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Old 09-10-2011, 07:43 PM   #11
malethia
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Originally Posted by abhisays View Post
आगे क्या हुआ मलेठिया जी.
आगे भी बताते है ,थोड़ी थोड़ी खुराक मिलती रहेगी...............
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Old 09-10-2011, 07:45 PM   #12
malethia
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है ना?"...
"हाँ"...
"अंग्रेज़ी में ब्लॉग बनाने के पीछे...ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक अपनी बात पहुँचाने की मंशा रही होगी उनकी"...
"लगता तो यही है"...
"वैसे अभी तुम्हारे हिन्दी के ब्लॉग हैँ ही कितने?"..
"आठ"...
"बस!...आठ?"...
"और नहीं तो क्या साठ?"...
"क्या मतलब?...सिर्फ आठ ब्लाग ही बने हैं हिन्दी के अभी तक?"...
"हाँ!..आठ तो मेरे अपने...खुद के हैं"...
"ओह!...लेकिन मैं सभी के मिला के पूछ रही थी कि कुल कितने ब्लॉग होंगे हिन्दी के?"...
"सभी के मिला के तो लगभग 15000 के आस-पास होंगे"...
"इन पंद्रह हज़ार में से रोज़ाना कितने सक्रिय होते होंगे?"....
"मुश्किल से एक या दो फीसदी"...
"तो तुम ये डेढ़-दो सौ ब्लागरों के दम पे हिन्दी का उद्धार करने चले हो?"..
"तो क्या हुआ?..बूँद-बूँद से घड़ा भरता है ...आज डेढ़-दो सौ ब्लागर सक्रिय हैं तो कल को डेढ़-दो हज़ार तो और आने वाले समय में डेढ़-दो करोड़ भी होंगे"...
"हमारा भविष्य उज्जवल है...बहुत उज्जवल"..
"बड़े लोगों के इस ब्लॉगिरी की लाईन में कूदने से एक फायदा तो हुआ है"...
"क्या?"...
"यही कि कुछ साल पहले जिन सैलीब्रिटीज़ से रूबरू मिलने...उनसे बात करने की हम कभी सपने में भी सोच भी नहीं सकते थे..आज हम उनके ब्ळॉग पे कमैंट कर डाईरैक्ट अपने दिल की बात कह सकते हैँ"..
"हाँ!..ये बात तो है"..
"खैर!...उनकी छोड़ो...वो सब तो पहले से ही जाने-माने लोग हैँ...उनसे क्या मुकाबला?...तुम इस 'घंटेश्वरनाथ' की बात करो...ये तो आम आदमी ही है ना?"..
"अरे!...इसका भी बड़ा नाम है आजकल...चाहे कोई 'कवि सम्मेलन' हो या फिर कोई 'मुशायरा'...या फिर हो किसी नए पुराने लिक्खाड़ की किताब का विमोचन..हर जगह उसी को पूछा जाता है...उसी को बारंबार मान-सम्मान दे पूजा जाता है"...
"अरे!..मान-सम्मान दिया नहीं जाता बल्कि वो खुद ही सब कुछ अपने फेवर में मैनुप्लेट करके अपना जुगाड़ बना लेता है"..
"रोज़ाना अखबारों...पत्रिकाओं...मैग्ज़ीनों ...पर्चों वगैरा में उसका कोई ना कोई लेख छपता रहता है"...
"तो क्या?...उन्हीं में यदा-कदा तुम्हारी कहानियाँ भी तो छपती ही हैँ ना?"...
"अरे!..उसे तो लिखने के पैसे मिलते हैँ और मेरा माल मुफ्त में ही हड़प लिया जाता है"...
"अफसोस तो इसी बात का है कि..जहाँ एक तरफ उसे मंच पे खाली बैठे-बैठे पान चबा...जुगाली करने के नाम पे बड़ा लिफाफा थमा दिया जाता है...वहीं दूसरी तरफ तुमसे फोकट में कविता पाठ से लेकर मंच संचालन तक करा लिया जाता है"..
"मैँ तो यही सोच के खुद को तसल्ली का झुनझुन्ना थमा देता हूँ कि चलो कम से कम इसी बहाने मेरे काम की चर्चा तो होती है"...
"लेकिन ऐसी फोकट की चर्चा से फायदा क्या कि चाय भी अपने पल्ले से पीनी और पिलानी पड़े?"...
"ऊपरवाले के घर देर है पर अंधेर नहीं...कभी तो नोटिस में लिया जाएगा मेरा काम"मेरा हताश स्वर...
"मुझे तो लगता है कि शर्म के मारे तुम खुद ही कुछ नहीं मांगते होगे"...
"बात तो यार...तुम्हारी कुछ-कुछ सही ही है"..
"अरे!...बिना रोए कभी माँ ने भी बच्चे को दूध पिलाया है?...जो लोग खुद ही तुम्हें पैसे देने लगे?...हक बनता है तुम्हारा...बेधड़क हो के माँग लिया करो"...
"हम्म!..


cont...................
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Old 09-10-2011, 07:46 PM   #13
malethia
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"काम कर के देते हो...कोई मुफ्त में ख़ैरात नहीं माँगते...इसमें शर्म काहे की?"...
"यार!...कभी-कभार हिम्मत कर के पैसे मांगने की जुर्रत कर भी लो तो 'घंटेश्वरनाथ' का यही टका सा जवाब मिलता है कि...
"शुक्र करो!...हमारी बदौलत मीडिया की सुर्खियों में तो छाए हुए हो कम से कम...वरना कोई पूछता भी नहीं तुम्हें"..
"अब अगर कहीं कोई प्रोग्राम हो तो मुझे ज़रूर ले चलना"..
"तुम क्या करोगी?"...
"उसी से पूछूँगी कि ऐसी फोक्की सुर्खियों को क्या नमक बुरका के चाटें हम?"...
"छोड़ो ना...कभी तो अपने दिन भी फिरेंगे"...
"हुंह!...कभी तो दिन फिरेंगे"..बीवी मुँह बनाती हुई बोली
"बस!...इस बात की तसल्ली है मुझे कि इसी बहाने से ही सही...मेरी अपनी...खुद की फैन फालोइंग तो बन गई है"...
"और नहीं तो क्या?...उसके जैसे चमचों के बल पे इकट्ठा की हुई भीड़ के दम पे नहीं कूदते हो तुम"...
"हाँ!..ये बात तो सच है"...
"बस!..अब से तुम्हें कोई ज़रूरत नहीं है उससे डरने-वरने की"...
"हम्म!...
"ज़्यादा चूँ-चाँ करे तो उसी के खिलाफ खुल्लमखुल्ला मोर्चा खोल देना"....
"अरे यार!...कैसे विरोध करूँ उसका?..गुरू है वो मेरा"...
"गुरू गया तेल लेने...ऐसी कोई अनोखी दीक्षा नहीं दी है उसने तुम्हें जो तुम पूरी ज़िन्दगी गुरूदक्षिणा ही देते रहो"...
"तुम में जन्मजात गुण था लिखने का...माँ जी बता रहती थी कि बचपन से ही पन्ने काले करते रहते थे"...
"वो सब बात तो ठीक है लेकिन मंच पे कविता पढ़ने का पहला चाँस तो उसी की बदोलत ही मिला था ना?"..
"हुँह!...चाँस मिला था... अपनी ही गर्ज़ को तुम्हें बुलवा लिया था..ऐन टाईम पे उसका विश्वसनीय प्यादा जो बिमार पड़ गया था"..
"सो!...महफिल में रंग जमाने...तुम्हें स्टैपनी बना...तुम्हारा सहारा लिया था उसने"..
"हाँ!...ये बात तो है...मजबूरी थी उसकी....आयोजकों से मोटी रकम जो एडवांस में पकड़ चुका था"...
"तुम जैसे नए रंग-रूटों को मोहरा बना अपना उल्लू सीधा करता है वो"..
"हम्म!...
"कोई ज़रूरत नहीं है फालतू में उसके चक्करों में पड़ने की...अपना मस्त हो के काम करो...एक न एक दिन तुम्हें अपनी करनी का फल ज़रूर मिलेगा"...
"करनी का फल मिलेगा?...मैं कुछ गलत कर रहा हूँ क्या?"...
"नहीं!..मेरा मतलब था कि तुम्हें अपने द्वारा किए गए काम का प्रतिफल ज़रूर मिलेगा"...
"ओह!..मैं तो डर ही गया था"...
"कई बार तो इतना गुस्सा आता है उस पर कि मार के घूँसा उसके सभी के सभी दाँत तोड़ दूँ"...
"नहीं!...ऐसा गजब बिल्कुल नहीं करना"...
"क्यों?...क्या हुआ?"...
"बिना दाँतो के वो तो एकदम विलायती बंदर जैसा दिखेगा"...
"तो?...तुम्हें इसमें क्या एतराज़ है?"...
"नहीं!..मैं नहीं चाहती कि हमारे किसी भी कृत्य से उसकी मशहूरी हो...प्रसिद्धि हो"..
"ओह!..तुम कहती हो तो मैं अपना आइडिया ड्रॉप कर देता हूँ...मुल्तवी कर देता हूँ"...
"ओ.के!...लेकिन उसके प्रति तुम्हारे दिल में जो नफरत का सैलाब उमड़ रहा है उसे शांत नहीं होने देना है"...
"लेकिन यार!...कुछ भी कहो..है तो वो आखिर मेरा गुरु ही ना?"..


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Old 10-10-2011, 03:00 PM   #14
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"हुंह!...बड़े देखे हैँ ऐसे गुरू-शूरू मैँने"..
"सच कह रही हो तुम...कई बार तो मैं खुद यही सोच-सोच के परेशान हो उठता हूँ कि आखिर कब तक उसके गुरुत्व की कीमत चुकाता रहूँगा?"...
"आपको तो नाहक ही परेशान होने की आदत पड़ी हुई है...खा थोड़े ही जाएगा हमें?"...
"हाँ!..ये बात तो है"...
"तुम एक काम करो"...
"क्या?"...
"ऐसा सबक सिखाओ पट्ठे को कि छटी का दूध याद करते करते उसे नानी भी याद होने को आए"..
"लेकिन कैसे?"...
"ये सब भी मैं ही बताऊँगी तो तुम क्या घास छीलोगे?"..
"?...?...?...?..."...
"अरे!..लेखक हो तुम घसियारे नहीं...कलम की ताकत को पहचानो...उसी से वार करो"...
"अरे!...तुम जानती नहीं हो उसे....बड़ा ही पहुँचा हुआ खुर्राट है वो...एक बार में ही समझ जाएगा कि सब कुछ उसी के बारे में लिखा है मैँने"..
"तो क्या हुआ?...समझ जाएगा तो समझ जाएगा...कौन सा हम उसके हाथ के गुँथे आटे की रोटियाँ पाड़ रहे हैँ?...और वैसे भी हम कोई नाम थोड़े ही उसका लिखेंगे"...
"हाँ!..ऐसे तो चाहते हुए भी वो हमारा कुछ नहीं उखाड़ पाएगा"मैं खुश होता हुआ बोला..
"बिलकुल!..खूब नमक मिर्च लगा के...ऐसा तीखा मसालेदार लिखना कि बस अंदर तक तड़प के रह जाए"...
"हम्म!...
"ऐसी-ऐसी बातें लिखना कि बिना खुल्लमखुल्ला खुलासा किए ही सब समझ जाएँ कि किसकी बात हो रही है"...
"लेकिन क्या ऐसा करना ठीक रहेगा?"...
"क्यों?...वो क्या हमारे साथ सब कुछ ठीक ही करता आया है अब तक?...पिछले तीन साल से हर सम्मेलन...हर मुशायरे...में तुम उसी की तो बँधुआगिरी कर रहे हो"...
"हाँ!..बात तो तुम्हारी सही है...देना-दिलाना कुछ होता नहीं है और जहाँ मन होता है...वहीं फटाक से फोन करके बुलवा लेता है कि...फलानी-फलानी जगह पे फलाने-फलाने टाईम पे पहुँच जाना"..
"हुँह!...तुम्हारे बाप के नौकर हैं जैसे?"...
"ये नहीं कि किराए-भाड़े के नाम पे ही कुछ थमा दे... टाईम का टाईम खोटी करो और ऑटो खर्चा भी पल्ले से भरो"...
"लेकिन मैँ तो बस से...
"अरे!...ओ राजा हरीशचन्द्र की औलाद...हर जगह क्या अपनी गुरबत का ढिंढोरा ही पीट डालोगे?....पर्सनली जानता ही कौन है तुम्हें इस किस्से-कहानियों की दुनिया में?...थोड़ी-बहुत गप भी तो मार सकते हो"...
"कैसे?"...
"ये भी मैं ही बताऊँ?... तुम्हें तो लिखना चाहिए कि मैँ हमेशा 'ए.सी' कार में सफर करता हूँ...फाईव स्टार सैलून से बाल कटाता हूँ...नोकिया 'एन' सिरीज़ का मोबाईल इस्तेमाल करत हूँ वगैरा ...वगैरा और तुम हो कि अपनी सब पोल -पट्टी ही खोले दे रहे हो"...
"ओह!..आई एम सारी ...वैरी सारी.....माय मिस्टेक"..
"और हाँ!...एक बात का हर हालत में ध्यान रखना है कि....कहानी के शुरू में और आखिर में मोटे-मोटे शब्दों में ये लिखना बिलकुल नहीं भूलना कि ये कहानी पूर्ण रूप से काल्पनिक है...इसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई भी...किसी भी तरह का संबध नहीं है"..
"बाद में सौ लफड़े खड़े हो सकते हैँ...इसलिए समय रहते ही चेत जाओ ज़्यादा अच्छा है"..
"तुम्हारा कहना सही है लेकिन समझ नहीं आ रहा कि कहानी कहाँ से शुरू करूँ?"...
"वहीं से...जहाँ से उसने शुरूआत की थी"...
"मतलब...जब उसने शादी की....तब से?"...


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Old 11-10-2011, 12:23 PM   #15
malethia
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"नहीं!...उससे भी पहले से...जब वो हमेशा उस ऐंटीक माडल की टूटी साईकिल पे नज़र आया करता था"....
"वही?..जो कई बार बीच रास्ते ही जवाब दे पंचर हो जाया करती थी?"...
"कई बार क्या?...हमेशा ही तो उसी को घसीटता नज़र आता था बल्कि यूँ कहो तो ज़्यादा अच्छा रहेगा कि वो साईकिल पे कम और साईकिल उस पे ज़्यादा लदी नज़र आती थी"
"बिलकुल सही कहा... ये प्वाईंट तो नोट कर लिया...अब आगे?"मैँ नोटबुक में कलम घिसता हुआ बोला...
"वो सब बातें लिखना कि कैसे वो उल्टे सीधे दाव पेंच चलता हुआ...एक मामुली कवि से आज साहित्य जगत की मानी हुई हस्ती बन बैठा है"...
"हम्म!...
"कैसे उसकी हाजरी के बिना हर महफिल सूनी-सूनी सी लगती है"..
"लेकिन कहीं ये उसकी तारीफ तो नहीं हो जाएगी ना?"...
"यही तो इश्टाईल होना चाहिए बिड्ड़ु"...
"क्या मतलब?"..
"मज़ा तो तब है जब तुम्हारे एक वाक्य के दो-दो मतलब निकलें"...
"कैसे?"...
"तुम्हारी लेखनी से एक तरफ लोगों को लगना चाहिए कि तुम तारीफ कर रहे हो और...वहीं दूसरी तरफ दूसरों को साफ़-साफ़ दिखाई देना चाहिए कि तुम तबीयत से दिल खोल के जूतमपैजार कर रहे हो"...
"लेकिन क्या ऐसे किसी इनसान की इस तरह सरेआम पोल खोलना ठीक रहेगा?"...
"इनसान?"...
"अरे!...अगर सही मायने में इनसान होता तो आज अपने घर में रह रहा होता ना कि घर जमाई बन के अपने ससुर के बँगले पे कब्ज़ा जमा उन्हीं की रोटियाँ तोड़ रहा होता"...
"हम्म!...
"सब जानती हूँ मैँ कि कैसे उसने उस मशहूर कवि की बेटी को अपने प्यार के जाल में फँसा शादी का चक्कर चलाया"...
"हम्म!...शादी के पहले था ही क्या उस टटपूंजिए के पास? और अब ठाठ देखो पट्ठे के"..
"पहले तो ले दे के वही एक ही...महीनों तक ना धुलने की वजह से सफेद से पीला पड़ा हुआ कुर्ता पायजामा नज़र आता था उसके तन पे...और अब?...अब एक से एक फ्लोरोसैंट कलर के कुर्ते पायजामे जैकेट के साथ उसके बदन की शोभा बढा रहे होते हैँ"...
"मैंने तो यहाँ तक सुना है कि पूरे तीस सैट बिना नाड़े के पायजामे सिलवा रखे हैँ पट्ठे ने"..
"बिना नाड़े के?"...
"हाँ!..बिना नाड़े के"...
"लेकिन वो भला किसलिए?"...
"किसलिए क्या?..अपने कैरियर के शुरुआती दिनों में हूटिंग के डर से पायजामा ढीला हो जाया करता होगा पट्ठे का..
"ओह!...तो इसका मतलब उसी के डर के मारे उसने पायजामे में नाड़े के बजाए इलास्टिक का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया?"
"और नहीं तो क्या?"...
"खैर!..हमें क्या?...नाड़े वाले सिलवाए या बिना नाड़े वाले"...
"साफ कपड़े पहनने से कोई सचमुच में अन्दर से साफ नहीं हो जाता ...रहेगा तो वो हमेशा ओछा का ओछा ही"...
"हम्म!...ये सब आईडियाज़ तो नोट कर लिए मैँने...अब?"...
"ये भी लिखना नहीं भूलना कि कैसे वो अपने ब्लॉग के रीडरस और की संख्या बढाने के लिए...
अपनी रचनाओं में सरासर सैक्स परोस रहा है"..
"मेरे ख्याल से ये लिखना ठीक नहीं रहेगा"..
"क्यों?"..
"क्योंकि...कहानी पे पकड़ बनाए रखने के लिए और ..मनोरंजन के लिहाज से कई बार
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Old 11-10-2011, 07:29 PM   #16
malethia
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ऐसा करना ज़रूरी भी होता है..मैँ खुद ऐसा कई बार कर चुका हूँ"..
"तुम तो ज़रा सा..हिंट भर ही देते हो ना?...वो तो बिलकुल ही खुल्लमखुल्ला सब कुछ कह डालने से भी नहीं चूकता"...
"पर...?...?...?.."मेरे स्वर में असमंजस था...
"एक बात गांठ बाँध लो कि हमेशा दूसरों पे कीचड उछालना ज़्यादा आसान रहता है"...
"हाँ!...ये बात तो है"...
"सो!..तुम भी बेधड़क हो के उछालो"..
"किसी ने टोक दिया तो?"...
"मुँह ना नोच लूँगी उसका?...एक मिनट...एक मिनट में सबक ना सिखा दिया तो मेरा भी नाम संजू नहीं"...
"देखती हूँ कि कौन रोकता है तुम्हें?"बीवी अपनी साड़ी संभाल ब्लाउज़ की आस्तीन ऊपर करती

हुई बोली.....
"बस बस!...ये दम खम बचा के रखो...रात को काम आएगा"मैँ शरारती हँसता हुआ बोला
"हुँह!..तुम्हारे दिमाग में तो बस हर वक्त उल्टा-पुल्टा ही चलता रहता है"...
"मैँने तो यहाँ तक सुना है कि आजकल वो नए-नए तौर तरीके अपना रहा है अपने विरोधियों पछाड़ने के लिए"...
"कौन से तौर तरीके?"..
"सभागारों में ...थिएटरों में...मीटिंगो में ...सम्मेलनों में...मंचों पर...बैठकों में...यूँ समझ लो कि हर जगह उस जगह जहाँ दो चार जानने वाले मिल जाते हैँ बस अपने विरोधियों को गालियाँ देना शुरू हो जाता है"...
"हाँ!...अगर तुम्हें शिकवे हैँ...शिकायतें हैँ तो...प्यार से...दुलार से उनका हल ढूँढो ना..ऐसे भी कहीं होहल्ले के बीच किसी के 'मोहल्ले' पर निकाली जाती है 'भड़ास'?...पता नहीं कब अकल आएगी?"...
"छोड़ो!...हमें क्या?...अच्छा है...लड़ते-भिड़ते रहें...तुम बस अपना ध्यान में मग्न हो लिखते जाओ"...
"हम्म!..
"वैसे उसका नाम ये 'घंटेश्वरनाथ बल्लमधारी' कैसे पड़ा?....बड़ा दिलचस्प और खानदानी नाम है ना?"...
"खानदानी?...अरे!...उस लावारिस को खुद नहीं पता कि वो किस खानदान का है?"..
"क्या मतलब?"...
"यूँ समझ लो कि उसकी कहानी पूरी फिल्मी है...एकदम फिल्मी"...
"कैसे?"...
"दरअसल!...हुआ क्या कि एक पुरोहित को ये मन्दिर की सीढियों पर रोता बिलखता मिल गया था"...
"ओह!...
"कोई उसे लावारिस हालत में छोड़ गया था वहाँ"..
"ओह!...
"पुजारी बेचारा...ठहरा सीधा सरल आदमी...तरस आ गया उसे और अपने पास रख लिया इसे"...
"हम्म!...
"अब ये रोज़ सुबह मन्दिर को झाड़ू-पोंछा लगा साफ सुथरा रखता और बदले में मन्दिर के चढावे में चढने वाले फल-फूल खा के अपना पेट भर लेता"..
"ओह!..और जो नकदी वगैरा चढती थी चढावे में...उसका क्या होता था?"..
"उसे?...उसे तो पुरोहित अपने पास रख लेता था...किसी को नहीं देता था...पक्का कंजूस मक्खीचूस था"..
"आगे?"...
"कुछ बड़ा हुआ तो शाम को आरती के वक्त मन्दिर का घंटा बजाने लगा"...
"तभी उसका नाम 'घंटेश्वरनाथ' पड़ गया होगा?"..
"हाँ"...
"और 'बल्लमधारी' का तखलुस्स?...वो कैसे जुड़ा इसके नाम के साथ?"..
"मंदिर में सुबह-शाम एक सज्जन आते थे अपनी बिटिया के साथ...काफी पहुँचे हुए कवि थे और...उनकी बेटी...एक उभरती शायरा"....



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Old 11-10-2011, 07:30 PM   #17
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"जब कभी भी वो खाली होते थे तो मंदिर से सटे बाग में समय बिताने को आ जाया करते थे"..
"ओ.के"...
"कई बार जब खुश होते थे तो अपनी मर्ज़ी से तन्मय होकर कविता पाठ किया करते थे"..
"ओ.के"...
"बस!...उन्हीं की संगत में रहकर ये भी कुछ-कुछ तुकबन्दी करना सीख गया"...
"ओ.के"...
"शायरी की बारीकियाँ सीखने के बहाने उसने उनकी बेटी से भी नज़दीकियाँ बढा ली और उसी के कहने पर इसने भी बाकि साहित्यकारों की तरह अपना उपनाम रखने की सोची जैसे किसी ने अपने नाम के साथ 'चोटीवाला' तखलुस्स रखा था... तो किसी ने 'चक्रधर'... किसी ने 'बेचैन'...तो किसी ने 'लुधियानवी'
"ओ.के"...
"गाँव के बिगड़ैल लठैतों के संगत में लड़ते भिड़ते बल्लम चलाना भी सीख चुका था"...
"ओ.के"...
"सो!..'बल्लमधारी' से बढिया भला और क्या नाम होता?"...
"वाह!...क्या सटीक नाम चुना है उल्लू के चरखे ने?...घंटेश्वरनाथ 'बल्लमधारी' ...वाह-वाह"...
"अरे!...ये क्या?...बातों-बातों में पता ही नहीं चला कि कब हम उसकी बुराई करते-करते अचानक उसी का गुणगान करने लगे"...
"जी"...
"ध्यान रहे!...हमारा मकसद अपनी लेखनी के जरिए उसे नीचा दिखाना है ना कि ऊँचा उठाना"..
"ओह!.. ये तो मैंने सोचा ही नहीं था"...
"तो फिर सोचो और सोच-सोच के उसके ख़िलाफ़ ऐसी-ऐसी बातें लिखो कि सब दंग रह जाएँ"...
"लेकिन क्या लिखूँ?...बहुत सोचने के बाद भी कुछ समझ ही नहीं आ रहा है" मैँ माथे पे हाथ रख कुछ सोचता हुआ बोला...
"अरे!...इसमें सोचने वाली बात क्या है?...जो भाव दिल में उमड़-घुमड़ रहे हैँ...बस...सीधे-सीधे उन्हीं को अपनी लेखनी के जरिए कागज़ पे उतारते चले जाओ"..
"मगर यार!...सब का सब झूठ लिखने से कहीं लोग ना भड़क जाएं"..
"नहीं!...बिल्कुल झूठ नहीं...थोड़ी बहुत सच्चाई तो टपकनी ही चाहिए तुम्हारी लेखनी से"...
"वोही तो"..
"लेकिन ध्यान रहे कि तारीफ में जो कुछ भी लिखना ...कमज़ोर शब्दों में लिखना...ढीले शब्दों में लिखना "...
"वो भला क्यों?"...
"ओफ्फो!...इतना भी नहीं समझते?....दोस्त नहीं...वो दुश्मन है तुम्हारा"...
"हाँ"...
"सो!...ज़्यादा तारीफ अच्छी नहीं रहेगी हमारी सेहत के लिहाज से"..
"हाँ!...ये तो है"..
"तो क्या ये भी लिख दूँ कि कभी ये घंटेश्वरनाथ एक दम गाय के माफिक भोला और सीधा हुआ करता था?"...
"ठीक है!...लिख देना"बीवी अनमने मन से हामी भरते हुए बोली
"ये भी लिखना कि कैसे वो नेताओं के साथ रह-रह के उनके दाव...पैंतरे और गुर सब सीख गया है"..
"हाँ!..ये सब तो वो जान गया है कि कैसे पब्लिक को फुद्दू बना माल कमाया जाता है"..
"इतना चालू है कि कई बार कार्यक्रम संचालन के पैसे तक नहीं लेता है"..
"पैसे नहीं लेता है?...इसलिए वो चालू हो गया?"...
"हाँ"...
"मेरे हिसाब से तो ऐसे आदमी को चालू नहीं बल्कि बेवाकूफ कहा जाता है"..



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Old 11-10-2011, 07:31 PM   #18
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"अरे!..वो सिर्फ बड़े-बड़े नेताओं और अफसरों की महफिलों को ही मुफ्त में सजाता है...बाकि सब की तो खाल उतार लेता है....लेकिन कई बार तो ताजुब्ब भी होता है जब वो मोटी-मोटी असामियों के फंक्शन भी मुफ्त में अटैंड कर लेता है"..
"अरे!...कोई ना कोई मतलब ज़रूर होता होगा इस सब के पीछे...वो तुम्हारी तरह लल्लू नहीं है जो फोकट में ही अपनी ऐसी तैसी करवाता फिरेगा"...
"पता नहीं क्या मतलब निकालता होगा इस सब का?"...
"इतने सालों तक क्या घास छीलते फिरते रहे उसके साथ?"...
"क्या मतलब?"...
"मैँ घर बैठे-बैठे सब समझ रही हूँ उसके दांव-पेंच"...
"कैसे दाव-पेंच?"..
"अरे!..जिन नेताओं की महफिलें वो मुफ्त में सजाया करता था... उन्हीं में से एक की सिफारिश के बल पर ही तो वो सरकारी कालेज में हिन्दी का प्रोफैसर नहीं बन बैठा था क्या?"..
"हाँ!..ये बात तो सही है... एक बड़े अफसर की रिकमैंडेशन पर बाद में उसे बिना किसी उचित योग्यता के पदोन्नत भी कर दिया गया था"...
"मुझे तो पहले से ही इस बात का शक था"...
"लेकिन अगर इतना सब कुछ है तो फिर इन तथाकथित मोटी असामियों की चमचागिरी करने का क्या अचौतिय है?"...
"अरे!..खोटा सिक्का कब चल जाए कुछ पता नहीं"...
"हम्म!...
"सो!...किसी को नाराज़ ना करते हुए गधों को भी बाप बना लेता है"...
"हम्म!...अब तो कई चेले भी तैयार हो गए उसके...उनमें से कुछ एक तो उभरते हुए कवि-लेखक भी हैँ....कुछ एक ने तो उसे गुरू धारण कर लिया है...वही लगे रहते हैँ उसकी सेवा-श्रुषा में"..
"मैं तो ये भी सुना है कि अब हिन्दी के उत्थान के नाम पे कई संस्थाओं का अध्यक्ष...तो कई कमेटियों का परमानैंट मैम्बर बन चुका है"...
"मैंने तो कुछ और ही सुना है उसके बारे में"...
"क्या?"..
"यही कि एक दो छोटी-मोटी संस्थाओं का चेयरमैन बनाया जा रहा था उसे लेकिन उसने साफ इनकार कर दिया...शायद...काम के बोझ की वजह से"...
"टट्टू!...काम के बोझ की वजह से?"...
"क्या मतलब?"...
"अरे!..ऐसी छोटी-मोटी ऑफरों को साफ ठुकरा देना ही बेहतर होता है क्योंकि वहाँ पैसा बनने की कोई गुंजाईश नहीं होती है"...
"हाँ!...ये बात तो है...सुना है की आजकल तो लोगों की खूब जेबें ढीली कर के अपने खीसे में नोट भर रहा है"..
"वो कैसे?"...
"कहा ना कि कई चेले तैयार कर लिए हैँ उसने अपने"..
"तो?"...
"कभी होली मिलन के नाम पर तो कभी इफ्तार पार्टी के नाम पर ये साहित्यकारों का सम्मेलन बुलवाता रहता है"..
"तो क्या हुआ?...ये तो अच्छी बात है...हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए"..
"माय फुट ...हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए"...
"अरे!...अन्दरखाते इन निजी कार्यक्रमों को गुपचुप तरीके से पलक झपकते ही सरकारी कार्यक्रम प्रोग्राम बना डालता है"...
"क्या मतलब?"..
"गूगल या याहू ग्रुपस को मेल भेज-भेज के हम जैसे नए खिलाड़ियों को किसी मीटिंग या गोष्ठी में भाग लेने के लिए इनवाईट कर डालता है"...
"तो?"...
"जहाँ एक तरफ हम लोग इस लालच में पहुँच जाते हैँ कि चलो इसी बहाने बड़े लोगों से मिलना जुलना हो जाएगा....वहीं दूसरी तरफ ये सरकार से हमारे आने के एवज में यात्रा खर्च और हमारी फीस के फर्ज़ी बिल पेश कर पैसे ऐंठ लेता है"...



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Old 12-10-2011, 04:50 PM   #19
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"ओह!...
"आजकल एक नया ही शगूफा छोड़ा हुआ है पट्ठे ने"...
"क्या?"...
"पता नहीं सरकारी अफसरों को क्या घुट्टी पिलाता है कि एक से एक टॉप का ऑडिटोरियम उसके एक इशारे पे मुफ्त में बुक हो जाता है"..
"किसलिए?"...
"वहीं पर तो हिन्दी की सेवा के नाम पे ये 'घंटेश्वरनाथ' हर महीने किसी ना किसी को पुरस्कार दिलवा रहा है"...
"ये तो बड़ी अच्छी बात है"..
"खाक!...अच्छी बात है...अंधा बाँटे रेवड़ियाँ...फिर फिर अपनों को देय"...
"क्या मतलब?"..
"हर बार अपने ही किसी खास बन्दे को कभी लैपटाप तो कभी कम्प्यूटर गिफ्ट दिलवा देता है"...
"ओह!...दूसरों को हर महीने लैपटाप दिलवा रहा है और तुम्हें कभी लालीपाप भी दिलवाने की नहीं सोची?"
"गम तो इसी बात का है"...
"इन प्रोग्रामों से नाम तो इसका होता है लेकिन जेब दूसरों की ढीली होती है"...
"दूसरों की कैसे?"...
"हर बार किसी मोटी पार्टी को चने के झाड़ पे चढा के ईनाम स्पांसर करवा डालता है...तो किसी से चाय-नाश्ते के बिल भरवा डालता है"...
"अभी हाल ही में अपने एक बेटे को 'क ख ग' फिलम्स के नाम से एक कम्पनी खुलवा दी तो दूसरे से....
साहित्य को समर्पित एक वैबसाईट लाँच करवा दी"...
"इस सब से फायदा?"...
"अरे!...वही कम्पनी उसके सभी कार्यक्रम के विडियो और स्टिल शूट करती है और उलटे सीधे बिल पेश कर सरकार को चूना लगती है"...
"ओह!...
"भुगतान तो खुद ही ने पास करना होता है सो...बिल क्लीयर होने में कोई दिक्कत भी पेश नहीं आती"...
"हम्म!...ये बात तो समझ में आ गई लेकिन वैब साईट से फायदा?"...


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Old 12-10-2011, 04:54 PM   #20
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"अरे!...दूर की सोच रहा है वो...हमारी तरह ढीला नहीं है कि जब प्यास लगे तभी कुँआ खोदने की सोचें"..
"क्या मतलब?"...
"आने वाले समय में पैसा छापने की मशीन का काम करेगी वो वैब साईट"...
"वो कैसे?"..
"रोज़ाना दुनिया भर से लाखों लोग पहुँचेगे उसकी साईट पर"..
"तो?"...
"यकीनन उनमें से कुछ बेवकूफ टाइप के भी होंगे जो बेकार की रागपट्टी सुनने के लिए शुल्क भी चुकाएंगे"...
"ओह!...
"कुछ मेरे-तेरे जैसे वेल्ले उस साईट पे आने वाली एड्स को क्लिक करके अपना भट्ठा बिठाएंगे और उन्ही के जरिए वो लाखों रुपया कमाएगा"..
"लेकिन इस काम में तो बरसों लग जाएंगे"..
"तो क्या ?...वो नहीं तो उसकी आने वाली पीड़ियाँ तो ऐश करेंगी"...
"बस यूँ समझ लो कि बढिया और उम्दा फसल के लालच में बीज डाल दिया है उसने बंजर खेत में".... "देखते हैं कि पौधा फलदायी निकलता है कि नहीं"...
"वैसे इन कार्यक्रमों में आखिर होता क्या है?"...
"खुद का एक दूसरे के द्वारा यशोगान"...
"मतलब?"..
"तू मेरी खुजा..मैं तेरी खुजाता हूँ की तर्ज पे सब लगे रहते हैँ एक दूसरे की तारीफ करने में"..
"इसका मतलब खुद ही मियाँ मिट्ठू बन रहे होते हैँ?"...
"बिलकुल.. वहाँ जब इनको या इन जैसे कइयों को सुनता हूँ तो बहुत हँसी आती

है"...
"वो किसलिए?"...
"अरे!..इस से ज़्यादा तो हमें आता है...हर बार हम नई रचना तो सुनाते हैँ कम से कम"...
"और ये?...ये क्या सुनाते हैं?"..
"हर कवि सम्मेलन में...हर मुशायरे में...हर राजनीतिक मंच पर पब्लिक डिमांड के नाम पर वही सुनाते हैँ जो बरसों पहले हिट हो चुका हो"...
"ट्रिंग ट्रिंग"..
"ओह!..इस बार तो पक्का ...उसी का फोन होगा"...
"लो!...तुम खुद ही बात कर लो"...
"न्न...नहीं"...
"इसमें घबराने की क्या बात है?...खा थोड़े ही जाएगा?...बेखौफ हो के बात करो और हाँ!...कहीं जाने के लिए बोले तो साफ मना कर देना"...
"हम्म!...
"हैलो"...
"कौन?"...
"क्या बात?...आवाज़ भी पहचाननी बन्द कर दी?"...
"ओह!...आप...मुझे लगा कि शायद कोई और है"...
"हाँ भय्यी!..बड़े लेखक बन गए हो...अब हमारी आवाज़ भला क्यों पहचानने लगे?"..
"नहीं जी!...ऐसी तो कोई बात नहीं है...आप तो मेरे गुरू हैँ...आपकी आवाज़ भला कैसे नहीं पहचानूँगा?"..
"अच्छा!...तो फिर सुनो"...
"जी"..
"कल शाम को क्या कर रहे हो?"..
"कुछ खास नहीं"...
"तो फिर ठीक पाँच बजे तालकटोरा स्टेडियम पहुँच जाना...तुमसे व्यंग्य पाठ कराना है"...
"व्यंग्य पाठ?"...
"हाँ!...व्यंग्य पाठ"...
"वो चक्रवर्ती कहाँ है?"...
"बीमार है...इसीलिए तो तुम्हें याद किया"..
"पैसे कितने मिलेंगे?"मैं मन पक्का कर के बोला...
"मिलना-मिलाना तो कुछ खास है नहीं लेकिन हाँ...तुम्हारे फेवरेट 'हल्दीराम' हलवाई के यहाँ से चाय नाश्ते का इंतज़ाम है"...
"लेकिन मैंने तो आजकल डायटिंग शुरू की हुई है"...
"तो?"...


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