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Old 11-01-2014, 04:17 PM   #11
rajnish manga
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Default Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)

डॉ. बशीर बद्र
(नाम: सैयद मोहम्मद बशीर)

जन्म: 15 फरवरी 1935
पुरस्कार: उर्दू अकादमी, उत्तर प्रदेश (3 बार), उर्दू अकादमी, बिहार तथा साहित्य अकादमी पुरस्कारों समेत अन्य कई पुरस्कार.
सम्मान: 1999 में भारत सरकार द्वारा 'पद्मश्री' से सम्मानित. कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित. यूनिवर्सिटी में एम्.ए. (उर्दू) में फर्स्ट क्लास फर्स्ट.
पुस्तकें: 'इकाई', 'आमद', 'इमेज', 'ग़ज़ल 2000' -आमिर खुसरो ता बशीर बद्र- आदि.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
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Old 11-01-2014, 04:20 PM   #12
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Default Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)

कभी यूं भी आ मेरी आंख में
(कलाम: बशीर बद्र)

कभी यूं भी आ मेरी आंख मेंकि मेरी नजर को खबर ना हो
मुझे एक रात नवाज दे, मगर उसके बाद सहर ना हो


वो बड़ा रहीमो करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूं तो मेरी दुआ में असर ना हो


मेरे बाज़ुऔं में थकी थकी, अभी महवे ख्वाब है चांदनी ना उठे
सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुजर ना हो


ये गज़ल है जैसे हिरन की आंखों में पिछली रात की चांदनी
ना बुझे खराबे की रौशनी, कभी बेचिराग ये घर ना हो


वो फ़िराक हो या विसाल हो, तेरी याद महकेगी एक दिन
वो गुलाब बन के खिलेगा क्या, जो चिराग बन के जला ना हो


कभी धूप दे, कभी बदलियां, दिलोज़ान से दोनो कुबूल हैं
मगर उस नगर में ना कैद कर, जहां ज़िन्दगी का हवा ना हो

कभी यूं मिलें कोई मसलेहत, कोई खौफ़ दिल में जरा ना हो
मुझे अपनी कोई खबर ना हो, तुझे अपना कोई पता ना हो

वो हजार बागों का बाग हो, तेरी बरकतो की बहार से
जहां कोई शाख हरी ना हो, जहां कोई फूल खिला ना हो

तेरे इख्तियार में क्या नहीं, मुझे इस तरह से नवाज दे
यूं दुआयें मेरी कूबूल हों, मेरे दिल में कोई दुआ ना हो

कभी हम भी इस के करीब थे, दिलो जान से बढ कर अज़ीज़ थे
मगर आज ऐसे मिला है वो, कभी पहले जैसे मिला ना हो

कभी दिन की धूप में झूम कर, कभी शब के फ़ूल को चूम कर
यूं ही साथ साथ चले सदा, कभी खत्म अपना सफ़र ना हो

मेरे पास मेरे हबीब आ, जरा और दिल के करीब आ
तुझे धडकनों में बसा लूं मैं, कि बिछडने का कभी डर ना हो.

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Old 11-01-2014, 04:21 PM   #13
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Default Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)

कोई हाथ भी न मिलाएगा
(कलाम: बशीर बद्र)

यूँ ही बे-सबब न फिरा करो, कोई शाम घर में भी रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो


कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से

ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो

अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आयेगा कोई जायेगा
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो


मुझे इश्तहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियाँ

जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो


कभी हुस्न-ए-पर्दानशीं भी हो ज़रा आशिक़ाना लिबास में

जो मैं बन-सँवर के कहीं चलूँ, मेरे साथ तुम भी चला करो


ये ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी शाम में, जो उदास पेड़ के पास है

ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आँसुओं से हरा करो


नहीं बे-हिजाब वो चाँद-सा कि नज़र का कोई असर नहीं

उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो

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Old 11-01-2014, 04:23 PM   #14
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Default Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)

उजाले अपनी यादों के
(कलाम: बशीर बद्र)

कभी तो आसमाँ से चांद उतरे जाम हो जाये
तुम्हारे नाम की इक ख़ूबसूरत शाम हो जाये

हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाये
चराग़ों की तरह आँखें जलें जब शाम हो जाये

अजब हालात थे यूँ दिल का सौदा हो गया आख़िर
मोहब्बत की हवेली जिस तरह नीलाम हो जाये

समंदर के सफ़र में इस तरह आवाज़ दो हमको
हवाएँ तेज़ हों और कश्तियों में शाम हो जाये

मैं ख़ुद भी एहतियातन उस गली से कम गुज़रता हूँ
कोई मासूम क्यों मेरे लिये बदनाम हो जाये

मुझे मालूम है उस का ठिकाना फिर कहाँ होगा
परिंदा आसमाँ छूने में जब नाकाम हो जाये

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाये
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Old 13-01-2014, 05:53 PM   #15
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वो चांदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है - बशीर बद्र

वो चांदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है
बहुत अज़ीज़ हमें है मगर पराया है

उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीने से
तुम्हें ख़ुदा ने हमारे लिये बनाया है

कहा से आई ये खुशबू ये घर की खुशबू है
इस अजनबी के अँधेरे में कौन आया है

महक रही है ज़मीं चांदनी के फूलों से
ख़ुदा किसी की मुहब्बत पे मुस्कुराया है

उसे किसी की मुहब्बत का ऐतबार नहीं
उसे ज़माने ने शायद बहुत सताया है

तमाम उम्र मेरा दम उसके धुएँ से घुटा
वो इक चराग़ था मैंने उसे बुझाया है

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Old 13-01-2014, 05:56 PM   #16
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Thumbs up Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)


Wo chandni ka badan khushbuon ka saaya hai - Bashir Badra

Wo chandni ka badan khushbuon ka saaya hai
Bahut aziz hamein hai magar paraya hai

Utar bhi aao kabhi aasman key zeene se
Tumhen khuda ne hamare liye banaya hai

Kahan se aai ye khushboo ye ghar ki khusboo hai
Is ajnabi ke andhere mein kaun aaya hai

Mahak rahi hai zamin chandni ke phoolon se
Khuda kisi ki mohabbat pe muskuraya hai

Use kisi ki mohabbat ka eitbar nahin
Use zamane ne shayad bahut sataya hai

Tamaam umar mera dam uske dhuen se ghuta
Wo ek chiragh tha maine use bujhaya hai

__________________


*** Dr.Shri Vijay Ji ***

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Old 14-01-2014, 11:14 PM   #17
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Default Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)

बहुत सुन्दर, डॉ. श्री विजय. सहयोग के लिये आभारी हूँ.







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Old 15-01-2014, 08:44 PM   #18
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Default Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता

जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता

अपना दिल भी टटोल कर देखो
फासला बेवजह नही होता

कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता

गुफ़्तगू उनसे रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता

रात का इंतज़ार कौन करे
आज कल दिन में क्या नहीं होता

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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !!
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !!
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Old 15-01-2014, 08:45 PM   #19
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Default Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)

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दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !!
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Old 15-01-2014, 11:38 PM   #20
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Default Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)

बशीर बद्र साहब के जीवन की तरह शायरी में भी सादगी है. लेकिन सरल शब्दों में भी वह जीवन की गहरी से गहरी सच्चाई बयान कर जाते हैं. इस विषय में सहयोग के लिये आपका धन्यवाद, बिंदु जी.




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