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Old 11-11-2014, 10:03 PM   #171
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Default उपन्यास: जीना मरना साथ साथ

रात भर नींद नहीं आई पर थाने मे हलचल चलती रही। किसी से पूछने पर भी वह कुछ नहीं बताता था। सुबह पता चला कि अपने थाना ले जाएगें और फिर जेल। सुबह रीना के परिजनों के साथ साथ मैं भी रेलगाड़ी पर एक दो पुलिस वाले के साथ बैठ गया और फिर बिहारशरीफ होते हुए अपने शहर। थाने में पहूंचा तो जंगली आग की तरह छोटे से शहर से लोग दौड़ दौड़ कर थाना देखने आने लगे। भीड़ मेले की तरह उमड़ पड़ी। शायद इस तरह का यह पहला मामला था।

यहां आकर कुछ अकड़ ढीली होने लगी। मन में अपने इस कृत्य के लिए शर्मिंदा हो रहा था, नजर झुकी रहती और आंखें नम। फिर घर से छोटा भाई, चाचा इत्यादी भी आ गए। आंखो से अविरल आंसू निकलने लगा। इसलिए नहीं कि ऐसा क्यों किया बल्कि इसलिए कि घर परिवार के बारे में नहीं सोंचा। फिर बाबू जी आए तो मैं और फूटफूट कर रोने लगा।

जिस पर उनको गर्व था उसी ने उसे चूर चूर कर दिया।

पुलिस यहां भी मैनेज किया जा रहा था और अब रूपये के दम पर वह घर जाएगी और मैं जेल। बगल के कमरे रीना भी बैठी थी और मेरे रोने की आवाज सुन कर चली आई। हाजत में आकर मेरा हाथ थाम लिया और बोली।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
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Old 11-11-2014, 10:06 PM   #172
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

‘‘काहे ले रोबो हीं, चुप रहीं नें, जे करना हैं करेले दहीं, हमरा अलग अब भगवाने करथी।’’

‘‘सब तोरे पर अब निर्भर है, तांे जे बयान देमहीं ओकरे पर इस बचतै, नै तो ऐकर जिंदगी बर्बाद।’’ चाचा बाले।
‘‘चिंता काहे करों हखिन, इस सब जेतना करे के है कर लै, पर हमरा झुका नै सकतै।’’


और फिर थाने मे उसके गांव के बहुत सारे लोग जुट गए। गांव से बेटी का भागना पूरी गांव के ईज्जत की बात थी सो गांव के दबंग मुखीया नरेश सिंह भी पहूंच गए। उसके बड़े चाचा
, बाबू जी सब।

आते ही नरेश सिंह ने कहा-


''आंय गे छौंरी, लाज नै लगलै, घर से भाग के समूचे गांव के नाक कटा देलहीं, ईज्जत मिट्टी में मिला देलही।’’
इतना सुनना की रीना तिलमिला गई।
''

‘‘ हां नाक तो कटबे कैलै, जब तोर बेटी गोबरबा के साथ सुत्तो हलो और तीन बार पेट गिरैलहो तब नाक बचलै हल ने। केकर घर में की होबो है हमरा से छुपल है। ऐजा पंडित बनो हा। हम कौनो पाप नै कैलिए हें, प्यार जेकरा से कैलिए ओकरा से शादी कैलिए, जीबै मरबै एकरे साथ।’’
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Old 11-11-2014, 10:08 PM   #173
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

गुस्से से उसका चेहरा लाल था जैसे किसी ने नागीन को छेड़ दिया हो, उसने टका सा जबाब देकर सबको चुप कराने की कोशिश की या अपने कृत को सही ठहराने की, पर जो हो उसने सच सबके सामने लाकर खड़ा कर दिया।

समाज में पवित्रता का पैमाना ही अलग होता है
, छुपा हुआ पाप, पाप नहीं होता और दिखने वाला प्यार पवित्र नहीं होता।
इतने पर जब उसके बड़े चाचा ने कहा


-
‘‘केतना छिनार है इ छौंड़ी, चल ले चल ऐकरा। काट के फेंक देबै। कुल पर कलंक लगा देलक, बच के कि करतै।’’
लगा जैसे रीना के देह पर किसी ने जलता हुआ तेल छिट दिया हो।


‘‘हां तों जे अपन भबहू:छोटे भाई की बीबीः से दबर्दस्ती मुंह काला करके और हल्ला करे के डर से जला के मार देलहो इ सब कलंक नै ने लगलो। बड़की साधू बनो हा, हमरे से बेटी लिखाबो हलो लेटर और रात रात भर मिलो हलो मन्टूआ से और जान के भी चुप रहला।’’

चटाक। रीना के चेहरे पर तमाचा लगा।
‘‘चल लेकर ऐकर घर, बचके की करतै।’’
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Old 11-11-2014, 10:10 PM   #174
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Default उपन्यास: जीना मरना साथ साथ

जिंदगी कभी कभी दोराहे पर लाकर खड़ा कर देती है और अनमना ढंग से चुना गया कोई एक रास्ता जब आगे चल कर बंद मिलता है और वहां से लौटने का उपाय नहीं होता तो फिर इसके लिए किसे देष दें समझ नहीं आता।

हाथ में हथकड़ी और कमर में रस्सा लगा कर अगले दिन कोर्ट ले जाया गया। कोर्ट से फिर जेल। जेल के बड़े से फाटक के पास जब खड़ा हुआ तो दुनिया छोटी लगने लगी। यह भी बदा था। जेल का गेट खुला और मैं अन्दर चला गया। अजीब दुनिया है। सबसे पहले मुझे बार्ड नंबर एक में ले जाया गया, आमद बार्ड। एक चादर जो अपने साथ लाया था उसे कहीं बिछाने की जगह खोजने लगा पर कहीं जगह नहीं मिली। मैं एक कोने में बैठकर सोंचने लगा। मन उदास हो गया। जेल की चाहरदीवारी से बाहर का हौसला टूटने लगा। प्यार के होने का दंभ और यह परिणति?

कई तरह के सवाल मन में उमड़ धुमड़ रहे थे। पहला यही, की पता नहीं अब कितने दिनों तक जेल में रहना पड़े और दूसरा यह कि रीना को उसके परिजन अपने साथ लेकर गए है और वह सुरक्षित है कि नहीं। मेरे केस पर आने वाला खर्च कहां से आएगा? घर में एक भी पैसा नहीं है पर बेटे को कोई जेल में छोड़ तो नहीं देगा? कोई अभिभावक भी नहीं था जो आगे बढ़ कर पैरवी करे। और रीना का हाल जानने का कोई उपाय नहीं था।
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Old 22-11-2014, 01:58 PM   #175
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Default Re: उपन्यास: जीना मरना साथ साथ

फिर कुछ देर में साधु बेशधारी, लंबी दाढ़ी, गेरूआ वस्त्र पहले लंबा चौड़ा सा एक आदमी आया। उसे सब बाबा बाबा कहकर बुलाने लगे और कुछ के चेहरे पर उसे देखते हुए वितृष्णा और भय का मिलाजुला भाव भी आने लगा। मेरे पास आकर उसने कहा-

‘‘चल रे बउआ निकाल कमानी।’’

‘‘क्या’’?

‘‘कमानी, माने तीन सौ रूपया जेल में रहे के टेक्स।’’

इससे पहले की मैं कुछ समझ पाता बगल में लेटा हुआ एक मोटा सा एक आदमी ने कहा-

कमानी के रूपया देबे पड़तो बौआ, यहां इनकरे सब के कानून चलो है। बाहर भी बभने सब के राज है यहां भी ? नै कमानी देभो त यहां पैखाना घर के आगे सुता देतो और खाना बनाना, झाडू लगाना सब काम करे पड़तो’’

‘‘पर हमरा हीं रूपैया है कहां? कोई उपाय भी नै है।’’

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Old 22-11-2014, 02:01 PM   #176
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Default Re: उपन्यास: जीना मरना साथ साथ

‘‘तब कोई उपाय नै हो, ठीके है यहैं सुतहो, पर बभान के बच्चा लगो हो पर यहां कोई नै देखतो, सब रूपया देखो है, रूपैया। रूपैया हो तो बाभन नै हो तो शुदर।

मैं उसी तरह बैठा रचा, चुकोमुको-चुपचाप। जो जगह मेरे सोने की थी वहां नहीं सोया जा सकता, पैखाना घर के ठीक आगे। जेल में क्षमता से अधिक कैदी थे इसलिए सबके लिए समुचित व्यवस्था नहीं हो सकता और जेल का भ्रष्टाचार भी इसमे मदद कर रहा था और धनी लोगों के लिए अलग अलग व्यवस्था थी, अलग अलग बार्ड था। बगल के लोगों ने सब बता दिया। जिस बार्ड में मैं था उसका नाम ही हरिजन बार्ड था। विभेद की एक बड़ी रेखा यहां भी खिंची हुई थी और समाज के इस विभेद का सच जाति नहीं पैसा के रूप में सामने आया। पैसा है तो बाभन बार्ड नहीं तो हरिजन बार्ड। इस बार्ड को आमद बार्ड के रूप में भी जाना जाता था। सबसे पहले सबको यहीं आना था फिर जिस तरह का जो पैसाबाला होता, उस तरह उसकी व्यवस्था की जाती।

आंखों में नीद नहीं थी और शुन्यता का गहरा समुंद्र मन में उतर कर ज्वारभाटे की तरह प्रेम की दीवार से टकरा कर उसके गरूर को चूर चूर कर देने का प्रयास कर रही थी पर मन में यह भी भरोसा होता कि बिना आग में तपाये सोना की परख जब नहीं होती तो हम कौन है? और फिर तपने पर देह तो जलेगा ही।

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Old 22-11-2014, 02:07 PM   #177
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Default Re: उपन्यास: जीना मरना साथ साथ

यूं ही बैठे बैठे, या उंधते हुए सुबह हो गई। वार्ड का ताला खुला। फिर नित्यकर्म की बारी। बाहर लंबी कतार के बीच वहां भी मारा मारी और विभेद की लंबी लकीर। बाभन का शौचालय, शुदर का शौचालय। भोला। जेल की यह उंची दिवार सिर्फ आदमी को कैद करने के लिए नहीं बनते बल्कि इसमें आदमियत भी कैद हो जाती है, यह बात मेरी समझ में आ गई थी।

खैर जहां
, जिस हाल में मैं था वहां संपन्नता और सुख अस्पृह हो गई थी, वैसे ही जैसे मुर्दे के लिए हो। कोई भी चाह जिंदों के लिए होती है और मैं प्राण से बिछड़ कर मुर्दा था और मुर्दों के लिए स्पृह क्या ?
चंदन से जलाओं की आम की लकड़ी से!

न तो सुबह का एक मुठठी मिलने वाला चना और गुड़ लिया और न ही दोपहर का जली हुई रोटी और दाल खाया। देखने से ही उकाई आती थी। न तो किसी ने खाने के लिए कहा न ही भूख लगी। चाहरदीवारी से लग टूकूर टूकूर बाहर देखता रहा। दोपहर के खाने के पाली में किसी ने मुझे टोक दिया।

‘‘अरे बब्लू दा, तों यहां?’’


देखा तो मेरे गांव का ही एक लड़का था
, पंकज। हत्या के आरोप में बंदी। उम्र पन्द्रह से अठारह साल। कई मर्डर कर चुका है और अपने यहां इसकी धाक है। रंगदार की उपाधी है। हत्या या अपहरण करने वालों को लोग इसी नाम से जानते है-रंगदार।
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Old 01-12-2014, 10:42 PM   #178
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Default Re: उपन्यास: जीना मरना साथ साथ

‘‘हां’’

‘‘कौन बार्ड?’’

‘‘एक’’

‘‘हाय महराज, हमरा रहते हरिजन बार्ड में, बोलथो हल ने हमरा बारे में, साल दस लाश तो अब तक बिछा देलिए हें ग्यारहवां में कि देरी है।’’

फिर उसने वहीं से हांक लगाई
,‘‘कि हो बाबा, महराज हमर गांव के आदमी के साथ तों ऐसन काहे कैलहो, हरिजन बार्ड ?’’

‘‘हमरा की पता, इस कहबो नै कैलको और हम की करतिओ हल, बॉस नै कहलखुन तब।’’

‘‘अच्छा चलो हम बॉस से बात करबै, तोरा घबड़ाए के बात नै है, हम ऐजइ ही।’’ उसने मुझे कहा।
‘‘कौन केस मे आइलाहों हे।’’

‘‘घर से भाग के शादी कर लेलिए।’’

‘‘दूर महराज, कौन केस में आइला, यहां मर्डर, रेप और किडनेप करके आबो हई तब कोई बात है, चलो....।’’ उसने ऐसे कहा जैसे यहां के लिए यह सबसे निकृष्ठ काम करके आना हुआ।

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Old 01-12-2014, 10:44 PM   #179
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Default Re: उपन्यास: जीना मरना साथ साथ

दो एक घंटे में समझ गया कि जेल का अपना कानून है और यहां नरसंहार करने वालों की धाक होती है और मर्डरर, रेपिस्ट और किडनैपर का ज्यादा सम्मान दिया जाता हैं। यह देखने को भी मिला। और इसकी शेखी बधारते भी कई मिल गए। भोला।

पंकज
, मेरे गांव का ही लड़का था। एक नरसंहार में आठ, नौ लोग मारे गए थे और उसके बाद उसके उपर दो और हत्या करने का आरोप है। गोरा चिटठा, सितुआ नाक और दुबला पतला किशोर। हंसमुख। अपने क्षेत्र का खुंखार अपराधी है पर हमेशा हंसता मुस्कुराता मिलता। गांव में भी जब मिल जाता तो प्रणाम बब्लू दा जरूर करता। आज जेल में मिला।

फिर वह वहीं कुछ लोगों से मिलबाने लगा।


‘‘मिलहो, इ बब्लू दा हखीन, डाक्टरी पढ़े के जगह भाग के शादी कर लेलखिन।’’


और फिर दूसरों के बारे में मुझे बताने लगा।


‘‘मिलहो इनखा से-प्यारेबीघा गांव है, कॉमनिस्टबा नेता नै मरैलो हल अपन बोडीगडबा के साथ, इहे सब मिलके मारलखीन हल। साला मजदूर के भड़काबो हलै। इ मिललहो, रंका सिंह, मोहनपुर नरसंहार।

देवा
,
कैसी हे तेरी दुनिया। आज जिससे मिल रहा हूं सभी के सभी यमराज! कहां ले जाओगी जिंदगी।


थाना मोरा आना जाना
जेल ससुराल......

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Old 01-12-2014, 10:45 PM   #180
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Default Re: उपन्यास: जीना मरना साथ साथ

शाम को जेल में ही संगीत की महफिल सजी और पंकज ने यह गीत सुनाना प्रारंभ किया। थाली-गिलास वाध्य यंत्र बने और लोग झूमने लगे मैं भी वहीं बैठा रहा। वार्ड बदल दिया गया और यहां अपराध की दुनिया के सरताजों का ही बसेरा था। पंकज मेरे गांव का था इसलिए उसे जानता था तब भी उसने अपनी कहानी बतानी प्रारंभ कर दी। जैसे कि किसी हीरों की कहानी हो। उसके पिता की हत्या सिनेमा हॉल में बम मार कर कर दी गई थी और उसकी विधवा मां ने किसी तरह से उसे पाला पोसा था। अपराध की दुनिया मंे उसे गांव के ही कुछ लोगों ने लाया था। सिनेमा के किसी खलनायक के चरित्र की तरह ही पंकज का किरदार था। अपराध उसके मन में गहरे तक पैठ चुका था। वह समाज से नफरत करता था। थाना , पुलिस और जेल के प्रति उसने अपने गीत में ही प्रेम प्रकट कर चुका था। वह जेल में रहे की बाहर कुछ अंतर नहीं पड़ता।

इस कम उम्र में ही उसने हत्या तक को अंजाम दिया और उसकी बखान भी कर रहा था।


इसके बाद जो चर्चा चली तो कामरेड किशन सिंह और उसके बोडीगार्ड के हत्या की कहानी ऐसे बखानी जानी लगी जैसे वीरगाथा। कामरेड किशन सिंह की लाश को मैं अस्पताल में देखा था। उनके सीने में कई गोली लगी थी और साथ में बोडीगार्ड भी मारा गया था। मजदूरों के हक और मजदूरी बढ़ाने के लिए उन्हें एक जुट करने की सजा के रूप में उन्हें मौत दी गई थी। यह समांतवादी मानसिकता के अंतिम पड़ाव पर भी उसके कीड़े के कुलबुलाते रहने की धमक की तरह ही थी।
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