My Hindi Forum

Go Back   My Hindi Forum > Art & Literature > Hindi Literature
Home Rules Facebook Register FAQ Community

Reply
 
Thread Tools Display Modes
Old 03-07-2013, 03:54 PM   #11
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन&a

(पहला अध्याय)
आठवाँ बयान

वीरेन्द्रसिंह चन्द्रकान्ता से मीठी-मीठी बातें कर रहे हैं, चपला से तेजसिंह उलझ रहे हैं, चम्पा बेचारी इन लोगों का मुँह ताक रही है। अचानक एक काला कलूटा आदमी सिर से पैर तक आबनूस का कुन्दा, लाल-लाल आँखें, लंगोटा कसे, उछलता-कूदता इस सबके बीच में आ खड़ा हुआ। पहले तो ऊपर नीचे दाँत खोल तेजसिंह की तरफ दिखाया, तब बोला, ‘‘खबरी भई राजा को तुमरी सुनो गुरुजी मेरे।” इसके बाद उछलता कूदता चला गया। जाती बार चम्पाकी टाँग पकड़ थोड़ी दूर घसीटता ले गया, आखिर छोड़ दिया। यह देख सब हैरान हो गये और डरे कि यह पिशाच कहाँ से आ गया, चम्पा बेचारी तो चिल्ला उठी मगर तेजसिंह फौरन उठ खड़े हुए और वीरेन्द्रसिंह का हाथ पकड़ के बोले, ‘‘चलो, जल्दी उठो, अब बैठने का मौका नहीं!” चन्द्रकान्ता की तरफ देखकर बोले, ‘‘हम लोगों के जल्दी चलेजाने का रंज तुम मत करना और जब तक महाराज यहाँ न आयें इसी तरह सब-की-सब बैठी रहना।”
चन्द्रकान्ता : इतनी जल्दी करने का सबब क्या है और यह कौन था जिसकी बात सुनकर भागना पड़ा?
तेजः (जल्दी से) अब बात करने का मौका नहीं रहा।
यह कहकर वीरेन्द्रसिंह को जबरदस्ती उठाया और साथ ले कमन्द के जरिए बाग के बाहर हो गये।
चन्द्रकान्ता को वीरेन्द्रसिंह का इस तरह चला जाना बहुत बुरा मालूम हुआ! आँखों में आँसू भर चपला से बोली, ‘‘यह क्या तमाशा हो गया, कुछ समझ में नहीं आता। उस पिशाच को देखकर मैं कैसी डरी, मेरे कलेजे पर हाथ रखकर देखो, अभी तक धड़धड़ा रहा है! तुमने क्या खयाल किया?”
चपला ने कहा, ‘‘कुछ ठीक समझ में नहीं आता, हाँ, इतना जरूर है कि इस समय वीरेन्द्रसिंह के यहाँ आने की खबरमहाराज को हो गई है, वे जरूर आते होंगे।”
चम्पा बोली, ‘‘ न मालूम मुए को मुझसे क्या दुश्मनी थी?”
चम्पा की बात पर चपला को हँसी आ गई मगर हैरान थी कि यह क्या खेल हो गया? थोड़ी देर तक इसी तरह की ताज्जुब भरी बातें होती रहीं, इतने में ही बाग के चारों तरफ शोरगुल की आवाजें आने लगीं। चपला ने कहा, ‘‘रंग बुरेनजर आने लगे, मालूम होता है बाग को सिपाहियों ने घेर लिया।” बात पूरी भी न होने पाई थी कि सामने महाराजआते हुए दिखाई पड़े।
देखते ही सब-की-सब उठ खड़ी हुईं। चन्द्रकान्ता ने बढ़कर पिता के आगे सिर झुकाया और कहा, ‘‘इस समयआपके एकाएक आने…!” इतना कहकर चुप हो रही। जयसिंह ने कहा, ‘‘कुछ नहीं, तुम्हें देखने को जी चाहा इसी से चले आये। अब तुम भी महल में जाओ, यहाँ क्यों बैठी हो? ओस पड़ती है, तुम्हारी तबीयत खराब हो जायगी।” यह कहकर महल की तरफ रवाना हुए।
चन्द्रकान्ता , चपला और चम्पा भी महाराज के पीछे-पीछे महल में गईं। जयसिंह अपने कमरे में आये और मन में बहुत शर्मिन्दा होकर कहने लगे, ‘‘देखो, हमारी भोली-भाली लड़की को क्रूरसिंह झूठ-मूठ बदनाम करता है। न मालूम इस नालायक के जी में क्या समाई है, बेधड़क उस बेचारी को ऐब लगा दिया, अगर लड़की सुनेगी तो क्या कहेगी? ऐसे शैतान का तो मुंह न देखना चाहिए, बल्कि सजा देनी चाहिए, जिससे फिर ऐसा कमीनापन न करे।” यह सोच हरीसिंह नामी एक चोबदार को हुक्म दिया कि बहुत जल्द क्रूर को हाजिर करे।
हरीसिंह क्रूरसिंह को खोजता हुआ और पता लगाता हूआ बाग के पास पहुँचा जहां वह बहुत से आदमियों के साथ खुशी-खुशी बाग को घेरे हुए था। हरीसिंह ने कहा, ‘‘चलिए, महाराज ने बुलाया है।” क्रूरसिंह घबरा उठा कि महाराजने क्यों बुलाया? क्या चोर नहीं मिला? महाराज तो मेरे सामने महल में चले गये थे। हरीसिंह से पूछा, ‘‘महाराज क्या कह रहे हैं?” उसने कहा, ‘‘अभी महल से आये हैं, गुस्से से भरे बैठे हैं, आपको जल्दी बुलाया है।” यह सुनते हीक्रूरसिंह की नानी मर गई। डरता काँपता हरीसिंह महाराज के पास पहुंचा।
महाराज ने क्रूरसिंह को देखते ही कहा, ‘‘क्यों बे क्रूर! बेचारी चन्द्रकान्ता को इस तरह झूठ-मूठ बदनाम करना और हमारी इज्जत में बट्टा लगाना, यही तेरा काम है? यह इतने आदमी जो बाग को घेरे हुए हैं अपने जी में क्या कहते होंगे? नालायक, गधा, पाजी, तूने कैसे कहा कि महल में वीरेन्द्र है!”
मारे गुस्से के महाराज जयसिंह के होंठ काँप रहे थे, आंखें लाल हो रही थीं। यह कैफियत देख क्रूरसिंह की तो जान सूख गई, घबरा कर बोला, ‘‘मुझको तो यह खबर नाजिम ने पहुंचाई थी जो आजकल महल के पहरे पर मुकर्रर है।” यह सुनते ही महाराज ने हुक्म दिया, ‘‘ बुलाओ नाजिम को।” थोड़ी देर में नाजिम भी हाजिर किया गया। गुस्से सेभरे हुए महाराज के मुँह से साफ आवाज नहीं निकलती थी। टूटे-फूटे शब्दों में नाजिम से पूछा, ‘‘क्यों बे, तूने कैसी खबर पहुंचाई?” उस वक्त डर के मारे उसकी क्या हालत थी, वही जानता होगा, जीने से नाउम्मीद हो चुका था, डरता हुआ बोला, ‘‘मैंने तो अपनी आंखों से देखा था हुजूर, शायद किसी तरह भाग गया होगा।”
जयसिंह से गुस्सा बर्दाश्त न हो सका, हुक्म दिया, ‘‘पचास कोड़े क्रूर को और दो सौ कोड़े नाजिम को लगाए जायें! बस इतने ही पर छोड़ देता हूँ, आगे फिर कभी ऐसा होगा तो सिर उतार लिया जायेगा। क्रूर तू वजीर होने लायकनहीं है।”
अब क्या था, लगे दो तर्फी कोड़े पड़ने। उन लोगों के चिल्लाने से महल गूंज उठा मगर महाराज का गुस्सा न गया।जब दोनों पर कोड़े पड़ चुके तो उनको महल के बाहर निकलवा दिया और महाराज आराम करने चले गये, मगरमारे गुस्से के रात भर उन्हें नींद न आई।
क्रूरसिंह और नाजिम दोनों घर आये और एक जगह बैठकर लगे झगड़ने। क्रूर नाजिम से कहने लगा, ‘‘तेरी बदौलत आज मेरी इज्जत मिट्टी में मिल गई! कल दीवान होंगे यह उम्मीद भी न रही, मार खाई उसकी तकलीफ मैं ही जानता हूँ, यह तेरी ही बदौलत हुआ!” नाजिम कहता था-‘‘मैं तुम्हारी बदौलत मारा गया, नहीं तो मुझको क्या काम था? जहन्नुम में जाती चन्द्रकान्ता और वीरेन्द्र, मुझे क्या पड़ी थी जो जूते खाता!” ये दोनों आपस में यूँ ही पहरों झगड़ते रहे।
अन्त में क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘हम तुम दोनों पर लानत है अगर इतनी सजा पाने पर भी वीरेन्द्र को गिरफ्तार न किया।”
नाजिम ने कहा, ‘‘इसमें तो कोई शक नहीं कि वीरेन्द्र अब रोज महल में आया करेगा क्योंकि इसी वास्ते वह अपना डेरा सरहद पार ले आया है, मगर अब कोई काम करने का हौसला नहीं पड़ता, कहीं फिर मैं देखूँ और खबर करने परवह दुबारा निकल जाय तो अबकी जरूर ही जान से मारा जाऊँगा।”
क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘तब तो कोई ऐसी तरकीब करनी चाहिए जिससे जान भी बचे और वीरेन्द्रसिंह को अपनी आंखों से महाराज जयसिंह महल में देख भी लें।”
बहुत देर सोचने के बाद नाजिम ने कहा, ‘‘चुनारगढ़ महाराज शिवदत्तसिंह के दरबार में एक पण्डित जगन्नाथ नामी ज्योतिषी हैं जो रमल भी बहुत अच्छा जानते हैं। उनके रमल फेंकने में इतनी तेजी है कि जब चाहो पूछ लो कि फलां आदमी इस समय कहां है, क्या कर रहा है या कैसे पकड़ा जायेगा? वह फौरन बतला देते हैं। उनको अगर मिलाया जाये और वे यहाँ आकर और कुछ दिन रहकर तुम्हारी मदद करें तो सब काम ठीक हो जाय। चुनारगढ़ यहाँ से बहुत दूर भी नहीं है, कुल तेईस कोस है, चलो हम तुम चलें और जिस तरह बन पड़े उन्हें ले आवें।”
आखिर क्रूरसिंह ने बहुत कुछ जवाहरात अपने कमर में बाँध दो तेज घोड़े मँगवा नाजिम के साथ सवार हो उसीसमय चुनार की तरफ रवाना हो गया और घर में सबसे कह गया कि अगर महाराज के यहाँ से कोई आये तो कहदेना कि क्रूरसिंह बहुत बीमार हैं।

Last edited by VARSHNEY.009; 03-07-2013 at 04:04 PM.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 03-07-2013, 04:04 PM   #12
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन&#

(पहला अध्याय)
नवाँ बयान

वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह बाग के बाहर से अपने खेमे की तरफ रवाना हुए। जब खेमे में पहुँचे तो आधी रात बीत चुकी थी, मगर तेजसिंह को कब चैन पड़ता था, वीरेन्द्रसिंह को पहुँचाकर फिर लौटे और अहमद की सूरत बना क्रूरसिंह के मकान पर पहुंचे। क्रूरसिंह चुनार की तरफ रवाना हो चुका था, जिन आदमियों को घर में हिफाजत के लिए छोड़ गया था और कह गया था कि अगर महाराज पूछें तो कह देना बीमार है, उन लोगों ने एकाएक अहमद को देखा तो ताज्जुब से पूछा, “कहो अहमद, तुम कहाँ थे अब तक?”
नकली अहमद ने कहा, “मैं जहन्नुम की सैर करने गया था, अब लौटकर आया हूँ। यह बताओ कि क्रूरसिंह कहाँ है?”
सभी ने उसको पूरा-पूरा हाल सुनाया और कहा, “अब चुनार गये हैं, तुम भी वहीं जाते तो अच्छा होता!”
अहमद ने कहा, “हाँ मैं भी जाता हूँ, अब घर न जाऊंगा। सीधे चुनार ही पहुंचता हूँ।”
यह कह वहाँ से रवाना हो अपनेखेमे में आये और वीरेन्द्रसिंह से सब हाल कहा। बाकी रात आराम किया, सवेरा होते ही नहा-धो, कुछ भोजन कर, सूरत बदल, विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। नंगे सिर, हाथ-पैर, मुँह पर धूल डाले, रोते-पीटते महाराज जयसिंह केदरबार में पहुँचे। इनकी हालत देखकर सब हैरान हो गये।
महाराज ने मुंशी से कहा, “पूछो, कौन है और क्या कहताहै?”
तेजसिंह ने कहा-”हुजूर मैं क्रूरसिंह का नौकर हूँ, मेरा नाम रामलाल है। महाराज से बागी होकर क्रूरसिंह चुनारगढ़ के राजा के पास चला गया है। मैंने मना किया कि महाराज का नमक खाकर ऐसा न करना चाहिए, जिस पर मुझको खूब मारा और जो कुछ मेरे पास था सब छीन लिया। हाय रे, मैं बिल्कुल लुट गया, एक कौड़ी भी नहीं रही, अब क्या खाऊँगा, घर कैसे पहुंचूंगा, लड़के-बच्चे तीन बरस की कमाई खोजेंगे, कहेंगे कि रजवाड़े की क्या कमाई लाये हो? उनको क्या दूंगा! दुहाई महाराज की, दुहाई! दुहाई!!”
बड़ी मुश्किल से सभी ने उसे चुप कराया। महाराज को बड़ा गुस्सा आया, हुक्म दिया, “क्रूरसिंह कहाँ है?”
चोबदारखबर लाया-”बहुत बीमार हैं, उठ नहीं सकते।”
रामलाल (तेजसिंह) दुहाई महाराज की! यह भी उन्हीं की तरफमिल गया, झूठ बोलता है! मुसलमान सब उसके दोस्त हैं; दुहाई महाराज की! खूब तहकीकात की जाय!”
महाराज ने मुंशी से कहा, “तुम जाकर पता लगाओ कि क्या मामला है?”
थोड़ी देर बाद मुंशी वापस आये औऱ बोले, “महाराज क्रूरसिंह घर पर नहीं है, और घरवाले कुछ बताते नहीं कि कहाँ गये हैं।”
महाराज ने कहा, “जरूर चुनारगढ़ गया होगा। अच्छा, उसके यहाँ के किसी प्य़ादे को बुलाओ।”
हुक्म पाते ही चोबदार गया और बदकिस्मतप्यादे को पकड़ लाया।
महाराज ने पूछा, “क्रूरसिंह कहाँ गया है?”
प्यादे ने ठीक पता नहीं दिया।
राम लाल ने फिरकहा, “दुहाई महाराज की, बिना मार खाये न बताएगा!”
महाराज ने मारने का हुक्म दिया। पिटने के पहले ही उसबदनसीब ने बतला दिया कि चुनार गये हैं।
महाराज जयसिंह को क्रूर का हाल सुनकर जितना गुस्सा आया बयान के बाहर है। हुक्म दिया-
(1) क्रूरसिंह के घर के सब औरत-मर्द घण्टे भर के अन्दर जान बचाकर हमारी सरहद के बाहर हो जायें।
(2) उसका मकान लूट लिया जाये।
(3) उसकी दौलत में से जितना रुपया रामलाल उठा ले जा सके, ले जाये, बाकी सरकारी खजाने में दाखिल कियाजाये।
(4) रामलाल अगर नौकरी कबूल करे तो दी जाये।
हुक्म पाते ही सबसे पहले रामलाल क्रूरसिंह के घर पहुंचा। महाराज के मुंशी को जो हुक्म तामील करने गया था, रामलाल ने कहा, “पहले मुझको रुपये दे दो कि उठा ले जाऊँ और महाराज को आशीर्वाद करूँ। बस, जल्दी दो, मुझ गरीब को मत सताओ!”
मुंशी ने कहा, “अजब आदमी है, इसको अपनी ही पड़ी है! ठहर जा, जल्दी क्यों करता है!”
नकली रामलाल ने चिल्लाकर कहना शुरू किया, “दुहाई महाराज की, मेरे रुपये मुंशी नहीं देता।” कहता हुआ महाराज की तरफ चला।
मुंशी ने कहा, “ले लो, जाते कहाँ हो, भाई पहले इसको दे दो!”
रामलाल ने कहा, “हत्त तेरे की, मैं चिल्लाता नहीं तो सभी रुपये डकार जाता!”
उस पर सब हँस पड़े। मुंशी ने दो हजार रुपये आगे रखवा दिया और कहा, “ले, ले जा!”
रामलाल ने कहा, “वाह, कुछ याद है! महाराज ने क्या हुक्मदिया है? इतना तो मेरी जेब में आ जायेगा, मैं उठा के क्या ले जाऊंगा?”
मुंशी झुँझला उठा, नकली रामलाल को खजाने के सन्दूक के पास ले जाकर खड़ा कर दिया और कहा, “उठा, देखें कितना उठाता है?”
देखते-देखते उसने दस हजार रुपये उठा लिये। सिर पर, बटुए में, कमर में, जेब में, यहां तक कि मुँह में भी कुछ रुपये भर लिये और रास्ता लिया। सब हँसने और कहने लगे, “आदमी नहीं, इसे राक्षस समझना चाहिए!”
महाराज के हुक्म की तामील की गई, घर लूट लिया गया, औरत-मर्द सभी ने रोते-पीटते चुनार का रास्ता पकड़ा।
तेजसिंह रुपया लिये हुए वीरेन्द्रसिंह के पास पहुँचे औऱ बोले, “आज तो मुनाफा कमा लाये, मगर यार माल शैतान का है, इसमें कुछ आप भी मिला दीजिए जिससे पाक हो जाये!”
वीरेन्द्रसिंह ने कहा, “यह तो बताओ कि लाये कहाँसे?”
उन्होंने सब हाल कहा। वीरेन्द्रसिंह ने कहा, “जो कुछ मेरे पास यहाँ है मैंने सब दिया!”
तेजसिंह ने कहा, “मगर शर्त यह है कि उससे कम न हो, क्योंकि आपका रुतबा उससे कहीं ज्यादा है।”
वीरेन्द्रसिंह ने कहा, “तो इस वक्त कहाँ से लायें?”
तेजसिंह ने जवाब दिया, “तमस्सुक लिख दो!”
कुमार हँस पड़े और उँगली से हीरे की अंगूठी उतारकर दे दी। तेजसिंह ने खुश होकर ले ली औऱ कहा, “परमेश्वर आपकी मुराद पूरी करे। अब हम लोगों को भी यहाँ से अपने घर चले चलना चाहिए क्योंकि अब मैं चुनार जाऊँगा, देखूँ शैतान का बच्चा वहाँ क्या बन्दोबस्त कररहा है।”
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 03-07-2013, 04:05 PM   #13
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन&#

(पहला अध्याय)
दसवाँ बयान

क्रूरसिंह की तबाही का हाल शहर भर में फैल गया। महारानी ऱत्नगर्भा (चन्द्रकान्ता की माँ) और चन्द्रकान्ता इन सभी ने भी सुना। कुमारी और चपला को बड़ी खुशी हुई। जब महाराज महल में गये तो हँसी-हँसी में महारानी ने क्रूरसिंह का हाल पूछा। महाराज ने कहा, वह बड़ा बदमाश तथा झूठा था, मुफ्त में लड़की को बदनाम करता था।”
महारानी ने बात छेड़कर कहा, “आपने क्या सोचकर वीरेन्द्र का आना-जाना बन्द कर दिया! देखिए यह वही वीरेन्द्र है जो लड़कपन से, जब चन्द्रकान्ता पैदा भी नहीं हुई थी, यहीं आता और कई-कई दिनों तक रहा करता था। जब यह पैदा हुई तो दोनों बराबर खेला करते और इसी से इन दोनों की आपस की मुहब्बत भी बढ़ गई। उस वक्त यह भी नहीं मालूम होता था कि आप और राजा सुरेन्द्रसिंह कोई दो हैं या नौगढ़ या विजयगढ़ दो रजवाड़े हैं। सुरेन्द्रसिंह भी बराबर आप ही के कहे मुताबिक चला करते थे। कई बार आप कह भी चुके थे कि चन्द्रकान्ता की शादी वीरेन्द्र के साथ कर देनी चाहिए। ऐसे मेल-मुहब्बत और आपस के बनाव को उस दुष्ट क्रूर ने बिगाड़ दिया और दोनों के चित्त में मैल पैदा कर दिया!”
महाराज ने कहा, “मैं हैरान हूँ कि मेरी बुद्धि को क्या हो गया था। मेरी समझ पर पत्थर पड़ गये! कौन-सी बात ऐसी हुई जिसके सबब से मेरे दिल से वीरेन्द्रसिंह की मुहब्बत जाती रही। हाय, इस क्रूरसिंह ने तो गजब ही किया। इसके निकल जाने पर अब मुझे मालूम होता है।”
महारानी ने कहा, “देखें, अब वह चुनार में जाकर क्या करता है?
“जरूर महाराज शिवदत्त को भड़ाकायेगा और कोई नया बखेड़ा पैदा करेगा। महाराज ने कहा, “खैर, देखा जायेगा, परमेश्वर मालिक है, उस नालायक ने तो अपनी भरसक बुराई में कुछ भी कमी नहीं की।”
यह कह कर महाराज महल के बाहर चले गये। अब उनको यह फिक्र हुई कि किसी को दीवान बनाना चाहिए नहीं तो काम न चलेगा। कई दिन तक सोच-विचारकर हरदयालसिंह नामी नायब दीवान को मंत्री की पदवी और खिलअत दी। यह शख्स बड़ा ईमानदार, नेकबख्त, रहमदिल और साफ तबीयत का था, कभी किसी का दिल उसने नहींदुखाया।
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 03-07-2013, 04:05 PM   #14
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन&#

(पहला अध्याय)
ग्यारहवाँ बयान

क्रूरसिंह को बस एक यही फिक्र लगी हुई थी कि जिस तरह बने वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह को मार डालना ही नहीं चाहिए, बल्कि नौगढ़ का राज्य ही गारत कर देना चाहिए। नाजिम को साथ लिए चुनार पहुँचा और शिवदत्त के दरबार में हाजिर होकर नजर दिया। महाराज इसे बखूबी जानते थे इसलिए नजर लेकर हाल पूछा। क्रूरसिंह ने कहा, “महाराज, जो कुछ हाल है मैं एकान्त में कहूंगा।”
दरबार बर्खास्त हुआ, शाम को तखलिए (एकान्त) में महाराज ने क्रूर को बुलाया और हाल पूछा। उसने जितनी शिकायत महाराज जयसिंह की करते बनी, की, और यह भी कहा कि-”लश्कर का इन्तजाम आजकल बहुत खराब है, मुसलमान सब हमारे मेल में हैं, अगर आप चाहें तो इस समय विजयगढ़ को फतह कर लेना कोई मुश्किल बात नहीं है। चन्द्रकान्ता महाराज जयसिंह की लड़की भी जो खूबसूरती में अपना कोई सानी नहीं रखती, आप ही के हाथ लगेगी।”
ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें कह उसने महाराज शिवदत्त को उसने पूरे तौर से भड़काया। आखिर महाराज ने कहा, “हमको लड़ने की अभी कोई जरूरत नहीं, पहले हम अपने ऐयारों से काम लेंगे फिर जैसा होगा देखा जाएगा। मेरे यहाँ छः ऐयार हैं जिनमें से चार ऐयारों के साथ पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी को तुम्हारे साथ कर देते हैं। इन सभी को लेकर तुम जाओ, देखो तो ये लोग क्या करते हैं। पीछे जब मौका होगा हम भी लश्कर लेकर पहुँच जायेंगे।”
उन ऐयारों के नाम थे- पण्डित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण, भगवानदत्त और घसीटासिंह। महाराज ने पण्डित बद्रीनाथ, रामनारायण, और भगवान दत्त इन चारों को जो मुनासिब था कहा और इन लोगों को क्रूरसिंह के हवाले किया।
अभी ये लोग बैठे ही थे कि एक चोबदार ने आकर अर्ज किया, “महाराज ड्योढ़ी पर कई आदमी फरियादी खड़े हैं, कहते हैं हम लोग क्रूरसिंह के रिश्तेदार हैं, इनके चुनार जाने का हाल सुनकर महाराज जयसिंह ने घर-बार लूट लिया और हम लोगों को निकाल दिया। उन लोगों के लिए क्या हुक्म होता है?”
यह सुनकर क्रूरसिंह के होश उड़ गये। महाराज शिवदत्त ने सभी को अन्दर बुलाया और हाल पूछा। जो कुछ हुआ था उन्होंने बयान किया! इसके बाद क्रूरसिंह और नाजिम की तरफ देखकर कहा, “अहमद भी तो आपके पास आया है!”
नाजिम ने पूछा, “अहमद! वह कहाँ है? यहाँ तो नहीं आया!”
सभी ने कहा, “वाह, वहाँ तो घर पर गया था और यह कहकर चला गया कि मैं भी चुनार जाता हूँ!”
नाजिम ने कहा, “बस मैं समझ गया, वह जरूर तेजसिंह होगा इसमें कोई शक नहीं! उसी ने महाराज को भी खबर पहुंचाई होगी, यह सब फसाद उसी का है!”
यह सुन क्रूरसिंह रोने लगा। महाराज शिवदत्त ने कहा, “जो होना था सो हो गया, सोच मत करो। देखो इसका बदला जयसिंह से मैं लेता हूँ। तुम इसी शहर में रहो, हमाम के सामने वाला मकान तुम्हें दिया जाता है, उसी में अपने कुटुम्ब को रक्खो, रुपये की मदद सरकार से हो जायेगी। क्रूरसिंह ने महाराज के हुक्म के मुताबिक उसी मकान में डेरा जमाया।”
कई दिन बाद दरबार में हाजिर होकर क्रूरसिंह ने महाराज से विजयगढ़ जाने के लिए अर्ज किया। सब इन्तजाम हो ही चुका था, महाराज ने मय चारों ऐयार और पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी के साथ क्रूरसिंह और नाजिम को विदा किया। ऐयार लोग भी अपने-अपने सामान से लैस हो गये। कई तरह के कपड़े लिए। बटुआ ऐयारी का अपने-अपने कन्धे से लटका लिया, खंजर बगल में लिया। ज्योतिषीजी ने भी पोथी-पत्रा आदि और कुछ ऐयारी का सामान ले लिया क्योंकि वह थोड़ी-बहुत ऐयारी भी जानते थे। अब यह शैतान का झुण्ड विजयगढ़ की तरफ रवाना हुआ। इन लोगों का इरादा नौगढ़ जाने का भी था। देखिए कहाँ जाते हैं और क्या करते हैं?
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 03-07-2013, 04:06 PM   #15
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन&#

(पहला अध्याय)
बारहवाँ बयान

वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह नौगढ़ के किले के बाहर निकल बहुत से आदमियों को साथ लिये चन्द्रप्रभा नदी के किनारे बैठ शोभा देख रहे थे। एक तरफ से चन्द्रप्रभा दूसरी तरफ से करमनाशा नदी बहती हुई आई है और किले के नीचे दोनों का संगम हो गया है। जहाँ कुमार और तेजसिंह बैठे हैं, नदी बहुत चौड़ी है और उस पर साखू का बड़ा भारी जंगल है जिसमें हजारों मोर तथा लंगूर अपनी-अपनी बोलियों और किलकारियों से जंगल की शोभा बढ़ा रहे हैं। कुँवर वीरेन्द्रसिंह उदास बैठे हैं, चन्द्रकान्ता के बिरह में मोरों की आवाज तीर-सी लगती है, लंगूरों की किलकारी वज्र-सी मालूम होती है, शाम की धीमी-धीमी ठंडी हवा लू का काम करती है। चुपचाप बैठे नदी की तरफ देख ऊंची सांस ले रहे हैं।
इतने में एक साधु रामरज से रंगी हुई कफनी पहने, रामनन्दी तिलक लगाये हाथ में खँजरी लिए कुछ दूर नदी के किनारे बैठा यह गाता हुआ दिखाई पड़ा-
“गये चुनार क्रूर बहुरंगी लाये चारचितारी।
संग में उनके पण्डित देवता, जो हैं सगुन बिचारी।।
इनसे रहना बहुत संभल के रमल चले अति कारी।
क्या बैठे हो तुम बेफिकरे, काम करो कोई भारी।।
यह आवाज कान में पड़ते ही तेजसिंह ने गौर से उस तरफ देखा। वह साधु भी इन्हीं की तरफ मुँह करके गा रहा था। तेजसिंह को अपनी तरफ देखते दाँत निकालकर दिखला दिये और उठ के चलता बना।
वीरेन्द्रसिंह अपनी चन्द्रकान्ता के ध्यान में डूबे हैं, उनको इन सब बातों की कोई खबर नहीं। वे नहीं जानते कि कौन गा रहा है या किधर से आवाज आ रही है। एकटक नदी की तरफ देख रहे हैं। तेजसिंह ने बाजू पकड़ कर हिलाया। कुमार चौंक पड़े।
तेजसिंह ने धीरे से पूछा, “कुछ सुना?”
कुमार ने कहा, “क्या? नहीं तो कहो!”
“उठिए अपनी जगह पर चलिए, जो कुछ कहना है वहीं एकान्त में कहेंगे!” वीरेन्द्रसिंह सम्हल गये और उठ खड़े हुए। दोनों आदमी धीरे-धीरे किले में आये और अपने कमरे में जाकर बैठे।
अब एकान्त है, सिवाय इन दोनों के इस समय इस कमरे में कोई नहीं है।
वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह से पूछा, “कहो क्या कहने को थे?”
तेजसिंह ने कहा, “सुनिए, यह तो आपको मालूम हो ही चुका है कि क्रूरसिंह महाराज शिवदत्त से मदद लेने चुनार गया है, अब उसके वहाँ जाने का क्या नतीजा निकला वह भी सुनिए! वहाँ से शिवदत्त ने चार ऐयार और एक ज्योतिषी को उनके साथ कर दिया है। वह ज्योतिषी बहुत अच्छा रमल फेंकता है, नाजिम पहले से उसके साथ है। अब इन लोगों की मण्डली भारी हो गई, ये लोग कम फसाद नहीं करेंगे, इसीलिए मैं अर्ज करता हूँ कि आप सम्हले रहिये। मैं अब काम की फिक्र में जाता हूँ, मुझे यकीन है कि उन ऐयारों में से कोई-न-कोई जरूर इस तरफ भी आवेगा और आपको फँसाने की कोशिश करेगा। आप होशियार रहियेगा और किसी के साथ कहीं न जाइएगा, न किसी का दिया कुछ खाइएगा, बल्कि इत्र, फूल वगैरह भी कुछ कोई दे तो न सूँघिएगा और इस बात का भी खयाल रखिएगा कि मेरी सूरत बना के भी वे लोग आवें तो ताज्जुब नहीं। इस तरह आप मुझको पहचान लीजिएगा, देखिए मेरी आँख के अन्दर, नीचे की तरफ यह एक तिल है जिसको कोई नहीं जानता। आज से लेकर दिल में चाहे जितनी बार जब भी मैं आपके पास आया करूँगा इस तिल को छिपे तौर से दिखला कर अपना परिचय आपको दिया करूँगा। अगर यह काम मैं न करूँ तो समझ लीजिएगा कि धोखा है।”
और भी बहुत-सी बातें तेजसिंह ने समझाईं जिनको खूब गौर के साथ कुमार ने सुना और तब पूछा, “तुमको कैसे मालूम हुआ कि चुनार से इतनी मदद इसको मिली है?”
तेजसिंह ने कहा, “किसी तरह मुझको मालूम हो गया, उसका हाल भी कभी आप पर जाहिर हो जायेगा, अब मैं रुखसत होता हूँ, राजा साहब या मेरे पिता मुझे पूछें तो जो मुनासिब हो सो कह दीजिएगा।
पहर रात रहे तेजसिंह ऐयारी के सामान से लैस होकर वहाँ से रवाना हो गये।
चपला बालादवी के लिए मर्दाने भेष में शहर से बाहर निकली। आधी रात बीत गई थी। साफ छिटकी हुई चाँदनी देख एकाएक जी में आया कि नौगढ़ चलूं और तेजसिंह से मुलाकात करूं। इसी खयाल से कदम बढ़ाये नौगढ़ की तरफ चली। उधर तेजसिंह अपनी असली सूरत में ऐयारी के सामान से सजे हुए विजयगढ़ की तरफ चले आ रहे थे। इत्तिफाक से दोनों की रास्ते ही में मुलाकात हो गयी। चपला ने पहिचान लिया और नजदीक जाकर, “असली बोली में पूछा, “कहिए आप कहाँ जा रहे हैं?”
तेजसिंह ने बोली से चपला को पहचाना और कहा, “वाह! वाह!! क्या मौके पर मिल गईं! नहीं तो मुझे बड़ा तरद्दुद तुमसे मिलने के लिए करना पड़ता क्योंकि-बहुत-सी जरूरी बातें कहनी थीं, आओ इस जगह बैठो।”
एक साफ पत्थर की चट्टान पर दोनों बैठ गये। चपला ने कहा, “कहो वह कौन-सी बातें हैं?”
तेजसिंह ने कहा, “सुनो, यह तो तुम जानती ही हो कि क्रूर चुनार गया है। अब वहाँ का हाल सुनो, चार ऐयार और एक पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी को महाराज शिवदत्त ने मदद के लिए उसके संग कर दिया है और वे लोग यहाँ पहुँच गये हैं। उनकी मण्डली अब भारी हो गई और इधर हम तुम दो ही हैं, इसलिए अब हम दोनों को बड़ी होशियारी करनी पड़ेगी। वे ऐयार लोग महाराज जयसिंह को भी पकड़ ले जायें तो ताज्जुब नहीं, चन्द्रकान्ता के वास्ते तो आये ही हैं, इन्हीं सब बातों से तुम्हें होशियार करने मैं चला था।”
चपला ने पूछा, “फिर अब क्या करना चाहिए?”
तेजसिंह ने कहा, “एक काम करो, मैं हरदयालसिंह नये दीवान को पकड़ता हूँ और उसकी सूरत बनाकर दीवान का काम करूँगा। ऐसा करने से फौज और सब नौकर हमारे हुक्म में रहेंगे और मैं बहुत कुछ कर सकूँगा। तुम भी महल में होशियारी के साथ रहा करना और जहाँ तक हो सके एक बार मुझसे मिला करना। मैं दीवान तो बना रहूंगा ही, मिलना कुछ मुश्किल न होगा, बराबर असली सूरत में मेरे घर अर्थात् हरदयालसिंह के यहाँ मिला करना, मैं उसके घर में भी उसी की तरह रहा करूँगा।”
इसके अलावा और भी बहुत-सी बातें तेजसिंह ने चपला को समझाईं! थोड़ी देर तक चुहल रही इसके बाद चपला अपने महल की तरफ रुखसत हुई। तेजसिंह ने बाकी रात उसी जंगल में काटी और सुबह होते ही अपनी सूरत एक गन्धी की बना कई शीशी इत्र को कमर और दो-एक हाथ में ले विजयगढ़ की गलियों में घूमने लगे। दिन-भर इधर-उधर फिरते रहे, शाम के वक्त मौका देख हरदयालसिंह के मकान पर पहुँचे। देखा दीवान साहब लेटे हुए हैं और दो-चार दोस्त सामने बैठे गप्पें उड़ा रहे हैं। बाहर-भीतर खूब सन्नाटा है।
तेजसिंह इत्र की शीशियाँ लिए सामने पहुँचे और सलाम कर बैठ गये, तब कहा, “लखनऊ का रहने वाला गन्धी हूँ, आपका नाम सुनकर आप ही के लायक अच्छे-अच्छे इत्र लाया हूँ!” यह कह शीशी खोल फाहा बनाने लगे। हरदयालसिंह बहुत रहमदिल आदमी थे, इत्र सूँघने लगे और फाहा सूँघ-सूँघ अपने दोस्तों को भी देने लगे। थोड़ी देर में हरदयालसिंह और उसके सब दोस्त बेहोश होकर जमीन पर लेट गये। तेजसिंह ने सभी को उसी तरह छोड़ हरदयालसिंह की गठरी बाँध पीठ पर लादी और मुंह पर कपड़ा ओढ़ नौगढ़ का रास्ता लिया, राह में अगर कोई मिला भी तो धोबी समझ कर न बोला।
शहर के बाहर निकल गये औऱ बहुत तेजी के साथ चल कर उस खोह में पहुंचे जहाँ अहमद को कैद किया था। किवाड़ खोलकर अन्दर गये और दीवान साहब को उसी तरह बेहोश वहाँ रख अंगूठी मोहर की उनकी उँगली से निकाल ली, कपड़े भी उतार लिये औऱ बाहर चले आये। बेड़ी डालने और होश में लाने की कोई जरूरत न समझी। तुरन्त लौट विजयगढ़ आ हरदयालसिंह की सूरत बना कर उसके घर पहुँचे।
इधर दीवान साहब के भोजन करने का वक्त आ पहुँचा। लौंडी बुलाने आई, देखा कि दीवान साहब तो हैं नहीं, उनके चार-पाँच दोस्त गाफिल पड़े हैं। उसे बड़ा ताज्जुब हुआ और एकाएक चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुन नौकर और प्यादे आ पहुँचे तथा यह तमाशा देख हैरान हो गये, दीवान साहब को इधर-उधर ढूँढ़ा मगर कहीं पता न लगा।
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 03-07-2013, 04:07 PM   #16
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन&#

(पहला अध्याय)
तेरहवाँ बयान

तीन पहर रात गुजर गई, उनके सब दोस्त जो बेहोश पड़े थे वह भी होश में आये मगर अपनी हालत देख-देख हैरान थे। लोगों ने पूछा, “आप लोग कैसे बेहोश हो गये और दीवान साहब कहाँ हैं?” उन्होंने कहा, “एक गंधी इत्र बेचने आया था जिसका इत्र सूँघते-सूँघते हम लोग बेहोश हो गये, अपनी खबर न रही। क्या जाने दीवान साहब कहाँ हैं? इसी से कहते हैं कि अमीरों की दोस्ती में हमेशा जान की जोखिम रहती है। अब कान उमेठते हैं कि कभी अमीरों का संग न करेंगे!”
ऐसी-ऐसी ताज्जुब भरी बातें हो रही थीं और सवेरा हुआ ही चाहता था कि सामने से दीवान हरदयालसिंह आते दिखाई पड़े जो दरअसल श्री तेजसिंह बहादुर थे। दीवान साहब को आते देख सभी ने घेर लिया और पूछने लगे कि ‘आप कहाँ गये थे? दोस्तों ने पूछा, “वह नालायक गंधी कहाँ गया और हम लोग बेहोश कैसे हो गये?”
दीवान साहब ने कहा, “वह चोर था, मैंने पहचान लिया। अच्छी तरह से उसका इत्र नहीं सूँघा, अगर सूँघता तो तुम्हारी तरह मैं भी बेहोश हो जाता। मैंने उसको पहचान कर पकड़ने का इरादा किया तो वह भागा, मैं भी गुस्से में उसके पीछे चला गया लेकिन वह निकल ही गया, अफसोस….!”
इतने में लौंडी ने अर्ज किया, “कुछ भोजन कर लीजिए, सब-के-सब घर में भूखे बैठे हैं, इस वक्त तक सभी को रोते ही गुजरा!”
दीवान साहब ने कहा, “अब तो सवेरा हो गया, भोजन क्या करूँ? मैं थक भी गया हूँ, सोने को जी चाहता है।” यह कह कर पलंग पर जा लेटे, उनके दोस्त भी अपने घर चले गये।
सवेरे मामूल के मुताबिक वक्त पर दरबारी पोशाक पहन गुप्त रीति से ऐयारी का बटुआ कमर में बाँध दरबार की तरफ चले। दीवान साहब को देख रास्ते में बराबर दोपट्टी लोगों में हाथ उठने लगे, वह भी जरा-जरा सिर हिला सभी के सलामों का जवाब देते हुए कचहरी में पहुँचे। महाराज अब नहीं आये थे, तेजसिंह हरदयालसिंह की खसलत से वाकिफ थे। उन्हीं के मामूल के मुताबिक वह भी दरबार में दीवान की जगह बैठ काम करने लगे, थोड़ी देर में महाराज भी आ गये।
दरबार में मौका पाकर हरदयालसिंह धीरे-धीरे अर्ज करने लगे, “महाराजाधिराज, ताबेदार को पक्की खबर मिली है कि चुनार के राजा शिवदत्तसिंह ने क्रूरसिंह की मदद की है और पाँच ऐयार साथ करके सरकार से बेअदबी करने के लिए इधर रवाना किया है, बल्कि यह भी कहा है कि पीछे हम भी लश्कर लेकर आयेंगे। इस वक्त बड़े तरद्दुद का सामना है क्योंकि सरकार में आजकल कोई ऐयार नहीं, नाजिम और अहमद थे सो वे भी क्रूर के साथ हैं, बल्कि सरकार के यहाँ वाले मुसलमान भी उसी तरफ मिले हुए हैं। आजकल वे ऐयार जरूर सूरत बदलकर शहर में घूमते और बदमाशी की फिक्र करते होंगे।”
महाराज जयसिंह ने कहा, “ठीक है, मुसलमानों का रंग हम भी बेढब देखते हैं। फिर तुमने क्या बन्दोबस्त किया?”
धीरे-धीरे महाराज और दीवान की बातें हो रही थीं कि इतने में दीवान साहब की निगाह एक चोबदार पर पड़ी जो दरबार में खड़ा छिपी निगाहों से चारों तरफ देख रहा था। वे गौर से उसकी तरफ देखने लगे। दीवान साहब को गौर से देखते हुए-पा वह चोबदार चौकन्ना हो गया और कुछ सम्हल गया। बात छोड़ कड़क के दीवान साहब ने कहा, “पकड़ो उस चोबदार को!” हुक्म पाते ही लोग उसकी तरफ बढ़े, लेकिन वह सिर पर पैर रखकर ऐसा भागा कि किसी के हाथ न लगा। तेजसिंह चाहते तो उस ऐयार को जो चोबदार बनके आया था पकड़ लेते, मगर इनको तो सब काम बल्कि उठना-बैठना भी उसी तरह से करना था जैसा हरदयालसिंह करते थे, इसलिए वह अपनी जगह से न उठे। वह ऐयार भाग गया जो चोबदार बना हुआ था, जो लोग पकड़ने गये थे वापस आ गये।
दीवान साहब ने कहा, “महाराज देखिए, जो मैंने अर्ज किया था औऱ जिस बात का मुझको डर था वह ठीक निकली।’ महाराज को यह तमाशा देखकर खौफ हुआ , जल्दी दरबार बर्खास्त कर दीवान को साथ ले तखलिए में चले गये। जब बैठे तो हरदयालसिंह से पूछा “क्यों जी अब क्या करना चाहिए? उस दुष्ट क्रूर ने तो एक बड़े भारी को हमारा दुश्मन बनाकर उभारा है। महाराज शिवदत्त की बराबरी हम किसी तरह भी नहीं कर सकते।”
दीवान साहब ने कहा, “महाराज, मैं फिर अर्ज करता हूँ कि हमारे सरकार में इस समय कोई ऐयार नहीं, नाजिम और अहमद थे सो क्रूर ही की तरफ जा मिले, ऐयारों का जवाब बिना ऐयार के कोई नहीं दे सकता। वे लोग बड़े चालाक और फसादी होते हैं, हजार-पाँच सौ की जान ले लेना उन लोगों के आगे कोई बात नहीं है, इसलिए जरूर कोई ईमानदार ऐयार मुकर्रर करना चाहिए, पर यह भी एकाएक नहीं हो सकता। सुना है राजा सुरेन्द्रसिंह के दीवान का लड़का तेजसिंह बड़ा भारी ऐयार निकला है, मैं उम्मीद करता हूँ कि अगर महाराज चाहेंगे और तेजसिंह को मदद के लिए माँगेंगे तो राजा सुरेन्द्रसिंह को देने में कोई उज्र न होगा क्योंकि वे महाराज को दिल से चाहते हैं। क्या हुआ अगर महाराज ने वीरेन्द्रसिंह का आना-जाना बन्द कर दिया, अब भी राजा सुरेन्द्रसिंह का दिल महाराज की तरफ से वैसा ही है जैसा पहले था।”
हरदयालसिंह की बात सुन के थोड़ी देर महाराज गौर करते रहे फिर बोले, “तुम्हारा कहना ठीक है, सुरेन्द्रसिंह और उनका लड़का वीरेन्द्रसिंह दोनों बड़े लायक है। इसमें कुछ शक नहीं कि वीरेन्द्रसिंह वीर है और राजनीति भी अच्छी तरह जानता है, हजार सेना लेकर दस हजार से लड़ने वाला है और तेजसिंह की चालाकी में भी कोई शक नहीं, जैसा तुम कहते हो वैसा ही है। मगर मुझसे उन लोगों के साथ बड़ी ही बेमुरव्वती हो गई है जिसके लिए मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ, मुझे उसने मदद माँगते शर्म मालूम होती है, इसके अलावा क्या जाने उनको मेरी तरफ से रंज हो गया हो, हाँ, तुम जाओ और उनसे मिलो। अगर मेरी तरफ से कुछ मलाल उनके दिल में हो तो उसे मिटा दो और तेजसिंह को लाओ तो काम चले।”
हरदयालसिंह ने कहा, “बहुत अच्छा महाराज, मैं खुद ही जाउँगा और इस काम को करूँगा। महाराज ने अपनी मोहर लगाकर एक मुख्तसर चिट्ठी अपने हाथ से लिखी और अंगूठी की मोहर लगाकर उनके हवाले किया।”
हरदयालसिंह महाराज से विदा हो अपने घर आये और अन्दर जनाने में न जाकर बाहर ही रहे, खाने को वहाँ ही मँगवाया। खा-पीकर बैठे और सोचने लगे कि चपला से मिल के सब हाल कह लें तो जायें। थोड़ा दिन बाकी था जब चपला आई। एकान्त में ले जाकर हरदयालसिंह ने सब हाल कहा और वह चिट्ठी भी दिखाई जो महाराज ने लिख दी थी। चपला बहुत ही खुश हुई और बोली, “हरदयालसिंह तुम्हारे मेल में आ जायेगा, वह बहुत ही लायक है। अब तुम जाओ, इस काम को जल्दी करो।” चपला तेजसिंह की चालाकी की तारीफ करने लगी, अब वीरेन्द्रसिंह से मुलाकात होगी यह उम्मीद दिल में हुई।
नकली हरदयालसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए, रास्ते में अपनी सूरत असली बना ली।
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 03-07-2013, 04:08 PM   #17
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन&#

(पहला अध्याय)
चौदहवाँ बयान

नौगढ़ और विजयगढ़ का राज पहाड़ी है, जंगल भी बहुत भारी और घना है, नदियाँ चन्द्रप्रभा और कर्मनाशा घूमती हुईं इन पहाड़ों पर बहती हैं। जा-बजा खोह और दर्रे पहाड़ों में बड़े खूबसूरत कुदरती बने हुए हैं। पेड़ों में साखू, तेंदू, विजयसार, सनई, कोरया, गो, खाजा, पेयार, जिगना, आसन आदि के पेड़ हैं। इसके अलावा पारिजात के पेड़ भी हैं। मील-भर इधर-उधर जाइए तो घने जंगल में फँस जाइएगा! कहीं रास्ता न मालूम होगा कि कहाँ से आये और किधर जाएंगे। बरसात के मौसम में तो अजब ही कैफियत रहती है, कोस भर जाइए, रास्ते में दस नाले मिलेंगे। जंगली जानवरों में बारहसिंघा, चीता, भालू, तेंदुआ, चिकारा, लंगूर, बन्दर वगैरह के अलावा कभी-कभी शेर भी दिखाई देते हैं मगर बरसात में नहीं, क्योंकि नदी नालों में पानी ज्यादा हो जाने से उनके रहने की जगह खराब हो जाती है, और तब वे ऊँची पहाड़ियों पर चले जाते हैं। इन पहाड़ों पर हिरन नहीं होते मगर पहाड़ के नीचे बहुत से दीख पड़ते हैं। परिन्दों में तीतर, बटेर, आदि की अपेक्षा मोर ज्यादा होते हैं। गरज कि ये सुहावने पहाड़ अभी तक लिखे मुताबिक मौजूद हैं और हर तरह से देखने के काबिल हैं।
उन ऐयारों ने जो चुनार से क्रूर और नाजिम के संग आये थे, शहर में न आकर इसी दिलचस्प जंगल में मय क्रूर के अपना डेरा जमाया, और आपस में यह राय हो गई कि सब अलग-अलग जाकर ऐयारी करें। बद्रीनाथ ने जो इन ऐयारों में सबसे ज्यादा चालाक और होशियार था यह राय निकाली कि एक दफे सब कोई अलग-अलग भेष बदलकर शहर में घुस दरबार और महल के सब आदमियों तथा लौंडियों बल्कि रानी तक को देख के पहचान आवें तथा चाल-चलन तजबीज कर नाम भी याद कर लें जिससे वक्त पर ऐयारी करने के लिए सूरत बदलने और बातचीत करने में फर्क न पड़े। इस राय को सभी ने पसन्द किया नाजिम ने सभी का नाम बताया और जहाँ तक हो सका पहचनवा भी दिया! वे ऐयार लोग तरह-तरह के भेष बदलकर महल में भी घुस आये और सब कुछ देख-भाल आये, मगर ऐयारी का मौका चपला की होशियारी की वजह से किसी को न मिला और उनको ऐयारी करना मंजूर भी न था जब तक कि हर तरह से देख-भाल न लेते।
जब वे लोग हर तरह से होशियार और वाकिफ हो गये तब ऐयारी करना शुरू किया। भगवानदत्त चपला की सूरत बना नौगढ़ में वीरेन्द्रसिंह को फंसाने के लिए चला। वहाँ पहुंचकर जिस कमरे में वीरेन्द्रसिंह थे उसके दरवाजे पर पहुँच पहरे वाले से कहा, “जाकर कुमार से कहो कि विजय गढ़ से चपला आई है।”
उस प्यादे ने जाकर खबर दी। कुछ रात गुजर गई थी, कुंवर वीरेन्द्रसिंह चन्द्रकान्ता की याद में बैठे तबीयत से युक्तियाँ निकाल रहे थे, बीच-बीच में ऊंची साँस भी लेते जाते थे, उसी वक्त चोबदार ने आकर अर्ज किया-”पृथ्वीनाथ, विजयगढ़ से चपला आई हैं और ड्योढ़ी पर खड़ी हैं। क्या हुक्म होता है?”
कुमार चपला का नाम सुनते ही चौंक उठे और खुश होकर बोले, “उसे जल्दी अन्दर लाओ।”
हुक्म के बमूजिब चपला हाजिर हुई, कुमार चपला को देख उठ खड़े हुए और हाथ पकड़ अपने पास बैठा बातचीत करने लगे, चन्द्रकान्ता का हाल पूछा। चपला ने कहा, “अच्छी हैं, सिवाय आपकी याद के और किसी तरह की तकलीफ नहीं है, हमेशा कह करती हैं कि बड़े बेमुरौवत हैं, कभी खबर भी नहीं लेते कि जीती है या मर गई। आज घबड़ाकर मुझको भेजा है और यह दो नासपातियाँ अपने हाथ से छील-काटकर आपके वास्ते भेजी हैं तथा अपने सिर की कसम दी है कि इन्हें जरूर खाइएगा।”
वीरेन्द्रसिंह चपला की बातें सुन बहुत खुश हुए। चन्द्रकान्ता का इश्क पूरे दर्जे पर था, धोखे में आ गये, भले-बुरे की कुछ तमीज न रही, चन्द्रकान्ता की कसम कैसे टालते, झट नासपाती का टुकड़ा उठा लिया और मुँह से लगाया ही था कि सामने से आते हुए तेजसिंह दिखाई पड़े। तेजसिंह ने देखा कि वीरेन्द्रसिंह बैठे हैं, देखते ही आग हो गये। ललकार कर बोले, “खबरदार, मुँह में मत डालना!”
इतना सुनते ही वीरेन्द्रसिंह रुक गये और बोले, “क्यों क्या है?”
तेजसिंह ने कहा, “मैं जाती बार हजार बार समझा गया, अपना सिर मार गया, मगर आपको खयाल न हुआ! कभी आगे भी चपला यहाँ आई थी! आपने क्या खाक पहचाना कि यह चपला है या कोई ऐयार! बस सामने रण्डी को देख मीठी-मीठी बातें सुन मजे में आ गये!”
तेजसिंह की घुड़की सुन वीरेन्द्रसिंह तो शर्मा गये और चपला के मुँह की तरफ देखने लगे! मगर नकली चपला से न रहा गया, फँस तो चुकी ही थी, झट खंजर निकाल कर तेजसिंह की तरफ दौड़ी। वीरेन्द्रसिंह भी जान गये कि यह ऐयार है, उसको खंजर ले तेजसिंह पर दौड़ते देख लपक कर हाथ से उसकी कलाई पकड़ी जिसमें खंजर था, दूसरा हाथ कमर में डाल उठा लिया और सिर से ऊँचा करना चाहते थे कि फेंके जिससे हड्डी पसली सब चूर हो जाये कि तेजसिंह ने आवाज दी, “हाँ, हाँ, पटकना मत, मर जायेगा, ऐयार लोगों का काम ही यही है, छोड़ दो, मेरे हवाले करो।” यह सुन कुमार ने धीरे से जमीन पर पटक कर मुश्कें बाँध तेजसिंह के हवाले किया। तेजसिंह ने जबर्दस्ती उसके नाक में दवा ठूँस बेहोश किया और गठरी में बाँध किनारे रख बातें करने लगे।
तेजसिंह ने कुमार को समझाया और कहा, “देखिए, जो हो गया सो हो गया, मगर अब धोखा मत खाइएगा।” कुमार बहुत शर्मिन्दा थे, इसका कुछ जवाब न दे विजयगढ़ का हाल पूछने लगे। तेजसिंह ने सब खुलासा ब्यौरा कहा और चिट्ठी भी दिखाई जो महाराज जयसिंह ने राजा सुरेन्द्रसिंह के नाम लिखी थी। कुमार यह सब सुन और चिट्ठी देख उछल पड़े, मारे खुशी के तेजसिंह को गले से लगा लिया और बोले, “अब जो कुछ करना हो जल्दी कर डालो।”
तेजसिंह ने कहा, “हाँ, देखो सब कुछ हो जाता है, घबराओ मत।” इसी तरह दोनों को बातें करते तमाम रात गुजर गई।
सवेरा हुआ चाहता था जब तेजसिंह उस ऐयार की गठरी पीठ पर लादे उसी तहखाने को रवाना हुए जिसमें अहमद को कैद कर आये थे। तहखाने का दरवाजा खोल अन्दर गये, टहलते-टहलते चश्मे के पास जा निकले। देखा कि अहमद नहर के किनारे सोया है और हरदयालसिंह एक पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर सिर झुकाये बैठे हैं। तेजसिंह को देखकर हरदयालसिंह उठ खड़े हुए और बोले, “क्यों तेजसिंह मैंने क्या कसूर किया जो मुझको कैद कर रक्खा है?”
तेजसिंह ने हँसकर जवाब दिया, “अगर कोई कसूर किया होता तो पैरों में बेड़ी पड़ी होती, जैसा कि अहमद को आपने देखा होगा। आपने कोई कसूर नहीं किया, सिर्फ एक दिन आपको रोक रखने से मेरा बहुत काम निकलता था इसलिए मैंने ऐसी बेअदबी की, माफ कीजिए। अब आपको अख्तियार है कि चाहे जहाँ जायें, मैं ताबेदार हूँ। विजयगढ़ में नेक ईमानदार इन्साफ पसन्द सिवाय आपके कोई नहीं है, इसी सबब से मैं भी मदद का उम्मीदवार हूँ।”
हरदयालसिंह ने कहा, “सुनो तेजसिंह, तुम खुद जानते हो कि मैं हमेशा से तुम्हारा और कुँवर वीरेन्द्रसिंह का दोस्त हूँ, मुझको तुम लोगों की खिदमत करने में कोई उज्र नहीं। मैं तो आप हैरान था कि दोस्त आदमी को तेजसिंह ने क्यों कैद किया? पहले तो मुझको यह भी नहीं मालूम हुआ कि मैं यहाँ कैसे आया, मर के आया हूँ या जीते जी, पर अहमद को देखा तो समझ गया कि यह तुम्हारी करामात है, भला यह तो कहो मुझको यहाँ रखकर तुमने क्या कार्रवाई की और अब मैं तुम्हारा क्या काम कर सकता हूँ?”
तेजसिंह: मैं आपकी सूरत बनाकर आपके जनाने में नहीं गया इससे आप खातिर जमा रखिए।
हरदयालसिंहः तुमको तो मैं अपने लड़के से ज्यादा मानता हूँ, अगर जनाने में जाते भी तो क्या था! खैर, हाल कहो।
तेजसिंह ने महाराज जयसिंह की चिट्ठी दिखाई, हरदयाल के कपड़े जो पहने हुए थे उनको दे दिये और अब खुलासा हाल कह कर बोले, “अब आप अपने कपड़े सहेज लीजिए और यह चिट्ठी लेकर दरबार में जाइए, राजा से मुझको माँग लीजिए जिससे मैं आपके साथ चलूँ, नहीं तो वे ऐयार जो चुनार से आये हैं विजयगढ़ को गारत कर डालेंगे और महाराज शिवदत्त अपना कब्जा विजयगढ़ पर कर लेंगे। मैं आपके संग चलकर उन ऐयारों को गिरफ्तार करूँगा। आप दो बातों का सबसे ज्यादा खयाल रखियेगा, एक यह कि जहाँ तक बने मुसलमानों को बाहर कीजिए और हिन्दुओं को रखिए, दूसरे यह कि कुँवर वीरेन्द्रसिंह का हमेशा ध्यान रखिये और महाराज से बारबर उनकी तारीफ कीजिए जिससे महाराज मदद के वास्ते उनको भी बुलावें!”
हरदयालसिंह ने कसम खाकर कहा, “मैं हमेशा तुम लोगों का खैरख्वाह हूँ, जो कुछ तुमने कहा है उससे ज्यादा कर दिखाऊँगा।”
तेजसिंह ने ऐयारी की गठरी खोली और एक खुलासा बेड़ी उसके पैर में डाल तथा ऐयारी का बटुआ और खंजर उसके कमर से निकालने के बाद उसे होश में लाये। उसके चेहरे को साफ किया तो मालूम हुआ कि वह भगवानदत्त है।
ऐयार होने के कारण चुनार के सब ऐयारों को तेजसिंह पहचानते थे और वे सब लोग भी उनको बखूबी जानते थे। तेजसिंह ने भगवानदत्त को नहर के किनारे छोड़ा और हरदयालसिंह को साथ ले खोह के बाहर चले। दरवाजे के पास आये, हरदयाल से कहा कि, “मेहरबानी करके मुझे इजाजत दें कि मैं थोड़ी देर के लिए आपको फिर बेहोश करूँ, तहखाने के बाहर होश में ले आऊंगा।” हरदयालसिंह ने कहा, “इसमें मुझको कुछ उज्र नहीं है, मैं यह नहीं चाहता कि इस तहखाने में आने का रास्ता देख लूं, यह तुम्ही लोगों के काम हैं, मैं देखकर क्या करूंगा?”
तेजसिंह हरदयालसिंह को बेहोश करके बेहोश करके बाहर लाये और होश में लाकर बोले, “अब आप कपड़े पहन लीजिए और मेरे साथ चलिए।” उन्होंने वैसा ही किया।
शहर में आकर तेजसिंह के कहे मुताबिक हरदयालसिंह अलग होकर अकेले राजा सुरेन्द्रसिंह के दरबार में गये। राजा ने उनकी बड़ी खातिर की और हाल पूछा। उन्होंने बहुत कुछ कहने के बाद महाराज जयसिंह की चिट्ठी दी जिसको राजा ने इज्जत के साथ लेकर अपने वजीर जीतसिंह को पढ़ने के लिए दिया, जीतसिंह ने जोर से खत पढ़ा। राजा सुरेन्द्रसिंह चिट्ठी पढ़कर बहुत खुश हुए और हरदयालसिंह की तरफ देखकर बोले, “मेरा राज्य महाराज जयसिंह का है, जिसे चाहें बुला लें मुझे कुछ उज्र नहीं, तेजसिंह आपके साथ जायेगा।”
यह कह अपने वजीर जीतसिंह को हरदयालसिंह की मेहमानी का हुक्म दिया और दरबार बर्खास्त किया।
दीवान हरदयालसिंह की मेहमानी तीन दिन तक बहुत अच्छी तरह से की गई जिससे वे बहुत खुश हुए। चौथे दिन दीवान साहब ने राजा से रुखसत मांगी, राजा बहुत कुछ दौलत जवाहरात से उनकी विदाई की और तेजसिंह को बुला समझा-बुझाकर दीवान साहब के संग किया।
बड़े साज-सामान के साथ ये दोनों विजयगढ़ पहुँचे और शाम को दरबार में महाराज के पास हाजिर हुए। हरदयालसिंह ने महाराज की चिट्ठी का जवाब दिया और सब हाल कह सुरेन्द्रसिंह की बड़ी तारीफ की जिससे महाराज बहुत खुश हुए और तेजसिंह को उसी वक्त खिलअत देकर हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि, “इनके रहने के लिए मकान का बन्दोबस्त कर दो और इनकी खातिरदारी और मेहमानी का बोझ अपने ऊपर समझो।”
दरबार उठने पर दीवान साहब तेजसिंह को साथ ले विदा हुए और एक बहुत अच्छे कमरे में डेरा दिलवाया। नौकर और पहरे वाले तथा प्यादों का भी बहुत अच्छा इन्तजाम कर दिया जो सब हिन्दू थे। दूसरे दिन तेजसिंह महाराज के दरबार में हाजिर हुए, दीवान हरदयालसिंह के बगल में एक कुर्सी उनके वास्ते मुकर्रर की गई।
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 03-07-2013, 04:08 PM   #18
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन&#

(पहला अध्याय)
पन्द्रहवाँ बयान

हम पहले यह लिख चुके हैं कि महाराज शिवदत्त के यहाँ जितने ऐयार हैं सभी को तेजसिंह पहचानते हैं। अब तेजसिंह को यह जानने की फिक्र हुई कि उनमें से कौन-कौन चार आये हैं, इसलिए दूसरे दिन शाम के वक्त उन्होंने अपनी सूरत भगवानदत्त की बनाई जिसको तहखाने में बन्द कर आये थे और शहर से निकल जंगल-में इधर-उधर घूमने लगे, पर कहीं कुछ पता न लगा। बरसात का दिन आ चुका था, रात अंधेरी और बदली छाई थी, आखिर तेजसिंह ने एक टीले पर खड़े होकर जफील बजाई।
थोड़ी देर में तीनों ऐयार मय पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी के उसी जगह पहुंचे और भगवानदत्त को खड़े देखकर बोले, “क्यों जी, तुम नौगढ़ गये थे ना? क्या किया, खाली क्यों चले आये?”
तेजसिंह ने सबों को पहचानने के बाद जवाब दिया, “वहाँ तेजसिंह की बदौलत कोई कार्रवाई न चली, तुम लोगों में से कोई एक आदमी मेरे साथ चले तो काम बने!”
पन्नाः अच्छा कल हम तुम्हारे साथ चलेंगे, आज चलो महल में कोई कार्रवाई करें।
तेजसिंह: अच्छा चलो, मगर मुझको इस वक्त भूख बड़े जोर की लगी है, कुछ खा लूँ तो काम में जी लगे। तुम लोगों के पास कुछ हो तो लाओ।
जगन्नाथः पास में तो जो कुछ है बेहोशी मिला है, बाजार से जाकर कुछ लाओ तो सब कोई खा-पीकर छुट्टी करें।
भगवानः अच्छा एक आदमी मेरे साथ चलो।
पन्नालाल साथ हुए, दोनों शहर की तरफ चले। रास्ते में पन्नालाल ने कहा, “हम लोगों को अपनी सूरत बदल लेना चाहिए क्योंकि तेजसिंह कल से इसी शहर में आया है और हम सबों को पहचानता भी है, शायद घूमता-फिरता कहीं मिल जाये।”
भगवानदत्त ने यह सोचकर कि सूरत बदलेंगे तो रोगन लगाते वक्त शायद यह पहचान ले, जवाब दिया, “कोई जरूर नहीं, कौन रात को मिलता है?”
भगवानदत्त के इनकार करने से पन्नालाल को शक हो गया और गौर से इनकी सूरत देखने लगा, मगर रात अंधेरी थी पहचान न सका, आखिर को जोर से जफील बजाई। शहर के पास आ चुके थे, ऐयार लोग दूर थे जफील सुन न सके; तेजसिंह भी समझ गये कि इसको शक हो गया, अब देर करने की कुछ जरूरत नहीं, झट उसके गले में हाथ डाल दिया, पन्नालाल ने भी खंजर निकाल लिया, दोनों में खूब जोर की भिड़न्त हो गई। आखिर को तेजसिंह ने पन्ना को उठा के दे मारा और मुश्कें कस बेहोश कर गठरी बांध ली तथा पीठ पर लाद शहर की तरफ रवाना हुए। असली सूरत बनाये डेरे पर पहुंचे। एक कोठरी में पन्नालाल को बन्द कर दिया और पहरे वालों को सख्त ताकीद कर आप उसी कोठरी के दरवाजे पर पलंग बिछवा सो रहे, सवेरे पन्नालाल को साथ ले दरबार की तरफ चले।
इधर रामनारायण, बद्रीनाथ और ज्योतिषीजी राह देख रहे थे कि अब दोनों आदमी खाने का सामाना लाते होंगे, मगर कुछ नहीं, यहाँ तो मामला ही दूसरा था। उन लोगों को शक हो गया कि कहीं दोनों गिरफ्तार न हो गये हों, मगर यह खयाल में न आया कि भगवानदत्त असल में दूसरे ही कृपानिधान थे।
उस रात को कुछ न कर सके पर सवेरे सूरत बदल कर खोज में निकले। पहले महाराज जयसिंह के दरबार की तरफ चले, देखा कि तेजसिंह दरबार में जा रहे हैं और उसके पीछे-पीछे दस-पन्द्रह सिपाही कैदी की तरह पन्नालाल को लिये चल रहे हैं। उन ऐयारों ने भी साथ-ही-साथ दरबार का रास्ता पकड़ा।
तेजसिंह पन्नालाल को लिए दरबार में पहुँचे, देखा कचहरी खूब लगी हुई है, महाराज बैठे हैं, वह भी सलाम कर अपनी कुर्सी पर जा बैठे, कैदी को सामने खड़ा कर दिया।
महाराज ने पूछा, “क्यों तेजसिंह किसको लाये हो?”
तेजसिंह ने जवाब दिया, “महाराज, उन पाँचों ऐयारों में से जो चुनार से आये हैं एक गिरफ्तार हुआ है, इसको सरकार में लाया हूँ। जो इसके लिए मुनासिब हो, हुक्म किया जाये।”
महाराज गौर के साथ खुशी भरी निगाहो से उसकी तरफ देखने लगे और पूछा, “तेरा नाम क्या है?”
उसने कहा, “मक्कार खां उर्फ ऐयार खां।”
महाराज उसकी ढिठाई और बात पर हँस पड़े, हुक्म दिया, “बस इससे ज्यादा पूछने की कोई जरूरत नहीं, सीधे कैदखाने में ले जाकर इसको बन्द करो और सख्त पहरे बैठा दो।”
हुक्म पाते ही प्यादों ने उस ऐयार के हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ी डाल दी और कैदखाने की तरफ ले गये। महाराज ने खुश होकर तेजसिंह को सौ अशर्फी इनाम में दीं। तेजसिंह ने खड़े होकर महाराज को सलाम किया और अशर्फियाँ बटुए में रख लीं।
रामनारायण, बद्रीनाथ और ज्योतिषीजी भेष बदले हुए दरबार में खड़े यह सब तमाशा देख रहे थे जब पन्नालाल को कैदखाने का हुक्म हुआ, वे लोग भी बाहर चले आये और आपस में सलाह कर भारी चालाकी की। किनारे जाकर बद्रीनाथ ने तो तेजसिंह की सूरत बनाई और रामनारायण और ज्योतिषीजी प्यादे बनकर तेजी के साथ उन सिपाहियों के साथ चले जो पन्नालाल को कैदखाने की तरफ लिये जा रहे थे। पास पहुँच कर बोले,. “ठहरो, ठहरो, इस नालायक ऐयार के लिए महाराज ने दूसरा हुक्म दिया है, क्योंकि मैंने अर्ज किया था कि कैदखाने में इसके संगी-साथी इसको किसी-न-किसी तरह छुड़ा ले जायेंगे, अगर मैं इसको अपनी हिफाजत में रखूंगा तो बेहतर होगा क्योंकि मैंने ही इसे पकड़ा है, मेरी हिफाजत में यह रह भी सकेगा , सो तुम लोग इसको मेरे हवाले करो।”
प्यादे तो जानते ही थे कि इसको तेजसिंह ने पकड़ा है, कुछ इनकार न किया और उसे उनके हवाले कर दिया। नकली तेजसिंह ने पन्नालाल को ले जंगल का रास्ता लिया। उसके चले जाने पर उसका हाल अर्ज करने के लिए प्यादे फिर दरबार में लौट आये। दरबार उसी तरह लगा हुआ था, तेजसिंह भी अपनी जगह बैठे थे। उनको देख प्यादों के होश उड़ गये और अर्ज करते-करते रुक गये।
तेजसिंह ने इनकी तरफ देखकर पूछा, “क्यों? क्या बात है, उस ऐयार को कैद कर आये?”
प्यादों ने डरते-डरते कहा, “जी उसको तो आप ही ने हम लोगों से ले लिया।”
तेजसिंह उनकी बात सुनकर चौंक पड़े और बोले, “मैंने क्या किया है? मैं तो तब से इसी जगह बैठा हूँ!”
प्यादों की जान डर और ताज्जुब से सूख गई, कुछ जवाब न दे सके, पत्थर की तस्वीर की तरह जैसे-के-तैसे खड़े रहे।
महाराज ने तेजसिंह की तरफ देखकर पूछा, “क्यों? क्या हुआ?”
तेजसिंह ने कहा, “ऐयार चालाकी खेल गये, मेरी सूरत बना उसी कैदी को इन लोगों से छुड़ा ले गये!”
तेजसिंह ने अर्ज किया, “महाराज इन लोगों का कसूर नहीं, ऐयार लोग ऐसे ही होते हैं, बड़े-बड़ों को धोखा दे जाते हैं, इन लोगों की क्या हकीकत है।”
तेजसिंह के कहने से महाराज ने उन प्यादों का कसूर माफ किया, मगर उस ऐयार के निकल जाने का रंज देर तक रहा।
बद्रीनाथ वगैरह पन्नालाल को लिए हुए जंगल में पहुँचे, एक पेड़ के नीचे बैठकर उसका हाल पूछा, उसने सब हाल कहा। अब इन लोगों को मालूम हुआ कि भगवानदत्त को भी तेजसिंह ने पकड़ के कहीं छिपाया है, यह सोच सभी ने पण्डित जगन्नाथ से कहा, “आप रमल के जरिए दरियाफ्त कीजिए कि भगवानदत्त कहाँ है?”
ज्योतिषीजी ने रमल फेंका और कुछ गिन-गिनाकर कहा, “बेशक भगवानदत्त को भी तेजसिंह ने ही पकड़ा है और यहाँ से दो कोस दूर उत्तर की तरफ एक खोह में कैद कर रक्खा है।”
यह सुन सभी ने उस खोह का रास्ता लिया। ज्योतिषीजी बार-बार रमल फेंकते और विचार करते हुए उस खोह तक पहुँचे और अन्दर गये, जब उजाला नजर आया तो देखा, सामने एक फाटक है मगर यह नहीं मालूम होता था कि किस तरह खुलेगा। ज्योतिषीजी ने फिर रमल फेंका और सोचकर कहा, “यह दरवाजा एक तिलिस्म के साथ मिला हुआ है और रमल तिलिस्म में कुछ काम नहीं कर सकता, इसके खोलने की कोई तरकीब निकाली जाय तो काम चले।”
लाचार वे सब उस खोह के बाहर निकल आये और ऐयारी की फिक्र करने लगे।
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 03-07-2013, 04:08 PM   #19
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन&#

(पहला अध्याय)
सोलहवाँ बयान

एक दिन तेजसिंह बालादवी के लिए विजयगढ़ के बाहर निकले। पहर दिन बाकी था जब घूमते-फिरते बहुत दूर निकल गये। देखा कि एक पेड़ के नीचे कुँवर वीरेन्द्रसिंह बैठे हैं। उनकी सवारी का घोड़ा पेड़ से बँधा हुआ है, सामने एक बारहसिंघा मरा पड़ा है, उसके एक तरफ आग सुलग रही है, और पास जाने पर देखा कि कुमार के सामने पत्तों पर कुछ टुकड़े गोश्त के भी पड़े हैं।
तेजसिंह को देखकर कुमार ने जोर से कहा, “आओ भाई तेजिसिंह, तुम तो विजयगढ़ ऐसा गये कि फिर खबर भी न ली, क्या हमको एक दम ही भूल गये?”
तेजसिंह: (हँसकर) विजयगढ़ में मैं आप ही का काम कर रहा हूँ कि अपने बाप का?
वीरेन्द्रसिंहः अपने बाप का।
यह कहकर हँस पड़े। तेजसिंह ने इस बात का कुछ भी जवाब न दिया और हंसते हुए पास जा बैठे। कुमार ने पूछा, “कहो चन्द्रकान्ता से मुलाकात हुई थी?”
तेजसिंह ने जवाब दिया, “इधर जब से मैं गया हूँ इसी बीच में एक ऐयार को पकड़ा था। महाराज ने उसको कैद करने का हुक्म दिया मगर कैदखाने तक पहुँचने न पाया था कि रास्ते ही में मेरी सूरत बना उसके साथी ऐयारों ने उसे छुड़ा लिया, फिर अभी तक कोई गिरफ्तार न हुआ।”
कुमारः वे लोग भी बड़े शैतान हैं!
तेजसिंह: और तो जो हैं, बद्रीनाथ भी चुनार से इन लोगों के साथ आया है, वह बड़ा भारी चालाक है। मुझको अगर खौफ रहता है तो उसी का! खैर, देखा जायेगा, क्या हर्ज है। यह तो बताइए, आप यहाँ क्या कर रहे हैं? कोई आदमी भी साथ नहीं है।
कुमारः आज मैं कई आदमियों को ले सवेरे ही शिकार खेलने के लिए निकला, दोपहर तक तो हैरान रहा, कुछ हाथ न लगा, आखिर को यह बारहसिंघा सामने से निकला और मैंने उसके पीछे घोड़ा फेंका। इसने मुझको बहुत हैरान किया, संग के सब साथी छूट गये, अब इस समय तीर खाकर गिरा है। मुझको भूख बड़ी जोर की लगी थी इससे जी में आया कि कुछ गोश्त भून के खाऊँ! इसी फिक्र में बैठा था कि सामने से तुम दिखाई पड़े, अब लो तुम ही इसको भूनो। मेरे पास कुछ मसाला था उसको मैंने धो-धाकर इन टुकड़ों में लगा दिया है, अब तैयार करो, तुम भी खाओ मैं भी खाऊँ, मगर जल्दी करो, आज दिन भर से कुछ नहीं खाया।
तेजसिंह ने बहुत जल्द गोश्त तैयार किया और एक सोते के किनारे जहाँ साफ पानी निकल रहा था बैठकर दोनों खाने लगे। वीरेन्द्रसिंह मसाला पोंछ-पोछकर खाते थे, तेजसिंह ने पूछा, “आप मसाला क्यों पोंछ रहे हैं?”
कुमार ने जवाब दिया, “फीका अच्छा मालूम होता है।”
दो-तीन टुकड़े खाकर वीरेन्द्रसिंह ने सोते में से चुल्लू-भर के खूब पानी पिया और कहा, “बस भाई, मेरी तबीयत भर गई, दिन भर भूखे रहने पर कुछ खाया नहीं जाता।”
तेजसिंह ने कहा, “आप खाइए चाहे न खाइये मैं तो छोड़ता नहीं, बड़े मजे का बन पड़ा है।”
आखिर जहाँ तक बन पड़ा खूब खाया और तब हाथ-मुँह धोकर बोले, “चलिए, अब आपको नौगढ़ पहुंचा कर फिर फिरेंगे।”
वीरेन्द्रसिंह “चलो” कहकर घोड़े पर सवार हुए और तेजसिंह पैदल साथ चले।
थोड़ी दूर जाकर तेजसिंह बोले, “न मालूम क्यों मेरा सिर घूमता है।”
कुमार ने कहा, “तुम मांस ज्यादा खा गये हो, उसने गर्मी की है।”
थोड़ी दूर गये थे कि तेजसिंह चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़े। वीरेन्द्रसिंह ने झट घोड़े पर से कूदकर उनके हाथ-पैर खूब कसके गठरी में बाँध पीठ पर लाद लिया और घोड़े की बाग थाम विजयगढ़ का रास्ता लिया। थोड़ी दूर जाकर जोर से जफील (सीटी) बजाई जिसकी आवाज जंगल में दूर-दूर तक गूँज गई। थोड़ी देर में क्रूरसिंह, पन्नालाल, रामनारायण और ज्योतिषीजी आ पहुँचे। पन्नालाल ने खुश होकर कहा, “वाह जी बद्रीनाथ, तुमने तो बड़ा भारी काम किया। बड़े जबर्दस्त को फाँसा! अब क्या है, ले लिया!!”
क्रूरसिंह मारे खुशी के उछल पड़ा। बद्रनीथ ने, जो अभी तक कुँवर वीरेन्द्रसिंह बना हुआ था गठरी पीठ से उतार कर जमीन पर रख दी और रामनारायण से कहा, “तुम इस घोड़े को नौगढ़ पहुँचा दो, जिस अस्तबल से चुरा लाये थे उसी के पास छोड़ा आओ, आप ही लोग बाँध लेंगे।”
यह सुनकर रामनारायण घोड़े पर सवार हो नौगढ़ चला गया। बद्रीनाथ ने तेजसिंह की गठरी अपनी पीठ पर लादी और ऐयारों को कुछ समझा-बुझाकर चुनार का रास्ता लिया।
तेजसिंह को मामूल था कि रोज महाराज जयसिंह के दरबार में जाते और सलाम करके कुर्सी पर बैठ जाते। दो-एक दिन महाराज ने तेजसिंह की कुर्सी खाली देखी, हरदयालसिंह से पूछा कि ‘आजकल तेजसिंह नजर नहीं आते, क्या तुमसे मुलाकात हुई थी?
दीवान साहब ने अर्ज किया, “नहीं, मुझसे भी मुलाकात नहीं हुई, आज दरियाफ्त करके अर्ज करूंगा।”
दरबार बर्खास्त होने के बाद दीवान साहब तेजसिंह के डेरे पर गये, मुलाकात ने होने पर नौकरों से दरियाफ्त किया। सभी ने कहा, “कई दिन से वे यहाँ नहीं है, हम लोगों ने बहुत खोज की मगर पता न लगा।”
दीवान हरदयालसिंह यह सुनकर हैरान रह गये। अपने मकान पर जाकर सोचने लगे कि अब क्या किया जाये? अगर तेजसिंह का पता न लगेगा तो बड़ी बदनामी होगी, जहाँ से हो, खोज लगाना चाहिए। आखिर बहुत से आदमियों को इधर-उधर पता लगाने के लिए रवाना किया और अपनी तरफ से एक चिट्ठी नौगढ़ के दीवान जीतसिंह के पास भेजकर ले जाने वाले को ताकीद कर दी कि कल दरबार से पहले इसका जवाब लेकर आना। वह आदमी खत लिये शाम को नौगढ़ को पहुँचा और दीवान जीतसिंह के मकान पर जाकर अपने आने की इत्तिला करवाई। दीवान साहब ने अपने सामने बुलाकर हाल पूछा, उसने सलाम करके खत दिया। दीवान साहब ने गौर से खत को पढ़ा, दिल में यकीन हो गया कि तेजसिंह जरूर ऐयारों के हाथ पकड़ा गया। यह जवाब लिखकर कि ‘ वह यहाँ नहीं है’ आदमी को विदा कर दिया और अपने कई जासूसों को बुलाकर पता लगाने के लिए इधर-उधर रवाना किया। दूसरे दिन दरबार में दीवान जीतसिंह ने राजा सुरेन्द्रसिंह से अर्ज किया, “महाराज, कल विजयगढ़ से दीवान हरदयालसिंह का पत्र लेकर एक आदमी आया था, यह दरियाफ्त किया था, कि तेजसिंह नौगढ़ में है कि नहीं, क्योंकि कई दिनों से वह विजयगढ़ में नहीं है! मैंने जवाब में लिख दिया है कि ‘यहाँ नहीं हैं’।
राजा को यह सुनकर ताज्जुब हुआ और दीवान से पूछा, “तेजसिंह वहाँ भी नहीं हैं और यहाँ भी नहीं तो कहाँ चला गया? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि ऐयारों के हाथ पड़ गया हो, क्योंकि महाराज शिवदत्त के कई ऐयार विजयगढ़ में पहुँचे हुए हैं और उनसे मुलाकात करने के लिए अकेला तेजसिंह गया था!”
दीवान साहब ने कहा, ” जहाँ तक मैं समझता हूँ, वह ऐयारों के हाथ में गिरफ्तार हो गया होगा, खैर, जो कुछ होगा दो-चार दिन में मालूम हो जायेगा।”
कुँवर वीरेन्द्रसिंह भी दरबार में राजा के दाहिनी तरफ कुर्सी पर बैठे यह बात सुन रहे थे। उन्होंने अर्ज किया, “अगर हुक्म हो तो मैं तेजसिंह का पता लगाने जाऊं?”
दीवान जीतसिंह ने यह सुनकर कुमार की तरफ देखा और हँसकर जवाब दिया, “आपकी हिम्मत और जवांमर्दी में कोई शक नहीं, मगर इस बात को सोचना चाहिए कि तेजसिंह के वास्ते, जिसका काम ऐयारी ही है और ऐयारों के हाथ फँस गया है, आप हैरान हो जाएँ इसकी क्या जरूरत है? यह तो आप जानते ही हैं कि अगर किसी ऐयार को कोई ऐयार पकड़ता है तो सिवाय कैद रखने के जान से नहीं मारता, अगर तेजसिंह उन लोगों के हाथ में पड़ गया है तो कैद होगा, किसी तरह छूट ही जायेगा क्योंकि वह अपने फन में बड़ा होशियार है, सिवाय इसके जो ऐयारी का काम करेगा चाहे वह कितना ही चालाक क्यों न हो, कभी-न-कभी फँस ही जायेगा, फिर इसके लिए सोचना क्या? दस-पाँच दिन सब्र कीजिए, देखिए क्या होता है? इस बीच में, अगर वह न आया तो आपको जो कुछ करना हो कीजिएगा।”
वीरेन्द्रसिंह ने जवाब दिया, “हाँ, आपका कहना ठीक है मगर पता लगाना जरूरी है, यह सोचकर कि वह चालाक है, खुद छूट जायेगा-खोज न करना मुनासिब नहीं।”
जीतसिंह ने कहा, “सच है, आपको मुहब्बत के सबब से उसका ज्यादा खयाल है, खैर, देखा जायगा।” यह सुन राजा सुरेन्द्रसिंह ने कहा, “और कुछ नहीं तो किसी को पता लगाने के लिए भेज दो।”
इसके जवाब में दीवान साहब ने कहा, “कई जासूसों का पता लगाने के लिए भेज चुका हूँ।” राजा और कुंवर वीरेन्द्रसिंह चुप रहे मगर खयाल इस बात का किसी के दिल से न गया।
विजयगढ़ में दूसरे दिन दरबार में जयसिंह ने फिर हरदयालसिंह से पूछा, “कहीं तेजसिंह का पता लगा?”
दीवान साहब ने कहा, “यहां तो तेजसिंह का पता नहीं लगता, शायद नौगढ़ में हों। मैंने वहाँ भी आदमी भेजा है, अब आता ही होगा, जो कुछ है मालूम हो जायेगा।”
ये बातें हो रही थीं कि खत का जवाब लिये वह आदमी आ पहुंचा जो नौगढ़ गया था। हरदयालसिंह ने जवाब पढ़ा औऱ बड़े अफसोस के साथ महाराज से अर्ज किया कि “नौगढ़ में भी तेजसिंह नहीं हैं, यह उनके बाप जीतसिंह के हाथ का खत मेरे खत के जवाब में आया है’।
महाराज ने कहा, “उसका पता लगाने के लिए कुछ फिक्र की गयी है या नहीं?” हरदयालसिंह ने कहा, “हाँ, कई जासूस मैंने इधर-उधर भेजे हैं।”
महाराज को तेजसिंह का बहुत अफसोस रहा, दरबार बर्खास्त करके महल में चले गये। बात-की-बात में महाराज ने तेजसिंह का जिक्र महारानी से किया और कहा, “किस्मत का फेर इसे ही कहते हैं। क्रूरसिंह ने तो हलचल मचा ही रक्खी थी, मदद के वास्ते एक तेजसिंह आया था सो कई दिन से उसका भी पता नहीं लगता, अब मुझे उसके लिए सुरेन्द्रसिंह से शर्मिन्दगी उठानी पड़ेगी। तेजसिंह का चाल-चलन, बात-चीत, इल्म और चालाकी पर जब खयाल करता हूँ, तबीयत उमड़ आती है। बड़ा लायक लड़का है। उसके चेहरे पर उदासी तो कभी देखी ही नहीं।”
महारानी ने भी तेजसिंह के हाल पर बहुत अफसोस किया। इत्तिफाक से चपला उस वक्त वहीं खड़ी थी, यह हाल सुन वहाँ से चली और चन्द्रकान्ता के पास पहुँची। तेजसिंह का हाल जब कहना चाहती थी, जी उमड़ आता है, कुछ कह न सकती थी।
चन्द्रकान्ता ने उसकी दशा देख पूछा, “क्यों? क्या है? इस वक्त तेरी अजब हालत हो रही है, कुछ मुंह से तो कह!”
इस बात का जवाब देने के लिए चपला ने मुंह खोला ही था कि गला भर आया, आँखों से आँसू टपक पड़े, कुछ जवाब न दे सकी। चन्द्रकान्ता को और भी ताज्जुब हुआ, पूछा, “तू रोती क्यों है, कुछ बोल भी तो।”
आखिर चपला ने अपने को सम्हाला और बहुत मुश्किल से कहा, “महाराज की जुबानी सुना है कि तेजसिंह को महाराज शिवदत्त के ऐयारों ने गिरफ्तार कर लिया। अब वीरेन्द्रसिंह का आना भी मुश्किल होगा क्योंकि उनका वही एक बड़ा सहारा था।”
इतना कहा था कि पूरे तौर पर आँसू भर आये और खूब खुलकर रोने लगी। इसकी हालत से चन्द्रकान्ता समझ गई कि चपला भी तेजसिंह को चाहती है, मगर सोचने लगी कि चलो अच्छा ही है इसमें भी हमारा ही भला है, मगर तेजसिंह के हाल और चपला की हालत पर बहुत अफसोस हुआ, फिर चपला से कहा, “उनको छुड़ाने की यही फिक्र हो रही है? क्या तेरे रोने से वे छूट जायेंगे? तुझसे कुछ नहीं हो सकता तो मैं ही कुछ करूँ?”
चम्पा भी वहाँ बैठी यह अफसोस भरी बातें सुन रही थी, बोली, “अगर हुक्म हो तो मैं तेजसिंह की खोज में जाऊं?”
चपला ने कहा, “अभी तू इस लायक नहीं हुई है?”
चम्पा बोली, “क्यों, अब मेरे में क्या कसर है? क्या मैं ऐयारी नहीं कर सकती?”
चपला ने कहा, “हाँ, ऐयारी तो कर सकती है मगर उन लोगों का मुकाबला नहीं कर सकती जिन लोगों ने तेजसिंह जैसे चालाक ऐयार को पकड़ लिया है। हाँ, मुझको राजकुमारी हुक्म दें तो मैं खोज में जाऊं?”
चन्द्रकान्ता ने कहा, “इसमें भी हुक्म की जरूरत है? तेरी मेहनत से अगर वे छूटेंगे तो जन्म भर उनको कहने लायक रहेगी। अब तू जाने में देर मत कर, जा।”
चपला ने चम्पा से कहा, “देख, मैं जाती हूँ, पर ऐयार लोग बहुत से आये हुए हैं, ऐसा न हो कि मेरे जाने के बाद कुछ नया बखेड़ा मचे। खैर, और तो जो होगा देखा जायेगा, तू राजकुमारी से होशियार रहियो। अगर तुझसे कुछ भूल हुई या राजकुमारी पर किसी तरह की आफत आई तो मैं जन्म-भर तेरा मुंह न देखूँगी!”
चम्पा ने कहा, “इस बात से आप खातिर जमा रखें, मैं बराबर होशियार रहा करूंगी।”
चपला अपने ऐयारी के सामान से लैस हो और कुछ दक्षिणी ढंग के जेवर तथा कपड़े ले तेजसिंह की खोज में निकली।
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 03-07-2013, 04:09 PM   #20
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन&#

(पहला अध्याय)
सत्रहवाँ बयान

चपला कोई साधारण औऱत न थी। खूबसूरती और नजाकत के अलावा उसमें ताकत भी थी। दो-चार आदमियों से लड़ जाना या उनको गिरफ्तार कर लेना उसके लिए एक अदना-सा काम था, शस्त्र विद्या को पूरे तौर पर जानती थी। ऐयारी के फन के अलावा और भी कई गुण उसमें थे। गाने और बजाने में उस्ताद, नाचने में कारीगर, आतिशबाजी बनाने का बड़ा शौक, कहाँ तक लिखें- कोई फन ऐसा न था जिसको चपला न जानती हो। रंग उसका गोरा, बदन हर जगह सुडौल, नाजुक हाथ-पाँव की तरफ खयाल करने से यही जाहिर होता था कि इसे एक फूल से मारना खून करना है। उसको जब कहीं बाहर जाने की जरूरत पड़ती थी तो अपनी खूबसूरती जान बूझकर बिगाड़ डालती थी या भेष बदल लेती थी।
अब इस वक्त शाम हो गई बल्कि कुछ रात भी जा चुकी है। चन्द्रमा अपनी पूरी किरणों से निकला हुआ है। चपला अपनी असली सूरत में चली जा रही है, ऐयारी का बटुआ बगल में लटकाये कमन्द कमर में कसे और खंजर भी लगाये हुए जंगल-ही-जंगल कदम बढ़ाये जा रही है। तेजसिंह की याद ने उसको ऐसा बेकल कर दिया है कि अपने बदन की भी खबर नहीं। उसको यह मालूम नहीं कि वह किस काम के लिए बाहर निकली है या कहाँ जा रही है, उसके आगे क्या है, पत्थर या गड्ढा, नदी है या नाला, खाली पैर बढाये जाना ही यही उसका काम है। आँखों से आँसू की बूंदें गिर रही हैं, सारा कपड़ा भीग गया है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर ठोकर खाती है, उँगलियों से खून गिर रहा है मगर उसको इसका कुछ खयाल नहीं। आगे एक नाला आया जिस पर चपला ने कुछ ध्यान न दिया और धम्म से उस नाले में गिर पड़ी, सिर फट गया, खून निकलने लगा, कपड़े बदन के सब भीग गये। अब उसको इस बात का खयाल हुआ कि तेजसिंह को छुड़ाने या खोजने चली है। उसके मुँह से झट यह बात निकली-”हाय प्यारे मैं तुमको बिल्कुल भूल गई, तुम्हारे छुड़ाने की फिक्र मुझको जरा भी न रही, उसी की यह सजा मिली!” अब चपला सँभल गई और सोचने लगी कि वह किस जगह है। खूब गौर करने पर उसे मालूम हुआ कि रास्ता बिल्कुल भूल गई है और एक भयानक जंगल में आ फँसी है। कुछ क्षण के लिए तो वह बहुत डर गई मगर फिर दिल को सँभाला, उस खतरनाक नाले से पीछे फिरी और सोचने लगी, इसमें तो कोई शक नहीं कि तेजसिंह को महाराज शिवदत्त के ऐयारों ने पकड़ लिया है, तो जरूर चुनार ही ले भी गये होंगे। पहले वहीं खोज करनी चाहिए, जब न मिलेंगे तो दूसरी जगह पता लगाऊंगी। यह विचार कर चुनार का रास्ता ढूढ़ने लगी। हजार खराबी से आधी रात गुजर जाने के बाद रास्ता मिल गया अब सीधे चुनार की तरफ पहाड़-ही-पहाड़ चल निकली, जब सुबह करीब हुई उसने अपनी सूरत एक मर्द सिपाही की-सी बना ली। नहाने-धोने, खाने-पीने की कुछ फिक्र नहीं सिर्फ रास्ता तय करने की उसको धुन थी। आखिर भूखी-प्यासी शाम होते चुनार पहुँची। दिल में ठान लिया था कि जब तक तेजसिंह का पता न लगेगा-अन्न-जल ग्रहण न करूँगी। कहीं आराम न लिया, इधर-उधर ढूँढ़ने और तलाश करने लगी। एकाएक उसे कुछ चालाकी सूझी, उसने अपनी पूरी सूरत पन्नालाल की बना ली औऱ घसीटासिंह ऐयार के डेरे पर पहुंची।
हम पहले लिख चुके हैं कि छ : ऐयारों में से चार ऐयार विजयगढ़ गये हैं और घसीटासिंह और चुन्नीलाल चुनार में ही रह गये हैं। घसीटासिंह पन्नालाल को देखकर उठ खड़े हुए और साहब सलामत के बाद पूछा, “कहो पन्नालाल, अबकी बार किसको लाये?”
पन्नाः इस बार लाये तो किसी को नहीं, सिर्फ इतना पूछने आये हैं कि नाजिम यहाँ है या नहीं, उसका पता नहीं लगता।
घसीटाः यहाँ तो नहीं आया।
पन्नाः फिर उसको पकड़ा किसने? वहाँ तो अब कोई ऐयार नहीं है!
घसीटाः यह तो मैं नहीं कह सकता कि वहाँ और कोई भी ऐयार है या नहीं, सिर्फ तेजसिंह का नाम तो मशहूर था सो कैद हो गये, इस वक्त किले में बन्द पड़े रोते होंगे।
पन्नाः खैर, कोई हर्ज नहीं, पता लग ही जायेगा, अब जाता हूँ रुक नहीं सकता। यह कह नकली पन्नालाल वहाँ से रवाना हुए।
अब चपला का जी ठिकाने हुआ। यह सोचकर कि तेजसिंह का पता लग गया और वे यहीं मौजूद हैं, कोई हर्ज नहीं। जिस तरह होगा छुड़ा लेगी, वह मैदान में निकल गई और गंगाजी के किनारे बैठ अपने बटुए में से कुछ मेवा निकाल के खाया, गंगाजल पी के निश्चिन्त हुई और, तब अपनी सूरत एक गाने वाली औऱत की बनाई। चपला को खूबसूरत बनाने की कोई जरूरत नहीं थी, वह खुद ऐसी थी कि हजार खुबूसूरतों का मुकाबला करे, मगर इस सबब से कोई पहचान ले उसको अपनी सूरत बदलनी पड़ी। जब हर तरह से लैस हो गई, एक वंशी हाथ में ले राजमहल के पिछवाड़े की तरफ जा एक साफ जगह देख बैठ गयी और चढ़ी आवाज में एक बिरहा गाने लगी, एक बार फिर स्वयं गाकर फिर उसी गत को वंशी पर बजाती।
रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी, राजमहल में शिवदत्त महल की छत पर अपनी रानी के साथ मीठी-मीठी बातें कर रहे थे, एकाएक गाने की आवाज उनके कानों में गई और महारानी ने भी सुनी। दोनों ने बातें करना छोड़ दिया और कान लगाकर गौर से सुनने लगे। थोड़ी देर बाद वंशी की आवाज आने लगी जिसका बोल साफ मालूम पड़ता था। महाराज की तबीयत बेचैन हो गई, झट लौंडी को बुलाकर हुक्म दिया, “किसी को कहो, अभी जाकर उसको इस महल के नीचे ले आये जिसके गाने की आवाज आ रही है।”
हुक्म पाते ही पहरेदार दौड़ गये, देखा कि एक नाजुक बदन बैठी गा रही है। उसकी सूरत देखकर लोगों के हवास ठिकाने न रहे, बहुत देर के बाद बोले, “महाराज ने महल के करीब आपको बुलाया है और आपका गाना सुनने के बहुत मुश्तहक हैं। चपला ने कुछ इनकार न किया, उन लोगों के साथ-साथ महल के नीचे चली आई औऱ गाने लगी। उसके गाने महाराज को बेताब कर दिया। दिल को रोक न सके, हुक्म दिया कि उसको दीवान खाने में ले जाकर बैठाया जाय और रोशनी का बन्दोबस्त हो, हम भी आते हैं। महारानी ने कहा, “आवाज से यह औरत मालूम होती है, क्या हर्ज है अगर महल में बुला ली जाये।” महाराज ने कहा, “पहले उसको देख-समझ लें तो फिर जैसा होगा किया जायेगा, अगर यहाँ आने लायक होगी तो तुम्हारी भी खातिर कर दी जायेगी।”
हुक्म की देर थी, सब सामान लैस हो गया। महाराज दीवान खाने में जा विराजे। बीबी चपला ने झुककर सलाम किया। महाराज ने देखा कि एक औरत निहायत हसीन, रंग गोरा, सुरमई रंग की साड़ी और धानी बूटीदार चोली दक्षिणी ढंग पर पहने पीछे से लांग बांधे, खुलासा गड़ारीदार जूड़ा कांटे से बांधे, जिस पर एक छोटा -सा सोने का फूल, माथे पर एक बड़ा-सा रोली का टीका लगाये, कानों में सोने की निहायत खूबसूरत जड़ाऊ बालियां पहने, नाक में सरजा की नथ, एक टीका सोने का और घुँघरूदार पटड़ी गूथन के गले में पहने, हाथ में बिना घुंडी का कड़ा व छन्देली जिसके ऊपर काली चूड़ियां, कमर में लच्छेदार कर्धनी और पैर में सांकड़ा पहने अजब आनबान से सामने खड़ी है। गहना तो मुख्तसर ही है मगर बदन की गठाई और सुडौली पर इतना ही आफत हो रहा है। गौर से निगाह करने पर एक छोटा-सा तिल ठुड्डी के बगल में देखा जो चेहरे को औऱ भी रौनक दे रहा था। महाराज के होश जाते रहे, अपनी महारानी साहब को भूल गये जिस पर रीझे हुए थे, झट मुंह से निकल पड़ा, “वाह! क्या कहना है!” टकटकी बंध गई। महाराज ने कहा, “आओ, यहाँ बैठो।” बीबी चपला कमर को बल देती हुई अठखेलियों के साथ कुछ नजदीक जा सलाम करके बैठ गई। महाराज उसके हुस्न के रोब में आ गये। ज्यादा कुछ कह न सके एकटक सूरत देखने लगे। फिर पूछा, “तुम्हारा मकान कहाँ है? कौन हो? क्या काम है? तुम्हारी जैसी औऱत का अकेली रात के समय घूमना ताज्जुब में डालता है।” उसने जवाब दिया, “मैं ग्वालियर की रहने वाली पटलापा कत्थक की लड़की हूँ। रम्भा मेरा नाम है। मेरा बाप भारी गवैया था। एक आदमी पर मेरा जी आ गया, बात-की-बात में वह मुझसे गुस्सा हो के चला गया, उसी की तलाश में मारी-मारी फिरती हूँ। क्या करूं, अकसर दरबारों में जाती हूं कि शायद कहीं मिल जाये क्योंकि वह भी बड़ा भारी गवैया है, सो ताज्जुब नहीं, किसी दरबार में हो, इस वक्त तबीयत की उदासी में यों ही कुछ गा रही थी कि सरकार ने याद किया, हाजिर हुई।”
महाराज ने कहा, “तुम्हारी आवाज बहुत भली है, कुछ गाओ तो अच्छी तरह सुनूँ!”
चपला ने कहा, “महाराज ने इस नाचीज पर बड़ी मेहरबानी की जो नजदीक बुलाकर बैठाया और लौंडी को इज्जत दी। अगर आप मेरा गाना सुनना चाहते हैं तो अपने मुलाजिम सपर्दारों को तलब करें, वे लोग साथ दें तो कुछ गाने का लुत्फ आये, वैसे तो मैं हर तरह से गाने को तैयार हूँ।”
यह सुन महाराज बहुत खुश हुए और हुक्म दिया कि, “सपर्दा हाजिर किये जायें।’ प्यादे दौड़ गये और सपर्दाओं का सरकारी हुक्म सुनाया। वे सब हैरान हो गये कि तीन पहर रात गुजरे महाराज को क्या सूझी है। मगर लाचार होकर आना ही पड़ा। आकर जब एक चाँद के टुकड़े को सामने देखा तो तबीयत खुश हो गई। कुढ़े हुए आये थे मगर अब खिल गये। झट साज मिला करीने से बैठे, चपला ने गाना शुरू किया। अब क्या था, साज व सामान के साथ गाना, पिछली रात का समा, महाराज को बुत बना दिया, सपर्दा भी दंग रह गये, तमाम इल्म आज खर्च करना पड़ा। बेवक्त की महफिल थी तिस पर भी बहुत-से आदमी जमा हो गये। दो चीज दरबारी की गायी थी कि सुबह हो गई। फिर भैरवी गाने के बाद चपला ने बन्द करके अर्ज किया, “महाराज, अब सुबह हो गई, मैं भी कल की थकी हूँ क्योंकि दूर से आई थी, अब हुक्म हो तो रुखसत होऊँ?”
चपला की बात सुनकर महाराज चौंक पड़े। देखा तो सचमुच सवेरा हो गया है। अपने गले से मोती की माला उतारकर इनाम में दी और बोले, “अभी हमारा जी तुम्हारे गाने से बिल्कुल नहीं भरा है, कुछ रोज यहाँ ठहरो, फिर जाना!”
रम्भा ने कहा, “अगर महाराज की इतनी मेहरबानी लौंडी के हाल पर है तो मुझको कोई उज्र रहने में नहीं!”
महाराज ने हुक्म दिया कि रम्भा के रहने का पूरा बन्दोबस्त हो और आज रात को आम महफिल का सामान किया जाये। हुक्म पाते ही सब सरंजाम हो गया, एक सुन्दर मकान में रम्भा का डेरा पड़ गया, नौकर मजदूर सब तैनात कर दिये गये।
आज की रात आज की महफिल थी। अच्छे आदमी सब इकट्ठे हुए, रम्भा भी हाजिर हुई, सलाम करके बैठ गई। महफिल में कोई ऐसा न था जिसकी निगाह रम्भा की तरफ न हो। जिसको देखो लम्बी साँसे भर रहा है, आपस में सब यही कहते हैं कि “वाह, क्या भोली सूरत है, क्यों? कभी आज तक ऐसी हसीना तुमने देखी थी?”
रम्भा ने गाना शुरू किया। अब जिसको देखिए मिट्टी की मूरत हो रहा है। एक गीत गाकर चपला ने अर्ज किया, “महाराज एक बार नौगढ़ में राजा सुरेन्द्रसिंह की महफिल में लौंडी ने गाया था। वैसा गाना आज तक मेरा फिर न जमा, वजह यह थी कि उनके दीवान के लड़के तेजसिंह ने मेरी आवाज के साथ मिलकर बीन बजाई थी, हाय, मुझको वह महफिल कभी न भूलेगी! दो-चार रोज हुआ, मैं फिर नौगढ़ गई थी, मालूम हुआ कि वह गायब हो गया। तब मैं भी वहाँ न ठहरी, तुरन्त वापस चली आई।”
इतना कह रम्भा अटक गई। महाराज तो उस पर दिलोजान दिये बैठे थे। बोले, “आजकल तो वह मेरे यहाँ कैद है पर मुश्किल तो यह है कि मैं उसको छोड़ूँगा नहीं और कैद की हालत में वह कभी बीन न बजायेगा!”
रम्भा ने कहा, “जब वह मेरा नाम सुनेगा तो जरूर इस बात को कबूल करेगा मगर उसको एक तरीके से बुलाया जाये, वह अलबत्ता मेरा संग देगा नहीं तो मेरी भी न सुनेगा क्योंकि वह बड़ा जिद्दी है।”
महाराज ने पूछा, ” वह कौन-सा तरीका है?” रम्भा ने कहा, ” एक तो उसके बुलाने के लिए ब्राह्मण जाये और वह उम्र में बीस वर्ष से ज्यादा न हो, दूसरे जब वह उसको लावे, दूसरा कोई संग न हो, अगर भागने का खौफ हो तो बेड़ी उसके पैर में पड़ी रहे इसका कोई मुजायका नहीं, तीसरे यह कि बीन कोई उम्दा होनी चाहिए।”
महाराज ने कहा, “यह कौन-सी बड़ी बात है।” इधर-उधर देखा तो एक ब्राह्मण का लड़का चेतराम नामी उस उम्र का नजर आया, उसे हुक्म दिया कि तू जाकर तेजसिंह को ले आ, मीर मुंशी ने कहा, “तुम जाकर पहरे वालों को समझा दो कि तेजसिंह के आने में कोई रोक-टोक न करे। हाँ, एक बेड़ी उसके पैर में जरूर पड़ी रहे।”
हुक्म पा चेतराम तेजसिंह को लेने गया और मीरमुंशी ने भी पहरेवालों को महाराज का हुक्म सुनाया। उन लोगों को क्या उज्र था, तेजसिंह को अकेले रवाना कर दिया। तेजसिंह तुरन्त समझ गये कि कोई दोस्त जरूर यहाँ आ पहुंचा है तभी तो उसने ऐसी चालाकी की शर्त से मुझको बुलाया है। खुशी-खुशी चेतराम के साथ रवाना हुए। जब महफिल में आये, अजब तमाशा नजर आया। देखा कि एक बहुत ही खूबसूरत औऱत बैठी है और सब उसी की तरफ देख रहे हैं। जब तेजसिंह महफिल के बीच में पहुँचे, रम्भा ने आवाज दी, “आओ, आओ तेजसिंह, रम्भा कब से आपकी राह देख रही है! भला वह बीन कब भूलेगी तो आपने नौगढ़ में बजायी थी!”
यह कहते हुए रम्भा ने तेजसिंह की तरफ देखकर बायीं आँख बन्द की। तेजसिंह समझ गये कि यह चपला है, बोले, “रम्भा, तू आ गई। अगर मौत भी सामने नजर आती हो तो भी तेरे साथ बीन बजा के मरूंगा, क्योंकि तेरे जैसे गाने वाली भला काहे को मिलेगी!”
तेजसिंह और रम्भा की बात सुनकर महाराज को बड़ा ताज्जुब हुआ मगर धुन तो यह थी कि कब बीन बजे और कब रम्भा गाये। बहुत उम्दी बीन तेजसिंह के सामने रक्खी गई और उन्होंनें बजाना शुरू किया, रम्भा भी गाने लगी। अब जो समा बँधा उसकी क्या तारीफ की जाये। महाराज तो सकते-की सी हालत में हो गये। औरों की कैफियत दूसरी हो गयी।
एक गीत का साथ देकर तेजसिंह ने कहा, “बस, मैं एक रोज में एक ही गीत या बोल बजाता हूं इससे ज्यादा नहीं। अगर आपको सुनने का ज्यादा शौक हो तो कल फिर सुन लीजिएगा!”
रम्भा ने भी कहा, “हाँ, महाराज यही तो इनमें ऐब है! राजा सुरेन्द्रसिंह, जिनके यह नौकर थे, कहते-कहते थक गये मगर इन्होंने एक न मानी, एक ही बोल बजाकर रह गये। क्या हर्ज है कल फिर सुन लीजिएगा।”
महाराज सोचने लगे कि अजब आदमी है, भला इसमें इसने क्या फायदा सोचा है, अफसोस! मेरे दरबार में यह न हुआ। रम्भा ने भी बहुत कुछ उज्र करके गाना मौकूफ किया। सभी के दिल में हसरत बनी रह गई। महाराज ने अफसोस के साथ मंजलिस बर्खास्त की और तेजसिंह फिर उसी चेतराम ब्राह्मण के साथ जेल भेज दिये गये।
महाराज को तो अब इश्क को हो गया कि तेजसिंह के बीन के साथ रम्भा का गाना सुनें। फिर दूसरे रोज महफिल हुई और उसी चेतराम ब्राह्मण को भेजकर तेजसिंह बुलाये गये। उस रोज भी एक बोल बजाकर उन्होंने बीन रख दी। महाराज का दिल न भरा, हुक्म दिया कि कल पूरी महफिल हो। दूसरे दिन फिर महफिल का सामान हुआ. सब कोई आकर पहले ही से जमा हो गये, मगर रम्भा महफिल में जाने के वक्त से घंटे भर पहले दाँव बचा चेतराम की सूरत बना कैदखाने में पहुंची। पहरेवाले जानते ही थे कि चेतराम अकेला तेजसिंह को ले जायेगा, महाराज का हुक्म ही ऐसा है। उन्होंने ताला खोलकर तेजसिंह को निकाला और पैर में बेड़ी डाल चेतराम के हवाले कर दिया। चेतराम (चपला) उनको लेकर चलते बने। थोड़ी दूर जाकर चेतराम ने तेजसिंह की बेड़ी खोल दी। अब क्या था, दोनों ने जंगल का रास्ता लिया।
कुछ दूर जाकर चपला ने अपनी सूरत बदल ली और असली सूरत में हो गई, अब तेजसिंह उसकी तारीफ करने लगे। चपला ने कहा, “आप मुझको शर्मिन्दा न करें क्योंकि मैं अपने को इतना चालाक नहीं समझती जितनी आप तारीफ कर रहे हैं, फिर मुझको आपको छुड़ाने की कोई गरज भी न थी, सिर्फ चन्द्रकान्ता की मुरौवत से मैंने यह काम किया।”
तेजसिंह ने कहा, “ठीक है, तुमको मेरी गरज काहे हो होगी! गरजू तो मैं ठहरा कि तुम्हारे साथ सपर्दा बना, जो काम बाप-दादों ने न किया था सो करना पड़ा!”
यह सुन चपला हंस पड़ी और बोली, “बस माफ कीजिए, ऐसी बातें न करिए।”
तेजसिंह ने कहा, “वाह, माफ क्या करना, मैं बगैर मजदूरी लिए न छोड़ूँगा।”
चपला ने कहा, “मेरे पास क्या है जो मैं दूं?”
उन्होंने कहा, “जो कुछ तुम्हारे पास है वही मेरे लिए बहुत है।”
चपला ने कहा, “खैर, इन बातों को जाने दीजिए और यह कहिए कि यहाँ से खाली ही चलियेगा या महाराज शिवदत्त को कुछ हाथ भी दिखाइएगा?”
तेजसिंह ने कहा, “इरादा तो मेरा यही था, आगे तुम जैसा कहो।”
चपला ने कहा, “जरूर कुछ करना चाहिए!”
बहुत देर तक आपस में सोच-विचारकर दोनों ने एक चालाकी ठहराई जिसे करने के लिए ये दोनों उस जगह से दूसरे घने जंगल में चले गये।
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Reply

Bookmarks


Posting Rules
You may not post new threads
You may not post replies
You may not post attachments
You may not edit your posts

BB code is On
Smilies are On
[IMG] code is On
HTML code is Off



All times are GMT +5. The time now is 07:05 PM.


Powered by: vBulletin
Copyright ©2000 - 2024, Jelsoft Enterprises Ltd.
MyHindiForum.com is not responsible for the views and opinion of the posters. The posters and only posters shall be liable for any copyright infringement.