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07-02-2011, 08:16 PM | #1 |
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Re: !! रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानियाँ!!
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सुभाषिणी की अवस्था दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। धीरे-धीरे मानो वह अपने आपको अनुभव कर रही है। मानो किसी एक पूर्णिमा को किसी सागर से एक ज्वार-सा आकर उसके अन्तराल को किसी एक नवीन अनिर्वचनीय चेतना-शक्ति से भर-भर देता है। अब मानो वह अपने-आपको देख रही है, अपने विषय में कुछ सोच रही है, कुछ पूछ रही है, लेकिन कुछ समझ नहीं पाती। पूर्णिमा की गाढ़ी रात्रि में उसने एक दिन धीरे-से कक्ष के झरोखे को खोलकर, भयत्रस्तावस्था में मुंह निकाल कर बाहर की ओर देखा। देखा कि सम्पूर्ण-प्रकृति भी उसके समान सोती हुई दुनिया पर अकेली बैठी हुई जाग रही है। वह भी यौवन के उन्माद से, आनन्द से, विषाद से, असीम नीरवता की अन्तिम परिधि तक, यहां तक कि उसे भी पार करके चुपचाप स्थिर बैठी है, एक शब्द भी उसके मुख से नहीं निकल रहा है। मानो इस स्थिर निस्तब्ध प्रकृति के एक छोर पर उससे भी स्थिर और उससे भी निस्तब्ध एक भोली लड़की खड़ी हो। इधर कन्या के विवाह की चिन्ता में माता-पिता बहुत बेचैन हो उठे हैं और गांव के लोग भी यत्र-तत्र निन्दा कर रहे हैं। यहां तक कि जातिविच्छेद कर देने की भी अफवाह उड़ी हुई है। वाणीकंठ की आर्थिक दशा वैसे अच्छी है, खाते-पीते आराम से हैं और इसी कारण इनके शत्रुओं की भी गिनती नहीं है। स्त्री-पुरुषों में इस बात पर बहुत-कुछ सलाह-मशविरा हुआ। कुछ दिनों के लिए वाणीकंठ गांव से बाहर परदेश चले गये। अन्त में, एक दिन घर लौटकर पत्नी से बोले-''चलो, कलकत्ते चले चलें? कलकत्ता-गमन की तैयारियां पूरे जोर-शोर से होने लगीं। कुहरे से ढके हुए सवेरे के समान सुभा का सारा अन्त:करण अश्रुओं की भाप से ऊपर तक भर आया। भावी आशंका से भयभीत होकर वह कुछ दिनों में मूक पशु की तरह लगातार अपने माता-पिता के साथ रहती और अपने बड़े-बड़े नेत्रों से उनके मुख की ओर देखकर मानो कुछ समझने का प्रयत्न किया करती पर वे उसे, कोई भी बात समझाकर बताते ही नहीं थे। इसी बीच में एक दिन तीसरे पहर, तट के समीप मछली का शिकार करते हुए प्रताप ने हंसते-हंसते पूछा- ''क्यों री सू, मैंने सुना है कि तेरे लिए वर मिल गया है, तू विवाह करने कलकत्ता जा रही है। देखना, कहीं हम लोगों को भूल मत जाना।'' इतना कहकर वह जल की ओर निहारने लगा। तीर से घायल हिरणी जैसे शिकारी की ओर ताकती और आंखों-ही-आंखों में वेदना प्रकट करती हुई कहती रहती है, ''मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?'' सुभा ने लगभग वैसे ही प्रताप की ओर देखा, उस दिन वह वृक्ष के नीचे नहीं बैठी। वाणीकंठ जब बिस्तर से उठकर धूम्रपान कर रहे थे। सुभा उनके चरणों के पास बैठकर उनके मुख की ओर देखती हुई रोने लगी। अन्त में बेटी को ढाढस और सान्त्वना देते हुए पिता के सूखे हुए कपोलों पर अश्रु की दो बूंदें ढुलक पड़ीं। कल कलकत्ता जाने का शुभमुहूर्त है। सुभा ग्वाल-घर में अपनी चिर-संगिनियों से विदा लेने के लिए गई। उन्हें अपने हाथ से खिलाकर गले में बांह डालकर वह अपनी दोनों आंखों से खूब जी-भर के उनसे बातें करने लगी। उसके दोनों नेत्र अश्रुओं के बांध को न रोक सके। उस दिन शुक्ला-द्वादशी की रात थी। सुभा अपनी कोठरी में से निकल कर उसी जाने-पहचाने सरिता-तट के कच्चे घाट के पास घास पर औंधी लेट गई। मानो वह अपनी और अपनी गूंगी जाति की पृथ्वी माता से अपनी दोनों बांहों को लिपटाकर कहना चाहती है, ''तू मुझे कहीं के लिए मत विदा कर मां, मेरे समान तू मुझे अपनी बाहों से पकड़े रख, कहीं मत विदा कर।''
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08-02-2011, 05:25 PM | #2 |
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समाज का शिकार
मैं जिस युग का वर्णन कर रहा हूं उसका न आदि है न अंत! वह एक बादशाह का बेटा था और उसका महलों में लालन-पालन हुआ था, किन्तु उसे किसी के शासन में रहना स्वीकार न था। इसलिए उसने राजमहलों को तिलांजलि देकर जंगलों की राह ली। उस समय देशभर में सात शासक थे। वह सातों शासकों के शासन से बाहर निकल गया और ऐसे स्थान पर पहुंचा जहां किसी का राज्य न था। आखिर शाहजादे ने देश को क्यों छोड़ा? इसका कारण स्पष्ट है कि कुएं का पानी अपनी गहराई पर सन्तुष्ट है। नदी का जल तटों की जंजीरों में जकड़ा हुआ है, किन्तु जो पानी पहाड़ की चोटी पर है उसे हमारे सिरों पर मंडराने वाले बादलों में बन्दी नहीं बनाया जा सकता। शाहजादा भी ऊंचाई पर था और यह कल्पना भी न की जा सकती थी कि वह इतना विलासी जीवन छोड़कर जंगलों, पहाड़ों और मैदानों में दृढ़ता से सामना करेगा। इस पर भी बहादुर शाहजादा भयावने जंगल को देखकर भयभीत न हुआ। उसकी राह में सात समुद्र थे और न जाने कितनी नदियां? किन्तु उसने सबको अपने साहस से पार कर लिया। मनुष्य शिशु से युवा होता है और युवा से वृध्द होकर मर जाता है, और फिर शिशु बनकर संसार में आता है। वह इस कहानी को अपने माता-पिता से अनेक बार सुनता है कि भयानक समुद्र के किनारे एक किला है। उसमें एक शहजादी बन्दी है, जिसे मुक्त कराने के लिए एक शाहजादा जाता है। कहानी सुनने के पश्चात् वह चिंतन की मुद्रा में कपोलों पर हाथ रखकर सोचता कि कहीं मैं ही तो वह शाहजादा नहीं हूं। जिन्नों के द्वीप की दशा सुनकर उसके हृदय में विचार उत्पन्न हुआ कि मुझे एक दिन शहजादी को बन्दीगृह से मुक्ति दिलाने के लिए उस द्वीप को प्रस्थान करना पड़ेगा। संसार वाले मान-सम्मान चाहते हैं, धन-ऐश्वर्य के इच्छुक रहते हैं, प्रसिध्दि के लिए मरते हैं, भोग-विलास की खोज में लगे रहते हैं, किन्तु स्वाभिमानी शाहजादा सुख-चैन का जीवन छोड़कर अभागी शहजादी को जिन्नों के भयानक बन्दीगृह से मुक्ति दिलाने के लिए भयानक द्वीप का पर्यटन करता है।
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08-02-2011, 05:28 PM | #3 |
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भयानक तूफानी सागर के सम्मुख शाहजादे ने अपने थके हुए घोड़े को रोका; किन्तु पृथ्वी पर उतरना था कि सहसा दृश्य बदल गया और शाहजादे ने आश्चर्यचकित दृष्टि से देखा कि समाने एक बहुत बड़ा नगर बसा हुआ है। ट्राम चल रही है, मोटरें दौड़ रही हैं, दुकानों के सामने खरीददारों की और दफ्तरों के सामने क्लर्कों की भीड़ है। फैशन के मतवाले चमकीले वस्त्रों से सुसज्जित चहुंओर घूम-फिर रहे हैं। शाहजादे की यह दशा कि पुराने कुर्ते में बटन भी लगे हुए नहीं। वस्त्र मैले, जूता फट गया, हरेक व्यक्ति उसे घृणा की दृष्टि से देखता है किन्तु उसे चिन्ता नहीं। उसके सामने एक ही उद्देश्य है और वह अपनी धुन में मग्न है। अब वह नहीं जानता कि शहजादी कहां है? वह एक अभागे पिता की अभागी बेटी है। धर्म के ठेकेदारों ने उसे समाज की मोटी जंजीरों में जकड़कर छोटी अंधेरी कोठरी के द्वीप में बन्दी बना दिया है। चहुंओर पुराने रीति-रिवाज और रूढ़ियों के समुद्र घेरा डाले हुए हैं। क्योंकि उसका पिता निर्धन था और वह अपने होने वाले दामाद को लड़की के साथ अमूल्य धन-संपत्ति न दे सकता था। इसलिए किसी सज्जन खानदान का कोई शिक्षित युवक उसके साथ विवाह करने पर सहमत न होता था। लड़की की आयु अधिक हो गई। वह रात-दिन देवताओं की पूजा-अर्चना में लीन रहती थी। उसके पिता का स्वर्गवास हो गया और वह अपने चाचा के पास चली गई। चाचा के पास नकद रुपया भी था और काफी मकान आदि भी। अब उसे सेवा के लिए मुफ्त की सेविका मिल गई। वह सवेरे से रात के बारह बजे तक घर के काम-काज में लगी रहती। बिगड़ी दशा का शाहजादा उस लड़की के पड़ोस में रहने लगा। दोनों ने एक-दूसरे को देखा। प्रेम की जंजीरों ने उनके हृदयों से विवाह कर दिया। लड़की जो अब तक पैरों से कुचली हुई कोमल कली की भांति थी उसने प्रथम बार संतोष और शांति की सांस लिया। किन्तु धर्म के ठेकेदार यह किस प्रकार सहन कर सकते थे कि कोई दुखित स्त्री लोहे की जंजीरों से छुटकारा पाकर सुख का जीवन व्यतीत कर सके। उसका विवाह क्या हुआ एक प्रलय उपस्थित हो गई। प्रत्येक दिशा में शोर मचा कि 'धर्म संकट में है, 'धर्म संकट में है।' चाचा ने मूछों पर ताव देकर कहा- ''चाहे मेरी सम्पूर्ण संपत्ति नष्ट ही क्यों न हो जाये, अपने कुल के रीति-रिवाजों की रक्षा करूंगा।'' बिरादरी वाले कहने लगे- ''एक समाज की सुरक्षा हेतु लाखों रुपया बलिदान कर देंगे'', और एक धर्म के पुजारी सेठ ने कहा-''भाई कलयुग है, कलियुग। यदि हम अचेत रहे तो धर्म विलय हो जायेगा। आप सब महानुभाव रुपये-पैसे की चिन्ता न करें, यदि यह मेरा महान कोष धर्म के काम न आया, तो फिर किस काम आयेगा? तुम तुरन्त इस पापी चांडाल के विरुध्द अभियोग आरम्भ करो।'' अभियोगी न्यायालय में उपस्थित हुआ। अभियोगी की ओर से बड़े-बड़े वकील अपने गाऊन फड़काते हुए न्यायालय पहुंचे। अभागी लड़की के विवाह के लिए तो कोई एक पैसा भी खर्च करना न चाहता था, किन्तु उसे और उसके पति को जेल भिजवाने के लिए रुपयों की थैलियां खुल गईं। नौजवान अपराधी ने चकित नेत्रों से देखा। विधान की किताबों को चाटने वाली दीमकें दिन को रात और रात को दिन कर रही थीं। धर्म के ठेकेदारों ने देवी-देवताओं की मन्नत मानी। किसी के नाम पर बकरे बलिदान किये गये, किसी के नाम पर सोने का तख्त चढ़ाया गया। अभियोग की क्रिया तीव्र गति से आरम्भ हुई। बिगड़ी हुई दशा वाले शाहजादे की ओर से न कोई रुपया व्यय करने वाला था न कोई पक्ष-समर्थन करने वाला। न्यायाधीश ने उसे कठिन कारावास का दण्ड दिया। मन्दिरों में प्रसन्नता के घंटे-घड़ियाल बजाये गये, सम्पूर्ण शक्ति से शंख बजाये गये, देवी और देवताओं के नाम बलि दी गई, पुजारियों और महन्तों की बन आई। सब आदमी खुशी से परस्पर धन्यवाद और साधुवाद देकर कहने लगे- ''भाइयो! यह समय कलियुग का है परन्तु ईश्वर की कृपा से धर्म अभी जीवित है।''
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08-02-2011, 05:31 PM | #4 |
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शाहजादा अपनी सजा काटकर कारावास से वापिस आ गया किन्तु उसका लम्बा-चौड़ा पर्यटन अभी समाप्त न हुआ था। वह संसार में अकेला था, कोई भी उसका संगी-साथी नहीं। संसार वाले उसे दंडी (सजायाफ्ता) कहकर उसकी छाया से भी बचते हैं। सत्य है इस संसार में राज-नियम भी ईश्वर है। फिर ईश्वर के अपराधी से सीधे मुंह बात करना किसे सहन हो सकता है? लम्बी-चौड़ी मुसाफिरी तो उसकी समाप्त न हुई; किन्तु उसके चलने का अन्त हो गया। उसके जख्मी पांवों में चलने की शक्ति शेष न रही। वह थककर गिर पड़ा, रोगी था...बहुत अधिक रोगी। उस असहाय पथिक की सेवा-सुश्रूषा कौन करता? किन्तु उसकी अवस्था पर एक सुहृदय देवता का हृदय दुखा। उसका नाम 'काल' था। उसने शाहजादे की सेवा-सुश्रूषा की। उसने सिर पर स्नेह से हाथ फेरा और उसके साथ शाहजादा उस संसार में पहुंच गया जहां न समाज है और न उसके अन्याय और न अन्यायी। बच्चा आश्चर्य से अपनी मां की गोद में यह कहानी सुनता है और अपने फूल-से कोमल कपोलों पर हाथ रखकर सोचता है, कहीं वह शाहजादा मैं ही तो नहीं हूं।
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13-02-2011, 10:10 AM | #5 |
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खोया हुआ मोती
मेरी नौका ने स्नान-घाट की टूटी-फूटी सीढ़ियों के समीप लंगर डाला। सूर्यास्त हो चुका था। नाविक नौका के तख्ते पर ही मगरिब (सूर्यास्त) की नमाज अदा करने लगा। प्रत्येक सजदे के पश्चात् उसकी काली छाया सिंदूरी आकाश के नीचे एक चमक के समान खिंच जाती। नदी के किनारे एक जीर्ण-शीर्ण इमारत खड़ी थी, जिसका छज्जा इस प्रकार झुका हुआ था कि उसके गिर पड़ने की हर घड़ी भारी शंका रहती थी। उसके द्वारों और खिड़कियों के किवाड़ बहुत पुराने और ढीले हो चुके थे। चहुं ओर शून्यता छाई हुई थी। उस शून्य वातावरण में सहसा एक मनुष्य की आवाज मेरे कानों में सुनाई पड़ी और मैं कांप उठा। ''आप कहां से आ रहे हैं?'' मैंने गर्दन घुमाकर देखा तो एक पीले, लम्बे और वृध्द मनुष्य की शक्ल दिखाई पड़ी जिसकी हड्डि*यां निकली हुई थीं, दुर्भाग्य के लक्षण सिर से पैर तक प्रकट हो रहे थे। वह मुझसे दो-चार सीढ़ियां ऊपर खड़ा था। सिल्क का मैला कोट और उसके नीचे एक मैली-सी धोती बांधे हुए। उसका निर्बल शरीर, उतरा हुआ मुख और लड़खड़ाते हुए कदम बता रहे थे कि उस क्षुधा-पीड़ित मनुष्य को शुध्द वायु से अधिक भोजन की आवश्यकता है। ''मैं रांची से आ रहा हूं।' यह सुनकर वह मेरे बराबर उसी सीढ़ी पर आ बैठा। ''और आपका काम?'' ''व्यापार करता हूं।'' ''काहे का?'' ''इमारती लकड़ी, रेशम और त्रिफला का।'' ''आपका नाम क्या है?'' एक क्षण सोने के बाद मैंने उसे अपना एक बनावटी नाम बता दिया। किन्तु वह अब मुझे एक-टक देख रहा था। 'परन्तु आपका यहां आना कैसे हुआ? केवल मनोरंजन के लिए या वायु-परिवर्तन के लिए?'' मैंने कहा-''वायु-परिवर्तन के लिए।' ''यह भी खूब कही। मैं लगभग छ: वर्ष से प्रतिदिन यहां की ताजी वायु पेट भरकर खा रहा हूं और साथ ही पन्द्रह ग्रेन कुनैन भी; परन्तु अन्तर कुछ नहीं हुआ। कोई लाभ दिखाई नहीं देता।'' ''किन्तु रांची और यहां के जलवायु में तो पृथ्वी और आकाश का अन्तर है।'' ''इसमें सन्देह नहीं, किन्तु आप यहां ठहरे किस स्थान पर हैं? क्या इसी मकान में?'' सम्भवत: उस व्यक्ति को संदेह हो गया था कि मुझे उसके किसी गड़े हुए धन का कहीं से सुराग मिल गया है और मैं उस स्थान पर ठहरने के लिए नहीं; बल्कि उसके गड़े हुए धन पर अपना अधिकार जमाने आया हूं। मकान की भलाई-बुराई के सम्बन्ध में एक शब्द तक कहे बिना उसने अपने उस मकान के स्वामी की पन्द्रह साल पूर्व की एक कथा सुनानी आरम्भ कर दी- ''उसकी गंजी खोपड़ी में गहरी और चमकदार काली आंखें मुझे कॉलरिज के पुराने नाविक का स्मरण करा रही थीं। वह एक स्थानीय स्कूल में अध्यापक था। ''नाविक ने समाज से निवृत्त होकर रोटी बनानी आरम्भ कर दी। सूर्यास्त होने के समय आकाश के सिंदूरी रंग पर अधिकार जमाने वाली अंधेरी में वह खण्डहर- भवन एक विचित्र-सा भयावह दृश्य प्रदर्शित कर रहा था। ''मेरे पास सीढ़ी पर बैठे हुए उस दुबले और लम्बे स्कूल मास्टर ने कहा- ''मेरे इस गांव में आने से लगभग दस साल पूर्व एक व्यक्ति फणीभूषण सहाय इस मकान में रहता था। उसका चाचा दुर्गामोहन बिना अपने किसी उत्तराधिकारी के मर गया। जिसकी सम्पूर्ण संपत्ति और विस्तृत व्यापार का अकेला वही अधिकारी था। ''पाश्चात्य शिक्षा और नई सभ्यता का भूत फणीभूषण पर सवार था। कॉलेज में कई वर्षों तक शिक्षा प्राप्त कर चुका था। वह अंग्रेजों की भांति कोठी में जूता पहने फिरा करता था, यह कहने की आवश्यकता नहीं कि ये लोग उनके साथ कोई व्यापारिक रियायत देने के रवादार न थे। वे भली-भांति जानते थे कि फणीभूषण आखिर को नये बंगाल की वायु में सांस ले रहा है। ''इसके अतिरिक्त एक और बला उसके सिर पर सवार थी। अर्थात् उसकी पत्नी परम सुन्दरी थी। यह सुन्दर बला और पाश्चात्य शिक्षा दोनों उसके पीछे ऐसी पड़ी थीं कि तोबा भली! खर्च सीमा से बाहर। तनिक शरीर गर्म हुआ और झट सरकारी डॉक्टर खट-खट करते आ पहुंचे। ''विवाह सम्भवत: आपका भी हो चुका है। आपको भी वास्तव में यह अनुभव हो गया है कि स्त्री कठोर स्वभाव वाले पति को सर्वदा पसन्द करती है। वह अभागा व्यक्ति जो अपनी पत्नी के प्रेम से वंचित हो, यह न समझ बैठे कि वह इस संपत्ति से माला-माल नहीं या सौन्दर्य से वंचित है। विश्वास कीजिये वह अपनी सीमा से अधिक कोमल प्रकृति और प्रेम के कारण इसी दुर्भाग्य में फंसा हुआ है। मैंने इस विषय में खूब सोचा है और इस तथ्य पर पहुंचा हूं और यह है भी ठीक। पूछिये क्यों? लीजिये इस प्रश्न का संक्षिप्त और विस्तृत उत्तर इस प्रकार है। ''यह तो आप अवश्य मानेंगे कि कोई भी व्यक्ति उस समय तक वास्तविक प्रसन्नता प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक कि उसे अपने जन्मजात विचार और स्वाभाविक योग्यताओं के प्रकट करने के लिए एक विस्तृत क्षेत्र प्राप्त न हो। हरिण को आपने देखा है वह अपने सींगों को वृक्ष से रगड़कर आनन्द प्राप्त करता है, नर्म और नाजुक केले के खम्भे से नहीं। सृष्टि के आरम्भ से ही नारी-जाति इस जंगली और कठोर-स्वभाव पुरुष को जीतने के लिए विशेष ढंग सीखती चली आ रही है। यदि उसे पहले ही से आज्ञाकारी पति मिल जाये तो उसके वे आकर्षक हथकंडे जो उसको मां और दादियों से बपौती रूप में मिले हैं, और लम्बे समय से निरन्तर चलते रहने के कारण सीमा से अधिक सत्य भी सिध्द हुए हैं, न केवल बेकार रह जाते हैं बल्कि स्त्री को भार-स्वरूप मालूम होने लगते हैं। ''स्त्री अपने आकर्षक सौन्दर्य के बल पर पुरुष का प्रेम और उसकी आज्ञाकारिता प्राप्त करना चाहती है। किन्तु जो पति स्वयं ही उनके सौन्दर्य के सामने झुक जाये, वह वास्तव में दुर्भाग्यशाली होता है, और उससे अधिक उसकी पत्नी। ''वर्तमान सभ्यता ने ईश्वर-प्रदत्त उपहार अर्थात् ''पुरुष की सुन्दर कठोरता' उससे छीन ली है। पुरुष ने अपनी निर्बलता से स्त्री के दाम्पत्य-बन्धन को बड़ी सीमा तक ढीला कर दिया है। मेरी इस कहानी का अभागा फणीभूषण भी इस नवीन सभ्यता की छलना से छला हुआ था और यही कारण था कि न वह अपने व्यापार में सफल था और न गृहस्थ जीवन से सन्तुष्ट। यदि एक ओर वह अपने व्यापार में लाभ से बेखबर था तो दूसरी ओर अपनी पत्नी के पतित्व-अधिकार से वंचित। ''फणीभूषण की पत्नी मनीमलिका को प्रेम और विलास-सामग्री बेमांगे मिली थी। उसे सुन्दर और बहुमूल्य साड़ियों के लिए अनुनय-विनय तो क्या पति से कहने की आवश्यकता न होती थी। सोने के आभूषणों के लिए उसे झुकना न पड़ता था। इसलिए उसके स्त्रियोचित स्वभाव को आज्ञा देने वाले स्वर का जीवन में कभी आभास न हुआ था, यही कारण था कि वह अपनी प्रेममयी भावनाओं में आवेश की स्थिति उत्पन्न न कर पाती थी। उसके कान-''लो स्वीकार करो' के मधुर शब्दों से परिचित थे; किन्तु उसके होंठ 'लाओ' और 'दो' से सर्वथा अपरिचित। उसके सीधे स्वभाव का पति इस मिथ्या-भावना की कहावत से प्रसन्न था कि 'कर्म किये जाओ फल की कामना मत करो, तुम्हारा परिश्रम कभी अकारथ नहीं जाएगा'। वह इसी मिथ्या भावना के पीछे हाथ-पैर मारे जा रहा था। परिणाम यह हुआ कि उसकी पत्नी उसे ऐसी मशीन समझने लगी जो बिना चलाए चलती है। स्वयं ही बिना कुछ कष्ट किये सुन्दर साड़ियां और बहुमूल्य आभूषण बनाकर उसके कदमों पर डालती रहती। उसके पुर्जे इतने शक्तिशाली और टिकाऊ थे कि कभी भी उसको तेल देने की आवश्यकता न होती। ''फणीभूषण की जन्मभूमि और रहने का स्थान समीप ही एक देहात का गांव था, किन्तु उसके चाचा के व्यापार का मुख्य स्थान यही शहर था। इसी कारण उसकी आयु का अधिक भाग यहीं व्यतीत हुआ था। वैसे मां मर चुकी थी; किन्तु मौसी और मामियां आदि ईश्वर की कृपा से विद्यमान थीं। परन्तु वह विवाह के बाद ही फौरन मनीमलिका को अपने साथ ले आया। उसने विवाह अपने सुख के लिए किया था न कि अपने सम्बन्धियों की सेवा के लिए। ''पत्नी और उसके अधिकारों में पृथ्वी-आकाश का अन्तर है। पत्नी को प्राप्त कर लेना और फिर उसकी देख-भाल करना, उसको अपना बनाने के लिए काफी नहीं हुआ करता। ''मनीमलिका सोसायटी की अधिक भक्त न थी। इसलिए व्यर्थ का खर्च भी न करती थी, बल्कि इसके प्रतिकूल बड़ी सावधानी रखने वाली थी। जो उपहार फणीभूषण उसको एक बार ला देता फिर क्या मजाल कि उसको हवा भी लग जाए। वह सावधानी से सब रख दिया जाता। कभी ऐसा नहीं देखा गया कि किसी पड़ोसिन को उसने भोजन पर बुलाया हो। वह उपहार या भेंट लेने-देने के पक्ष में भी न थी। ''सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि चौबीस साल की आयु में भी मनीमलिका चौदह वर्ष की सुन्दर युवती दिखाई देती थी। ऐसा प्रतीत होता मानो उसका रूप-लावण्य केवल स्थायी ही नहीं, बल्कि चिरस्थायी रहने वाला है। मनीमलिका के पार्श्व में हृदय न था बर्फ का टुकड़ा था, जिस पर प्रेम की तनिक भी तपन न पहुंची थी। फिर वह पिघलता क्यों और उसका यौवन ढलता किस प्रकार? ''जो वृक्ष पत्तों से लदा होता है प्राय: फल से वंचित रहता है। मनीमलिका का सौन्दर्य भी फलहीन था। वह संतानहीन थी। रख-रखाव और व्यक्तिगत देख-रेख करती भी तो काहे की? उसका सारा ध्यान अपने आभूषणों पर ही केन्द्रित था। संतान होती तो वसन्त की मीठी-मीठी धूप की भांति उसके बर्फ के हृदय को पिघलाती और वह निर्मल जल उसके दाम्पत्य-जीवन के मुरझाए हुए वृक्ष को हरा कर देता। ''मनीमलिका गृहस्थ के काम-काज और परिश्रम से भी न कतराती थी। जो काम वह स्वयं कर सकती उसका पारिश्रमिक देना उसे खलता था। दूसरों के कष्ट का न उसे ध्यान था और न नाते-रिश्तेदारों की चिन्ता। उसको अपने काम से काम था। इस शांत जीवन के कारण वह स्वस्थ और सुखी थी। न कभी चिन्ता होती थी, न कोई कष्ट। 'प्राय: पति इसे सन्तोष तो क्या सौभाग्य समझेंगे? क्योंकि जो पत्नी हर समय फरमाइशें लेकर पति की छाती पर चढ़ती रहे वह सारे गृहस्थ के लिए एक रोग सिध्द होती है। ''कम-से-कम मेरी तो यही सम्मति है कि सीमा से बढ़ा हुआ प्रेम पत्नी के लिए सम्भवत: गौरव की बात हो, किन्तु पति के लिए एक विपत्ति से कम सोचिए तो सही कि क्या पुरुष का यही काम रह गया है कि वह हर समय यही तोलता-जोखता रहे कि उसकी पत्नी उसे कितना चाहती है, मेरा तो यह दृष्टिकोण है कि गृहस्थ का जीवन उस समय अच्छा व्यतीत होता है जब पति अपना काम करे और पत्नी अपना। ''स्त्री का सौन्दर्य और प्रेम यानी तिरिया-चरित्र पुरुष की बुध्दि से परे की चीज है, किन्तु स्त्री-पुरुष के प्रेम के उतार-चढ़ाव और उसके न्यूनाधिक अन्तर को गम्भीर दृष्टि से देखती रहती है। वह शब्दों के लहजे और छिपी हुई बात के अर्थ को झट अलग कर लेती है। इसका कारण केवल यह है कि जीवन के व्यापार में स्त्री की पूंजी लेकर केवल पुरुष का प्रेम है। यही उनके जीवन का एकमात्र सहारा है। यदि वह पुरुष की रुचि के वायु के प्रवाह को अपनी जीवन-नैया के वितान से स्पर्श करने में सफल हो जाए तो विश्वस्तत: नैया अभिप्राय के तट तक पहुंच जाती है। इसीलिए प्रेम का कल्पना-यन्त्र पुरुष के हृदय में नहीं, स्त्री के हृदय में लगाया गया है। ''प्रकृति ने पुरुष और स्त्री की रुचि में स्पष्ट रूप से अन्तर रखा है, किन्तु पाश्चात्य सभ्यता इस स्त्री-पुरुष के अन्तर को मिटा देने पर तुली हुई है। स्त्री पुरुष बनी जा रही है और पुरुष स्त्री। स्त्री-पुरुष के चरित्र तथा उसके कार्य-क्षेत्र को अपने जीवन की पूंजी और पुरुष स्त्रियोचित चरित्र तथा नारी-कर्म-क्षेत्र को अपने जीवन का आनन्द समझने लगे हैं। इसलिए यह कठिन हो गया है कि विवाह के समय कोई यह कह सके कि वधू स्त्री है या स्त्रीनुमा स्त्री पुरुष। इसी प्रकार स्त्री अनुमान लगा सकती है कि जिसके पल्ले वह बंध रही है वह पुरुष है या पुरुषनुमा स्त्री। इसलिए कि अन्तर केवल हृदय का है। पर क्या जाने कि पुरुष का हृदय मरदाना है या जनाना?
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