28-09-2011, 02:21 PM | #11 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
पर तू ज़रा भी साथ दे तो और बात है चलने को एक पाँव से भी चल रहे हैं लोग पर दूसरा भी साथ दे तो और बात है
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ऑफलाइन में हिंदी लिखने के लिए मुझे डाउनलोड करें ! आजकल लोग रिश्तों को भूलते जा रहे हैं....! love is life Last edited by bhavna singh; 28-09-2011 at 02:33 PM. |
28-09-2011, 02:27 PM | #12 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
बहुत दिनों के बाद खिड़कियाँ खोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना! जड़े हुए थे ताले सारे कमरों में धूल भरे थे आले सारे कमरों में उलझन और तनावों के रेशों वाले पुरे हुए थे जले सारे कमरों में बहुत दिनों के बाद साँकलें डोली हैं ओ वासंती पवन हमारे घर आना! एक थकन-सी थी नव भाव तरंगों में मौन उदासी थी वाचाल उमंगों में लेकिन आज समर्पण की भाषा वाले मोहक-मोहक, प्यारे-प्यारे रंगों में बहुत दिनों के बाद ख़ुशबुएँ घोली हैं ओ वासंती पवन हमारे घर आना! पतझर ही पतझर था मन के मधुबन में गहरा सन्नाटा-सा था अंतर्मन में लेकिन अब गीतों की स्वच्छ मुंडेरी पर चिंतन की छत पर, भावों के आँगन में बहुत दिनों के बाद चिरैया बोली हैं ओ वासंती पवन हमारे घर आना!
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28-09-2011, 02:36 PM | #13 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
करो हमको न शर्मिंदा बढ़ो आगे कहीं बाबा
हमारे पास आँसू के सिवा कुछ भी नहीं बाबा कटोरा ही नहीं है हाथ में बस इतना अंतर है मगर बैठे जहाँ हो तुम खड़े हम भी वहीं बाबा तुम्हारी ही तरह हम भी रहे हैं आज तक प्यासे न जाने दूध की नदियाँ किधर होकर बहीं बाबा सफाई थी सचाई थी पसीने की कमाई थी हमारे पास ऐसी ही कई कमियाँ रहीं बाबा हमारी आबरू का प्रश्न है सबसे न कह देना वो बातें हमने जो तुमसे अभी खुलकर कहीं बाबा
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30-09-2011, 05:00 PM | #14 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
कोई रस्ता है न मंज़िल न तो घर है कोई
आप कहिएगा सफ़र ये भी सफ़र है कोई 'पास-बुक' पर तो नज़र है कि कहाँ रक्खी है प्यार के ख़त का पता है न ख़बर है कोई ठोकरें दे के तुझे उसने तो समझाया बहुत एक ठोकर का भी क्या तुझपे असर है कोई रात-दिन अपने इशारों पे नचाता है मुझे मैंने देखा तो नहीं, मुझमें मगर है कोई एक भी दिल में न उतरी, न कोई दोस्त बना यार तू यह तो बता यह भी नज़र है कोई प्यार से हाथ मिलाने से ही पुल बनते हैं काट दो, काट दो गर दिल में भँवर है कोई मौत दीवार है, दीवार के उस पार से अब मुझको रह-रह के बुलाता है उधर है कोई सारी दुनिया में लुटाता ही रहा प्यार अपना कौन है, सुनते हैं, बेचैन 'कुँअर' है कोई
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30-09-2011, 06:00 PM | #15 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
बहुत अच्छा सुत्र बनाया हैँ आपने
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जो सत्य विषय हैं वे तो सबमें एक से हैं झगड़ा झूठे विषयों में होता है। -------------------------------------------------------------------------- जिनके घर शीशो के होते हे वो दूसरों के घर पर पत्थर फेकने से पहले क्यू नहीं सोचते की उनके घर पर भी कोई फेक सकता हे -------------------------------------------- Gaurav Soni
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01-10-2011, 12:26 AM | #16 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
मिलना और बिछुड़ना दोनों
जीवन की मजबूरी है। उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है। शाखों से फूलों की बिछुड़न फूलों से पंखुड़ियों की आँखों से आँसू की बिछुड़न होंठों से बाँसुरियों की तट से नव लहरों की बिछुड़न पनघट से गागरियों की सागर से बादल की बिछुड़न बादल से बीजुरियों की जंगल जंगल भटकेगा ही जिस मृग पर कस्तूरी है। उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है। सुबह हुए तो मिले रात-दिन माना रोज बिछुड़ते हैं धरती पर आते हैं पंछी चाहे ऊँचा उड़ते हैं सीधे सादे रस्ते भी तो कहीं कहीं पर मुड़ते हैं अगर हृदय में प्यार रहे तो टूट टूटकर जुड़ते हैं हमने देखा है बिछुड़ों को मिलना बहुत जरूरी है। उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है।
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01-10-2011, 11:05 AM | #17 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
सुबह सुबह
सूरज के पास बैठी है जिंदगी उदास जाने क्यों? जीवन के सागर में तैर रहे मछली-से दिन मछुए की बंसी के काँटे-सा अनजानी संध्या का छिन अंबर के कागज के पास बैठी हैं स्याहियाँ उदास जाने क्यों ?
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05-10-2011, 05:31 PM | #18 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
(रात)
जाते-जाते दिवस, रात की पुस्तक खोल गया। रात कि जिस पर सुबह-शाम की स्वर्णिम ज़िल्द चढ़ी गगन-ज्योतिषी ने तारों की भाषा ख़ूब पढ़ी आया तिमिर, शून्य के घट में स्याही घोल गया। (सुबह) देख भोर को नभ-आनन पर छाई फिर लाली पेड़ों पर बैठे पत्ते फिर बजा उठे ताली इतनी सारी- चिड़ियों वाला पिंजड़ा डोल गया। (दोपहर) ड्यूटी की पाबंद, देखकर अपनी भोर-घड़ी दिन के ऑफ़िस की सीढ़ी पर गोरी धूप चढ़ी सूरज- 'बॉस' शाम तक कुछ 'मैटर' बोल गया। (शाम) नभ के मेज़पोश पर जब स्याही-सी बिखरी शाम हुई ऑफिस की सीढी धूप-लली उतरी तम की भीड़ धूप का स्वर्णिम कंगन मौल गया।
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05-10-2011, 05:32 PM | #19 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
घर
कि जैसे बाँसुरी का स्वर दूर रह कर भी सुनाई दे। बंद आँखों से दिखाई दे। दो तटों के बीच जैसे जल छलछलाते हैं विरह के पल याद जैसे नववधू, प्रिय के- हाथ में कोमल कलाई दे। कक्ष, आंगन, द्वार नन्हीं छत याद इन सबको लिखेगी ख़त आँख अपने अश्रु से ज़्यादा याद को अब क्या लिखाई दे।
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06-10-2011, 11:00 AM | #20 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
चल हवा, उस ओर मेरे साथ चल
चल वहाँ तक जिस जगह मेरी प्रिया गा रही होगी नई ताजा गजल चल हवा, उस ओर मेरे साथ चल। चल जहाँ मेरा अमर विश्वास है आत्माओं में मिलन की प्यास है आज तक का तो यही इतिहास है है जहाँ मधुवन वहीं पर रास है मिल गया जिसको कि कान्हा का पता कौन राधा है जरा तू ही बता जो कन्हैया से करेगी प्रीति छल चल हवा, उस ओर मेरे साथ चल। मत फँसा सुख चक्र दुख की कील में मत उठा तूफान दुख की झील में हो सके तो रख नये जलते दिये आस के बुझते हुए कंदील में तू हवा है कर सुरभि का आचमन छोड़कर अपने पुराने ये बसन तू नए अहसास के कपड़े बदल चल हवा, उस ओर मेरे साथ चल। चल जहाँ तक बाँसुरी की धुन चले फूल की खुशबू चले, गुनगुन चले भीग जा तू प्रीति के हर रंग में साथ जब तक प्राण का फागुन चले पूछ मत अब जा रहा हूँ मैं कहाँ चल प्रतीक्षा में खड़े होंगे जहाँ एक नीली झील, दो नीले कमल चल हवा, उस ओर मेरे साथ चल।
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