निकल पड़ती। एक दिन वहां एक बहेलिया आया। उसने खेत में जाल लगाया और चला गया। रात में चूहे की खोज में बिल्ली खेत की ओर गई और जाल में फंस गई। कुछ देर बाद चूहा उधर से निकला। उसने बिल्ली को जाल में फंसा देखा, तो खुश हुआ। तभी घूमते हुए नेवला और उल्लू आ गए। चूहे ने सोचा, ये दोनों मुझे नहीं छोड़ेगे। बिल्ली तो मेरी शत्रु है ही। अब क्या करूं? उसने सोचा, इस समय बिल्ली मुसीबत में है। मदद के लालच में शत्रु भी मित्र बन जाता है, इसलिए इस समय बिल्ली की शरण में जाना चाहिए। चूहा बिल्ली के पास गया और बोला, मैं जाल काटकर तुम्हें मुक्त कर सकता हूं, किन्तु कैसे विश्वास करूं कि तुम मित्रता का व्यवहार करोगी? बिल्ली ने कहा, तुम्हारे दो शत्रु इधर ही आ रहे हैं। तुम मेरे पास आकर छिप जाओ। मैं तुम्हें मित्र बनाकर छिपा लूंगी। चूहा बिल्ली के पास छिप गया। नेवला और उल्लू आगे निकल गए। बिल्ली ने कहा, आज से तुम मेरे मित्र हो। अब जल्दी से जाल काट दो। चूहे ने जाल काट दिया और भागकर बिल में छिप गया। बिल्ली ने चूहे को आवाज दी, मित्र बाहर आओ। डरने की क्या बात है? चूहा बोला, मैं तुम्हें खूब जानता हूं। शत्रु केवल मुसीबत में फंसकर ही मित्र बनता है। मैं तुम पर विश्वास नहीं कर सकता।
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