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#11 |
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![]() अरे बेटा तेरा नाम तो बदल दूँगा....... पर पहले दरवाज़े से वो स्टिकर हटा दो..... “गर्व से कहो हम हिंदू हैं.” क्यों पापा, कहीं पुलिस वाले हमें आंतकवादी समझ कर गिरफ्तार न कर लें..... |
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#12 |
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और जाते जाते एक और चुटकी ......
बस का ड्राइवर टाटा नैनो को देख कर मुस्कुरा उठा...... और मुझ से मुताखिब होकर बोला...... बाऊजी, ये देखो टाटा का एक और मजाक...... मैंने कहा, पहला और कौन सा मजाक था..... बाऊजी, याद करो टाटा मोबाइल फोन, ....... गरीब आदमी को १२०० १२०० रुपे में चाइनीज़ घटिया सेट पकड़ा दिया...... और वो हर २ महीने बाद २००–२०० रुपे की बैटरी उसमे डलवाता रहता था. |
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#13 |
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दर्द का खरीदार हूं
दर्द का खरीदार हूं, दर्द खरीदता हूँ...... जितने दर्द हो दे दीजिए....... बहुत अजीब लगा.... ये फेरी वाला मैडम ....... ढूंढ लीजिए.. दिलों दिमाग में, कल फिर आ जायूँगा... क्यों भई, क्या रेट खरीदोगे.. दर्द मैडम, दर्द का कोई भाव नहीं...... ये तो बेमोल है.... जितना संभाल सकते हो .... उतना ही संभालिए..... न संभले तो हमें दीजिए..... बराबर तौल कर खुशियाँ दे जाऊँगा... आपका दर्द ले जाऊँगा. नहीं भई, आजकल जमाना कैश का है... खुशियाँ क्या करनी है..... उन्हीं खुशियों के बदले ही तो दर्द लिया है... तुम दर्द ले जायो ...और कैश दे जाना... ठीक है, बीवी जी, जैसे आपकी मर्ज़ी..... मैं नहीं देखता... नफा नुकसान.. मुझे नहीं मालूम सही पहचान.... बस ऐसा ही सौदागर हूं. |
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#14 |
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वैश्या और रिक्शेवाला
जमा देने वाली सर्दी और उफ़ ये धुंध... वो बैठी है रिक्शे में.... बेकरारी से निहार रही है – आस पास गुजरते गाडी वालों को. ५० रुपे का ठेका है... रिक्शे वाले के साथ.... ग्राहक न मिलने तक... यूँ ही घुमाता रहेगा इस महानगर के राजमार्ग पर |
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#15 |
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शुक्रिया भाई बैसे हम लोगो के सूत्र पे गिने चुने लोग ही आते है
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#16 |
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.... मेरे मौला, कोई गाहक भेज..
रिक्शे वाला भी दुआ कर रहा है... एक गाड़ी से चेहरा बाहर निकलता है.. रेट ? ३०० रूपये एक के.. और गाड़ी चल देती है. रिक्शे वाला गुस्सियाता है... काहे, बाई कित्ता घुमाएगी... चल देती इसके साथ २०० में... |
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#17 |
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अरे, तू क्या जाने औरत कर दर्द
मुए चार बैठे है गाड़ी में.. बाई, २०० तो मिलते......... थोड़ी देर बाद फ्री में ले जायेंगे तेरे को... कल सुबह टीवी में मुंह छुपाती फिरेगी..... आजकल ऐसी सनसनी के लिए टी वी चैनल भी तो बहुत तेज है. |
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#18 |
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विद्रोही का ब्रह्मज्ञान और कविता
देखो विद्रोही, कितनी मस्ती है दिल्ली में, गुलाबी ठण्ड का मौसम है, लोगबाग दिव्य मार्केटों में घूम रहे हैं, चिकन-बिरयानी और मक-डोनाल के साथ मौसम का मज़ा ले रहे हैं. सरकार ने इतने बड़े-बड़े माल बनवा रखे हैं, ऐसे-ऐसे सिनेमा हाल बना रखे है की इन्द्र देवता भी फिल्म देखने को तरसे- क्या है कि अब वो भी तो अपनी अप्सराओं के नृत्य से परेशान हो गए हैं – क्योंकि वो अप्सराएं मुन्नी बदनामी और शीला की जवानी से डिप्रेशन की शिकार हो गयी हैं. उनमे अब वो लय और गति नहीं रह गयी. और एक तुम हो, कि मुंह लटका कर बेकार ही परेशान होते रहते हो. सरकार कि समस्त सुविधाओं का मज़े लो..... नए-नए मनभावन ठेके और बार खुले हैं – अच्छी वराइटी की दारू मिल रही है – जाओ खरीदो और पान करो. पर क्या करें? हम हैं तो कर्महीन ही – कर्महीन: अरे भाई, तुलसी दास जी फरमा गए है : सकल पदार्थ इ जग माहि – कर्महीन पावत नाहीं. तो भाई सभी पदार्थ मौजूद हैं – थोड़ी अंटी ढीली करो और मौज लो. |
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#19 |
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ये ब्रह्मज्ञान आज ही राजौरी गार्डन की मार्केट में मिला है, रोज-रोज व्यवस्था को कोसना अच्छी बात नहीं. छोड़ दिया है कोसना ....... जैसा है–जहाँ है के आधार पर सब ठीक है.... पर पता नहीं कब तक? कब तक ये ज्ञान मेरे विद्रोही स्वर को दबा कर रखेगा... कुछ भी नहीं कह सकते ... दूसरा पैग लगाते ही की-बोर्ड की दरकार हो उठती है और बन्दा बेकरार हो उठता है..... चलो कविता ही सही. नहीं आती लिखनी तो भी लिखो.
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#20 |
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सामने अलाव सेंकते मजदूर
सीधे साधे अच्छे लगते है कम से कम सीने में सुलगती भावनाओं को इंधन दे - भडका तो सकते हैं. अपने सुख-दुःख इक्कट्ठे बैठकर झोंक देते हैं उस अग्नि में और, सब कुछ धुआं बन उड़ जाता है. |
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