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Old 25-11-2012, 09:15 AM   #171
Sameerchand
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तुम्हारा धर्म अलग है

एक भटका हुआ राहगीर रात के समय एक गाँव में पहुंचा और एक घर के दरवाज़े खटखटाये। दरवाज़ा खुलने पर उसने घर में रात गुजारने देने का अनुरोध किया। उस घर के निवासी ने उस राहगीर से उसके धर्म के बारे में पूछा। राहगीर का उत्तर सुनने के बाद वह बोला कि उसका धर्म अलग होने के कारण वह उसे रात में अपने घर में ठहरने की अनुमति नहीं दे सकता।

राहगीर ने दरवाज़ा खोलने के लिए उस व्यक्ति को धन्यवाद दिया और ईमानदारी से वहाँ से चला गया। पास में ही मौलश्री का पेड़ था। वह राहगीर उस पेड़ के नीचे ही सो गया। रातभर उसके ऊपर सुगंधित फूलों की वर्षा होती रही। सुबह जब उसकी आँखें खुलीं तो वह ऊर्जा और ताजगी से भरा हुआ था।

उसने फिर उसी घर के दरवाज़े खटखटाये और दरवाज़ा खुलने पर उसने घर के मालिक को तीन बार धन्यवाद दिया कि उसने रात को उसे शरण नहीं दी थी। वह राहगीर बोला -"यदि रात को आपने मुझे अपने घर में शरण दे दी होती तो मैं मौलश्री वृक्ष के नीचे रात गुजारने के दैवीय अनुभव से वंचित रह जाता और पूरी रात मुझे आपके और आपके धर्म के बारे में सुनना पड़ता। यह प्रकृति और मानवता ही सर्वोपरि धर्म है। वृक्ष के नीचे सोते हुए मैंने यही सीखा। इन सब अनुभवों को दिलाने के लिए आपका कोटि-कोटि धन्यवाद!"
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Old 25-11-2012, 09:16 AM   #172
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ज्ञान बड़ा या हीरा



एक बुद्धिमान व्यक्ति को पहाड़ों में घूमते घूमते एक कीमती पत्थर मिला तो उन्होंने उसे अपने थैले में रख लिया. कुछ समय पश्चात आगे जाने पर उन्हें एक भूखा-प्यासा यात्री मिला. उस बुद्धिमान व्यक्ति ने भोजन से भरे अपने थैले का मुंह उस भूखे प्यासे यात्री की ओर कर दिया. खाना खाते-खाते यात्री ने थैले में रखा कीमती पत्थर भी देख लिया.
उस पत्थर को देखकर उस यात्री के मन में लालच जागा और उसने बुद्धिमान व्यक्ति से पूछा कि क्या वह उस पत्थर को ले सकता है.


बिना कोई दूसरा विचार किए उस बुद्धिमान व्यक्ति ने वह पत्थर यात्री को दे दिया. वह यात्री बेहद प्रसन्न होकर चला गया.


परंतु कोई दो-एक घंटे बाद ही वह यात्री वापस उस बुद्धिमान व्यक्ति के पास आया और वह कीमती पत्थर वापस करते हुए बोला –


“मैं इस कीमती पत्थर को ले जाते हुए बेहद प्रसन्न था. परंतु मैं सोचने लगा कि इतने कीमती पत्थर को आपने मुझे आसानी से बिना किसी फल प्रतिफल या आशा प्रत्याशा में दे दिया. तो, अब आप मुझे अपने पास का वह ज्ञान दे दें जिसने आप के भीतर यह क्षमता प्रदान की है!”
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Old 25-11-2012, 09:16 AM   #173
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आप अपनी लँगोटी कैसे बचाते हैं?

एक आध्यात्मिक गुरु अपने शिष्य की धार्मिकता, समर्पण और ज्ञान से इतना प्रभावित हुए कि जब वे अन्य आश्रम की ओर प्रस्थान पर गए तो अपने शिष्य को एक गांव के बाहर एक छोटे से झोंपड़े में छोड़ गए कि वह गांव वालों का कल्याण करेगा.

उस शिष्य के पास एक लंगोट और एक भिक्षा पात्र के अलावा कुछ नहीं था. वह गांव से अपना आहार भिक्षा रूप में प्राप्त करता और झोपड़ी में तप और ध्यान करता. जब उसका लंगोट गंदा हो जाता तो रात्रि के अंधेरे में उसे धोकर वहीं सुखा देता.

एक दिन सुबह उसने देखा कि उसके लंगोट को किसी चूहे ने कुतर डाला है. गांव वालों ने उसके लिए नए लंगोट का प्रबंध कर दिया. मगर जब नए लंगोट को भी चूहों ने नहीं बख्शा तो फिर शिष्य ने चूहों के उत्पात से बचने के लिए बिल्ली पाल ली.

अब वह भिक्षा में बिल्ली के लिए दूध भी मांग लाता. उसे चूहों से तो निजात मिल गई थी, मगर बिल्ली के लिए नित्य दूध मांग लाना पड़ता था.

इस समस्या का हल निकालने के लिए उसने एक गाय पाल ली. मगर गाय के लिए चारा भी उसे मांग लाना पड़ता था. उसने आसपास खाली जमीन पर चारा उगाने को सोचा. कुछ समय तो ठीक चला, पर इससे उसे ध्यान योग में समय नहीं मिलता था. तो उसने गांव के एक व्यक्ति को काम पर रख लिया. अब उस व्यक्ति पर नजर कौन रखे. तो उसने लँगोटी छोड़ धोती धारण कर ली और एक स्त्री से विवाह कर लिया.

और, देखते ही देखते, वह गांव का सर्वाधिक अमीर व्यक्ति बन गया.

कुछ समय पश्चात उसका आध्यात्मिक गुरु वापस उस गांव के भ्रमण पर आया. वह उस स्थल पर पहुँचा जहाँ झोपड़ी में उसका शिष्य रहता था. परंतु यह क्या? वहाँ तो अट्टालिका खड़ी थी. उसे दुःख हुआ कि गांव वालों ने उसके शिष्य को भगा दिया शायद. परंतु उस अट्टालिका से एक मोटा ताजा आदमी बाहर आया और आते ही गुरु के चरणों में लिपट गया. गुरु ने उसे पहचान लिया. गुरु को झटका लगा. पूछा – अरे! इसका क्या मतलब है?

“गुरूदेव, आपको विश्वास नहीं होगा,” उस शिष्य ने कहा – “मेरी अपनी लँगोटी बचाए रखने के लिए इसके बेहतर और कोई तरीका ही नहीं था!”
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Old 25-11-2012, 09:16 AM   #174
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भेंगी आँख


दो सहेलियाँ अरसे बाद मिलीं.
शुरूआती रोने धोने के बाद दोनों अपने-अपने बच्चों पर आ गईं.

“अरी, बता” एक ने पूछा, “तेरा बेटा कैसा है?”
“क्या बताऊँ, बहन” दूसरी ने उत्तर दिया, “उसके तो भाग ही फूट गए. उसकी बीवी एकदम फूहड़ मिली है. कोई काम धाम नहीं करती, बस फैशन मारते रहती है. यहाँ तक कि सुबह का नाश्ता भी मेरा बेटा बना कर उसे खिलाता है!”
“ओह,” पहली ने अफसोस जताया और फिर पूछा, “और तेरी बेटी – वो कैसी है?”
“वाह, उसकी किस्मत की तो मत पूछ,” दूसरी ने चहकते हुए बताया, “उसे एकदम राजकुमारों जैसा पति मिला है. उसे कोई काम ही नहीं करने देता. अच्छे अच्छे कपड़े पहनाता रहता है. यहाँ तक कि वह मेरी बेटी को रोज सुबह नाश्ता बनाकर भी वही सर्व करता है!”
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Old 25-11-2012, 09:18 AM   #175
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असली राजा के लिए गाना

अकबर ने एक दिन तानसेन से कहा – तानसेन, तुम इतना अच्छा गाते हो तो तुम्हारा गुरु कितना अच्छा गाता होगा. हमें उसका गाना सुनना है.

तानसेन ने कहा – जहाँपनाह, मेरे गुरु स्वामी हरिदास जंगलों में रहते हैं और वे अपनी मर्जी के मालिक हैं. मन पड़ता है तभी गाते हैं. कोई बादशाह या शहंशाह उनसे गाना गाने के लिए कह नहीं सकता. मगर हाँ, आपकी यदि इच्छा है तो मैं प्रयत्न अवश्य कर सकता हूँ.

दूसरे दिन अकबर और तानसेन जंगलों में हरिदास के पास गए. वहाँ पहुँचकर तानसेन ने एक राग छेड़ा. तानसेन बहुत बढ़िया, तन्मयता से गा रहे थे. वातावरण सुमधुर हो गया था. तभी तानसेन ने जानबूझ कर एक गलत सुर ले लिया. यह सुनते ही स्वामी हरिदास ने वहाँ से सुर सँभाला और खुद गाने लगे. उनकी आवाज में तो जादू था. अकबर बड़े प्रसन्न हुए.

लौटते समय अकबर ने तानसेन से पूछा – तानसेन, तुम भी इतनी मेहनत और रियाज करते हो, मगर तुम्हारा गला स्वामी हरिदास जैसा सुमधुर क्यों नहीं है?

इस पर तानसेन ने जवाब दिया – जहाँपनाह, मैं अपने राजा – यानी आप के लिए गाता हूँ, और स्वामी हरिदास अपने राजा – यानी ईश्वर के लिए, इसीलिए!
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Old 25-11-2012, 09:18 AM   #176
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दर्पण में देखो


सुकरात बहुत बदसूरत थे। वे अपने साथ हर समय एक दर्पण रखा करते थे जिसमें वे प्रायः अपना प्रतिबिंब देखा करते थे। उनके एक मित्र ने कहा - "तुम इतने बदसूरत हो फिर भी बार-बार अपना चेहरा दर्पण में क्यों निहारते रहते हो?"

सुकरात ने उत्तर दिया - "यह मुझे अच्छे कार्य करने की याद दिलाता है ताकि मैं अपने अच्छे कार्यों से अपनी बदसूरती को छुपा सकूं।"

कुछ देर रुककर वे फिर बोले - "और इसी तरह जो लोग देखने में खूबसूरत हैं, उन्हें यह समय यह याद रखना चाहिए कि उनके बुरे कार्यों से ईश्वर द्वारा उन्हें दी गयी खूबसूरती में भी दाग लगते हैं।"

उनकी राय में मनुष्य को चंदन की तरह होना चाहिए जो देखने में भले ही आकर्षक न हो पर अपनी सुगंध चारों ओर फैलाता है।
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Old 25-11-2012, 09:18 AM   #177
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सही कूटनीति

एक प्रभावशाली व्यक्ति प्रधानमंत्री से सामंत का पद हासिल करने के लिए उनके पीछे पड़ा था।

प्रधानमंत्री उसे वह पद देना नहीं चाहते थे। अंततः उन्होंने उसकी भावनाओं को आहत किए बिना उसे संतुष्ट करने का रास्ता खोज ही लिया। उन्होंने कहा - "मैं क्षमा चाहता हूं कि मैं तुम्हें सामंत का पद नहीं दे रहा हूं परंतु मैं तुम्हें उससे भी बेहतर चीज दे रहा हूं। तुम अपने मित्रों से यह कहो कि मैंने तुम्हें सामंत के पद का प्रस्ताव दिया था परंतु तुमने उसे ठुकरा दिया।"
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Old 25-11-2012, 09:18 AM   #178
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छोटा सा अंतर

एक बुद्धिमान व्यक्ति, जो लिखने का शौकीन था, लिखने के लिए समुद्र के किनारे जा कर बैठ जाता था और फिर उसे प्रेरणायें प्राप्त होती थीं और उसकी लेखनी चल निकलती थी । लेकिन, लिखने के लिए बैठने से पहले वह समुद्र के तट पर कुछ क्षण टहलता अवश्य था । एक दिन वह समुद्र के तट पर टहल रहा था कि तभी उसे एक व्यक्ति तट से उठा कर कुछ समुद्र में फेंकता हुआ दिखा ।जब उसने निकट जाकर देखा तो पाया कि वह व्यक्ति समुद्र के तट से छोटी -छोटी मछलियाँ एक-एक करके उठा रहा था और समुद्र में फेंक रहा था । और ध्यान से अवलोकन करने पर उसने पाया कि समुद्र तट पर तो लाखों कि तादात में छोटी -छोटी मछलियाँ पडी थीं जो कि थोडी ही देर में दम तोड़ने वाली थीं ।अंततः उससे न रहा गया और उस बुद्धिमान मनुष्य ने उस व्यक्ति से पूछ ही लिया ,"नमस्ते भाई ! तट पर तो लाखों मछलियाँ हैं । इस प्रकार तुम चंद मछलियाँ पानी में फ़ेंक कर मरने वाली मछलियों का अंतर कितना कम कर पाओगे ?इस पर वह व्यक्ति जो छोटी -छोटी मछलियों को एक -एक करके समुद्र में फेंक रहा था ,बोला,"देखिए !सूर्य निकल चुका है और समुद्र की लहरें अब शांत होकर वापस होने की तैयारी में हैं । ऐसे में ,मैं तट पर बची सारी मछलियों को तो जीवन दान नहीं दे पाऊँगा । " और फिर वह झुका और एक और मछली को समुद्र में फेंकते हुए बोला ,"किन्तु , इस मछली के जीवन में तो मैंने अंतर ला ही दिया ,और यही मुझे बहुत संतोष प्रदान कर रहा है । "इसी प्रकार ईश्वर ने आप सब में भी यह योग्यता दी है कि आप एक छोटे से प्रयास से रोज़ किसी न किसी के जीवन में 'छोटा सा अंतर' ला सकते हैं । जैसे ,किसी भूखे पशु या मनुष्य को भोजन देना , किसी ज़रूरतमंद की निःस्वार्थ सहायता करना इत्यादि । आप अपनी किस योग्यता से इस समाज को , इस संसार को क्या दे रहे हैं ,क्या दे सकते हैं ,आपको यही आत्मनिरीक्षण करना है और फिर अपनी उस योग्यता को पहचान कर रोज़ किसी न किसी के मुख पर मुस्कान लाने का प्रयास करना है ।और विश्वास जानिए ,ऐसा करने से अंततः सबसे अधिक लाभान्वित आप ही होंगे । ऐसा करने से सबसे अधिक अंतर आपको अपने भीतर महसूस होगा । ऐसा करने से सबसे अधिक अंतर आपके ही जीवन में पड़ेगा ।
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Old 25-11-2012, 09:19 AM   #179
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संतोष का पुरस्कार

आसफउद्दौला नेक बादशाह था। जो भी उसके सामने हाथ फैलाता, वह उसकी झोली भर देता था। एक दिन उसने एक फकीर को गाते सुना- जिसको न दे मौला उसे दे आसफउद्दौला। बादशाह खुश हुआ। उसने फकीर को बुलाकर एक बड़ा तरबूज दिया। फकीर ने तरबूज ले लिया, मगर वह दुखी था। उसने सोचा- तरबूज तो कहीं भी मिल जाएगा। बादशाह को कुछ मूल्यवान चीज देनी चाहिए थी।

थोड़ी देर बाद एक और फकीर गाता हुआ बादशाह के पास से गुजरा। उसके बोल थे- मौला दिलवाए तो मिल जाए, मौला दिलवाए तो मिल जाए। आसफउद्दौला को अच्छा नहीं लगा। उसने फकीर को बेमन से दो आने दिए। फकीर ने दो आने लिए और झूमता हुआ चल दिया। दोनों फकीरों की रास्ते में भेंट हुई। उन्होंने एक दूसरे से पूछा, 'बादशाह ने क्या दिया?' पहले ने निराश स्वर में कहा,' सिर्फ यह तरबूज मिला है।' दूसरे ने खुश होकर बताया,' मुझे दो आने मिले हैं।' 'तुम ही फायदे में रहे भाई', पहले फकीर ने कहा।

दूसरा फकीर बोला, 'जो मौला ने दिया ठीक है।' पहले फकीर ने वह तरबूज दूसरे फकीर को दो आने में बेच दिया। दूसरा फकीर तरबूज लेकर बहुत खुश हुआ। वह खुशी-खुशी अपने ठिकाने पहुंचा। उसने तरबूज काटा तो उसकी आंखें फटी रह गईं। उसमें हीरे जवाहरात भरे थे। कुछ दिन बाद पहला फकीर फिर आसफउद्दौला से खैरात मांगने गया। बादशाह ने फकीर को पहचान लिया। वह बोला, 'तुम अब भी मांगते हो? उस दिन तरबूज दिया था वह कैसा निकला?' फकीर ने कहा, 'मैंने उसे दो आने में बेच दिया था।' बादशाह ने कहा, 'भले आदमी उसमें मैंने तुम्हारे लिए हीरे जवाहरात भरे थे, पर तुमने उसे बेच दिया। तुम्हारी सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि तुम्हारे पास संतोष नहीं है। अगर तुमने संतोष करना सीखा होता तो तुम्हें वह सब कुछ मिल जाता जो तुमने सोचा भी नहीं था। लेकिन तुम्हें तरबूज से संतोष नहीं हुआ। तुम और की उम्मीद करने लगे। जबकि तुम्हारे बाद आने वाले फकीर को संतोष करने का पुरस्कार मिला।'
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Old 25-11-2012, 09:19 AM   #180
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संतों की संगत का असर


एक नगर के बाहर जंगल में कोई साधु आकर ठहरा। संत की ख्याति नगर में फैली तो लोग आकर मिलने लगे। प्रवचनों का दौर शुरू हो गया।

संत की ख्याति दिन रात दूर-दूर तक फैलने लगी। लोग दिनभर संत को घेरे रहते थे। एक चोर भी दूर से छिपकर उनको सुनता था। रात को चोरी करता और दिन में लोगों से छिपने के लिए जंगल में आ जाता। वह रोज सुनता कि संत लोगों से कहते हैं कि सत्य बोलिए। सत्य बोलने से जिंदगी सहज हो जाती है। एक दिन चोर से रहा नहीं गया, लोगों के जाने के बाद उसने अकेले में साधु से पूछा-आप रोजाना कहते हो कि सत्य बोलना चाहिए, उससे लाभ होता है लेकिन मैं कैसे सत्य बोल सकता हूं।संत ने पूछा-तुम कौन हो भाई?चोर ने कहा-मैं एक चोर हूं।संत बोले तो क्या हुआ। सत्य का लाभ सबको मिलता है। तुम भी आजमा कर देख लो।

चोर ने निर्णय लिया कि आज चोरी करते समय सभी से सच बोलूंगा। देखता हूं क्या फायदा मिलता है। उस रात चोर राजमहल में चोरी करने पहुंचा। महल के मुख्य दरवाजे पर पहुंचते ही उसने देखा दो प्रहरी खड़े हैं। प्रहरियों ने उसे रोका-ऐ किधर जा रहा है, कौन है तूं।

चोर ने निडरता से कहा-चोर हूं, चोरी करने जा रहा हूं। प्रहरियों ने सोचा कोई चोर ऐसा नहीं बोल सकता। यह राज दरबार का कोई खास मंत्री हो सकता है, जो रोकने पर नाराज होकर ऐसा कह रहा है। प्रहरियों ने उसे बिना और पूछताछ किए भीतर जाने दिया।

चोर का आत्म विश्वास और बढ़ गया। महल में पहुंच गया। महल में दास-दासियों ने भी रोका। चोर फिर सत्य बोला कि मैं चोर हूं, चोरी करने आया हूं। दास-दासियों ने भी उसे वही सोचकर जाने दिया जो प्रहरियों ने सोचा। राजा का कोई खास दरबारी होगा।अब तो चोर का विश्वास सातवें आसमान पर पहुंच गया, जिससे मिलता उससे ही कहता कि मैं चोर हूं। बस पहुंच गया महल के भीतर।

कुछ कीमती सामान उठाया। सोने के आभूषण, पात्र आदि और बाहर की ओर चल दिया। जाते समय रानी ने देख लिया। राजा के आभूषण लेकर कोई आदमी जा रहा है। उसने पूछा-ऐ कौन हो तुम, राजा के आभूषण लेकर कहां जा रहे हो।चोर फिर सच बोला-चोर हूं, चोरी करके ले जा रहा हूं। रानी सोच में पड़ गई, भला कोई चोर ऐसा कैसे बोल सकता है, उसके चेहरे पर तो भय भी नहीं है। जरूर महाराज ने ही इसे ये आभूषण कुछ अच्छा काम करने पर भेंट स्वरूप पुरस्कार के रूप में दिए होंगे। रानी ने भी चोर को जाने दिया। जाते-जाते राजा से भी सामना हो गया। राजा ने पूछा-मेरे आभूषण लेकर कहां जा रहे हो, कौन हो तुम?

चोर फिर बोला- मैं चोर हूं, चोरी करने आया हूं। राजा ने सोचा इसे रानी ने भेंट दी होगी। राजा ने उससे कुछ नहीं कहा, बल्कि एक सेवक को उसके साथ कर दिया। सेवक सामान उठाकर उसे आदर सहित महल के बाहर तक छोड़ गया।

अब तो चोर के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसने सोचा झूठ बोल-बोलकर मैंने जीवन के कितने दिन चोरी करने में बरबाद कर दिए। अगर चोरी करके सच बोलने पर परमात्मा इतना साथ देता है तो फिर अच्छे कर्म करने पर तो जीवन कितना आनंद से भर जाएगा।चोर दौड़ा-दौड़ा संत के पास आया और पैरों में गिर पड़ा। चोरी करना छोड़ दिया और उसी संत को अपना गुरू बनाकर उन्हीं के साथ हो गया।संत की संगत ने चोर को बदल दिया। कथा का सार यही है कि जो सच्चा संत होता है वह हर जगह अपना प्रभाव छोड़ता ही है।

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