14-10-2012, 12:47 AM | #11 |
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Re: दुर्गा पूजा 2012
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14-10-2012, 12:48 AM | #12 |
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Re: दुर्गा पूजा 2012
पहले की दुर्गा पूजा में सिर्फ़ मूर्ति के रूप में दुर्गा महिषासुर का वध करती नहीं दीखती थी, बल्कि पूजा की आखिरी पेशकश पशु वध के रूप में प्रकट होती थी। अकसर भैसों का वध करके महिषासुर के प्रतीक का संहार किया जाता था लेकिन वाह्य रायवंश में पैदा हुए शिवायन के प्रणेता कवि रामकृष्ण राय ने इस हिंसक प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया। फलतः आज दुर्गा पूजा मूर्ति पूजा का एक प्रतीक है,पर दुर्गा पूजा अब धीरे-धीरे धन कुबेरों के शक्ति वर्चस्व का प्रतीक भी बन गया है। यह इस सांस्कृतिक पर्व के मिथ के सौंदर्य बोध और जीवन दृष्टि को तोड़नेवाला साबित हो रहा है। आज हमारे लोक जीवन में दुर्गा की पूजा करने में लोगों का यकीन उतना नहीं रह गया है, जितना उसकी झाँकी देखने में है। दुर्गा की प्रतिमाएँ कलात्मक प्रतिमान हैं, स्त्री सौंदर्य का प्रदर्शन नहीं है। यदि हुसैन जैसे चित्रकार दुर्गा की प्रतिमा के बहाने स्त्री अंगों की वकालत करते हैं तो यह उनकी कला का चरम व्यावसायिकता और स्त्री की छवि के विरुद्ध एक सार्वजनिक उपहास है। दुर्गा एक सुंदर स्त्री भी है, जिनके पास पुष्ट उन्नत उरोज़, विशाल जंघाएँ और एक जोड़ी तेजस्वी आँखें भी हैं। इनमें काजल नहीं अत्याचार के विरुद्ध खिंची भौंहें हैं। उनके पास असाधारण पौरुषवाले चार शक्तिशाली हाथ भी हैं।
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14-10-2012, 12:50 AM | #13 |
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Re: दुर्गा पूजा 2012
नवरात्रि में दुर्गा पूजा-पाठ की यह विधि नवरात्रि में दुर्गा पूजा-पाठ की यह विधि यहां संक्षिप्त रूप से दी जा रही है। नवरात्रि आदि विशेष अवसरों पर तथा शतचंडी आदि वृहद् अनुष्ठानों में विस्तृत विधि का उपयोग किया जाता है। उसमें यन्त्रस्थ कलश, गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तर्षि, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी, 50 क्षेत्रपाल तथा अन्यान्य देवताओं की वैदिक विधि से पूजा होती है। अखंड दीप की व्यवस्था की जाती है। देवी प्रतिमा की अंग-न्यास और अग्न्युत्तारण आदि विधि के साथ विधिवत्* पूजा की जाती है। नवदुर्गा पूजा, ज्योतिःपूजा, बटुक-गणेशादिसहित कुमारी पूजा, अभिषेक, नान्दीश्राद्ध, रक्षाबंधन, पुण्याहवाचन, मंगलपाठ, गुरुपूजा, तीर्थावाहन, मंत्र-खान आदि, आसनशुद्धि, प्राणायाम, भूतशुद्धि, प्राण-प्रतिष्ठा, अन्तर्मातृकान्यास, बहिर्मातृकान्यास, सृष्टिन्यास, स्थितिन्यास, शक्तिकलान्यास, शिवकलान्यास, हृदयादिन्यास, षोडशान्यास, विलोम-न्यास, तत्त्वन्यास, अक्षरन्यास, व्यापकन्यास, ध्यान, पीठपूजा, विशेषार्घ्य, क्षेत्रकीलन, मन्त्र पूजा, विविध मुद्रा विधि, आवरण पूजा एवं प्रधान पूजा आदि का शास्त्रीय पद्धति के अनुसार अनुष्ठान होता है। इस प्रकार विस्तृत विधि से पूजा करने की इच्छा वाले भक्तों को अन्यान्य पूजा-पद्धतियों की सहायता से भगवती की आराधना करके पाठ आरंभ करना चाहिए। साधक स्नान करके पवित्र हो, आसन-शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके शुद्ध आसन पर बैठे, साथ में शुद्ध जल, पूजन-सामग्री और श्री दुर्गा सप्तशती की पुस्तक रखें। पुस्तक को अपने सामने काष्ठ आदि के शुद्ध आसन पर विराजमान कर दें। ललाट में अपनी रुचि के अनुसार भस्म, चंदन अथवा रोली लगा लें, शिखा बांध लें, फिर पूर्वाभिमुख होकर तत्त्व-शुद्धि के लिए चार बार आचमन करें। उस समय निम्नांकित चार मंत्रों को क्रमशः पढ़ें - ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा। ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा। ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
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14-10-2012, 12:50 AM | #14 |
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Re: दुर्गा पूजा 2012
तत्पश्चात् प्राणायाम करके गणेश आदि देवताओं एवं गुरुजनों को प्रणाम करे, फिर 'पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ' इत्यादि मंत्र से कुश की पवित्री धारण करके हाथ में लाल फूल, अक्षत और जल लेकर संकल्प करें। संकल्प करके देवी का ध्यान करते हुए पंचोपचार की विधि से पुस्तक की पूजा करें, योनि-मुद्रा का प्रदर्शन करके भगवती को प्रणाम करे, फिर मूल नवार्ण मंत्र से पीठ आदि में आधारशक्ति की स्थापना करके उसके ऊपर पुस्तक को विराजमान करें।
इसके बाद शापोद्वार करना चाहिए। इसके अनेक प्रकार हैं। 'ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा' - इस मंत्र का आदि और अन्त में सात बार जप करे। यह शापोद्वारमन्त्र कहलाता है। इसके अनन्तर उत्कीलन-मंत्र का जप किया जाता है। इसका जप आदि और अन्त में इक्कीस-इक्कीस बार होता है। यह मन्त्र इस प्रकार है - 'ॐ ह्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।' इसके जप के पश्चात्* आदि और अन्त में सात-सात बार मृत-संजीवनी विद्या का जप करना चाहिए। इस प्रकार शापोद्धार करने के अनंतर अन्तर्मातृकाबहिर्मातृका आदि न्यास करें, फिर भगवती का ध्यान करके रहस्य में बताये अनुसार नौ कोष्ठों वाले यन्त्र में महालक्ष्मी आदि का पूजन करें, इसके बाद छः अंगो सहित दुर्गा सप्तशती का पाठ आरम्भ किया जाता है। कवच, अर्गला, कीलक और तीनों रहस्य - ये ही सप्तशती के छः अंग माने गए हैं। उनके क्रम में भी मतभेद है। चिदम्बर संहिता में पहले अर्गला, फिर कीलक तथा अन्त में कवच पढ़ने का विधान है। किंतु योगरत्नावली में पाठ का क्रम इससे भिन्न है। उसमें कवच को बीज, अर्गला को शक्ति तथा कीलक को कीलक-संज्ञा दी गई है। जिस प्रकार सब मन्त्रों में पहले बीज का, फिर शक्ति तथा अंत में कीलक का उच्चारण होता है। उसी प्रकार यहां भी पहले कवच रूप बीज का, फिर अर्गलारूपा शक्ति का तथा अंत में की*लक रूप कीलक का क्रमश: पाठ होना चाहिए।
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14-10-2012, 12:52 AM | #15 |
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Re: दुर्गा पूजा 2012
दुर्गा आराधना का महत्व जगत्* की उत्पत्ति, पालन एवं लय तीनों व्यवस्थाएं जिस शक्ति के आधीन सम्पादित होती है वही पराम्वा भगवती आदि शक्ति हैं। इन्हीं के अनन्त रूप हैं लेकिन प्रधान नौ रूपों में नवदुर्गा बनकर आदि शक्ति सम्पूर्ण पृथ्वी लोक पर अपनी करूणा की वर्षा करती है, अपने भक्त और साधकों में अपनी ही शक्ति का संचार करते हुए, करूणा एवं परोपकार के द्वारा संसार के प्राणियों का हित करती है। प्रथम नवरात्रि को मां की शैलपुत्री रूप में आराधना की जाती है। वस्तुतः नौ दुर्गा के रूप माता पार्वती के हैं। दक्ष प्रजापति के अहंकार को समाप्त कर प्रजापति क्रम में परिवर्तन लाने एवं अपने सती स्वरूप का संवरण कर पार्वती अवतार क्रम में नौ दुर्गा की नौ रूप मूर्तियों की उपासना का पर्व है नवरात्रि। यद्यपि शक्ति अवतार को दक्ष यज्ञ में अपने योग बल से सम्पन्न करने से पूर्ण भगवती सती जी ने भगवान शंकर के समक्ष अपनी दस महाविधाओं को प्रकट किया तथा उनके सती जी के दग्ध छाया छाया देह के अंग-प्रत्यंगो से अनेक शक्ति पीठों में आदि शक्ति प्रतिष्ठित होकर पूजी जाने लगी पार्वती रूपा भगवती के प्रथम स्वरूप शैल पुत्री की आराधना से साधक की योग यात्रा की पहली सीढ़ी बिना बाधाओं के पार हो जाती है। योगीजन प्रथम नवरात्रि की साधना में अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित शक्ति केंद्र की जागृति मे तल्लीन कर देते हैं। नवरात्रि आराधना, तन मन और इन्द्रिय संयम, साधना की उपासना है, उपवास से तन संतुलित होता है। तन के सन्तुलित होने पर योग साधना से इंद्रियां संयमित होती है। इन्द्रियों के संयमित होने पर मन अपनी आराध्या मां के चरणों में स्थिर हो जाता है। शक्ति उपासना के महत्व के बारे में कहा जाता है कि जिसने अपने मन को स्थिर कर लिया वह संसार चक्र से छूट जाता है। संसार में रहते हुए उसके सामने कोई भी सांसारिक विध्न-बाधाएं टिक नहीं सकती। वह भगवती दुर्गा के सिंह की तरह बन जाता है, ऐसे साधक भक्त एवं योगी महापुरुष को दर्शन मात्र से सिद्धियां मिलने लगती हैं। परंतु सावधान रहना चाहिए की सांसारिक उपलब्धि रूपी सिद्धियां संसार में भटका देती हैं। अतः उपासक एवं साधकों को यह भी सावधानी रखनी होती है कि उनका लक्ष्य केवल मां दुर्गा के श्री चरणों में समर्पण है और कुछ नहीं।
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14-10-2012, 12:56 AM | #16 |
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Re: दुर्गा पूजा 2012
दुर्गा चालीसा नमो नमो दुर्गे सुख करनी। नमो नमो दुर्गे दुःख हरनी॥ निरंकार है ज्योति तुम्हारी। तिहूं लोक फैली उजियारी॥ शशि ललाट मुख महाविशाला। नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥ रूप मातु को अधिक सुहावे। दरश करत जन अति सुख पावे॥ तुम संसार शक्ति लै कीना। पालन हेतु अन्न धन दीना॥ अन्नपूर्णा हुई जग पाला। तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥ प्रलयकाल सब नाशन हारी। तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥ शिव योगी तुम्हरे गुण गावें। ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥ रूप सरस्वती को तुम धारा। दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा॥ धरयो रूप नरसिंह को अम्बा। परगट भई फाड़कर खम्बा॥ रक्षा करि प्रह्लाद बचायो। हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥ लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं। श्री नारायण अंग समाहीं॥ क्षीरसिन्धु में करत विलासा। दयासिन्धु दीजै मन आसा॥ हिंगलाज में तुम्हीं भवानी। महिमा अमित न जात बखानी॥ मातंगी अरु धूमावति माता। भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥ श्री भैरव तारा जग तारिणी। छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥ केहरि वाहन सोह भवानी। लांगुर वीर चलत अगवानी॥ कर में खप्पर खड्ग विराजै। जाको देख काल डर भाजै॥ सोहै अस्त्र और त्रिशूला। जाते उठत शत्रु हिय शूला॥ नगरकोट में तुम्हीं विराजत। तिहुंलोक में डंका बाजत॥ शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे। रक्तबीज शंखन संहारे॥ महिषासुर नृप अति अभिमानी। जेहि अघ भार मही अकुलानी॥ रूप कराल कालिका धारा। सेन सहित तुम तिहि संहारा॥ परी गाढ़ सन्तन पर जब जब। भई सहाय मातु तुम तब तब॥ अमरपुरी अरु बासव लोका। तब महिमा सब रहें अशोका॥ ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी। तुम्हें सदा पूजें नर-नारी॥ प्रेम भक्ति से जो यश गावें। दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥ ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई। जन्म-मरण ताकौ छुटि जाई॥ जोगी सुर मुनि कहत पुकारी। योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥ शंकर आचारज तप कीनो। काम अरु क्रोध जीति सब लीनो॥ निशिदिन ध्यान धरो शंकर को। काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥ शक्ति रूप का मरम न पायो। शक्ति गई तब मन पछितायो॥ शरणागत हुई कीर्ति बखानी। जय जय जय जगदम्ब भवानी॥ भई प्रसन्न आदि जगदम्बा। दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥ मोको मातु कष्ट अति घेरो। तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥ आशा तृष्णा निपट सतावें। मोह मदादिक सब बिनशावें॥ शत्रु नाश कीजै महारानी। सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥ करो कृपा हे मातु दयाला। ऋद्धि-सिद्धि दै करहु निहाला। जब लगि जिऊं दया फल पाऊं। तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊं ॥ श्री दुर्गा चालीसा जो कोई गावै। सब सुख भोग परमपद पावै॥ देवीदास शरण निज जानी। करहु कृपा जगदम्बा भवानी॥ ॥ इति श्रीदुर्गा चालीसा सम्पूर्ण ॥
॥ जय माता दी ॥
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14-10-2012, 01:04 AM | #17 |
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Re: दुर्गा पूजा 2012
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14-10-2012, 06:42 AM | #18 |
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Re: दुर्गा पूजा 2012
History of Durga Puja Durga Puja - the ceremonial worship of the mother goddess, is one of the most important festivals of India. Apart from being a religious festival for the Hindus, it is also an occasion for reunion and rejuvenation, and a celebration of traditional culture and customs. While the rituals entails ten days of fast, feast and worship, the last four days - Saptami, Ashtami, Navami and Dashami - are celebrated with much gaiety and grandeur in India and abroad, especially in Bengal, where the ten-armed goddess riding the lion is worshipped with great passion and devotion. Durga Puja Mythology: Rama's 'Akal Bodhan' Durga Puja is celebrated every year in the Hindu month of Ashwin (September-October) and commemorates Prince Rama's invocation of the goddess before going to war with the demon king Ravana. This autumnal ritual was different from the conventional Durga Puja, which is usually celebrated in the springtime. So, this Puja is also known as 'akal-bodhan' or out-of-season ('akal') worship ('bodhan'). Thus goes the story of Lord Rama, who first worshipped the 'Mahishasura Mardini' or the slayer of the buffalo-demon, by offering 108 blue lotuses and lighting 108 lamps, at this time of the year. The First Durga Puja in Bengal The first grand worship of Goddess Durga in recorded history is said to have been celebrated in the late 1500s. Folklores say the landlords or zamindar of Dinajpur and Malda initiated the first Durga Puja in Bengal. According to another source, Raja Kangshanarayan of Taherpur or Bhabananda Mazumdar of Nadiya organized the first Sharadiya or Autumn Durga Puja in Bengal in c 1606. The 'Baro-Yaari' Puja and Beginning of Mass Celebration The origin of the community puja can be credited to the twelve friends of Guptipara in Hoogly, West Bengal, who collaborated and collected contributions from local residents to conduct the first community puja called the 'baro-yaari' puja or the 'twelve-pal' puja in 1790. The baro-yaari puja was brought to Kolkata in 1832 by Raja Harinath of Cossimbazar, who performed the Durga Puja at his ancestral home in Murshidabad from 1824 to 1831, notes Somendra Chandra Nandy in 'Durga Puja: A Rational Approach' published in The Statesman Festival, 1991. Origin of 'Sarbajanin Durga Puja' or Community Celebration "The baro-yaari puja gave way to the sarbajanin or community puja in 1910, when the Sanatan Dharmotsahini Sabha organized the first truly community puja in Baghbazar in Kolkata with full public contribution, public control and public participation. Now the dominant mode of Bengali Durga Puja is the 'public' version," write M. D. Muthukumaraswamy and Molly Kaushal in Folklore, Public Sphere, and Civil Society. The institution of the community Durga Puja in the 18th and the 19th century Bengal contributed vigorously to the development of Hindu Bengali culture. British Involvement in Durga Puja The research paper further indicates that "high level British officials regularly attend Durga Pujas organized by influential Bengalis and British soldiers actually participate in the pujas, have prasad, and even salute the deity, but 'the most amazing act of worship was performed by the East India Company itself: in 1765 it offered a thanksgiving Puja, no doubt as a politic act to appease its Hindu subjects, on obtaining the Diwani of Bengal'. (Sukanta Chaudhuri, ed. Calcutta: the Living City, Vol. 1: The Past) And it is reported that even the Company auditor-general John Chips organized Durga Puja at his Birbhum office. In fact, the full official participation of the British in the Durga Puja continued till 1840, when a law was promulgated by the government banning such participation." Durga Puja Comes to Delhi In 1911, with the shifting of the capital of British India to Delhi, many Bengalis migrated to the city to work in government offices. The first Durga Puja in Delhi was held in c. 1910, when it was performed by ritually consecrating the 'mangal kalash,' symbolizing the deity. This Durga Puja, which celebrates its centennial in 2009, is also known as the Kashmere Gate Durga Puja currently organized by the Delhi Durga Puja Samiti in the lawns of Bengali Senior Secondary School, Alipur Road, Delhi. Evolution of the 'Pratima' and the 'Pandal' The traditional icon of the goddess worshiped during the Durga Puja is in line with the iconography delineated in the scriptures. In Durga, the Gods bestowed their powers to co-create a beautiful goddess with ten arms, each carrying their most lethal weapon. The tableau of Durga also features her four children - Kartikeya, Ganesha, Saraswati and Lakshmi. Traditional clay image of Durga or pratima made of clay with all five gods and goddesses under one structure is known as 'ek-chala' ('ek' = one, 'chala' = cover). There are two kinds of embellishments that are used on clay - sholar saaj and daker saaj. In the former, the pratima is traditionally decorated with the white core of the shola reed which grows within marshlands. As the devotees grew wealthier, beaten silver (rangta) was used. The silver used to be imported from Germany and was delivered by post (dak). Hence the name daker saaj. The huge temporary canopies - held by a framework of bamboo poles and draped with colorful fabric - that house the icons are called 'pandals'. Modern pandals are innovative, artistic and decorative at the same time, offering a visual spectacle for the numerous visitors who go 'pandal-hopping' during the four days of Durga Puja.
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14-10-2012, 06:47 AM | #19 |
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Re: दुर्गा पूजा 2012
Very old photograph of Durga Idol. Probably from late 19th or early 20th century.
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16-10-2012, 01:17 PM | #20 |
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Re: दुर्गा पूजा 2012
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