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#11 |
Special Member
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#12 |
Special Member
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यहाँ यह फिर बता दें कि राजभाषा नीति और नियमों में कहीं भी किसी भी प्रांत या प्रांतीय भाषा के महत्व और गरिमा को कमतर नहीं आंका गया है. कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत की विशाल आबादी आज भी अंग्रेजी से खौफ़ खाती है. आज रेलवे टिकट, रिजर्वेशन फॉर्म; बैंकों/कार्यालयों के विभिन्न फॉर्म; मंत्रालयों, विभागों, बैंकों, कार्यालयों, संस्थानों, संगठनों, संस्थाओं, कंपनियों आदि के नाम इत्यादि सिर्फ़ अंग्रेजी में नहीं, बल्कि हिंदी और स्थानीय भाषाओं में दिखते हैं तो यह इन्हीं राजभाषा नीति और नियमों के बूते संभव हो पाया है. अंग्रेजी के साथ-साथ, हिंदी में भी प्रश्नपत्र पाने और हिंदी में उत्तर लिखने और हिंदी में साक्षात्कार देने का अवसर और संवैधानिक अधिकार भी इसी राजभाषा नीति के कारण संभव हो पाया है.
राजभाषा हिंदी के ख़िलाफ़ हायतौबा मचाने वाले लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा देश पहले भारत है, बाद में इंडिया. और उन्हें सिर्फ़ अंग्रेजी जानने वाले लोगों के इकहरे दृष्टिकोण से हिंदी की हैसियत नहीं आंकनी चाहिए. इस देश में आज भी अंग्रेजी बोलने वाले लोगों की तादाद सिर्फ़ तीन-चार प्रतिशत के आस-पास है. शेष आबादी के पक्ष को भी देखना अनिवार्य है, जिनके लिए अंग्रेजी अनजानी है और हिंदी और स्थानीय भाषाएँ ही सरकारी दफ्तरों आदि में उनकी तारणहार बनती हैं!
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#13 |
Special Member
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हिंदी के विश्व के भाषायी-पटल पर एक अत्यंत वैज्ञानिक, अत्यंत सुग्राह्य और सुग्राही भाषा होने के भाषा-वैज्ञानिक दावों पर बहस नहीं करते हुए, मैं यहाँ यह भी कहना चाहूँगा कि हिंदी को राजभाषा के रूप में स्थापित नहीं कर पाने और स्थापित नहीं होने देने के पीछे हिंदी की कोई भाषागत विफलता कतई नहीं है, बल्कि तंत्र के एक खास वर्ग की हिंदी-विरोधी मानसिकता, उनकी अनिच्छा और उनका अहं है, जो राजभाषा हिंदी को जन-जन तक नहीं पहुँचने दे रहा है. यह तो स्वीकारने में किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए कि हिंदी में ही सारा सरकारी कामकाज होने से प्रशासन और शासन की पारदर्शिता बढ़ेगी और जनता एवं प्रशासन के बीच की अवंछित दूरी घटेगी.
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#14 |
Special Member
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जो लोग हिंदी को सरकारी कामकाज के लिए कठिन और जटिल बताते नहीं थकते, उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि क्या अंग्रेजी वाकई एकदम सरल-सहज और सुग्राह्य भाषा है? और क्या वे माँ के पेट से ही अंग्रेजी सीखकर इस धरती पर अवतरित हुए थे? या फिर वे भी अंग्रेजी सीखने में एड़ी-चोटी एक करने में पीछे नहीं थे? और यदि वे नौकरी पाने के लिए एड़ी-चोटी एक करके अंग्रेजी सीख सकते हैं, तो जनता की सेवा के लिए भी थोड़ी मेहनत कर ही सकते हैं!
अंग्रेजी तो विदेशी भाषा है. हिंदी अपनी भाषा है. इसे सीखना तो और भी आसान होगा! भाषा-वैज्ञानिकों का तो यह कहना है कि जिन्हें अपनी भाषा की समझ नहीं होती, वे विदेशी भाषाओं को भी ठीक से सीख-समझ नहीं सकते. और जो लोग विदेशी भाषा को खूब भली-भाँति सीखने-समझने का दावा करते हैं, उन्हें अपनी भाषा सीखने, समझने और प्रयोग में लाने में कतई कोई कठिनाई नहीं हो सकती!
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#15 |
Special Member
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दरअसल, सरकारी कामकाज में हिंदी को कठिन और जटिल बताने वाले लोगों की समस्या यह है कि वे फाईलों/नोटिंगों में हरदम नकल करके काम चला लेना चाहते हैं. और इसलिए हिंदी में मूल कार्य सृजित नहीं करना चाहते. अब तो कंप्यूटर-युग में कट-कॉपी-पेस्ट का कल्चर इतनी तेजी से चल पड़ा है कि लोगों को कुछेक पृष्ठों की मूल टिप्पणी या पत्र तैयार करने में भी दिक्कत महसूस होती है!
लेकिन इस कट-कॉपी-पेस्ट कल्चर के कारण, हिंदी की बात ही छोड़िए, अंग्रेजी जैसी एलिट भाषा की शुद्धता, सौष्ठव और सौंदर्य का बुरा हाल हो गया है! दस पंक्तियों के नोट या पत्र या फिर ई-मेल में भी पाँच-दस गलतियाँ मिल जाए तो अब आश्चर्य नहीं होता. फिर अंग्रेजी का रौब झाड़ने की मानसिकता और कट-कॉपी-पेस्ट कल्चर के कारण अंग्रेजी भाषा लंबे-लंबे लच्छेदार वाक्यों, लैटिन मुहावरों, दुहरावग्रस्त वाक्य-विन्यासों, कॉमन एररों और एक बार में बिना शब्दकोश के समझ में नहीं आने वाली दुर्बोध शब्दावलियों (जारगनों) से स्वयं को मुक्त नहीं कर पा रही है. इस कारण वह हिंदी की तुलना में आम आदमी के करीब नहीं आ पा रही है. और इसी कारण हिंदी आम आदमी की पहली पसंद बनी रहेगी.
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#16 |
Special Member
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अपने दफ्तरों के वातानुकूलित कमरों में बैठकर जनता की सेवा करने वाले लोग भले ही अंग्रेजी को जबरन आसान कहते रहें, हिंदी के बिना उनका भी गुजारा नहीं होने वाला! जो लोग बात-बात पर फैशन के तौर पर यह कहते नहीं थकते कि आई डोंट नो हिंदी, यार!, वे भी अंग्रेजी में हिंदी की मिलावट किए बिना अपनी बात पूरी नहीं करते. यानी वे भी इंगलिश नहीं, हिंदी की तासीर वाली हिंगलिश ही बोलते हैं! इसके उलट, जो लोग हिंदी के साथ इंगलिश की मिलावट करके बोलने की विवशता ढोते हैं, वे सीधे-सीधे तौर पर, किसी भी भाषा के साथ इंसाफ नहीं कर पा रहे हैं और स्वयं ही भाषा-च्युत हो रहे हैं.
यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि मेरा संकेत वैसे लोगों की तरफ है जो जानबूझ कर भाषा को भ्रष्ट करने में खुद को महान समझते हैं! अन्यथा, हिंदी परदेसी भाषाओं के शब्दों को भी अपनाने में कोई परहेज नहीं करती. कोई भी जीवंत और प्रगतिशील भाषा अपनी खिड़कियाँ ताजी हवा के झोंकों के स्वागत के लिए हमेशा खुली रखती है.
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#17 |
Special Member
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इस आलेख के आखिर में, मैं उस न्यूज आइटम की चर्चा करते हुए अपनी बात आगे बढ़ाऊँगा, जिसमें यह बताने की कोशिश की गई है कि अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या में 274 प्रतिशत तक का इजाफा हुआ है. इसलिए यह निष्कर्ष निकालने में देरी नहीं की गई कि हिंदी की तुलना में अंग्रेजी ज्यादा "पॉपुलर" होती जा रही है.
यहाँ यह तो कहने की जरूरत नहीं कि भारत में सरकारी स्कूलों की स्थिति उतनी अच्छी नहीं है, जितनी होनी चाहिए. इसलिए गरीब से गरीब माँ-बाप भी अपना पेट काटकर अपने बच्चों को तथाकथित इंगलिश मीडियम स्कूलों में इस उम्मीद के साथ भेजते हैं कि वहाँ बहुत पढ़ाई होती है. दूसरी उम्मीद ये रहती है कि इन इंगलिश मीडियम स्कूलों में अगर उनके बच्चे पढ़ेंगे तो वे फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने लगेंगे और उनको आनन-फानन में नौकरी मिल जाएगी. लेकिन उनको जब तक इस कड़वे सच का अहसास होता है कि केवल अंग्रेजी मीडियम के स्कूल में दाखिला करा देने से न तो बच्चों की अंग्रेजी दुरूस्त होती है और न ही केवल पटर-पटर, गलत-सलत या सही-शुद्ध अंग्रेजी बोल लेने से उच्च शिक्षा पाने या नौकरी पाने में आसानी होती है, तब तक देर हो चुकी होती है. उनको तब और चोट पहुँचती है, जब उनको यह भी अहसास होता है कि अंग्रेजी के चक्कर में उनके बच्चे न तो हिंदी और न ही अपनी मातृभाषा या स्थानीय भाषा ठीक से सीख पाये हैं! इसके अलावा, अधिकांश माँ-बाप इस शोधपूर्ण भाषा-वैज्ञानिक तथ्य को नहीं जानते कि बच्चों के पठन-पाठन का सबसे कारगर माध्यम उसकी मातृभाषा होती है और मातृभाषा में ही किसी विषय की बेहतर समझ और पकड़ बन पाती है.
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#18 |
Special Member
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यहाँ यह भी बता दें कि विस्तृत और गहन शोधों से यह बात भी साबित हो गई है कि किसी भाषा के अध्ययन में लगाए गए वर्षों की संख्या से कतई जरूरी नहीं कि बच्चा उस भाषा पर उसी अनुपात में दक्षता हासिल कर पाएगा. यानी अंग्रेजी मीडियम स्कूल में कई वर्षों तक पढ़ लेने पर भी, यह कतई जरूरी नहीं कि बच्चा अंग्रेजी पढ़ना-लिखना-बोलना ठीक-ठीक सीख ही जाए!
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#19 |
Special Member
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शोध में यह भी पाया गया है कि आप अपनी पहली भाषा यानी अपनी मातृभाषा पर अधिकार कर लेते हैं तो आप कोई दूसरी भाषा यथा अंग्रेजी ज्यादा जल्दी और बेहतर ढंग से सीख सकते हैं. लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण अफसोस की बात है कि अंग्रेजी का ढोल पीटने वाले लोग माँ-बाप को इन अनिवार्य और मूलभूत तथ्यों से जानबूझकर अवगत नहीं कराते हैं. उन्हें तो बच्चों के बेहतर भविष्य से नहीं, बल्कि अपने मुनाफे से मतलब है! लोग अगर सच जान-समझ लेंगे तो उनकी दुकानदारी ही बंद जो हो जाएगी!
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#20 |
Special Member
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यहाँ इसी क्रम में यह तथ्य और सच्चाई समझ लेना आवश्यक है कि तथाकथित इंगलिश मीडियम स्कूलों में बच्चों के बढ़ते दाखिले से अंग्रेजी की लोकप्रियता का तर्क गढ़ना एकदम असंगत और भ्रामक है. दरअसल, यह अंग्रेजी की लोकप्रियता नहीं, एक तरह की असुरक्षा का झूठा और तात्कालिक भय तथा अड़ोस-पड़ोस के दिखावापूर्ण नकल का मिलाजुला परिणाम है, जिसके कारण लोग अपने बच्चों को इन देशी हिंदी-आईट इंगलिश मीडियम स्कूलों में भेजने को प्रेरित होते हैं. इसका यह हरगिज मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि जो माँ-बाप अपने बच्चों को इस तरह के इंगलिश मीडियम स्कूलों में भेजते हैं, उनका हिंदी पर से भरोसा ही उठ गया है.
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