![]() |
#11 |
Diligent Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]() दूसरे दिन से दोनों मित्र मुँह अँधेरे घर से निकल खड़े होते। बगल में एक छोटी-सी दरी दबाये, डिब्बे में गिलोरियाँ भरे, गोमती पार कर एक पुरानी वीरान मस्जिद में चले जाते, जिसे शायद नवाब आसफउद्दौला ने बनवाया था। रास्ते में तम्बाकू, चिलम औऱ मदरिया ले लेते और मस्जिद में पहुँच, दरी बिछा, हुक्का भर शतरंज खेलने बैठ जाते थे। फिर उन्हें दीन-दुनिया की फिक्र न रहती थी। 'किस्त', 'शह' आदि दो-एक शब्दों के सिवा मुँह से और कोई वाक्य नही निकलता था। कोई योगी भी समाधि में इतना एकाग्र न होता। दो पहर को जब भूख मालूम होती तो दोनो मित्र किसी नानबाई की दूकान पर जाकर खाना खा आते और एक चिलम हुक्का पीकर फिर संग्राम क्षेत्र में डट जाते। कभी कभी तो उन्हें भोजन का भी ख्याल न रहता था। इधर देश की राजनीतिक दशा भयंकर हलचल मची हुई थी। लोग बाल-बच्चो को ले-ले कर देहातो में भाग रहे थे। पर हमारे दोनो खिलाड़ियो को इसकी जरा भी फिक्र न थी। वे घर से आते तो गलियो में होकर। डर था कि कही किसी बादशाही मुलाजिम की निगाह न पड़ जाय, नही तो बेगार में पकड़े जायँ हजारो रूपये सालाना की जागीर मुफ्त में ही हजम करना चाहते थे। एक दिन दोनो मित्र मस्जिद के खंडहर में बैठे हुए शतरंज खेल रहे थे। मिर्जा की बाजी कुछ कमजोर थी। मीर साहब को किश्त पर किश्त दे रहे थे। इतने में कम्पनी के सैनिक आते हुए दिखाई दिये। यह गोरो की फौज थी जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थी। |
![]() |
![]() |
![]() |
#12 |
Diligent Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
मीर साहब - अंगरेजी फौज आ रही है खुदा खैर करे!
मिर्जा - आने दीजिए, किश्त बचाइए। लो यह किश्त! मीर - तोरखाना भी है। कोई पाँच हजार आदमी होगे, कैसे जवान है। लाल बंदरो से मुँह है। सूरत देखकर खौफ मालूम होता है। मिर्जा - जनाब, हीले न कीजिए। ये चकमें किसी और को दीजिएगा - यह किश्त! मीर - आप भी अजीब आदमी है। यहाँ तो शहर पर आफत आयी हुई है, और आपको किश्त की सूझी है। कुछ खबर है कि शहर घिर गया तो घर कैसे चलेंगे? मिर्जा - जब घर चलने का वक्त आयेगा तो देखी जाएगी - यह किश्त, बस अब की शह में मात है। फौज निकल गयी। दस बजे का समय था। फिर बाजी बिछ गयी। मिर्जा बोले - आज खाने की कैसी ठहरेगा? मीर - अजी, आज तो रोजा है। क्या आपको भूख ज्यादा मालूम होती है? मिर्जा - जी नही। शहर में जाने क्या हो रहा है? मीर - शहर में कुछ न हो रहा होगा। लोग खाना खा-खाकर आराम से सो रहे होगे। हुजूर नवाब साहब भी ऐशगाह में होगे । |
![]() |
![]() |
![]() |
#13 |
Diligent Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
दोनो सज्जन फिर जो खेलने बैठे तो तीन बज गए। अब की मिर्जा की बाजी कमजोर थी। चार का गजर बज रहा था कि फौज की वापसी की आहट मिली। नवाब वाजिदअली शाह पकड़ लिए गये थे, और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिए जा रही थी। शहर में न कोई हलचल थी, न मार-काट। एक बूँद भी खून नही गिरा था। आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शान्ति से इस तरह खून बहे बिना न हुई होगी। यह अहिंसा न थी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते है। यह कायरपन था जिस पर बड़े से बड़े कायर आँसू बहाते है। अवध के विशाल देश का नवाब बन्दी बना चला जाता था और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था। यह राजनीतिक अधःपतन की चरम सीमा थी।
मिर्जा ने कहा - हुजूर नवाब को जालिमों नें कैद कर लिया है। मीर - होगा, यह लीजिए शह! मिर्जा - जनाब, जरा ठहरिए। इस वक्त इधर तबीयत ठीक नही लगती। बेचारे नवाब साहब इस वक्त खून के आँसू रो रहे होंगे। मीर - रोया ही चाहे, यह ऐश वहाँ कहाँ नसीब होगा? यह किश्त। मिर्जा - किसी के दिन बराबर नही जाते। कितनी दर्दनाक हालत है। मीर - हाँ, सो तो है ही, यह लो फिर किश्त! बस अब की किश्त में मात है। बच नहीं सकते। मिर्जा - खुदा की कसम, आप बड़े बे दर्द है। इतना बड़ा हादसा देखकर भी आपको दुःख नही होता। हाय, गरीब वाजिदअली शाह! |
![]() |
![]() |
![]() |
#14 |
Diligent Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
मीर - पहले अपने बादशाह को तो बचाइए, फिर नवाब का मातम कीजिएगा। यह किश्त और मात! लाना हाथ!
बादशाह को लिए हुए सेना सामने से निकल गयी। उनके जाते ही मिर्जा ने फिर बाजी बिछा ली। हार की चोट बुरी होती है। मीर ने कहा - आइए नवाब के मातम में मरसिया कह डाले। लेकिन मिर्जा की राजभक्ति अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी । वह हार का बदला चुकाने के लिए अधीर हो गए थे। शाम हो गयी। खंडहर मेमं चमगादड़ो ने चीखना शुरू किया। अबाबीले आ-आकर अपने घोंसलों में चिपटी। पर दोनों खिलाड़ी डटे हुए थे। मानो दोनों खून के प्यासे सूरमा आपस में लड़ रहे हो। मिर्जा जी तीन बाजियाँ लगातार हार चुके थे; इस चौथी बाजी का भी रंग अच्छा न था। वह बार-बार जीतने का दृढ़निश्चय कर सँभलकर खेलते थे लेकिन एक न एक चाल ऐसी बेढ़ब आ पड़ती थी जिससे बाजी खराब हो जाती थी। हर बार हार के साथ प्रतिकार की भावना और उग्र होती जाती थी। उधर मीर साहब मारे उमंग के गजले गाते थे, चुटकियाँ लेते थे, मानो कोई गुप्त धन पा गये हो। मिर्जा सुन-सुनकर झुझलाते और हार की झेंप मिटाने कि लिए उनकी दाद देते थे। ज्यों-ज्यों बाजी कमजोर पड़ती थी, धैर्य हाथ से निकलता जाता था। यहाँ तक कि वह बात-बात पर झुँझलाने लगे। 'जनाब' आप चाल न बदला कीजिए।यह क्या कि चाल चले औऱ फिर उसे बदल दिया जाय। जो कुछ चलना है एक बार चल दीजिए। यह आप मुहरे पर ही क्यों हाथ रखे रहते है। मुहरे छोड़ दीजिए। जब तक आपको चाल न सूझे, मुहरा छुइए ही नही। आप एक-एक चाल आध-आध घंटे में चलते है। इसकी सनद नही। जिसे एक चाल चलनें में पाँच मिनट से ज्यादा लगे उसकी मात समझी जाय। फिर आपने चाल बदली? चुपके से मुहर वही रख दीजिए। |
![]() |
![]() |
![]() |
#15 |
Diligent Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
मीर साहब की फरजी पिटता था। बोले - मैने चाल चली ही कब थी?
मिर्जा - आप चाल चल चुके है। मुहरा वही रख दीजिए - उसी घर में। मीर - उसमें क्यो रखूँ? हाथ से मुहरा छोड़ा कब था? मिर्जा - मुहरा आप कयामत तक न छोड़े, तो क्या चाल ही न होगी? फरजी पिटते देखा तो धाँधली करने लगे। मीर - धाँधली आप करते है। हार-जीत तकदीर से होती है। धाँधली करने से कोई नही जीतता। मिर्जा - तो इस बाजी में आपकी मात हो गयी। मीर - मुझे क्यो मात होने लगी? मिर्जा - तो आप मुहरा उसी घर में रख दीजिए, जहाँ पहले रखा था। मीर - वहाँ क्यो रखूँ? नही रखता। मिर्जा - क्यों न रखिएगा? आपको रखना होगा। तकरार बढ़ने लगी। दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े थे। न यह दबता था, न वह। अप्रासंगिक बाते होने लगी। मिर्जा बोले - किसी ने खानदान में शतरंज खेली होती तब तो इसके कायदे जानते। वो तो हमेशा घास छीला किए, आप शतरंज क्या खेलिएगा? रियासत और ही चीज है। जागीर मिल जाने ही से कोई रईस नही हो जाता। ![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
#16 |
Diligent Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
मीर - क्या! घास आपके अब्बाजन छीलते होगे। यहाँ तो पीढ़ियों से शतरंज खेलते चले आते है?
मिर्जा - अजी जाइए भी, गाजीउद्दीन हैदर के यहाँ बावर्ची का काम करते-करते उम्र गुजर गयी। आज रईस बनने चले है। रईस बनना कुछ दिल्लगी नही। मीर - क्यो अपने बुजुर्गो के मुँह पर कालिख लगाते हो - वे बावर्ची का काम करते होंगे। यहाँ तो बादशाह के दस्तर ख्वान पर खाना खाते चले आये है। मिर्जा - अरे चल चरकटे, बहुत बढ़कर बातें न कर! मीर - जबान सँभालिए, वर्ना बुरा होगा। मै ऐसी बातें सुनने का आदी नही। यहाँ तो किसी ने आँखे दिखायी कि उसकी आँखें निकाली । है हौसला? मिर्जा - आप मेरा हौसला देखना चाहते है, तो फिर आइए, आज दो-दो हाथ हो जायँ, इधर या उधर। मीर - तो यहाँ तुमसे दबने वाला कौन है? दोनो दोस्तों ने कमर से तलवारे निकाल ली। नवाबी जमाना था। सभी तलवार, पेशकब्ज कटार वगैरह बाँधते थे। दोनो विलासी थे, पर कायर न थे। उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था। बादशाह के लिए क्यों मरे? पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था। दोनो ने पैतरे बदले, तलवारे चमकी, छपाछप की आवाजे आयी। दोनो जख्मी होकर गिरे, दोनो न वहीं तड़प-तड़प कर जाने दी। अपने बादशाह के लिए उनकी आँखों से एक बूँद आँसू न निकला, उन्होने शतरंज के वजीर की रक्षा नें प्राण दे दिए। |
![]() |
![]() |
![]() |
#17 |
Diligent Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
अँधेरा हो चला था। बाजी बिछी हुई थी। दोनो बादशाह अपने-अपने सिहांसन पर बैठे मानो इन वीरो की मृत्यु पर रो रहे थे। चारो तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। खँडहर की टूटी हुई, मेहराबे गिरी हुई दीवारे और धूल-धूसरितें मीनारे इन लाशों को देखती और सिर धुनती थी।
The End
|
![]() |
![]() |
![]() |
#18 |
Senior Member
![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Oct 2010
Posts: 612
Rep Power: 15 ![]() ![]() |
![]()
शानदार प्रस्तुति ,आपकी मेहनत काबिले तारीफ़ है .
__________________
|
![]() |
![]() |
![]() |
#19 |
Diligent Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
#20 |
Diligent Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: बिहार
Posts: 760
Rep Power: 17 ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
तेजी जी आप के इस सुन्दर कहानी के लिए धन्यवाद......
अब मेरे तरफ से प्रेमचंद की ये रचना भेट के रूप में ......... |
![]() |
![]() |
![]() |
Bookmarks |
Tags |
premchand, the chess players |
|
|