19-03-2011, 03:31 AM | #181 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
सत्याग्रह का अलख
भभक रहे भ्रष्टाचारी शोलों को ठंडा करने क्या अब इस धरती पर "मंगल पाण्डे" जन्म नहीं लेंगे बेलगाम प्रशासन पर बम फ़ेंकने क्या अब इस धरती पर "भगत सिंह" जन्म नहीं लेंगे दुष्ट-पापियों से लडने को एक नई सेना बनाने क्या अब इस धरती पर "सुभाष चन्द्र" जन्म नहीं लेंगे एक नई आजादी के खातिर सत्याग्रह का अलख जगाने क्या अब इस धरती पर "महात्मा गांधी" जन्म नहीं लेंगे !!! WRITER : Shyam kori 'uday''
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20-03-2011, 02:01 PM | #182 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
ले चल वहाँ भुलावा देकर ले चल वहाँ भुलावा देकर, मेरे नाविक! धीरे धीरे। जिस निर्जन मे सागर लहरी। अम्बर के कानों में गहरी निश्*चल प्रेम-कथा कहती हो, तज कोलाहल की अवनी रे। जहाँ साँझ-सी जीवन छाया, ढोले अपनी कोमल काया, नील नयन से ढुलकाती हो ताराओं की पाँत घनी रे । जिस गम्भीर मधुर छाया में विश्*व चित्र-पट चल माया में विभुता विभु-सी पड़े दिखाई, दुख सुख वाली सत्य बनी रे। श्रम विश्राम क्षितिज वेला से जहाँ सृजन करते मेला से अमर जागरण उषा नयन से बिखराती हो ज्योति घनी से! जयशंकर प्रसाद
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20-03-2011, 04:07 PM | #183 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
आह ! वेदना मिली विदाई आह ! वेदना मिली विदाई मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई छलछल थे संध्या के श्रमकण आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण मेरी यात्रा पर लेती थी नीरवता अनंत अँगड़ाई श्रमित स्वप्न की मधुमाया में गहन-विपिन की तरु छाया में पथिक उनींदी श्रुति में किसने यह विहाग की तान उठाई लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी रही बचाए फिरती कब की मेरी आशा आह ! बावली तूने खो दी सकल कमाई चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर प्रलय चल रहा अपने पथ पर मैंने निज दुर्बल पद-बल पर उससे हारी-होड़ लगाई लौटा लो यह अपनी थाती मेरी करुणा हा-हा खाती विश्व ! न सँभलेगी यह मुझसे इसने मन की लाज गँवाई जयशंकर प्रसाद
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21-03-2011, 04:51 PM | #184 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
मेरी बेटी मुझे बहुत कुछ सिखाती है मेरी बेटी मुझे बहुत कुछ सिखाती है और एक बार मुझे मेरे बचपन में बुलाती है उसका तुतलाना , चलते चलते गिर जाना गिर कर उठाना फिर दौड़ जाना मुझे गिर कर संभलना सिखाती है मेरी बेटी मुझे बहुत कुछ सिखाती है उनकी गृहस्थी का अलग संसार है उसकी गुडिया उसका गुड्डा जिससे उसे प्यार है रोज वह उनका ब्याह का खेल रचती है मुझे बेटी गृहस्थी के नियम सिखाती है मेरी बेटी मुझे बहुत कुछ सिखाती है अपनी दुनिया से जब थक जाती है मेरे सीने से लग सो जाती है वह सिखाती है की दुनिया एक झमेला है यह बस गुड्डा गुडिया का मेला है जिद करती है रट लगाती है अपनी हर बात को मनवाती है जरा सी भी औकात नहीं है हमारी फिर भी वह दुनिया से जीत जाती है मेरी बेटी मुझे बहुत कुछ सिखाती है (nm)
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21-03-2011, 06:04 PM | #185 |
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!!मेरी प्रिय कविताएँ !!
अएहाये सिकंदर मियां! दिल के भाव निकल कर आ रहे हैं|
क्या कहूं, मन खुश हो गया|
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Self-Banned. Missing you guys! मुझे तोड़ लेना वन-माली, उस पथ पर तुम देना फेंक|फिर मिलेंगे| मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएं वीर अनेक|| |
21-03-2011, 06:08 PM | #186 | |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
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21-03-2011, 06:12 PM | #188 | |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
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रो मत इसी मे हमारे जीवन का सत्य छुपा है
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21-03-2011, 09:45 PM | #189 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
सूरज की गर्मी मैने देखा है.. मैने जाना है इस सच्चाई को मैने माना है के सूरज की गर्मी से भी बड़ी होती है पेट की गर्मी देखे है मैने तेज़ धूप में वो थके लड़खड़ाते हुए कदम कंधों पर अपने सामान को उठाये छाँव की खुदा से करते वो रहम देखी है मैने एक बच्चे की आंखें जो कड़ी धूप में बूट पालिश करता है आइस क्रीम खाते हुए उन बच्चों को अपनी लाचार ऩज़रों से वो देखता है देखा है मैने कुछ लोगों को ट्राफ़िक सिग्नल पर रुकती हुई गाड़ियों को साफ़ करते हुए आग की लपटों जैसी सूरज की इस गर्मी में मेहनत में अपना पसीना बहाते हुए इन मुश्किलों से भी गुज़र कर लोग तेज़ धूप में भी मुस्कुराते हैं सूरज की गर्मी से भी बड़ी होती हे पेट की गर्मी यह इक रोटी की क़ीमत हमे समझाते हैं हां !! इक रोटी की क़ीमत हमे समझाते हैं..!! (nm)
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22-03-2011, 01:09 AM | #190 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
डा. कुमार विश्वास - रंग बिरंगी दुनिया
इतनी रंग बिरंगी दुनिया, दो आँखों में कैसे आये, हमसे पूछो इतने अनुभव, एक कंठ से कैसे गाये. ऐसे उजले लोग मिले जो, अंदर से बेहद काले थे, ऐसे चतुर मिले जो मन से सहज सरल भोले-भाले थे. ऐसे धनी मिले जो, कंगलो से भी ज्यादा रीते थे, ऐसे मिले फकीर, जो, सोने के घट में पानी पीते थे. मिले परायेपन से अपने, अपनेपन से मिले पराये, हमसे पूछो इतने अनुभव, एक कंठ से कैसे गाये. इतनी रंग बिरंगी दुनिया, दो आँखों में कैसे आये. जिनको जगत-विजेता समझा, मन के द्वारे हारे निकले, जो हारे-हारे लगते थे, अंदर से ध्रुब- तारे निकले. जिनको पतवारे सौपी थी, वे भवरो के सूदखोर थे, जिनको भवर समझ डरता था, आखिर वोही किनारे निकले. वो मंजिल तक क्या पहुचे, जिनको रास्ता खुद भटकाए हमसे पूछो इतने अनुभव, एक कंठ से कैसे गाये, इतनी रंग बिरंगी दुनिया, दो आँखों में कैसे आये.
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