My Hindi Forum

Go Back   My Hindi Forum > Art & Literature > Hindi Literature
Home Rules Facebook Register FAQ Community

Reply
 
Thread Tools Display Modes
Old 11-09-2013, 08:18 PM   #11
jai_bhardwaj
Exclusive Member
 
jai_bhardwaj's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100
jai_bhardwaj has disabled reputation
Default Re: कहानी : निशिगंधा - अनिल कान्त

अगले दो रोज़ बाद अस्पताल से घर पहुँचने की रात को वे निशा के कमरे में आये और अपना सर उसके क़दमों पर रख दिया । एक ही क्षण में उन्होंने निशा की सारी खुशियाँ माँग लीं । अब निशा द्वन्द में फँसी थी । एक ओर वो जिसने उसे पाला, पढाया, लिखाया और काबिल बनाया । दूसरी ओर आदित्य, जिसके साथ वह जीवन भर खुश रहेगी । फिर अगले ही क्षण ख़याल हो आया कि, क्या वह जीवन भर अपने पिताजी की मौत का कारण बनकर जी सकेगी ? क्या वह खुश रह सकेगी ? और उसने पिताजी से वादा किया कि जैसा वो चाहते हैं, वैसा ही होगा ।

वह अंतिम बार के लिए दिल्ली जाना चाहती थी । और आदित्य को अपनी मजबूरी बता देना चाहती थी । उसने घर पर ऑफिस के काम का कह, कुछ दिन दिल्ली हो आने का निर्णय लिया । और भोपाल से चली आई ।

बीते दिनों में आदित्य और निशा के मध्य कई मुलाकातें हुई, लम्बी-लम्बी बातें हुईं किन्तु हासिल कुछ न हुआ । और अंततः निशा ने आदित्य को नयी जिंदगी शुरू करने के लिए कहा । यह कोई निर्णय नहीं था अपितु एक बेबसी थी । एक जान को बचा लेने की लाचारी । जिसके आगे उस क्षण, सब छोटा मालूम होता था । हारकर आदित्य ने निशा के रास्ते से हट जाना बेहतर समझा । जो आगे कहाँ जाएगा, उसका निशा को भी पता नहीं था ।

उस आखिरी के रोज़ ट्रेन प्लेटफॉर्म से छूटने को थी और आदित्य ने अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए, अंतिम अलविदा कहना चाहा । उस क्षण, उसका दिल यही दुआ कर रहा था कि यह ट्रेन छूट जाए । दिल्ली का भोपाल से हर सम्बन्ध विच्छेदित हो जाए । कोई ट्रेन, कोई वाहन वहाँ को न जाता हो । बस दिल्ली अपने आप में एक दुनिया हो । जिसमें वो और निशा ख़ुशी-ख़ुशी रह सकें । किन्तु यह एक भ्रम था और कुछ नहीं । दिल्ली दुनिया का एक बहुत छोटा हिस्सा थी और वह एक मामूली आदमी ।

ट्रेन चली गयी और वह प्लेटफॉर्म की बैंच पर बैठा था । निपट अकेला, शून्य में निहारता हुआ ।

तभी आने वाली गाडी की घोषणा सुनाई पड़ती है । उसे होश आता है । जैसे नींद में से जागा हो । और वह स्वंय को, तीन बरस के बाद, इस फ़्लैट के बरामदे में, आराम कुर्सी पर पाता है । जहाँ पास के ही कमरे में संजय अर्धमूर्छित सा लेटा है । नाईट बल्ब अभी भी उसी तरह जल रहा है । सिगरेट राख में तब्दील हो चुकी है । वह उठता है और बल्ब को बुझाने से पहले, घड़ी की ओर देखता है । वह सुबह के पाँच बजाने को थी । याद हो आता है कि सुबह सात की ट्रेन पकडनी है । वह तौलिया लेकर बाथरूम में चला जाता है । और बाहर आकर अपना बैग और सूटकेस सँभालने लगता है । एकाएक उसे संजय का ख्याल हो आता है । वह एक कागज़ पर अपना नया पता लिखकर, उसके सिरहाने की डायरी में रख देता है । और फिर सामान उठाकर बाहर चल देता है । अपने पीछे एक जाने पहचाने शहर को छोड़कर, एक अंजान कस्बे की ओर ।
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/
यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754
jai_bhardwaj is offline   Reply With Quote
Old 11-09-2013, 08:19 PM   #12
jai_bhardwaj
Exclusive Member
 
jai_bhardwaj's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100
jai_bhardwaj has disabled reputation
Default Re: कहानी : निशिगंधा - अनिल कान्त

नया क़स्बा:

आसमान में तारे टिमटिमा रहे हैं । चाँद पूरा खिला हुआ है । तीखी हवा को चीरती हुए, ट्रेन एक छोटे से स्टेशन पर आ रुकी है । आदित्य अपना बैग और सूटकेस बाहर निकालता है । साथ में एक परिवार और भी उतरा है । कोई उनके लिए वहाँ पहले से मौजूद है । वे गले मिलते हुए, कुछ ही क्षणों में आँखों से ओझल हो गए हैं । सफ़ेद कमीज पर काले सूट को पहने हुए साहब से वह कुछ पूँछता है । वह हाथ का इशारा करते हुए स्टेशन की कमी को गिनाता है । काले लिबाज़ को पीछे छोड़ते हुए, आदित्य आगे की ओर बढ़ जाता है । वहाँ एक-दूसरे से चिपकी हुई बैंच, सर्दी से बचने का जतन कर रही हैं । कोई शौल ओढ़े हुए बैठा है । आदित्य वहाँ पहुँच कर, उसके पीछे की बैंच पर बैठ जाता है । पैंट की तलाशी लेते हुए सिगरेट की डिब्बी निकालता है और माचिस की तीली को जलाकर, बुझा देता है । धुआँ आस-पास तैरने लगता है । जो अपनी सरहद को पार करते हुए, पीछे खेलने लगता है । पीछे से खाँसने की आवाज़ आती है । वह उठ खड़ा होता है और टहलने लगता है । तेज़ हवा का झोंका आया और शौल उसके पास जा गिरी । वह शौल उठाकर बैंच के पास पहुँचा है । और वह क्षण फ्रीज़ हो जाता है । दोनों इतने बरस बाद एक-दूसरे के सामने थे । आदित्य को उस क्षण विश्वास ही नहीं होता कि वह निशा को देख रहा है ।

-"निशा, तुम ?" आदित्य अपनी जड़ता समाप्त करते हुए बोलता है ।

निशा प्रत्युतर में शौल ओढ़ते हुए मुस्कुराती है ।

-यहाँ कैसे ?

-यहाँ के नवोदय विद्यालय में पढ़ाती हूँ ।

-"अच्छा, तो बैंक की नौकरी कब छोड़ दी ?" आदित्य उसी बैंच पर बैठते हुए सवाल करता है .

-"अब तो बहुत दिन हो गए । पिछले एक बरस से पढ़ा रही हूँ ।" निशा बीते हुए समय से वर्तमान में आते हुए कहती है ।

-"अच्छा" आदित्य निशा के चेहरे को देखते हुए कहता है ।

-और आप ?

-मैंने भी सरकारी नौकरी पकड़ ली है । आज ही ज्वाइन करनी है ।

निशा अगले क्षण खामोश हो जाती है । बीते हुए समय का कोई प्रश्न नहीं करती । आदित्य पुनः सिगरेट जला लेता है और उठकर टहलने लगता है । और जाकर प्लेटफॉर्म की नोक पर खड़ा हो जाता है । फिर से तेज़ नुकीली हवा का झोंका आता है । आदित्य भीतर तक कपकपा जाता है "हूँ-हूँ-हूँ, बहुत ठण्ड है" । निशा अपने बैग से नया शौल निकाल कर देती है "इसे ओढ़ लीजिए, नहीं तो ठण्ड लग जायेगी" । आदित्य शौल ओढ़ कर फिर से बैंच पर बैठ जाता है । और इधर-उधर नज़रें दौडाने लगता है "चाय वाला कहीं दिखाई नहीं देता" । निशा अपने बैग से, थर्मस निकाल कर, कप में चाय उढेल कर देती है "मैंने पहले ही चाय वाले से थर्मस भरवा लिया था, जब वह दुकान बंद करके जा रहा था" । आदित्य कप को पकड़ते हुए, अपने बैग में कुछ तलाशने लगता है ।

-क्या हुआ ?

-अरे कुछ खाने के लिए देख रहा था ।

-"रुको मेरे पास कुछ नमकीन और बिस्कुट रखे हैं ।" निशा अपने बैग को खोलते हुए बोली ।

-"अरे मेरे पास भी गुजिया हैं, जो घर से लौटते समय माँ ने रखी थीं ।" आदित्य बैग से डब्बा निकालते हुए बोलता है


-अच्छा ।

-"हाँ लो, तुम भी खाओ" आदित्य को याद था कि निशा को माँ के हाथ की गुजिया बहुत पसंद है ।

-"माँ कैसी है ? बड़ी किस्मत वाली होगी आपकी बीवी, जो इतना प्यार लुटाने वाली माँ मिली है" निशा गुजिया लेते हुए बोली ।

-जैसी पहले थी । लेकिन किस्मत ने माँ का साथ नहीं दिया ।

-क्या मतलब ?

-"प्यार लुटाने के लिए उनकी बहू का होना भी बहुत जरुरी है ।" चाय ख़त्म करते हुए आदित्य बोला ।

-"आदि...." कहते हुए निशा के चेहरे पर ढेर सारे प्रश्न उभर आये ।

-खैर मेरा छोडो । तुम बताओ । तुम्हारे पति ने कैसे आ जाने दिया, इस छोटे सी जगह ।

प्रत्युतर में निशा भरी आँखों के साथ खामोश हो गयी । जिस अतीत से बचने की कोशिश में वह यहाँ आई थी । आज वह प्रश्न बनकर सामने आ खड़ा हुआ । आदित्य ने अगले क्षण सिगरेट का धुआँ छोड़ते हुए कहा "उत्तर नहीं दिया" । निशा ख़ामोशी से नमकीन और बिस्कुट की पैकेट बैग में रखने लगी । आदित्य को यह ख़ामोशी चुभने लगी और उससे रहा नहीं गया । और उसकी गीली आँखों में झांकते हुए बोला "क्या हुआ ? तुम मेरी बात का उत्तर क्यों नहीं देती" । आँसू आँखों से उतरकर गालों पर लुढ़क आये ।

-निशा ने बस इतना कहा "अब वो नहीं हैं" ।

-क्या हुआ ?

-एक रोड एक्सीडेंट और सब ख़त्म ।

-कब ?

-"शादी के छह महीने बाद ।" कहते हुए निशा अपनी आँखों को रुमाल से ढक लेती है ।
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/
यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754
jai_bhardwaj is offline   Reply With Quote
Old 11-09-2013, 08:20 PM   #13
jai_bhardwaj
Exclusive Member
 
jai_bhardwaj's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100
jai_bhardwaj has disabled reputation
Default Re: कहानी : निशिगंधा - अनिल कान्त

सिगरेट सुलगकर आदित्य का हाथ जला देती है और खुद को छुड़ा कर, फर्श पर लेट जाती है । आज बरसों बाद आदित्य की आँख भर आयी क्योंकि वो दुखी थी । आस-पास चुप्पी पसर गयी । जान पड़ता था कि बस साँसों के चलने की आवाज़ आ रही हो । ये ख़ामोशी उसे आखिरी की मुलाकात पर पहुँचा देती है । तब भी उसके पास कहने को कुछ शेष नहीं था और आज भी उसे कुछ सूझ नहीं रहा था ।

-"तो क्या पढ़ाती हो बच्चों को ?" आदित्य विषय बदलने के उद्देश्य से कहता है ।

-अंग्रेजी

-तो बच्चों को अंग्रेज बनाया जा रहा है ।

प्रत्युतर में निशा के गालों पर गड्ढे उभर आते हैं ।

फिर कुछ क्षण के लिए सन्नाटा पसर जाता है । दोनों ही अपने हिस्से की ख़ामोशी ओढ़ लेते हैं ।

"शादी क्यों नहीं कर लेते ? कब तक यूँ ही भटकते रहोगे ? और फिर माँ को भी तो अपनी बहू चाहिए । उनसे उनका हक क्यों छीनते हो " निशा चुप्पी तोडती है । आदित्य सिगरेट जलाता हुआ उठ खड़ा होता है । एक कश लेता है, धुआँ छोड़ता है और कहता है "जानती हो निशा, बचपन में माँ ने एक पक्षी की कहानी सुनाई थी । जो बारिश की पहली बूँद की प्रतीक्षा करता है और यदि वह छूट गयी तो वह बाकी की बूँदों के बारे में सोचता भी नहीं । और वैसे भी किसी ने कहा है, हर किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता ।" और इसके साथ ही अगला कश और फिर धुआँ उड़ने लगता है ।

-"वैसे चाँद मियाँ अब भी ड्यूटी पर हैं । देखो, अभी तक रौशन हैं ।" आदित्य चाँद की और देख कर कहता है ।

-"शायद आज पूरे चाँद की रात है ।" निशा स्वंय को ठीक से ढकते हुए कहती है ।

-तुम्हें चाँदनी रात बहुत पसंद थी न ।

-तब जानती नहीं थी कि अमावस्या भी आती है । और कभी-कभी बहुत लम्बी, स्याह काली ।

यह बात आदित्य के भीतर एक तीखी कसक छोड़ जाती है । वह स्वंय को संभालते हुए, प्लेटफॉर्म के किनारे पहुँच शौल हटाकर चुभती हवा को स्पर्श करता है । और कपकपाते हुए घडी देखता है । "अभी दो घंटे में सुबह हो जायेगी । कितना दूर है तुम्हारा हॉस्टल ?" पूँछता हुआ बैंच पर आ बैठता है । "यही कोई चार-पाँच किलोमीटर दूर" कहती हुई निशा पुनः खामोश हो जाती है ।

दोनों के मध्य लम्बी चुप्पी के बाद कब आँखें सो जाती हैं, एहसास ही नहीं होता । एकाएक आदित्य की आँखें खुलती हैं । वह घडी की ओर देखता है । "अरे छह बज गए । चलो उठो चलते हैं अब ।" आदित्य, निशा को जगाते हुए कहता है । दोनों स्टेशन के बाहर निकल आते हैं । सामने ही बस दिखाई देती है । निशा बस में चढ़ने को होती है, तभी आदित्य ताँगे की ओर इशारा करके कहता है "चलो उसमें चलते हैं" । दोनों ताँगे वाले के पास पहुँचते हैं । वह बताता है कि पहले स्कूल पड़ेगा, उसके बाद सरकारी दफ्तर । आदित्य सामान को रखकर, निशा की चढ़ने में मदद करता है । जब तीनों उस पर सवार हो जाते हैं तो ताँगा धीमे-धीमे आगे बढ़ने लगता है ।
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/
यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754
jai_bhardwaj is offline   Reply With Quote
Old 11-09-2013, 08:21 PM   #14
jai_bhardwaj
Exclusive Member
 
jai_bhardwaj's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100
jai_bhardwaj has disabled reputation
Default Re: कहानी : निशिगंधा - अनिल कान्त

वह एक छोटा किन्तु बहुत ही खूबसूरत पहाड़ी क़स्बा था । रास्ते के दोनों ओर ऊँचे वृक्ष थे और उनको बच्चा जताते हुए, सीना चौड़ा करके खड़े हुए पहाड़ । घोडा अपनी लय में दौड़ा जा रहा था । सड़क पर से उसके क़दमों के थपथपाने का संगीत सुनाई दे रहा था । तभी आगे-पीछे हिलती हुई निशा को देखकर, आदित्य ताँगे वाले से बोला "अरे भाई जान, इसमें एफ.एम है क्या ?" इस बात पर निशा के होठों पर मुस्कान खिल जाती है । "क्या साहब, आप मजाक बहुत करते हैं ।" ताँगेवाले ने घोड़े की पीठ को थपथपाते हुए कहा ।

-अच्छा तो तुम ही कोई गाना सुना दो ।

-साहब हमें तो गाना नहीं आता ।

-अच्छा, ये तो बहुत गलत बात है ।

-"कितने बच्चे हैं तुम्हारे ?" मुस्कुराती निशा की ओर देख लेने के बाद आदित्य ने पूँछा

-एक लड़की है ।

-बस एक ही, हम तो सोच रहे थे कि चार-पाँच तो होंगे ही ।

-अरे साहब ऐसी गलती तो हम कभी नहीं करेंगे । हमारे पिताजी ने हम आठ बहन-भाई को पैदा किया था । सात बहनों के बाद मुझे पैदा करने के लिए । और बाकी जिंदगी सबकी शादियाँ ही करते रहे ।

निशा ने अपने होठों पर उँगली रख ली । आदित्य मन ही मन में बुदबुदाया "बहुत मेहनती थे" । ताँगे वाले के पूँछने पर कि आपके बच्चे नज़र नहीं आते, मालूम होता है, अभी हाल-फिलहाल में ही शादी हुई है । दोनों असहज महसूस करते हुए, ख़ामोशी से वृक्षों को देखने लगे । निशा का हॉस्टल आ पहुँचा तो आदित्य ने उतरकर सामान पकड़ाया । निशा चुप सी खड़ी रही । आदित्य अपने पर्स से कार्ड निकालकर देता है "इस पर मेरा मोबाइल नंबर है" । फिर निशा सामान उठाकर चल देती है । आदित्य दूर से ताँगे में बैठा उसे भीतर जाते हुए देखता है ।

आदित्य जानता था कि निशा कभी फ़ोन नहीं करेगी । और फिर धीरे-धीरे अपने दफ्तर के काम में व्यस्त हो जाता है । पास ही रहने के लिए सरकारी आवास मिला हुआ था । कई दिन बीत गए किन्तु निशा का फ़ोन नहीं आया । आदित्य सोचता कि कहीं मेरे कारण वह परेशान न हो जाए । और उसके ख्याल को काम के तले दबा देता ।

एक रोज़ आदित्य बाज़ार में, एक रेस्टोरेंट में बैठा था । तभी वहाँ निशा का आना हुआ । आदित्य को देखकर, वह उसके पास आकर बैठ गयी ।

-"तुम यहाँ कैसे ?" आदित्य ने जानना चाहा ।

-कुछ जरूरत का सामान खरीदना था । उसी सिलसिले में आयी थी ।

-"ओह, अच्छा" निशा के पास रखे बैग को देखकर आदित्य बोला ।

-क्या लोगी ? चाय, कॉफी या ठंडा ?

-कुछ भी नहीं ।

-"अरे ऐसे कैसे, कुछ नहीं । अरे भाई जान, ज़रा दो कॉफी लाना ।" वेटर को बुलाते हुए आदित्य बोला ।

प्रत्युतर में निशा मुस्कुराती है ।

-काफी बदल गयी हो ।

-क्यों, क्या हुआ ?

-ये साडी, ये पहनावा, जीने का तरीका ही बदल लिया तुमने ।

-निशा पुनः मुस्कुरा देती है ।

इसी बीच कॉफी आ जाती है । आदित्य बाथरूम जाने का इशारा करते हुए उठता है । निशा की नज़र उसके पीछे रह गयी उसकी डायरी पर पड़ती है । निशा को याद हो आता है कि आदित्य को डायरी लिखने की आदत है । वो एकाएक ही डायरी को उठा, कोई पन्ना खोलती है । और पढने लग जाती है....
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/
यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754
jai_bhardwaj is offline   Reply With Quote
Old 11-09-2013, 08:22 PM   #15
jai_bhardwaj
Exclusive Member
 
jai_bhardwaj's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100
jai_bhardwaj has disabled reputation
Default Re: कहानी : निशिगंधा - अनिल कान्त

उस रोज़ जब ट्रेन प्लेटफोर्म पर आने को थी और तुम्हारी पलकें गीली होने को, तब मैं उसके छूट जाने की दुआ कर रहा था । तुम्हारे हाथों को थामे, ठहर जाने को मन कर रहा था । मगर अब ये मुमकिन नहीं कि तुम्हें मालूम हो कि उस रोज़ मैं वहीं छूट गया था । उसी बैंच पर, तुम्हारे आँसुओं में भीगा, अंतिम स्पर्श से गर्माता । और हर बार ही उस प्लेटफोर्म पर से गुजरते हुए, मैंने उसको वहीं पाया है । यूँ कि तुम आओगी और कहोगी 'अरे तुम अभी यहीं हो' ।

कई दफा खुद को टटोलता हूँ और जिस्म के लिहाफ़ को झाड कर फिर से जीने के काबिल बना लेता हूँ । मुई रूह के बगैर कब तलक कोई जिए जाएगा । सुनो, कभी जो गुजरों उधर से तो एक दफा उसको अलविदा कह देना । जैसे रूठे बच्चे को मनाता है कोई । शायद आखिरी की ट्रेन से मुझे आकर मिले कभी ।

कई बरस बीते हैं, साथ जिए बगैर । कुछ तो मैं भी जीने का सलीका सीखूँ । चन्द ज़ाम से गुजर सकती हैं रातें, मगर बीते बरस नहीं गुजरते । हर शाम ही तो आकर खड़े होते हैं ड्योढ़ी पर । हर सुबह ही तो छोड़ जाते हैं तनहा । हर दफा पी जाता हूँ वो पीले पन्ने, जिन पर लिखी थीं तुम्हारे नाम की नज्में ।

दोस्त नहीं देते अब तुम्हारे नाम की कस्में । हर रोज़ ही भूल जाते हैं और भी ज्यादा, कि कभी तुम भी थीं उनका हिस्सा । अब नहीं करते फरमाइश, उस किसी बीते दिन की । चुप ही आकर सुना जाते हैं, जाम में उलझा कर कई किस्से । यूँ कि सुनाया करते हों किसी महफ़िल में मुझे लतीफे की तरह ।

जानता हूँ हक़ यादों की पोटली में मृत होगा कहीं । और मैं उसमें जान फूँकने की बेवजह कोशिश नहीं करूँगा । मगर फिर भी प्लेटफोर्म की उस बैंच पर से गुजरते हुए, कभी तुम सुनना उसको । जो हर दफा कहता है मुझसे 'काश उसने मेरा हाथ थामा होता ।'

और अंत तक आते-आते निशा की आँखें गीली हो जाती हैं । जिसके चिन्ह वह आदित्य के आने से पहले ही रुमाल से हटा देती है । और उसकी डायरी यथास्थान रख देती है ।

आदित्य की वापसी के कुछ क्षण बाद, निशा जाने के लिए कहती है । आदित्य उसे साथ चलने के लिए कहता है किन्तु निशा कुछ अन्य सामान को खरीदने का कह कर टाल जाती है । फिर जब-तब ऐसा ही होने लगा । वे एक-दूसरे से टकरा जाते थे । निशा स्वंय को अतीत और वर्तमान के द्वन्द में पाती । बीते तीन बरस उसके लिए आसान नहीं थे । वह अब किसी और दुःख का कारण नहीं बनना चाहती थी । किन्तु साथ ही साथ वे पुनः एक दूसरे की आदत बनते जा रहे थे । बीते दिनों का सूखा वृक्ष पुनः हरा-भरा होने लगा था ।

फिर एक रोज़ आदित्य ने निशा को पहाड़ी पर भ्रमण के लिए आमंत्रित किया । जिसे निशा ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था । यद्यपि उसे स्वंय के जाने और न जाने के मध्य संशय था । किन्तु अस्वीकार न करने के पीछे नया लगाव ही था । आदित्य से विदा लेते हुए, निशा ने आने का कह दिया ।

पहाड़ी के शिखर पर दोनों बीते कई क्षणों से खामोश बैठे हुए थे । गालों को थपथपा कर चली जाती, नर्म हवा बह रही थी । मौसम का मिजाज़ आशिक़ाना हो चला था । दोनों अपनी स्मृतियों से एक ही दिन, एक ही स्थान पर पहुँच जाते हैं । जहाँ निशा आदित्य के कंधे पर सर रख कर, उसकी बेहिसाब गुदगुदाने वाली बातें सुन रही थी । और आदित्य उसके हवा से बिखरते हुए बालों को, अपनी उँगलियों से कानों के पीछे धकेल देता था । और अपनी ही किसी बात पर झगड़ते हुए निशा उठ कर चल देती थी । तब पीछे-पीछे आदित्य उसे मनाने को दौड़ता था ।
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/
यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754
jai_bhardwaj is offline   Reply With Quote
Old 11-09-2013, 08:22 PM   #16
jai_bhardwaj
Exclusive Member
 
jai_bhardwaj's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100
jai_bhardwaj has disabled reputation
Default Re: कहानी : निशिगंधा - अनिल कान्त

एकाएक निशा वर्तमान में दाखिल होती है । और आदित्य को देखते हुए कहती है "आप शादी क्यों नहीं कर लेते । कब तक यूँ ही भटकते रहोगे । कब तक माँ प्रतीक्षा की घडी को देखती रहेंगीं । अतीत के सहारे जीवन नहीं कटता । मैं चाहती हूँ कि आप खुश रहो ।" आदित्य हाथों की लकीरों को देखता है और कहता है "सब किस्मत की बातें हैं । सुख खोज़ने से कहाँ मिलता है ? तुम भी तो खुश नहीं रह सकीं । इसीलिए शायद मेरी किस्मत में भी सुख नहीं ।" आदित्य को सुनते-सुनते निशा की आँखें गीली हो चली थीं । निशा की आँखों में झाँकते हुए आदित्य सिगरेट जला लेता है ।

बादल एकाएक मेहरबान हो गए थे । निशा स्वंय को बचाने के लिए उठ कर चल दी थी । आदित्य पीछे से निशा का हाथ पकड़ लेता है । और अपने पास खींच लेता है । इतने पास कि उनके मध्य कोई फासला नहीं बचा था । आदित्य उसकी आँखों में डूबते हुए कहता है "मुझसे शादी करोगी ।" निशा एकाएक स्वंय को आदित्य की गिरफ्त से मुक्त करते हुए कहती है "नहीं, मैं जानती थी कि आप यूँ ही मुझसे मिलते रहोगे और एक दिन मुझ पर यह एहसान करोगे ।" इसके बाद निशा वहाँ से चली जाती है और आदित्य उसे रोक नहीं सका ।

कई दिन बीत चुके थे और उन दिनों में आदित्य की निशा से कोई मुलाकात नहीं हुई थी । आदित्य की व्यग्रता बढ़ने लगी थी । फिर एक रोज़ जब वह बाज़ार से गुज़र रहा था तभी ताँगे वाले ने टोकते हुए बताया कि मैडम अस्पताल में भर्ती हैं । वह अभी-अभी उन्हें वहाँ छोड़ कर आ रहा है । आदित्य उसके साथ अस्पताल पहुँचता है । जहाँ निशा एक कमरे में लेटी हुई थी । पास ही साथ की एक अध्यापिका बैठी थी । आदित्य चुप से जाकर उसके पास बैठ जाता है । उसकी हालत देख कर आदित्य का रो लेने का मन करता है, किन्तु स्वंय को संभालता हुआ, उसके हाथों को अपने हाथों में लेकर बैठा रहता है ।

साथ की अध्यापिका बताती है कि पीलिया की शिकायत है । और पिछले दिनों से ठीक से सोयी भी नहीं है । जब ज्यादा तबियत ख़राब होती दिखी तो मैं यहाँ ले आयी । अगले एक-दो घंटे वे दोनों बातें करते रहे । फिर आदित्य ने उसे चले जाने के लिए कहा । हालाँकि उसने कई बार रुकने के लिए कहा किन्तु आदित्य ने उसे अगली सुबह आने का कह, वापस भेज दिया ।

कुछ घंटे बाद निशा नींद से जागती है और आदित्य को अपने सामने पाती है । बस खामोश एकटक उसे देखती रहती है । आदित्य गुस्सा जताते हुए कहता है "तुमने इस काबिल भी नहीं समझा कि मुझे अपनी बीमारी के बारे में बता सको ।" निशा कुछ कहने का प्रयत्न करती है "वो मैं...." । "हाँ बस कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है । मैं सब समझता हूँ ।" कहता हुआ आदित्य उसे चुप कर देता है ।

अगले चार रोज़ आदित्य अस्पताल में ही बना रहता है । निशा की दवा, खाना-पीना और जरुरत के हर सामान की फिक्र थी उसे । वह बीते दिनों में ठीक से सोया भी नहीं था । धीरे-धीरे निशा स्वस्थ हो चली थी । और निशा को सब दिख रहा था । पिछले दिनों से निशा इसी उधेड़बुन में थी । कितनी गलत थी वह आदित्य को लेकर । अपनी ही बात पर उसे पछतावा हो रहा था । कितना चाहता है आदित्य उसे । असल में आदित्य से ज्यादा कभी किसी ने उसे चाहा ही नहीं । वो अपनी ही कही हुई बात पर शर्मिंदा हो रही थी ।
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/
यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754
jai_bhardwaj is offline   Reply With Quote
Old 11-09-2013, 08:23 PM   #17
jai_bhardwaj
Exclusive Member
 
jai_bhardwaj's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100
jai_bhardwaj has disabled reputation
Default Re: कहानी : निशिगंधा - अनिल कान्त

एक रोज़ जब आदित्य निशा के साथ की अध्यापिका को अस्पताल में छोड़कर, कपडे बदलने के उद्देश्य से अपने कमरे पर गया था । उसके पीछे दफ्तर का चपरासी अस्पताल में निशा के पास, आदित्य के घर से आयी हुई चिट्ठी छोड़ जाता है । जिसमें माँ ने आदित्य का किया हुआ वादा याद दिलाया था । जिसे वह अंतिम बार माँ से करके आया था । उन्होंने एक लड़की देख ली थी और आदित्य से उसे देखने की सिफारिश की थी । निशा चिट्ठी पढ़कर रख देती है । फिर निशा के मस्तिष्क में विचारों का युद्ध छिड़ जाता है । वह क्यों आदित्य के रास्ते की रूकावट बने । उसे भी नए सिरे से जिंदगी जीने का हक़ है । क्यों वो दुनिया को कुछ कहने का अवसर दे । और उसने निर्णय लिया कि वह यहाँ से चली जायेगी ।

शाम को जब आदित्य अस्पताल पहुँचा तो वहाँ निशा नहीं मिली । पता करने पर मालूम हुआ कि उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी है । वह वहाँ से निकल कर सीधा उसके हॉस्टल पहुँचा । जहाँ निशा के साथ की अध्यापिका ने उसे केवल वह चिट्ठी पकडाई । और बताया कि निशा अभी कुछ देर पहले यहाँ से स्टेशन चली गयी है । आदित्य के पूँछने पर "स्टेशन, लेकिन क्यों ?" उसने यही उत्तर दिया कि "ज्यादा कुछ बता कर नहीं गयी । केवल इतना कह कर गयी है कि, घर जा रही हूँ ।" आदित्य चिट्ठी पढ़ लेने के बाद स्टेशन की ओर चल देता है ।

सूरज को बहुत पीछे धकेल कर, रात निकल आयी थी । जब आदित्य स्टेशन पर पहुँचा तो वहाँ कोई नज़र नहीं आया । आदित्य ने अपनी नज़रें इधर-उधर दौडायीं । दूर के दुबके कोने में निशा गुमसुम बैठी दिखाई दी । आदित्य उसके पास पहुँचता है । और चिट्ठी को उसकी ओर फैक कर बोलता है "इसके लिए जा रही थी तुम" । निशा उठ खड़ी होती है "वो आदित्य मैं...." । आदित्य निशा के गाल पर एक तमाचा मारता है "हर निर्णय को लेने का अधिकार केवल तुम्हें नहीं, समझीं" । निशा रोते हुए आदित्य के गले से लग जाती है और कहती है "मुझे माफ़ कर दो आदि, मैं न जाने क्या सोचने लग गयी थी ।"

पिछले कई क्षणों से वे यूँ ही एक दूजे से चिपके हुए थे । आने वाली ट्रेन प्लेटफॉर्म पर से शोर करती हुई चली जा रही थी । चाँद जवान हो चला था । तब उस खामोश फैली हुई चाँदनी में कुछ ओंठ तितली के पंखों की तरह खुले और बंद हुए थे । दूर बैठा चिड़ियों का जोड़ा यह देख लजा गया था । दूर कहीं रजनीगन्धा के पुष्प माहौल में अपनी मादकता बिखेरने लगे थे. सुखद क्षणों का वह संसार, एक अध्याय बन जिंदगी से जुड़ गया...
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/
यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754
jai_bhardwaj is offline   Reply With Quote
Old 12-09-2013, 01:55 PM   #18
rajnish manga
Super Moderator
 
rajnish manga's Avatar
 
Join Date: Aug 2012
Location: Faridabad, Haryana, India
Posts: 13,293
Rep Power: 242
rajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond repute
Default Re: कहानी : निशिगंधा - अनिल कान्त

जय जी, एक बहुत सुलझी हुई कहानी पढ़वाने के लिये मैं तहे-दिल से आपका आभार प्रकट करना चाहता हूँ. कहने को यह एक प्रेम कथा है, किन्तु इसमें मानवीय जीवन के बहुत से पहलु उजागर होते हैं. व्यक्ति जब किसी से प्यार करता है तो उसे प्रतीत होता है जैसे उसे दुनिया की सारी दौलत मिल गयी हो. उसे ऐसा लगता है कि जैसे सारी दुनिया एक बिंदु में सिमट आई है जिसमें दो प्रेमी हैं और कोई नहीं. किन्तु जब रिश्ते टूटते हैं तो व्यक्ति क्षुद्र हो जाता है, मामूली हो जाता है. जीवन में नियति कैसे कैसे सितम ढा सकती है, उसकी भी मिसाल मिलती है. कहानी में फिल्मी अंदाज़ वाले संयोग कई बार आते हैं, किन्तु कुल मिला कर कहानी बहुत रोचक है और पाठक को बाँध कर रखती है.
rajnish manga is offline   Reply With Quote
Old 12-09-2013, 07:33 PM   #19
jai_bhardwaj
Exclusive Member
 
jai_bhardwaj's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100
jai_bhardwaj has disabled reputation
Default Re: कहानी : निशिगंधा - अनिल कान्त

Quote:
Originally Posted by rajnish manga View Post
जय जी, एक बहुत सुलझी हुई कहानी पढ़वाने के लिये मैं तहे-दिल से आपका आभार प्रकट करना चाहता हूँ. कहने को यह एक प्रेम कथा है, किन्तु इसमें मानवीय जीवन के बहुत से पहलु उजागर होते हैं. व्यक्ति जब किसी से प्यार करता है तो उसे प्रतीत होता है जैसे उसे दुनिया की सारी दौलत मिल गयी हो. उसे ऐसा लगता है कि जैसे सारी दुनिया एक बिंदु में सिमट आई है जिसमें दो प्रेमी हैं और कोई नहीं. किन्तु जब रिश्ते टूटते हैं तो व्यक्ति क्षुद्र हो जाता है, मामूली हो जाता है. जीवन में नियति कैसे कैसे सितम ढा सकती है, उसकी भी मिसाल मिलती है. कहानी में फिल्मी अंदाज़ वाले संयोग कई बार आते हैं, किन्तु कुल मिला कर कहानी बहुत रोचक है और पाठक को बाँध कर रखती है.
प्रतिक्रिया का हार्दिक अभिनन्दन है बन्धु। आभार।
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/
यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754
jai_bhardwaj is offline   Reply With Quote
Reply

Bookmarks


Posting Rules
You may not post new threads
You may not post replies
You may not post attachments
You may not edit your posts

BB code is On
Smilies are On
[IMG] code is On
HTML code is Off



All times are GMT +5. The time now is 01:52 AM.


Powered by: vBulletin
Copyright ©2000 - 2024, Jelsoft Enterprises Ltd.
MyHindiForum.com is not responsible for the views and opinion of the posters. The posters and only posters shall be liable for any copyright infringement.