08-11-2012, 06:58 PM | #11 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
08-11-2012, 06:59 PM | #12 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
प्रथमसृष्टिवर्णन
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! एक आकाशज आख्यान जो श्रावण का भूषण और बोध का कारण है उसको सुनिये । आकाशज नामक एक ब्राह्मण शुद्धचिदंश से उत्पन्न हुए । वह धर्मनिष्ठ सदा आत्मा में स्थिर रहते थे, भले प्रकार प्रजा का पालन करते थे और चिरञ्जीवी थे । तब मृत्यु विचार करने लगी कि मैं अविनाशिनी हूँ और जीव उपजते है उनको मारती हूँ परन्तु इस ब्राह्मण को मैं नहीं मार सकती । जैसे खंग की धार पत्थर पर चलाने से कुण्ठित हो जाती है वैसे ही वैसे ही मेरी शक्ति इस ब्राह्मण पर कुण्ठित हो गई है । हे रामजी! ऐसा विचारकर मृत्यु ब्राह्मण को भोजन करने के निमित्त उठी और जैसे श्रेष्ठ पुरुष अपने आचार कर्म को नहीं त्याग करते वैसे ही मृत्यु भी अपने कर्मों को विचार कर चली ।
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08-11-2012, 07:00 PM | #13 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
जब ब्राह्मण के गृह में मृत्यु ने प्रवेश किया तो जैसे प्रलयकाल में महातेज संयुक्त अग्नि सब पदार्थों को जलाने लगती है वैसे ही अग्नि इसके जलाने को उड़ी और आगे दौड़ के जहाँ ब्राहण बैठा था अन्तःपुर में जाकर पकड़ने लगी । पर जैसे बड़ा बलवान् पुरुष भी और के संकल्परूप पुरुष को नहीं पकड़ सकता वैसे ही मृत्यु ब्राह्मण को न पकड़ सकी । तब उसने धर्मराज के गृह में जाकर कहा, हे भगवान्! जो कोई उपजा है उसको मैं अवश्य भोजन करती हूँ, परन्तु एक ब्राह्मण जो आकाश से उपजा है उसको मैं वश में नहीं कर सकी । यह क्या कारण है?
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08-11-2012, 07:00 PM | #14 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
यम बोले , हे मृत्यो! तुम किसी को नहीं मार सकतीं, जो कोई मरता है वह अपने कर्मों से मरता है । जो कोई कर्मों का कर्त्ता है उसके मारने को तुम भी समर्थ हो, पर जिसका कोई कर्म नहीं उसके मारने को तुम समर्थ नहीं हो । इससे तुम जाकर उस ब्राह्मण के कर्म खोजो जब कर्म पावोगी तब उसके मारने को समर्थ होगी-अन्यथा समर्थ न होगी । हे रामजी! जब इस प्रकार यम ने कहा तब कर्म खोजने के निमित्त मृत्यु चली । कर्म वासना का नाम है । वहाँ जाकर ब्राह्मण के कर्मों को ढूँढ़ने लगी और दशों दिशा में ताल, समुद्र बगीचे और द्वीप से द्वीपान्तर इत्यादिक सब स्थान देखती फिरी, परन्तु ब्राह्मण के कर्मों की प्रतिभा कहीं न पाई ।
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08-11-2012, 07:01 PM | #15 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
हे रामजी! मृत्यु बड़ी बलवन्त है, परन्तु उस ब्राह्मण के कर्मों को उसने न पाया तब फिर धर्मराज के पास गई-जो सम्पूर्ण संशयों को नाश करने वाले और ज्ञानस्वरूप हैं-और उनसे कहने लगी, हे संशयों के नाशकर्त्ता! इस ब्राह्मण के कर्म मुझको कहीं नहीं दृष्टि आते, मैंने बहुत प्रकार से ढूँढ़ा । जो शरीरधारी हैं सो सब कर्म सयुंक्त हैं पर इसका तो कर्म कोई भी नहीं है इसका क्या कारण है? यम बोले, हे मृत्यो! इस ब्राह्मण की उत्पत्ति शुद्ध चिदाकाश से हुई है जहाँ कोई कारण न था । जो कारण बिना भासता है सो ईश्वररूप है । हे मृत्यो! शुद्ध आकाश से जो इसकी उत्पत्ति हुई है तो यह भी वही रूप है ।
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08-11-2012, 07:01 PM | #16 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
यह ब्राह्मण भी शुद्ध चिदाकाशरूप है और इसका चेतन ही वपु है । इसका कर्म कोई नहीं और न कोई क्रिया है! अपने स्वरूप से आप ही इसका होना हुआ है, इस कारण इसका नाम स्वयम्भू है और सदा अपने आपमें स्थित है । इसको जगत् कुछ नहीं भासता -सदा अद्वैत है । मृत्यु बोली, हे भगवान्! जो यह आकाशस्वरूप है तो साकाररूप क्यों दृष्टि आता है? यमजी बोले, हे मृत्यो! यह सदा निराकार चैतन्य वपु है और इसके साथ आकार और अहंभाव भी नहीं है इससे इसका नाश कैसे हो ।
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08-11-2012, 07:02 PM | #17 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
यह तो अहं त्वं जानता ही नहीं और जगत् का निश्चय भी इसको नहीं है । यह ब्राह्मण अचेत चिन्मात्र है, जिसके मन में पदार्थों का सद्भाव होता है उसका नाश भी होता है और जिसको जगत् भासता ही नहीं उसका नाश कैसे हो? हे मृत्यो! जो कोई बड़ा बलिष्ठ भी हो और सैकड़ों जंजीरें भी हों तो भी आकाश को बाँध न सकेगा वैसे ही ब्राह्मण आकाशरूप है इसका नाश कैसे हो? इससे इसके नाश करने का उद्यम त्यागकर देहधारियों को जाकर मारो -यह तुमसे न मरेगा । हे रामजी! यह सुनकर मृत्यु आश्चर्यवत् हो अपने गृह लौट आई ।
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08-11-2012, 07:03 PM | #18 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
रामजी बोले, हे भगवान्! यह तो हमारे बड़े पितामह ब्रह्मा की वार्त्ता तुमने कही है । वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह वार्त्ता तो मैंने ब्रह्मा की कही है, परन्तु मृत्यु और यम के विवाद निमित्त यह कथा मैंने तुमको सुनाई है । इस प्रकार जब बहुत काल व्यतीत होकर कल्प का अन्त हुआ तब मृत्यु सब भूतों को भोजनकर फिर ब्रह्मा को भोजन करने गई । जैसे किसी का काम हो और यदि एक बार सिद्ध न हुआ तो वह उसे छोड़ नहीं देता फिर उद्यम करता है वैसे ही मृत्यु भी ब्रह्मा के सन्मुख गई । तब धर्मराज ने कहा, हे मृत्यो! यह ब्रह्मा है। यह आकाशरूप है और आकाश ही इसका शरीर है ।
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08-11-2012, 07:03 PM | #19 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
आकाश के पकड़ने को तुम कैसे समर्थ होगी? यह तो पञ्चभूत के शरीर से रहित है । जैसे संकल्प पुरुष होता है तो उसका आकाश ही वपु होता है वैसे ही यह आकाशरूप आदि, अन्त मध्य और अहं त्वं के उल्लेख से रहित और अचेत चिन्मात्र है इसके मारने को तू कैसे समर्थ होगी? यह जो इसका वपु भासता है सो ऐसा है जैसे शिल्पी के मन में स्तम्भ की पुतली होती है पर वह कुछ नहीं वैसे ही स्वरूप से इतर होना नहीं है । यह तो ब्रह्मस्वरूप है, हमारे तुम्हारे मन में इतर होना नहीं है । यह तो ब्रह्मस्वरूप है, हमारे तुम्हारे मन में इसकी प्रतिमा हुई है, यह तो निर्वपु है । जो पुरुष देहवन्त होता है क्योंकि निर्वपु है वैसे यह भी निर्वपु है । इसके मारने की कल्पना को त्याग देहधारियों को जाकर मारो।
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08-11-2012, 07:04 PM | #20 |
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Re: श्री योगवाशिष्ठ (3)
बोधहेतुवर्णन
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! शुद्ध चिन्मात्र सत्ता ऐसी सूक्ष्म है कि उसमें आकाश भी पर्वत के समान स्थूल है । उस चिन्मात्र में जो अहं अस्मि चैत्यौन्मुखत्व हुआ है उसने अपने साथ देह को देखा । पर वह देह भी आकाशरूप है । हे रामजी! शुद्ध चिन्मात्र में चैत्य का उल्लेख किसी कारण से नहीं हुआ, स्वतः स्वाभाविक ही ऐसा उल्लेख आय फुरा है उसी का नाम स्वयंभू ब्रह्म है । उस ब्रह्मा को सदा ब्रह्म ही का निश्चय है । ब्रह्मा और ब्रह्म में कुछ भेद नहीं है । जैसे समुद्र और तरंग में, आकाश और शून्यता में और फूल और सुगंध में कुछ भेद नहीं होता वैसे ही ब्रह्म में भेद नहीं । जैसे जल द्रवता के कारण तरंगरूप होकर भासता है वैसे ही आत्मसत्ता चैतन्यता से ब्रह्मा होकर भासती है ।
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