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Old 29-10-2011, 01:19 PM   #11
Dark Saint Alaick
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श्रीलाल शुक्ल जी का जाना



श्रीलाल शुक्ल जी का जाना एक अजीब तरह के खालीपन से भर गया है। जब से वे अस्पाताल में थे, हम रोज़ सुबह दुआएं करते थे कि आज का दिन भी उनके लिए ठीक-ठाक बल्कि पहले से बेहतर गुज़रे और वे जल्द चंगे हो कर वापिस अपने घर लौट आयें। अपना भरपूर जीवन जीयें। हम कि*तना चाहते रहे कि वे ज्ञानपीठ सम्मान पूरी सज-धज के साथ लेते, हम सब उन अविस्मरणीय पलों के साक्षी बनते जब वे ज्ञानपीठ सम्मान लेने के बाद मंद-मंद मुस्कुराते हुए अपना चुटीला भाषण पढ़ते और हम सब ठहाके लगाते हुए अपने प्रिय रचनाकार के शब्द-शब्द को सम्मानित होते देखते। लेकिन ऐसा नहीं होना था।
राग दरबारी मेरी प्रिय पुस्तकों में से एक थी। जब भी किसी नये पाठक को कोई किताब उपहार में देने की बात आती, वह किताब राग दरबारी ही होती और किताब पाने वाला हमेशा-हमेशा के लिए इस बात का अहसान मानता कि कितनी अच्छी किताब से वह हिंदी साहित्य पढ़ने की शुरुआत कर रहा है। राग दरबारी कहीं से भी पढ़ना शुरू करो, हर बार नये अर्थ खोलती थी। पचासों बार उसके शब्द-शब्द का आनंद लिया होगा।
श्रीलाल शुक्ल जी से मेरी रू ब रू दो ही मुलाकातें थीं! दोनों ही मुलाकातें उनके घर पर। दोनों ही यादगार मुलाकातें। पहली बार कई बरस पहले अखिलेश जी भरी बरसात में रात के वक्त उनके घर पर ले गये थे। मैंने आदरवश उनके पैर छूए थे तो वे नाराज़ होते हुए से बोले थे कि ये क्या करते हो, हम जिस किस्म की विचारधारा का लेखन करते हैं, उसमें ये पैर-वैर छूना नहीं चलता लेकिन मैं उन्हें कैसे बताता कि उनके जैसे कथा मनीषी के पैर छू कर ही आदर दिखाया जा सकता है और उनसे आशीर्वाद पाया जा सकता है।
दूसरी बार कोई चार बरस पहले लखनऊ जाने पर उनके घर गया था। मेरे साथ मेरे बैंक के वरिष्ठ अधिकारी श्याम सुंदर जी थे। श्याम सुंदर जी तमिल भाषी हैं लेकिन कई भाषाएं जानते हैं, हिंदी में कविता करते हैं और सबसे बड़ी बात राग दरबारी उनकी भी प्रिय पुस्तक थी। उस वक्त संयोग से शुक्लि जी घर पर अकेले थे। मैं हैरान हुआ मैं उनकी स्मृति में अभी भी बना हुआ था। उन्होंने मुझे कथा दशक नाम के कहानी संग्रह की भी याद दिलायी। मैंने इस संग्रह का कथा यूके के लिए संपादन किया था। इसमें कथा यूके के इंदु शर्मा कथा सम्मान से सम्मानित दस रचनाकारों की कहानियां हैं। शायद श्रीलाल शुक्ल जी ने साक्षात्कार पत्रिका में अपने किसी इंटरव्यू में इस किताब की तारीफ भी की थी। इस मुलाकात में उन्होंने कहा था कि मैं उन्हें ये किताब दोबारा भेज दूं। मैं ये जान कर भी हैरान हुआ था कि उन्होंने मेरी कहानियां भी पढ़ रखी थीं।
तभी वे चुटकी लेते हुए बोले थे – आप लोग आये हैं और घर पर कोई भी नहीं है। देर से आयेंगे। कैसे खातिरदारी करूं। चाय बनाने में कई झंझट हैं। गैस जलाओ, चाय का भगोना खोजो, फिर पत्ती, चीनी, दूध सब जुटाओ, छानो, कपों में डालो, फिर कुछ साथ में खाने के लिए चाहिये, ये सब नहीं हो पायेगा। ऐसा करो, व्हिस्की ले लो थोड़ी थोड़ी। मैं तो लूंगा नहीं, डॉक्टर ने मना कर रखा है, तुम्हारे लिए ले आता हूं। एक दम आसान है पैग बनाना। गिलास लो, जितनी लेनी है डालो, सोडा, पानी, बर्फ कुछ भी चलता है और पैग तैयार।
उस दिन हमने बेशक उनके बनाये पैग नहीं लिये थे लेकिन इतने बड़े रचनाकार के सहज, सौम्य और पारदर्शी व्यक्तित्व से अभिभूत हो कर लौटे थे।
मेरी विनम्र श्रृद्धांजलि
-सूरज प्रकाश
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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Old 29-10-2011, 01:59 PM   #12
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Default Re: कतरनें

बेहतरीन सूत्र, पर रचनाकारों को धन्यवाद सहित अर्ज करूँगा
रचना किसी की हो, प्रस्तुतकर्ता धन्यवाद के पात्र हैं
आखिर इन्ही की वजह से तो हम इनको पढ़ पाए
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घर से निकले थे लौट कर आने को
मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए
बिगड़ैल
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Old 31-10-2011, 11:39 AM   #13
Dark Saint Alaick
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मौत से हुये साक्षात्कार ने किया प्रेरित

(जनसंवेदना मानव सेवा)

भोपाल। वाक्या करीब पांच साल पुराना है। महाराष्ट्र प्रवास के दौरान रेलवे लाइन पार करते समय एक ट्रेन के नीचे आते मैं बाल-बाल बचा। तभी एक ने कमेन्ट्स किया, बच गये वरना लावारिस की तरह मरते और अंतिम संस्कार करने वाला भी कोई नहीं मिलता। उस अंजान व्यक्ति की यह अंतिम बात मुझे चुभ गई। भोपाल आकर लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार की जानकारी ली तो हेैरत में पड़ गया। पुलिस के पास न तो कोई फंड, न दीगर व्यवस्थायें, न कोई ऐसी संस्था जो इस काम में पुलिस का हाथ बंटाती हो। तब ही लावारिस व गरीब लोगों की मौत पर उनके अंतिम संस्कार कराने में हाथ बंटाने के लिये जन संवेदना नामक संस्था का गठन किया। विषय संवेदनशील था लेकिन एकदम नया। उद्देश्य जानने के बाद लोग मौके पर तो संवेदनायें जताते लेकिन पीट फेरते ही मजाक उड़ाने से भी नहीं चूकते। दूसरों की बात ही क्यों की जाये, शुरुआत में तो परिजनों के गले भी मेरी बात नहीं बैठी। मैं अपने ध्येय पर कायम रहा। शुरुआत में काफी दिक्कतें आना स्वाभाविक है। अपना मिशन जारी रखा। पांच साल बाद अब संस्था को देश के अनेक राज्यों के लोग मदद कर रहे हैं। विशेषकर राजस्थान के लोग इस मामले में अधिक संवेदनशील हैं। मप्र खासकर भोपाल में अब तक अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। बहरहाल, संस्था अपने मिशन में जुटी रही और आज मुझ्र यह बताते हुये संतोष है कि जनसंवेदना अब तक सात सौ से अधिक लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार में सहयोग प्रदान कर चुकी है। राजधानी के प्रत्येक थाने के पुलिस कर्मियों को जनसंवेदना की सेवाओं की जानकारी है। जरुरत के समय वह संस्था की मदद लेते हैं। अब भी मेरा ज्यादातर समय अपने ध्येय को पूरा करने में गुजरता है। लीक से हटकर कार्य करने में तकलीफ होना स्वाभाविक है। कहते हैं-संतोष से बड़ा कोई सुख नहीं। पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क, भाग्य-दुर्भाग्य सब इसी धरती पर है। व्यक्ति की मौत के बाद ही सही, लेकिन मानव सेवा के इस पुण्य कार्य ने मुझ्र अभूतपूर्व आत्मिक सुख प्रदान किया है।
(सौजन्य से रवि अवस्थी)
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Old 31-10-2011, 01:37 PM   #14
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Default Re: कतरनें

एक अमेरिकन मुझसे बोला भाई साहब बताइये आपका भारत महान है !
तो सँसार के इतने आविष्यकरो मेँ आपके देश का क्या योगदान है ?
मैँ बोला रे अमेरिकन सुन,सँसार की पहली फायर प्रूफ लेडी भारत मेँ हुई थी ! नाम था "होलिका"
आग मैँ जलती नही थी,इसलिये उस वक्त फायर ब्रिगेड चलती नही थी !!
सँसार की पहली वाटर प्रूफ बिल्डिँग भारत मेँ हुई नाम था भगवान विष्णु शैया "शेषनाग" ! शेषनाग पाताल गये धरती पर रहे "विशेषसनाग"!
दुनिया के पहले पत्रकार "नारदजी" हुये जो किसी राजव्यवस्था से नही डरते थे ! तीने लोक की सनसनी खेज रिपोर्टिँग करते थे !!
दुनिया के पहले कॉँमेन्टेटर "सँजय" हुऐ जिनहोने नया इतिहास बनाया ! महाभारत के युद्ध का आँखो देखा हाल अँधे "ध्रतराष्ट्र" को उन्ही ने सुनाया !!
दादागिरी करना भी दुनिया हमने सिखाया क्योँ वर्षो पहले हमारे "शनिदेव" ने ऐसा आतँक मचाया !! कि "हफ्ता" वसूली का रिवाज उन्ही के शिष्यो ने चलाया ! आज भी उनके शिष्य हर शनिवार को आते है ! उनका फोटो दिखाते है हफ्ता ले जाते है !!
अमेरिकन बोला दोस्त फालतू की बाते मत बनाओ ! कोई ढँग का आविष्यकार हो तो बताओ !!
(जैसे हमने इँसान की किडनी बदल दी, बाईपास सर्जरी कर दी आदि)
मैँ बोला रे अमेरिकन सर्जरी का तो आइडिया ही दुनिया को हमने दिया था !
तू ही बता "गणेशजी" का ऑपरेशन क्या तेरे बाप ने किया था!!
अमेरिकन हडबडाया, गुस्से मैँ बडबडाया ! देखते ही देखते चलता फिरता नजर आया !!
तब से पूरी दुनिया को भान है ! दुनिया में मुल्क कितने ही हो सब मे मेरा "भारत" महान है !!

-प्रशांत वर्मा
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Old 31-10-2011, 02:27 PM   #15
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दुखते हैं खुशबू रचते हाथ


-गीताश्री


यहां इस गली में बनती हैं
मुल्क की मशहूर अगरबत्तियां
इन्ही गंदे मुहल्ले के गंदे लोग
बनाते हैं केवड़ा, गुलाब, खस और
रातरानी अगरबत्तियां.
दुनिया की सारी गंदगी के बीच
दुनिया की सारी खुशबू
रचते रहते हैं हाथ।
---अरुण कमल की कविता


मैंने कुछ साल पहले अचानक नेट पर अपने प्रिय कवि अरुण कमल जी की कविता खूशबू रचते हाथ पढी थी। कविता मेरे जेहन में दर्ज हो गई थी। ये उस कौम पर लिखी गई है जिसकी तरफ हमारा ध्यान कभी जाता ही नहीं। मैं सोचती रही कि कहां किस शहर में मिलेंगी ये औरते जो हमारे लिए खूशबू रचती है। कवि ने उन्हें कहीं किसी गली में तो देखा होगा ना..अचानक मैं पिछले साल उज्जैन गई। ट्रेन से आने जाने का प्लान था। आदतन जब ट्रेन किसी शहर में प्रवेश करने लगती है तो मुझे जार्ज डो का एक प्रसिध कथन याद आने लगता है...किसी शहर को देखने का सबसे अच्छा तरीका है ट्रेन के दरवाजे पर खड़े होकर उसे देखें..और मैं एसा करती हूं जब भी कभी ट्रेन से जाती हूं। उज्जैन के करीब पहुंचते ही ट्रेन के दरवाजे पर आई..धीमी होती ट्रेन और धीमे धीमे आती हवा में महक सी थी। पहले लगा कि महाकाल की नगरी है मंदिर से आती होगी..लोकिन पटरियों के एकदम पास नजर गई और मैं दंग रह गई। अरुण कमल जी की कविता..साक्षात..लाइव..कविता की पंक्तियां याद आने लगीं..हाथ ही हाथ थे..जो खूशबू रच रहे थे। खिलखिला रहे थे..खूशबू में सने हाथ ट्रेन के यात्रियों को टा टा बाय बाय भी कह रहे थे। मुझे कविता के किरदार पहली बार मिले..निराला की भिक्षुक कविता के बाद..
फिर तो इन गलियों में गई अपनी लोकल सहेली मधुलिका के साथ। वहां जाकर जो कुछ मिला उसे यहां लिख डाला। कवि होती तो कविता लिखती..तब भी अऱुण कमल से ज्यादा अच्छा नहीं लिख पाती..पत्रकार हूं सो लेक लेश लिख डाला..फोटो खींचे..उनसे बातें की..खूशबू भरी..उनकी पीड़ा लेकर घर लौट आई..ट्रेन को लौटना होता है..

भोर के इंतजार में एक गली

अब खूशबू रचते हाथ दुखने लगे हैं।
उज्जैन की ऊंची नीची, आड़ी तिरछी, तंग गलियों में अगरबत्ती बनाते बनाते तीस वर्षीया संध्या गोमे की उंगलिया पीड़ा गई हैं। कंधे दुखने लगे हैं। अब दुआ के लिए भी हाथ उठाने में दिक्कत होती है। फिर भी एक दिन में वह पांच किलो तक अगरबत्ती बना लेती है। रीना आकोदिया के गले में हमेशा खराश रहती है। कच्चे माल से निकलने वाला धूल उसके फेफड़े में जम रहा है। परिवार चलाना है तो उसे किसी भी हालत में अगरबत्ती बनाना ही होगा। पुष्पा गोमे बताती है, हम रोज का बीस से पचास रुपये तक कमा लेते हैं। घर के बाहर काम करने नहीं जा सकते। हमें घर बैठे काम चाहिए। इसके अलावा और कोई रोजगार यहां है नहीं..क्या करे?
ये महाकाल और कालिदास की नगरी उज्जैन की एक गली है योगेश्वर टेकरी। शायद ऐसे ही किसी गली में कभी अरुण कमल ने संध्या, पुष्पा, रीना, पिंकी जैसो की बहदाली देखी होगी। तमाम पूजाघरो को सुंगध से भर देने वाले हाथ अब बेहाल हैं। लगातार एक ही जगह बैठकर अगरबत्ती बनाते बनाते उनका जीवन कई तरह की मुश्किलो से भर गया है। उनका स्वास्थ्य तो खराब हो ही रहा है घर की माली हालत भी ठीक नहीं हो पा रही है। फैक्ट्री मालिक और बिचौलिए के शोषण दौर निरंतर जारी है। रीना बताती है, बहुत सी औरतो का घर इसी से चलता है। क्या करें। सभी हमारा शोषण करते हैं। कच्चा माल देते हैं साढे सात किलो, लेकिन बनाने के बाद वे पांच किलो तौलते हैं। धूल से बीमारी हो रही है। रीना की तरह ही इस गली की तमाम औरतें शोषण के दोहरे मार से बिलबिलाई हुई हैं। इनका कोई ना कोई संगठन है ना इनके हक में आवाज उठाने वाला कोई स्थानीय नेता। घर के पुरुष सदस्यो को भी इनकी सुधि नहीं है। खुद तो वे दिनभर बैठकर इसतरह का काम करेंगे नहीं। घर की महिलाओं के ऊपर लाद दिया है पूरा कारोबार। उनका ज्यादातर वक्त चौक चौराहो पर बैठकर चाय पीने या बीड़ी का धुंआ उड़ाने में जाता है। शाम को बिचौलिए से पैसे लेने जरुर पहुंच जाते हैं। कम रकम हाथ लगी तो हो हल्ला मचाते हैं। औरत पर दोहरी मार। कम अगरबत्ती बनाने का इल्जाम भी झेलो। अब तक किसी स्वंयसेवी संगठन की नजर इनकी बदहाली पर नहीं पड़ी है। नवगठित एनजीओ भोर की सर्वेसर्वा मधुलिका पसारी ने जब पहली बार फरवरी, 2010 को मेरे साथ इस गली का दौरा किया तो मेरे साथ साथ वह दंग रह गईं। उन्हें अंदाजा ही नहीं था कि खुशबू रचने वाले हाथों को किन मुश्किलो को सामना करना पड़ रहा है। अब तक उपेक्षित इस धंधे में लगी महिला मजदूरो का कोई यूनियन भी नहीं है। पिंकी टटावत बताती है यहां यूनियन नहीं बनती। मैं अगर बनाना चाहूं तो बीच के लोग खत्म कर देते हैं। हम काम करना तो नहीं बंद कर सकते ना। काम बंद होगा तो परिवार कैसे चलेगा?
संध्या बौखला कर कहती है, हमें साढे सात किलो माल देता है बदले में पांच किलो लेता है। वजन में माल कम हो गया ना। हमारी मजदूरी वैसे भी कम है ऊपर से डंडी मार देते हैं। कमसेकम हमारी मजदूरी तो बढा देते।
पूरी तरह से औरतो के कंधो पर टिका है ये धंधा। पांच साल की उम्र से लड़कियां भी निपुण हो जाती है अगरबत्ती बनाने में। घर में जिनती महिला सदस्य होती हैं वे सब घरेलु कामकाज निपटाने के बाद सुबह 11 बजे से शाम पांच या छह बजे तक एक ही जगह पर बैठकर बांस की पतली स्टिक पर मसाला चढाती रहती हैं, सुखाती हैं फिर इनका बंडल बना कर बिचौलिए का इंतजार करती हैं। बदले में वो चंद रुपये दे जाता है। इन पैसो से ना पेट भर पा रहा है ना किस्मत बदल पा रही है। पूरे शहर में और कोई धंधा नहीं है। सारे मिल बंद हो चुके हैं।
देश में उज्जैन पांचवे नंबर का अगरबत्ती उत्पादक शहर है। लगभग 100 अगरबत्ती बनाने वाली फैक्ट्री वहां है। यहां से बनने वाली अगरबत्ती की आपूर्ति देश के कई राज्यो जैसे, गुजरात, राजस्थान, उतर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और दिल्ली में होती है। इस व्यसाय को गृह उधोग का दर्जा प्राप्त है इसलिए सरकार ने कई तरह की छूट दे रखी है। अगरबत्ती व्यसाय से पिछले पचास साल से जुड़े व्यवसायी फखरुद्दीन से बातचीत के दौरान उन वजहो का पता चलता है जो मजदूर महिलाओं के शोषण
का वायस बनी हुई हैं।
वह बताते हैं, उज्जैन की अगरबत्ती गुणवत्ता में कमजोर है। सस्ती बिकती है, मजदूर भी निपुण नहीं हैं। ये कारोबार वहीं फले-फूलेगा जहां गरीब वर्ग है। वैसे भी राजनीति की वजह से कपड़ा मिलें, पाइप फैक्ट्री समेत कई कारखाने बंद हो गए। मजदूर क्या करें। मजबूरन उन्हें इस धंधे में लगना पड़ा।
फरुद्दीन महिला मजदूरो के शोषण के लिए छोटे छोटे कारोबारियो को दोषी ठहराते हैं। उनका कहना है कि छोटे कारोबारियो से हम बड़े कारोबारी बेहद परेशान हैं। उनकी वजह से मध्य प्रदेश के हर गांव में अब अगरबत्तियां बनने लगी हैं। चूंकि किलो के हिसाब से बेचना है तो मोटी अगरबत्तियां बनने लगीं हैं। बारीक बनाएंगे तो वजन कम होगा। धीरे धीरे बारीक बनाना भूल जाते हैं। इसीलिए कच्चा मान बाहर नहीं भेजते, अपनी फैक्टरी में ही मजदूरो को रखकर काम करवाते हैं और उन्हें मीनीमम वेजेस से ज्यादा देते हैं।
अंत में..मधुलिका कहती हैं, अब मुझे कुछ करना पड़ेगा। भोर को एक उद्देश्य मिल गया है। हो सकता है इनकी पहल पर एक नई भोर इन गलियों में आए।
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सात अरबवें बच्चे के नाम दुनिया की पाती


सात अरबवें इंसान के तौर पर जन्म लेने वाले मेरे प्यारे रेशम के गोले से शिशु इस धरती पर तुम्हारा स्वागत है। धरती के किसी भी कोने में भी चाहे तुमने जन्म लिया हो मुझे उम्मीद है कि तुम एक अच्छे घर में अपने माता-पिता की महफूज पनाह में होगे। तुम्हें लगेगा कि मैंने ऐसा क्यों कहा। क्या सब बच्चे माता पिता के पास सुरक्षित नहीं होते। नहीं मेरे लाल, इस दुनिया में जन्म लेने वाला हर बच्चा इतना खुश किस्मत नहीं होता कि उसे माता-पिता का प्यार दुलार नसीब हो। इस दुनिया में सैकडों ऐसे बच्चे हैं जिन्हें नाजायज कहा जाता है। तुम इतने छोटे हो कि नाजायज का मतलब नहीं समझोगे। तेजी से बढ रही दुनिया में बहुत से ऐसे बच्चे हैं जिनका जन्म अवैध हैं ! इनके आने पर किसी तरह की खुशियां नहीं मनाई जाती, बल्कि इन्हें छिपा कर रखा जाता है और मौका लगते ही इन्हें सूनसान इलाकों, कचरा घरों या अनाथालयों में फेंक दिया जाता है। सिंगापुर की एक वेबसाईट में दुनिया के निवासियों की तरफ से दुनिया में जन्में सात अरबवें बच्चे के नाम यह भावुक पत्र लिखा गया है। इस पत्र में धरती के इस नये मेहमान से कहा गया है कि मेरे बच्चे, माता-पिता, भाई-बहन और अन्य चाहने वालों की छत्र छाया में धीरे-धीरे जब तुम बडे होने लगोगे तो तुम्हें अच्छे खिलाने-पिलाने, अच्छी शिक्षा और अच्छा माहौल देने की चिंता उन्हें सताने लगेगी, क्योंकि आसान सी दिखने वाली ये बातें इतनी आसान भी नहीं हैं मेरे चांद।... मासूम बच्चे ... अपने माता-पिता की गोद में चढ कर जब तुम पार्क में जाओगे और अपने नन्हें-नन्हें कदमों से हरी घास में यहां-वहां दौडोगे तो तुम्हें बहुत अच्छा लगेगा। तुम्हें खिलखिलाता देख बाग-बगीचे, फूल-पत्ती, चिडियां, गिलहरी भी खुश हो जायेंगी, लेकिन क्या तुम्हें पता है कि हरी-भरी और रंग-बिरंगी दिखने वाली यह दुनिया अंदर से खोखली होती जा रही है। प्रदूषण के कारण जलवायु परिवर्तन हो रहा है, उत्पादन लगातार घट रहा है। मिट्टी की उर्वरक क्षमता गिर रही है ! जल स्तर भी घट रहा है। उनकी जगह कंक्रीट की भयावह गगनचुंबी इमारतें है। जंगल खत्म होते जा रहे है। हवा रोशनी सब कुछ रोक रही है। आबादी तेजी से बढ रही है। अपराध, बेरोजगारी, असंतोष सब कुछ बढता जा रहा है। तुम्हारे जन्म पर मैं बहुत खुश हूं, लेकिन भविष्य में तुम्हारे सामने आने वाली ढेरों चुनौतियों को देख कर चिंतित भी।
नन्हें फरिश्ते मैं इस बात पर भी शर्मिन्दा भी हूं कि तुम्हारे लिए एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए मैं कुछ भी नहीं कर रहा/रही या दुनियाभर में जो भी प्रयास किये जा रहे है वे बहुत बडा बदलाव लाने में सक्षम नहीं है। लेकिन तमाम चिंताओ, आशंकाओं और मुश्किलों के बावजूद सात अरबवें बच्चें के तौर पर दुनिया में जन्म लेने वाले प्यारे बच्चे तुम्हारा तहे दिल से इस धरती पर स्वागत है। तुम इस दुनिया को बेहतर बनाने की शुरुआत करो... इस दुआ के साथ इस दुनिया में तुम्हारे संगी साथी।
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मैच फिक्सिंग में 200 साल पहले दी गयी थी पहली सजा


पाकिस्तानी क्रिकेटरों सलमान बट और मोहम्मद आसिफ भले ही अब स्पाट फिक्सिंग के दोषी करार दिये गये हों लेकिन ‘भद्रजनों के खेल’ में मैच फिक्सिंग की शुरुआत लगभग 200 साल पहले हो गयी थी और तब एक क्रिकेटर पर आजीवन प्रतिबंध भी लगा था।

लंदन के साउथवर्क क्राउन कोर्ट ने कल बट और आसिफ को गलत तरीके से राशि स्वीकार करने का षड्यंत्र रचने और धोखाधड़ी की साजिश रचने का दोषी पाया। इस साजिश में शामिल तीसरे आरोपी मोहम्मद आमिर के खिलाफ मुकदमा नहीं चलाया गया क्योंकि उन्होने अपना गुनाह स्वीकार कर लिया था।

दिलचस्प तथ्य यह है कि क्रिकेट में फिक्सिंग की शुरुआत तब हो गयी थी जबकि टेस्ट क्रिकेट भी नहीं खेला जाता था। सबसे पहले 1817 से 1820 के आसपास इस खेल की अखंडता खतरे में पड़ती नजर आयी थी। इसी दौरान विलियम लैंबार्ट नामक बल्लेबाज पर मैच फिक्सिंग के लिये प्रतिबंध लगाया गया था जिसके बाद वह फिर कभी क्रिकेट नहीं खेल पाए थे।

यह वह जमाना जबकि सिंगल विकेट क्रिकेट भी खेली जाती थी और तब इस तरह के मैचों पर सट्टा लगाना आसान होता था। इतिहासविद डेविड अंडरडाउन ने अपनी किताब ‘स्टार्ट आफ प्ले-क्रिकेट एंड कल्चर इन एटीन्थ सेंचुरी इंग्लैंड’ में लिखा है कि असल में सिंगल विकेट क्रिकेट में पूरे 11 खिलाड़ी नहीं होते थे और इसलिए उन्हें फिक्स करना आसान था।

अंडरडाउन के अनुसार, ‘‘लोग हमेशा क्रिकेट पर सट्टा लगाते थे विशेषकर ड्यूक, राजा और लार्ड्स जो देश चलाते थे। लेकिन धोखाधड़ी या किसी हद तक मैच फिक्सिंग के कुछ आरोप भी लगे थे।’’

मैच फिक्सिंग के पहले वाकये का जिक्र 1817 में मिलता है। अंडरडाउन के अनुसार उस साल इंग्लैंड और नाटिंघम के बीच खेले गये मैच में कुछ खिलाड़ियों ने जानबूझकर लचर प्रदर्शन किया था। इनमें विलियम लैंबार्ट भी शामिल थे जिन्हें उस समय का सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज माना जाता था।

नाटिंघम की तरफ से खेलने वाले लैंबार्ट पर आरोप लगा था कि उन्होंने उस मैच में जानबूझकर अच्छा प्रदर्शन नहीं किया। लैंबार्ट के ही साथी फ्रेडरिक बियुक्लर्क ने इसकी शिकायत एमसीसी से की जिसने लैंबार्ट को लार्ड्स में खेलने से प्रतिबंधित कर दिया था। इस तरह से लैंबार्ट दुनिया के पहले ऐसे क्रिकेटर थे जिन पर मैच फिक्सिंग के लिये प्रतिबंध लगा था।

लैंबार्ट बेहतरीन बल्लेबाज थे। वह पहले ऐसे बल्लेबाज भी थे जिन्होंने पहली बार एक मैच की दोनों पारियों में शतक जमाया था। मई 1817 में बनाया गया उनका यह रिकार्ड 76 साल तक उनके नाम पर रहा था। उन्होंने अपने कैरियर में कुल 64 प्रथम श्रेणी मैच खेले जिनमें उन्होंने 3013 रन बनाये।

इंग्लैंड और नाटिंघम के बीच ‘फिक्स’ हुए उस मैच के बारे में कहा जाता है कि दोनों टीमों के कुछ खिलाड़ियों ने जानबूझकर अपने विकेट गंवाये, कैच टपकाये और यहां तक कि ओवरथ्रो से रन दिये। इसी तरह के एक ओवरथ्रो को बचाने के प्रयास में बियुक्लर्क की उंगली चोटिल हो गयी थी।

एमसीसी ने इसके बाद मैच फिक्सिंग को लेकर कुछ कड़े कदम उठाये थे और 1820 में लार्ड्स में सटोरियों के आने पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस घटना के बाद मैच फिक्सिंग की अगली घटना का जिक्र 1873 में मिलता है जब सर्रे के खिलाड़ी टेड पूली ने यार्कशर से हारने के लिये 50 पौंड लिये थे। सर्रे ने पूली को तब निलंबित कर दिया था। लैंबार्ट के जमाने के दिग्गज बल्लेबाजों में विलियम बेलडैम (सिल्वर बिली) भी शामिल थे। उनसे लंदन में तब एक सटोरिये ने कहा था, ‘‘यदि आप मेरी बात मानोगे तो बड़ा पैसा बना सकते हो। ’’ बाद में बिली ने इस पर कहा था कि वह तो झांसे में नहीं आये लेकिन कई अन्य थे जो इन लोगों (सटोरियों) की बात मान लेते थे।
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Old 03-11-2011, 08:33 PM   #18
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उर्वशी, किसके ‘उर’ बसी


उपजाऊपन या बहुत कुछ उत्पन्न करने के अर्थ में उर्वर शब्द हिन्दी में सामान्यतौर पर खूब प्रचलित है। उर्वर बनाने की क्रिया उर्वरण है और उर्वर होने की अवस्था या भाव को उर्वरता कह सकते हैं। धरती पर अन्न उपजानेवाली, अन्नदायिनी के रूप में पृथ्वी को भी उर्वरा कहा जाता है। इसका अर्थ खेती योग्य उपजाऊ ज़मीन भी होता है। इसी कड़ी में उर्वी भी आता है जिसका अर्थ भी धरती है। बांग्ला में यह उरबी है और पूर्वी बोलियों में उर्बि भी है और उरा भी। इसी तरह हृदय, मन या चित्त के लिए हिन्दी और इसकी बोलियों में उर शब्द भी प्रचलित है। जाइज़ संतान के लिए हिन्दी में औरस शब्द प्रचलित है। इन तमाम शब्दों का मूल संस्कृत का उरस् माना जाता है जिसका अर्थ है सीना, छाती, वक्षस्थल, स्तन, हृदय, चित्त आदि। रीतिकालीन साहित्य में स्त्री के अंगों की चर्चा आम बात थी। साहित्यिक हिन्दी में स्त्री के स्तनों के लिए उरसिज या उरोज जैसे शब्द भी इसी कड़ी में आते हैं। पृथ्वी के अर्थ में उर्वी का अर्थ चौड़ा, प्रशस्त, विशाल और सपाट क्षेत्र भी है।
ख्यात भाषाविद् डॉ रामविलास शर्मा लिखते हैं कि संस्कृत में उर शब्द खेत के लिए प्रयुक्त नहीं होता किन्तु उर्वरा खेती लायक भूमि को कहते हैं। इसी उर् से पृथ्वी के लिए उर्वी शब्द बना है। उर्वरता का समृद्धि से रिश्ता है। उरु शब्द का अर्थ है विस्तृत, चौड़ा, विशाल आदि। मोनियर विलियम्स ने भी ग्रीक भाषा का एउरुस् अर्थात प्रशस्त, विशद इसी उरु का प्रतिरूप बताया है। जॉन प्लैट्स के कोश में भी उरु का अर्थ चौड़ा और विस्तृत बताया गया है। डॉ शर्मा कहते कि संस्कत में उर् जैसी कोई क्रिया नहीं है। वे इस संदर्भ में द्रविड़ भाषा परिवार से कुछ उदाहरण देते हुए इस शब्द शृंखला की रिश्तेदारी द्रविड़ भाषाओं से स्थापित करते हैं। तमिल में उळू शब्द जोतने, खंरोचने के लिए प्रयुक्त होता है। किसान के लिए उळवन शब्द है। तुलु में यह ड-कार होकर ऊडूनि, हुडुनि हो जाता है जिसमें जोतने का भाव है। तमिल में उळ का अर्थ है भीतर। उरई का अर्थ है निवास करना। कन्नड़ में उरुवु का अर्थ है विस्तृत, विशद। तुलु में उर्वि, उर्बि का अर्थ है वृद्धि। ये तमाम शब्द उर्वर की उपजाऊ वाली अर्थप्रक्रिया से जुड़ते हैं।
रामविलास जी उर् और ऊर का रिश्ता भारोपीय पुर और पूर से भी जोड़ते हैं जिसमें आश्रय का भाव है, निवास का भाव है जो क्षेत्र में भी है। उर्वि यानी पृथ्वी का अर्थ भी क्षेत्र है। पुर का मूल भारोपीय रूप पोल है। ग्रीक में यह पॉलिस है जिसका अर्थ है नगर। पॉलितेस यानी नागरिक और पॉलितिकोस यानी नागरिक संबंधी। रूसी में यही पोल शब्द खेत की अर्थवत्ता रखता है। ग्रीक में भी पोलोस उस भूमि को कहते हैं जो जोती गई है। स्पष्ट है कि संस्कृत के प व्यंजन से जुड़ी गति और चलने की क्रिया ही इस शब्द शृंखला में उभर रही है। भूमि को जोतना यानी चलते हुए उसकी सतह को उलटना-पलटना। संस्कृत का पुर गाँव भी है, नगर भी। बुर्ज, बर्ग भी इसी शृंखला में आते हैं। द्रविड़ भाषा में इसी पुर और पूर में प के व में बदलने से उर् और ऊर् शब्द मिलते हैं। तंजावुर का वुर इसका उदाहरण है। इनका मूलार्थ संभवतः आवास था। वैसे संस्कृत के उरु में निहित विशद की व्याख्या जंघा या वक्ष में हो जाती है। यही दोनों अंग हैं जो सुविस्तृत होते हैं। इसीलिए उर अगर वक्ष है तो उरु का अर्थ जंघा है। विस्तार के इसी भाव की व्याख्या उर्वी में होती है जिसका अर्थ है पृथ्वी, जिसके अनंत विस्तार को देखकर प्राचीनकाल में मनुष्य चकित होता रहा है। जिस पर विभिन्न जीवों का वास है। साहित्यिक भाषा में उर अर्थात हृदय भी आश्रयस्थली है और सहृदय व्यक्ति के उर में पूरा संसार बसता है। उरस् का रिश्ता दरअसल संस्कृत के ऋ से है जिसमें महान, श्रेष्ठ, अतिशय का भाव है। स्पष्ट है कि महान और बड़ा जैसे भावों से ही विस्तार, विस्तृत जैसे अर्थ विकसित हुए। क्षेत्र के अर्थ में उर्वी शब्द सामने आया। कृषि संस्कृति के विकास के साथ जोतने की क्रिया के लिए उर्वरा जैसा शब्द विकसित हुआ जिसमें भूमि को उलट-पुलट कर खेती लायक बनाने की क्रिया शामिल है। पोषण पाने के भाव को अगर देखें तो इस शब्द शृंखला में स्तनों के लिए उरोज और उरसिज शब्दों का अर्थ स्पष्ट होता है।
डॉ राजबली पाण्डेय हिन्दू धर्मकोश में लिखते हैं कि कृषि भूमि को व्यक्त करने के लिए क्षेत्र के साथ साथ उर्वरा शब्द का प्रयोग भी ऋग्वेद और परवर्ती साहित्य में मिलता है। वैदिककाल में भी खेतों की पैमाइश होती थी। गहरी खेती होती थी साथ ही खाद भी दी जाती थी। आज कृत्रिम या रासायनिक खाद के लिए उर्वरक शब्द खूब प्रचलित है जो इसी कड़ी का हिस्सा है। इन सब बातों का उर्वरता से रिश्ता है। ज़मीन और पशुओं के लिए संघर्ष होते थे जो समूहों के शक्ति परीक्षण की वजह बनते थे। स्वामित्व के झगड़े इन्हीं संघर्षों से ही तय होते थे। इन संदर्भों में उर्वराजित् या उर्वरापति जैसे शब्द उल्लेखनीय हैं जिनमें भूस्वामिन् का भाव है। इस कड़ी का एक अन्य महत्वपूर्ण शब्द है उर्वशी जो स्वर्ग की अप्सरा है और जिसका उल्लेख पौराणिक साहित्य में कई जगहों पर है। एक सामान्य सा अर्थ जो उर्वशी का बताया जाता है वह है पुरुष के हृद्य को वश में कर लेनेवाली- (उर+वशी)। जाहिर है यह अर्थ उर्वशी के अप्सरा होने अर्थात अपार रूप लावण्य की स्वामिनी होने के चलते विकसित हुआ है। दूसरी व्युत्पत्ति के अनुसार नारायणमुनि की जंघा से उत्पन्न होने के कारण उर्वशी को यह नाम मिला। भाव यह है कि जिसका जंघाओं अर्थात उरु में वास हो वह उर्वशी। यह व्युत्पत्ति हरिवंशपुराण में बताई गई है।
(शब्दों का सफर से साभार )
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बारिशों से, बारिशों में लिखे खत



इक तरफा प्यार भी इक तरफे खतों की तरह होता है...किसी लेखक की बेहद खूबसूरत कवितायें पढ़ कर हो जाने वाले मासूम प्यार जैसा. किसी नाज़ुक लड़की के नर्म हाथों से लिखे मुलायम, खुशबूदार ख़त जब किसी लेखक तक पहुँचते हैं तो उसे कैसा लगता होगा? घुमावदार लेखनी में क्या लड़की के चेहरे का कटीलापन नज़र आता है? क्या सियाही के रंग से पता चलता है की उसकी आँखें कैसी है? काली, नीली या हरी.
हाथ के लिखे खतों में जिंदगी होती है...लड़की को मालूम भी नहीं होता की कब उसके दुपट्टे का एक धागा साथ चला गया है ख़त के तो कभी पुलाव बनाते हुए इलायची की खुशबू. लेखक सोचता की लड़की कभी अपना पता तो लिखती की जवाब देता उसे...कि कैसे उसके ख़त रातों की रौशनी बन जाते हैं. पर लड़की बड़ी शर्मीली थी, दुनिया का लिहाज करती थी...घर की इज्ज़त का ध्यान रखती थी...और आप तो जानते ही हैं कि जिन लड़कियों के ख़त आते है उन्हें अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता.
तो हम बात कर रहे थे इकतरफी मुहब्बत की...या कि इकतरफी चिट्ठियों की भी. ऐसी चिट्ठी लिखना खुदा के साथ बात करने जैसा होता है...वो कभी सीधा जवाब नहीं देता. आप बस इसी में खुश हो जाते हैं कि आपकी चिट्ठियां उस तक पहुँच रही हैं...कभी जो आपको पक्का पता चल जाए कि खुदा आपके ख़त यानि कि दुआएं सच में खोल के पढ़ता है तो आप इतने परेशान हो जायेंगे कि अगली दुआ मांगने के पहले सोचेंगे. गोया कि जैसे आपने पिछली शाम बस इतना माँगा था कि वो गहरी काली आँखों वाली लड़की एक बार बस आँख उठा कर आपकी सलामी का जवाब दे दे. आप जानते कि दुआ कबूल होने वाली है तो खुदा से ये न पूछ लेते कि लड़की से आगे बात कैसे की जाए...भरी बारिश...टपकती दुकान की छत के नीचे अचकचाए खड़ा तो नहीं रहना पड़ता...और लड़की भी बिना छतरी के भीगते घर को न निकलती. न ये क़यामत होती न आपको उससे प्यार होता. आप तो बस एक बार नज़र उठा कर 'वालेकुम अस्सलाम' से ही खुश थे.
यूँ कि बारिशों में किसी ख़ास का नाम न घुला तो तब भी तो बारिशें खूबसूरत होती हैं...अबकी बारिश में यादें यूँ घुल गयीं कि हर शख्स उसके रंग में रंग नज़र आता है. जिधर नज़र फेरें कहीं उसकी आँखें, कहीं भीगी जुल्फें तो कहीं उसी भीगी मेहंदी दुपट्टे का रंग नज़र आता है. हाय मुहब्बत भी क्या क्या खेल किया करती है आशिकों से! घर पर बिरयानी बन रही है और मन जोगी हो चला है, लेखक अब शायर हो ही जाए शायद, यूँ भी उसके चाहने वाले कब से मिन्नत कर रहे हैं उर्दू की चाशनी जुबान में लिखने को. कब सुनी है लेखक ने उनकी बात भला कितने को किस्से लिए चलता है अपने संग, हसीं ठहाके, दर्द, तन्हाई, मुफलिसी, जलालत...लय के लिए फुर्सत कहाँ लेखक की जिंदगी में.
कौन यकीन करे कि लेखक साहब आजकल बारिश में ताल ढूंढ लेते हैं, मीटर बिना सेट किये सब बंध जाता है कि जैसे जिंदगी खातून की आँखों में बंध गयी है. आजकल लेखक ने खुदा को बैरंग चिट्ठियां भेजनी शुरू कर दी हैं...पहले तो सारे वादे दुआ कबूल होने के पहले पूरे कर दिए जाते थे...पर आजकल लेखक ने उधारी खाता भी शुरू करवा लिया है खुदा के यहाँ. दुआएं क़ुबूल होती जा रहीं हैं और खुदा मेहरबान.
कुछ रिश्ते एक तरफ से ही पूरी शिद्दत से निभाए जा सकते हैं. जहाँ दूसरी तरफ से जवाब आने लगे, खतों की खुशबू ख़त्म हो जाती है. वो नर्म, नाज़ुक हाथों वाली लड़की याद तो है आपको, जो लेखक को ख़त लिखा करती थी? जी...जैसा कि आपने सोचा...और खुदा ने चाहा...लेखक को अनजाने उसी से प्यार हुआ. दोनों ने एक दुसरे को क़ुबूल कर लिया.
मियां बीवी भला एक दुसरे को ख़त लिखते हैं कभी? नहीं न...तो बस एक खूबसूरत सिलसिले का अंत हो गया. तभी न कहती हूँ...सबसे खूबसूरत प्रेम कहानियां वो होती हैं जहाँ लोग बिछड़ जाते हैं.
आप किसी को ख़त लिखते हैं तो उनमें अपना नाम कभी न लिखा कीजिए.

-पूजा उपाध्याय
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फाउंटेन पेन से निकले अजीबो गरीब किस्से

-पूजा उपाध्याय

नयी कलम से लिखा पहला वाक्य काटने में बड़ा दुःख होता है, वैसे ही जैसे किसी से पहली मुलाकात में प्यार हो जाए और अगले ही दिन उसके पिताजी के तबादले की खबर आये.
'तुम खोते जा रहे हो.' तथ्य की कसौटी पर ये वाक्य ज्यादा सही उतरता है मगर पिछले वाक्य का सरकटा भूत पीछा भी तो नहीं छोड़ रहा. तुम्हारे बिना अब रोया भी नहीं जाता, कई बार तो ये भी लगता है की मेरा दुःख महज एक स्वांग तो नहीं, जिसे किसी दर्शक की जरूरत आन पड़ती हो, समय समय पर. इस वाक्य को लिखने के लिए खुद को धिक्कारती हूँ, मन के अंधियारे कोने तलाशती भी हूँ तो दुःख में कोई मिलावट नज़र नहीं आती. एकदम खालिस दुःख, जिसका न कोई आदि है न अंत.
स्याही की नयी बोतल खोलनी थी, उसके कब्जे सदियों बंद रहने के कारण मजबूती से जकड़ गए थे. मैंने आखिरी बार किसी को दवात खरीदते कब देखा याद नहीं. आज भी 'चेलपार्क' की पूरी बोतल १५ रुपये में आ जाती है. बताओ इससे सस्ता प्यार का इज़हार और किसी माध्यम से मुमकिन है? अर्चिस का ढंग का कार्ड अब ५० रुपये से कम में नहीं आता. गरीब के पास उपाय क्या है कविता करने के सिवा. तुम्हें शर्म नहीं आती उसकी कविता में रस ढूँढ़ते हुए. दरअसल जिसे तुम श्रृंगार रस समझ रहे हो वो मजबूरी और दर्द में निकला वीभत्स रस है. अगर हर कवि अपनी कविता के पीछे की कहानी भी लिख दे तो लोग कविता पढना बंद कर देंगे. इतना गहन अंधकार, दर्द की ऐसी भीषण ज्वाला सहने की शक्ति सब में नहीं है.
सरस्वती जब लेखनी को आशीर्वाद देती हैं तो उसके साथ दर्द की कभी न ख़त्म होने वाली पूँजी भी देती हैं और उसे महसूस करके लिखने की हिम्मत भी. बहुत जरूरी है इन दो पायदानों के बीच संतुलन बनाये रखना वरना तो कवि पागल होके मर जाए...या मर के पागल हो जाए. बस उतनी भर की दूरी बनाये रखना जितने में लिखा जा सके. इस नज़रिए से देखोगे तो कवि किसी ब्रेन सर्जन से कम नहीं होता. ये जानते हुए भी की हर बार मरीज के मर जाने की सम्भावना होती है वो पूरी तन्मयता से शल्य-क्रिया करता है. कवि(जो कि अपनी कविता के पीछे की कहानी नहीं बताता) जानते हुए कि पढने वाला शायद अनदेखी कर आगे बढ़ ले, या फिर निराशा के गर्त में चले जाए दर्द को शब्द देता है. वैसे कवि का लिखना उस यंत्रणा से निकलने की छटपटाहट मात्र है. इस अर्थ में कहा नहीं जा सकता कि सरस्वती का वरदान है या अभिशाप.
तुम किसी अनजान रास्ते पर चल निकले हो ऐसा भी नहीं है(शायद दुःख इस बात का ही ज्यादा है) तुम यहीं चल रहे हो, समानांतर सड़क पर. गाहे बगाहे तुम्हारा हँसना इधर सुनाई देता है, कभी कभार तो ऐसा भी लगता है जैसे तुम्हें देखा हो- आँख भर भीगती चांदनी में तुम्हें देखा हो. एक कदम के फासले पर. लिखते हुए पन्ना पूरा भर गया है, देखती हूँ तो पाती हूँ कि लिखा चाहे जो भी है, चेहरा तुम्हारा ही उभरकर आता है. बड़े दिनों बाद ख़त लिखा है तुम्हें, सोच रही हूँ गिराऊं या नहीं.

हमेशा की तरह, तुम्हारे लिए कलम खरीदी है और तुम्हें देने के पहले खुद उससे काफी देर बहुत कुछ लिखा है. कल तुम्हें डाक से भेज दूँगी. तुम आजकल निब वाली पेन से लिखते हो क्या?
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