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Old 08-05-2012, 07:37 PM   #11
abhisays
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Default Re: आपस की बात अलैक शेरमन के साथ (Aapas ki Baat)

अलैक जी, मैंने यह भी सुना है, जिस तरह भारत में आज़ादी के बाद जागीरदारी खत्म कर दी गयी, वैसा पाकिस्तान में नहीं हुआ, जागीरदारी वहां अभी भी कायम है और वही लोग राजनीति में भी काफी दबदबा बनाए हुए हैं. मियां नवाज़ शरीफ के पिता पंजाब के बड़े जागीरदार थे. ऐसे में इन जागीरदारों और सेना के बीच कुछ मिलीभगत है, यह लोग भी चाहते है की सेना का ही शासन रहे. क्या वास्तव में ऐसा ही है?
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Old 10-05-2012, 04:25 PM   #12
Dark Saint Alaick
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Default Re: आपस की बात अलैक शेरमन के साथ (Aapas ki Baat)

ऐसा नहीं है कि वहां आज भी जागीरदारों का शासन चलता हो, लेकिन जैसा कि मैंने पंजाब का जिक्र करते हुए कहा था, राजे-रजबाड़े (इनमें तमाम प्राचीन प्रशासनिक इकाइयां शामिल हैं) वहां आज भी बहुत शक्तिशाली हैं और सेना में उनका दखल हद से ज्यादा है और इसका सबसे बड़ा कारण है बड़े-बड़े ओहदे इसी वर्ग के पास होना ! ज़ाहिर है ये सत्ता का सूत्र अपने हाथ में रखने के लिए यही चाहेंगे कि केंद्र में सेना ही रहे !
आइए, अब विचार करते हैं दोनों टुकड़ों के अलग राह पर चल पड़ने की एक और बड़ी वज़ह पर ! ज़रा अपने स्वतंत्रता आन्दोलन पर नज़र डालें ! संघर्ष में आपको दो शक्तियों की भूमिका आपको स्पष्ट और बार-बार नज़र आएगी - एक कांग्रेस और दूसरी समाजवाद-वामपंथ प्रभावित क्रांतिकारी ! बंटवारे के समय पर नज़र करें, तो स्पष्ट हो जाएगा कि तब तक गांधीजी के असर के कारण सशस्त्र क्रांतिकारी मूवमेंट पिछड़ चुका था और इसकी जगह एक नई ताकत मुस्लिम लीग का नाम नज़र आने लगा था !
अब ज़रा कांग्रेस और मुस्लिम लीग के इतिहास पर नज़र कर लें, तो यह विषय को समझने में सहायक होगा !
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Old 10-05-2012, 08:07 PM   #13
Dark Saint Alaick
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Default Re: आपस की बात अलैक शेरमन के साथ (Aapas ki Baat)

कांग्रेस की स्थापना थियोसोफिकल सोसाइटी के सदस्यों एलन ओक्टावियन ह्यूम, दादाभाई नोरोजी, दिनशा वाचा, वोमेश चन्द्र बनर्जी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, मनमोहन घोष, महादेव गोविन्द रानाडे और विलियम वेदार्बर्न आदि ने 1885 में की थी ! इसकी स्थापना का मूल उद्देश्य भारत में ब्रिटिश राज का विरोध किए बिना सत्ता में भारतीयों की भागीदारी बढ़ाना और भारतीयों को इस बारे में जागृत करना था ! 1907 में कांग्रेस सशक्त राजनीतिक दल के रूप में सामने आते हुए बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व में गरम और गोपाल कृष्ण गोखले के नेतृत्व में नरम दो गुटों (दलों) में बंट गई ! उसकी इस दूसरी पीढ़ी में बिपिन चन्द्र पाल, लाला लाजपत राय, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, मुहम्मद अली जिन्ना आदि शामिल थे, लेकिन 1915 में गांधीजी के साउथ अफ्रीका से लौटने के साथ ही सारा परिदृश्य एकदम बदल गया और उनके नेतृत्व में पंडित नेहरू, सरदार पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद आदि ने पूर्ण स्वराज की मांग शुरू की, लेकिन यहां यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यह सारा मूवमेंट पूरी तरह अहिंसक और विरोध के कानूनी तौर पर वैध तरीकों के द्वारा चलाया जा रहा था और अंत तक ऐसा ही बना रहा !
दूसरी ओर मुस्लिम लीग की स्थापना ढाका में 1906 में नबाव सलीमुल्ला खान और आग़ा खान ने ब्रिटिश राज का विरोध नहीं करते हुए मुस्लिम हितों की रक्षा के उद्देश्य से की थी ! प्रारम्भ से ही यह सर सय्यद अहमद खान के असर की वज़ह से ब्रिटिश शासकों का समर्थन करती रही, ताकि अपनी कौम को वांछित सहूलियात सहज सुलभ करा सके, लेकिन जब 1913 में बंगाल के विभाजन की इसकी मांग नकार दी गई, तो इसने इसे मुस्लिम समुदाय से विश्वासघात के रूप में लिया और भारत की स्वतंत्रता की मांग उठानी शुरू कर दी ! सन 1930 में अल्लामा मुहम्मद इकबाल के नेतृत्व में इसने मुस्लिमों के लिए अलग राज्य की मांग उठाई और मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में आने से इसे और बल मिला और अंततः यह भारत का विभाजन कराने के अपने उद्देश्य में सफल हुई !
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Old 10-05-2012, 08:48 PM   #14
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Default Re: आपस की बात अलैक शेरमन के साथ (Aapas ki Baat)

अब तक मैंने जो कहा है, उसमें एक बात काबिले-गौर है कि जब भारत का विभाजन हुआ, तब भारत की राजनीतिक विरासत संभालने वाली कांग्रेस के नेतृत्व की तब तक लगभग तीन पीढियां गुज़र चुकी थीं और उन्हें स्वतंत्रता आन्दोलन में जन सहभागिता और शासन-प्रशासन में उसकी भागीदारी का एक लंबा अनुभव हासिल था, दूसरी ओर मुस्लिम लीग की स्थिति इसके एकदम उलट थी ! सदा अंग्रेजों के पिट्ठू बने रहने के कारण न तो जनता से उसके नेतृत्व का कोई जुड़ाव था और न उन्हें जन-सहयोग से शासन-प्रशासन चलाने का कोई तरीका ही मालूम था ! वे येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करना चाहते थे और उसे हासिल करने के बाद वे इतने आत्म-मुग्ध हो गए कि उन्होंने अपना 'कौम के लिए राज्य स्थापना' का अपना उद्देश्य भी भुला दिया ! यह फर्क इस तथ्य से भी ज़ाहिर होता है कि कांग्रेस का आन्दोलन जनता से जुड़ कर और पूरी तरह क़ानून सम्मत तरीकों से चला कि उसके नेताओं के पास विरोध के लिए सत्याग्रह करते हुए जेल जाने की एक लम्बी फेहरिस्त है, जबकि आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि मुस्लिम लीग के इतिहास में जितने नाम नज़र आते हैं, इनमें से एक भी शख्स किसी भी आन्दोलन के कारण एक पल के लिए भी कभी जेल नहीं गया ! यही है वह सबसे बड़ी वज़ह जिसने कांग्रेस को जनता से कदम से कदम मिलाने की राह पर आगे बढ़ाया और मुस्लिम लीग के नेता अगर चाहते, तो भी ऐसा हरगिज़ नहीं कर सकते थे, क्योंकि उनका आन्दोलन जन आन्दोलन कभी रहा ही नहीं था ! मुस्लिम लीग और कांग्रेस की आज़ाद देशों में स्थिति पर नज़र डालें, तो स्थिति और भी स्पष्ट हो जाती है ! भारत में इस समय मुस्लिम आबादी 17 कऱोड 70 लाख है और पाकिस्तान से ज्यादा जनसंख्या होने के बावजूद आज भारत में मुस्लिम लीग केवल केरल तथा आन्ध्र प्रदेश के कुछ हिस्से तक सिमटी हुई है और दूसरी तरफ पाकिस्तान में भी उसकी कम दुर्गति नहीं हुई है ! वहां वह कई हिस्सों में विभाजित हुई और उसके कई तबकों के नेता गद्दीनशीन हुए, उन्होंने उससे निकल कर कई पार्टियां भी बनाईं ! आज वह मुख्यतः दो धड़ों-मुस्लिम लीग (कायदे-आज़म) और मुस्लिम लीग (नवाज़) में बंटी हुई है और सत्ता से बाहर है ! मेरे विचार से पाकिस्तान के भारत से एक अलग राह पर चल पड़ने का एक बड़ा कारण यह भी है !
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Old 11-05-2012, 01:08 AM   #15
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एक बार और गौर करने योग्य यह है की पाकिस्तान की जनता भी सेना के शासन का support करती है, वहां ने राजनेताओ पर उन्हें भरोसा नहीं है. दूसरी बात यह भी है की १९६५ और १९७१ की करारी हार के बाद पाकिस्तान के मन में यह हमेशा से संदेह रहा है की उन्होंने secure स्टेट बन कर रहना होगा, सेना पर अधिक से अधिक खर्च करना होगा, नहीं तो हिन्दुस्तान उन्हें तबाह और बर्बाद कर देगा. जहां एक तरफ भारत शुरू से ही welfare स्टेट बनने की राह पर रहा पाकिस्तान secure स्टेट बनते बनते और भी unsecure हो गया. और एक चीज़ यह हुई की वहां धर्म और राजनीति को जोड़ दिया गया. मुल्लो और मौलवीयो का वहां सत्ता के गलियारों में बहुत ही भोकाल हो गया, जिसका नुकसान शुरू से ही पाकिस्तान को उठाना पड़ा.
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Old 11-05-2012, 01:20 AM   #16
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अब तक मैंने जो कहा है, उसमें एक बात काबिले-गौर है कि जब भारत का विभाजन हुआ, तब भारत की राजनीतिक विरासत संभालने वाली कांग्रेस के नेतृत्व की तब तक लगभग तीन पीढियां गुज़र चुकी थीं और उन्हें स्वतंत्रता आन्दोलन में जन सहभागिता और शासन-प्रशासन में उसकी भागीदारी का एक लंबा अनुभव हासिल था, दूसरी ओर मुस्लिम लीग की स्थिति इसके एकदम उलट थी ! सदा अंग्रेजों के पिट्ठू बने रहने के कारण न तो जनता से उसके नेतृत्व का कोई जुड़ाव था और न उन्हें जन-सहयोग से शासन-प्रशासन चलाने का कोई तरीका ही मालूम था ! वे येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करना चाहते थे और उसे हासिल करने के बाद वे इतने आत्म-मुग्ध हो गए कि उन्होंने अपना 'कौम के लिए राज्य स्थापना' का अपना उद्देश्य भी भुला दिया ! यह फर्क इस तथ्य से भी ज़ाहिर होता है कि कांग्रेस का आन्दोलन जनता से जुड़ कर और पूरी तरह क़ानून सम्मत तरीकों से चला कि उसके नेताओं के पास विरोध के लिए सत्याग्रह करते हुए जेल जाने की एक लम्बी फेहरिस्त है, जबकि आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि मुस्लिम लीग के इतिहास में जितने नाम नज़र आते हैं, इनमें से एक भी शख्स किसी भी आन्दोलन के कारण एक पल के लिए भी कभी जेल नहीं गया ! यही है वह सबसे बड़ी वज़ह जिसने कांग्रेस को जनता से कदम से कदम मिलाने की राह पर आगे बढ़ाया और मुस्लिम लीग के नेता अगर चाहते, तो भी ऐसा हरगिज़ नहीं कर सकते थे, क्योंकि उनका आन्दोलन जन आन्दोलन कभी रहा ही नहीं था ! मुस्लिम लीग और कांग्रेस की आज़ाद देशों में स्थिति पर नज़र डालें, तो स्थिति और भी स्पष्ट हो जाती है ! भारत में इस समय मुस्लिम आबादी 17 कऱोड 70 लाख है और पाकिस्तान से ज्यादा जनसंख्या होने के बावजूद आज भारत में मुस्लिम लीग केवल केरल तथा आन्ध्र प्रदेश के कुछ हिस्से तक सिमटी हुई है और दूसरी तरफ पाकिस्तान में भी उसकी कम दुर्गति नहीं हुई है ! वहां वह कई हिस्सों में विभाजित हुई और उसके कई तबकों के नेता गद्दीनशीन हुए, उन्होंने उससे निकल कर कई पार्टियां भी बनाईं ! आज वह मुख्यतः दो धड़ों-मुस्लिम लीग (कायदे-आज़म) और मुस्लिम लीग (नवाज़) में बंटी हुई है और सत्ता से बाहर है ! मेरे विचार से पाकिस्तान के भारत से एक अलग राह पर चल पड़ने का एक बड़ा कारण यह भी है !
मुस्लिम लीग ने जितना नुकसान मुस्लिमो का किया है उतना किसी और ने नहीं, इसी मुस्लिम लीग की वजह से हिन्दुस्तान ३ भाग में divide गया और मुस्लिम भी बराबर divide हो गए. आज देखिये वो कही भी खुशहाल नहीं हैं.

पाकिस्तान की धर्म को हर चीज़ से जोड़ने के नीति से ही पाकिस्तान का पतन हुआ है. एक उदहारण देता हूँ.

अब्दुस सलाम, पाकिस्तान के एकमात्र नोबेल पुरस्कार विजेता के कब्र का फोटो जरा देखिये.





Salam was buried in Bahishti Maqbara, a cemetery established by the Ahmadiyya Muslim Community in Rabwah, Pakistan next to his parents' graves. The epitaph on his tomb initially read "First Muslim Nobel Laureate" but, because of Salam's adherence to the Ahmadiyya Muslim sect, the word "Muslim" was later erased on the orders of a local magistrate, leaving the nonsensical "First Nobel Laureate". Under Ordinance XX, Ahmadis are considered non-मुस्लिम्स इन पाकिस्तान.

http://en.wikipedia.org/wiki/Abdus_Salam

इस देश का सबसे बड़े वैज्ञानिक के यह हाल किया इन्होने.
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Old 13-05-2012, 02:40 AM   #17
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हां, आपने एक बहुत सही बात कही है, अभिषेकजी ! दरअसल पाकिस्तान पर उसके सबसे बड़े हिस्से पंजाब का हर तरह से कब्ज़ा है और यही कारण है कि इंडिया के अन्य हिस्सों से वहां गए लोग अब भी मुहाजिर कहलाते हैं ! बीच में यह बात उठी थी कि यदि जिन्ना की मांगों को मान लिया जाता और पं. नेहरू अड़े नहीं होते, तो आज भारत संयुक्त ही होता ! अब हम इस पर विचार करेंगे ! मैं शुरुआत में ही यह स्पष्ट कर देना बेहतर समझता हूं कि यह कथन अपने आप में भ्रामक है, क्योंकि जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने जिस तरह की शर्तें रखी थीं, वह किसी विभाजन से कम नहीं थीं; इसके बावजूद स्थिति स्पष्ट करने के मकसद से हमें इस पर व्यापक विचार करना चाहिए, ऐसा मेरा मानना है !
शायद आपको पता है कि जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ने का मन बना लिया, तो 1946 में सत्ता हस्तांतरण के तरीकों और योजना का निर्धारण करने के लिए तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली द्वारा गठित किया गया एक मिशन भारत भेजा गया, जिसे कैबिनेट मिशन कहा जाता है!
इसने तत्कालीन भारतीय नेतृत्व के विभिन्न पक्षों से विचार-विमर्श कर 16 मई 1946 को जो योजना पेश की वह कुछ इस प्रकार थी-

1. भारत को एक संयुक्त डोमिनियन स्वतंत्रता प्रदान की जाएगी !
2. मुस्लिम बहुल प्रांतों - बलूचिस्तान, सिंध, पंजाब और उत्तर - पश्चिम सीमांत प्रांत को एक समूह के रूप में और बंगाल तथा असम को एक अन्य समूह के रूप में रखा जाएगा !
3. हिंदू बहुल प्रांतों (यथा सेन्ट्रल और साउथ इंडिया) का एक अन्य समूह होगा !
4. केन्द्रीय सरकार के पास विदेश, रक्षा और संचार के मामले होंगे तथा अन्य मुद्दे स्वायत्त राज्यों के समूह स्वयं देखेंगे !

ज़ाहिर है कि इसमें मुस्लिम लीग के उन विचारों को प्रमुखता मिली थी, जिसके अनुसार वह ब्रिटिशों के जाने के बाद के भारत में मुस्लिमों के अधिकार और राजनीतिक स्थान की मजबूती सुनिश्चित करना चाहती थी ! मुस्लिम लीग मुस्लिमों के लिए अलग स्वायत्त प्रान्तों पर अड़ी हुई थी और कांग्रेस को राज्यों का हिन्दू-मुस्लिम जनसंख्या के हिसाब से बंटवारे का विचार घिनौना प्रतीत हो रहा था, अतः यह योजना सिरे नहीं चढ़ सकी ! आप स्वयं देख सकते हैं कि इस योजना में केंद्र के पास सीमित शक्तियां हैं और यदि उस समय पं. नेहरू के नेतृत्व में इस योजना को मान लिया गया होता, तो विभाजन का जो कलंक आज अंग्रेजों और मुस्लिम लीग के नाम दर्ज है, निश्चय ही वह कुछ अरसे बाद कांग्रेस के माथे पर लगना था !

इसके ठीक एक माह बाद 16 जून को एक अन्य योजना प्रस्तुत हुई ! इसके तहत मुस्लिम लीग की मांगों के अनुसार भारत के हिन्दू बहुल और मुस्लिम बहुल दो राष्ट्र बनाए जाने थे ! साथ ही रियासतों को अपना स्वरुप निर्धारित करने का अधिकार दिया जाना था अर्थात यह अधिकार कि वे किसके साथ जाएं या स्वतंत्र रहें यह चुन सकते थे ! ... अंततः थोड़े से परिवर्तन के बाद यही हुआ !
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एक बात हम दोनों ओर बार-बार सुनते हैं - 'राष्ट्र का निर्माण-कौम का निर्माण' ! इस विषय में आप दोनों ओर क्या फर्क पाते हैं ?
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Old 17-05-2012, 12:08 AM   #19
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एक बार और गौर करने योग्य यह है की पाकिस्तान की जनता भी सेना के शासन का support करती है, वहां ने राजनेताओ पर उन्हें भरोसा नहीं है. दूसरी बात यह भी है की १९६५ और १९७१ की करारी हार के बाद पाकिस्तान के मन में यह हमेशा से संदेह रहा है की उन्होंने secure स्टेट बन कर रहना होगा, सेना पर अधिक से अधिक खर्च करना होगा, नहीं तो हिन्दुस्तान उन्हें तबाह और बर्बाद कर देगा. जहां एक तरफ भारत शुरू से ही welfare स्टेट बनने की राह पर रहा पाकिस्तान secure स्टेट बनते बनते और भी unsecure हो गया. और एक चीज़ यह हुई की वहां धर्म और राजनीति को जोड़ दिया गया. मुल्लो और मौलवीयो का वहां सत्ता के गलियारों में बहुत ही भोकाल हो गया, जिसका नुकसान शुरू से ही पाकिस्तान को उठाना पड़ा.
आपकी बात काफी हद तक सही है अभिषेकजी, कि पाकिस्तान पर भारत के भय का भूत सवार रहा है, लेकिन यह कोई अभी की अथवा युद्धों के बाद की बात नहीं है, बल्कि यह शुरू से रहा है और मेरा मानना है कि इसके सबसे बड़े जिम्मेदार वहां के नेता रहे हैं, जिन्होंने 'कश्मीर' को भारत के खिलाफ जहर उगल कर चुनाव जीत लेने का मुद्दा बना दिया ! ज़रा पाकिस्तान के निर्माण के दिनों को याद करें, आजादी के लगभग तत्काल बाद कश्मीर पर दोनों देशों में लड़ाई छिड़ गई थी ! जिसे कश्मीर पर कबाइली हमला कहा जाता है, वह दरअसल पाकिस्तान का भारत पर हमला ही था ! पाकिस्तान के सबसे ताकतवर और मशहूर अखबार 'डॉन' के 1947-48 के समय के अंक देखें तो आप पाएंगे कि वहां लगातार कहा जा रहा था कि पाकिस्तान को अपने बजट का 75 प्रतिशत हिस्सा फ़ौज को दे देना चाहिए, ताकि सेना मज़बूत हो और कश्मीर को जीता जा सके, और यह उस अखबार का ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान का मूल विचार अथवा कहें कि दृष्टिकोण था और है, अतः पाकिस्तान के बजट का एक बड़ा हिस्सा रक्षा पर खर्च होने लगा ! यह ध्यान देने की बात है कि यह खर्च कभी घटा नहीं, बढ़ता ही गया है और इसी का नतीजा है कि इसके असर से उसका आर्थिक पक्ष इस कदर कमजोर हो गया कि वह आज छोटी-छोटी चीजों के लिए भी पश्चिम पर निर्भर है ! जहां तक धर्म और राजनीति को जोड़ने की बात है, तो पाकिस्तान की पैदाइश ही धर्म की वज़ह से हुई थी, अतः यह तो अवश्यम्भावी था, लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि धर्म भी इस देश को एक नहीं रख पाया और भाषा ने उससे तोड़ कर बांग्लादेश बनवा दिया और अब असंतुष्ट बलोचिस्तान तथा सिंध बलवे की राह पर हैं ! सवाल उठता है कि ऐसे क्या कारण रहे कि पाकिस्तान में फ़ौज इतनी ताकतवर हो गई, जबकि भारत में सेना की ऎसी स्थिति की आप कल्पना भी नहीं कर सकते ! इस विषय पर थोड़ी और रोशनी मैं अगली प्रविष्ठि में डालूंगा !
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Last edited by Dark Saint Alaick; 17-05-2012 at 12:12 AM.
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आप साफ़ देख सकते हैं कि पाकिस्तान के हर हुक्मरान के सर पर वहां की सेना की तलवार हमेशा लटकी रहती है ! यह किसी देश में मुमकिन नहीं है कि मिलिट्री चीफ देश के जनता द्वारा चुने हुए राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के खिलाफ सरेआम बयानबाजी करे और वे केवल खींसे निपोर कर रह जाएं, लेकिन पाकिस्तान में यह बिलकुल मुमकिन है ! आप वहां के अखबार नियमित देखें तो आपको सहज स्पष्ट हो जाएगा कि सेना प्रमुख और आईएसआई चीफ लगातार सरकार को धमकाते रहते हैं और उनका यह अनापेक्षित दबाव शासक को सर झुका कर स्वीकार भी करना पड़ता है ! कैसे बनी पाकिस्तानी सेना इतनी शक्तिशाली, अब हम इस पर विचार करेंगे !
दोनों देशों के निजाम के फर्क पर विचार करेंगे, तो स्पष्ट हो जाएगा कि भारत में शासन ने नौकरशाही को ताकतवर बना कर उसके जरिए सेना को नियंत्रित किया, जबकि पाकिस्तान में सेना ने नौकरशाही के जरिए शासन को नियंत्रित किया ! विरासत में दोनों देशों को सैन्य बालों का कमांडर इन चीफ मिला था ! भारत ने पहले दिन से ही यह पद ख़त्म कर तीनों सेनाओं के अलग प्रमुख बना दिए, और उनका नेतृत्व राष्ट्रपति के जिम्मे कर दिया, लेकिन पाकिस्तान में याहया खान के शासनकाल तक यह व्यवस्था कायम रही ! इसके बाद भी वहां अब तक बार-बार इस कांसेप्ट की बात होती रही है अर्थात छुपे रूप में सेना की आकांक्षा अब भी सर्वोच्च बने रहने की है !
एक अन्य कारण की ओर देखें, तो भारत में हुए भूमि सुधारों की भी इसमें एक बड़ी भूमिका रही है, जो पाकिस्तान में नहीं हुआ ! जैसा कि मैंने अपनी एक पूर्व प्रविष्ठि में कहा है, पंजाब पाकिस्तान का सबसे बड़ा हिस्सा है, बल्कि कहिए कि अब पंजाब ही पाकिस्तान है, और मिलिट्री, ब्यूरोक्रेसी और राजनेताओं की सबसे बड़ी जमात इसी इलाके से है ! अंग्रेजों की नीति समाज के ताकतवर हिस्से को अपनी ओर मिलाने की थी. अतः वह सारी भर्तियां सुविधा संपन्न तबके से करते थे ! दलित तबके को तो कभी भी और कैसे भी कुचला जा सकता है ! ज़ाहिर है, इस वर्ग से भर्तियां स्वतंत्र भारत में नहीं हुईं ! भूमि सुधार के कारण भारत में जमींदार तबका समाप्त हो चुका था और इसकी वज़ह से सेना में मध्य और निम्न वर्ग से लोग आए, लेकिन पाकिस्तान में इसके उलट भूमि सुधार हुए ही नहीं, ये तबके लगातार मजबूत बने रहे और सेना ही नहीं, प्रशासन के तमाम हलकों में भर्तियां उच्च वर्ग से जारी रहीं, जिनका आपसी गठजोड़ मैं अपनी एक पूर्व प्रविष्ठि में स्पष्ट कर चुका हूं ! इसका एक और बड़ा कारण एक पूर्व प्रविष्ठि में स्पष्ट हो चुका है कि आज़ाद भारत के हिस्से जो भूभाग आया, वह प्रशासनिक दृष्टि से पूरी तरह रेग्यूलेट इलाका था, अतः यहां न्याय, विधि, कर संग्रह, प्रशासन और नौकरशाही जैसी तमाम इकाइयां अंग्रेजों ने विकेन्द्रीकृत की हुई थीं यानी ये सारे अधिकार या व्यवस्था यहां विभिन्न हाथों में बंटी हुई थी, जिसने लोकतांत्रिक राह पर चलने में भारत की मदद की; इसके विपरीत पाकिस्तान संयुक्त भारत के जिन हिस्सों से बना, वह अंग्रेजों की दृष्टि से नॉन रेग्यूलेट थे और इस वज़ह से ब्रिटिश शासकों ने उन इलाकों में सारी प्रशासनिक शक्ति केंद्रीकृत कर रखी थी अर्थात तानाशाही रवैया उन इलाकों के लोगों की आदत बन चुका था अथवा खून में था, जिसने बाद में भी रंग दिखाया ! सेना के लगातार मज़बूत होते जाने का एक अन्य बड़ा कारण शुरू में ही कश्मीर को लेकर युद्ध हो जाना रहा, जिसने वहां की राजनीति ही नहीं, सेना को भी एक बहाना दे दिया, जिसके बल पर वह निरंतर शक्ति संचित कर बलशाली होती गई !
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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