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Old 09-12-2010, 01:58 PM   #11
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गधा रहा गधा ही

एक जंगल में एक शेर रहता था। गीदड उसका सेवक था। जोडी अच्छी थी। शेरों के समाज में तो उस शेर की कोई इज्जत नहीं थी, क्योंकि वह जवानी में सभी दूसरे शेरों से युद्ध हार चुका था, इसलिए वह अलग-थलग रहता था। उसे गीदड जैसे चमचे की सख्त जरुरत थी जो चौबीस घंटे उसकी चमचागिरी करता रहे। गीदड को बस खाने का जुगाड चाहिए था। पेट भर जाने पर गीदड उस शेर की वीरता के ऐसे गुण गाता कि शेर का सीना फूलकर दुगना चौडा हो जाता।

एक दिन शेर ने एक बिगडैल जंगली सांड का शिकार करने का साहस कर डाला। सांड बहुत शक्तिशाली था। उसने लात मारकर शेर को दूर फेंक दिया, जब वह उठने को हुआ तो सांड ने फां-फां करते हुए शेर को सीगों से एक पेड के साथ रगड दिया।

किसी तरह शेर जान बचाकर भागा। शेर सींगो की मार से काफी जख्मी हो गया था। कई दिन बीते, परन्तु शेर के जख्म टीक होने का नाम नहीं ले रहे थे। ऐसी हालत में वह शिकार नहीं कर सकता था। स्वयं शिकार करना गीदड के बस का नहीं था। दोनों के भूखों मरने की नौबत आ गई। शेर को यह भी भय था कि खाने का जुगाड समाप्त होने के कारण गीदड उसका साथ न छोड जाए।

शेर ने एक दिन उसे सुझाया “देख, जख्मों के कारण मैं दौड नहीं सकता। शिकार कैसे करुं? तु जाकर किसी बेवकूफ-से जानवर को बातों में फंसाकर यहां ला। मैं उस झाडी में छिपा रहूंगा।”

गीदड को भी शेर की बात जंच गई। वह किसी मूर्ख जानवर की तलाश में घूमता-घूमता एक कस्बे के बाहर नदी-घाट पर पहुंचा। वहां उसे एक मरियल-सा गधा घास पर मुंह मारता नजर आया। वह शक्ल से ही बेवकूफ लग रहा था।

गीदड गधे के निकट जाकर बोला “पांय लागूं चाचा। बहुत कमजोर हो अए हो, क्या बात हैं?”

गधे ने अपना दुखडा रोया “क्या बताऊं भाई, जिस धोबी का मैं गधा हूं, वह बहुत क्रूर हैं। दिन भर ढुलाई करवाता हैं और चारा कुछ देता नहीं।”

गीदड ने उसे न्यौता दिया “चाचा, मेरे साथ जंगल चलो न, वहां बहुत हरी-हरी घास हैं। खूब चरना तुम्हारी सेहत बन जाएगी।”

गधे ने कान फडफडाए “राम राम। मैं जंगल में कैसे रहूंगा? जंगली जानवर मुझे खा जाएंगे।”

“चाचा, तुम्हें शायद पता नहीं कि जंगल में एक बगुला भगतजी का सत्संग हुआ था। उसके बाद सारे जानवर शाकाहारी बन गए हैं। अब कोई किसी को नहीं खाता।” गीदड बोला और कान के पास मुंह ले जाकर दाना फेंका “चाचू, पास के कस्बे से बेचारी गधी भी अपने धोबी मालिक के अत्याचारों से तंग आकर जंगल में आ गई थी। वहां हरी=हरी घास खाकर वह खूब लहरा गई हैं तुम उसके साथ घर बसा लेना।”

गधे के दिमाग पर हरी-हरी घास और घर बसाने के सुनहरे सपने छाने लगे। वह गीदड के साथ जंगल की ओर चल दिया। जंगल में गीदड गधे को उसी झाडी के पास ले गया, जिसमें शेर छिपा बैठा था।इससे पहले कि शेर पंजा मारता, गधे को झाडी में शेर की नीली बत्तियों की टरह चमकती आंखे नजर आ गईं। वह डरकर उछला गधा भागा और भागताही गया। शेर बुझे स्वर में गीदड से बोला “भई, इस बार मैं तैयार नहीं था। तुम उसे दोबारा लाओ इस बार गलती नहीं होगी।”

गीदड दोबारा उस गधे की तलाश में कस्बे में पहुंचा। उसे देखते ही बोला “चाचा, तुमने तो मेरी नाक कटवा दी। तुम अपनी दुल्हन से डरकर भाग गए?”

“उस झाडी में मुझे दो चमकती आंखे दिखाई दी थी, जैसे शेर की होती हैं। मैं भागता न तो क्या करता?” गधे ने शिकायत की।

गीदड झूठमूठ माथा पीटकर बोला “चाचा ओ चाचा! तुम भी निरे मूर्ख हो। उस झाडी में तुम्हारी दुल्हन थी। जाने कितने जन्मों से वह तुम्हारी राह देख रही थी। तुम्हें देखकर उसकी आंखे चमक उठी तो तुमने उसे शेर समझ लिया?”

गधा बहुत लज्जित हुआ, गीदड की चाल-भरी बातें ही ऐसी थी। गधा फिर उसके साथ चल पडा। जंगल में झाडी के पास पहुंचते ही शेर ने नुकीले पंजो से उसे मार गिराया। इस प्रकार शेर व गीदड का भोजन जुटा।
सीखः दूसरों की चिकनी-चुपडी बातों में आने की मूर्खता कभी नहीं करनी चाहिए।
गोलू-मोलू और भालू
गोलू-मोलू और पक्के दोस्त थे। गोलू जहां दुबला-पतला था, वहीं मोलू मोटा गोल-मटोल। दोनों एक-दूसरे पर जान देने का दम भरते थे, लेकिन उनकी जोड़ी देखकर लोगों की हंसी छूट जाती। एक बार उन्हें किसी दूसरे गांव में रहने वाले मित्र का निमंत्रण मिला। उसने उन्हें अपनी बहन के विवाह के अवसर पर बुलाया था।

उनके मित्र का गांव कोई बहुत दूर तो नहीं था लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए जंगल से होकर गुजरना पड़ता था। और उस जंगल में जंगली जानवरों की भरमार थी।

दोनों चल दिए…जब वे जंगल से होकर गुजर रहे थे तो उन्हें सामने से एक भालू आता दिखा। उसे देखकर दोनों भय से थर-थर कांपने लगे। तभी दुबला-पतला गोलू तेजी से दौड़कर एक पेड़ पर जा चढ़ा, लेकिन मोटा होने के कारण मोलू उतना तेज नहीं दौड़ सकता था। उधर भालू भी निकट आ चुका था, फिर भी मोलू ने साहस नहीं खोया। उसने सुन रखा था कि भालू मृत शरीर को नहीं खाते। वह तुरंत जमीन पर लेट गये और सांस रोक ली। ऐसा अभिनय किया कि मानो शरीर में प्राण हैं ही नहीं। भालू घुरघुराता हुआ मोलू के पास आया, उसके चेहरे व शरीर को सूंघा और उसे मृत समझकर आगे बढ़ गया।

जब भालू काफी दूर निकल गया तो गोलू पेड़ से उतरकर मोलू के निकट आया और बोला, ‘‘मित्र, मैंने देखा था….भालू तुमसे कुछ कह रहा था। क्या कहा उसने ?’’

मोलू ने गुस्से में भरकर जवाब दिया, ‘‘मुझे मित्र कहकर न बुलाओ…और ऐसा ही कुछ भालू ने भी मुझसे कहा। उसने कहा, गोलू पर विश्वास न करना, वह तुम्हारा मित्र नहीं है।’’

सुनकर गोलू शर्मिन्दा हो गया। उसे अभ्यास हो गया था कि उससे कितनी भारी भूल हो गई थी। उसकी मित्रता भी सदैव के लिए समाप्त हो गई। शिक्षा—सच्चा मित्र वही है जो संकट के काम आए।

घंटीधारी ऊंट
एक बार की बात हैं कि एक गांव में एक जुलाहा रहता था। वह बहुत गरीब था। उसकी शादी बचपन में ही हो गई ती। बीवी आने के बाद घर का खर्चा बढना था। यही चिन्ता उसे खाए जाती। फिर गांव में अकाल भी पडा। लोग कंगाल हो गए। जुलाहे की आय एकदम खत्म हो गई। उसके पास शहर जाने के सिवा और कोई चारा न रहा।

शहर में उसने कुछ महीने छोटे-मोटे काम किए। थोडा-सा पैसा अंटी में आ गया और गांव से खबर आने पर कि अकाल समाप्त हो गया हैं, वह गांव की ओर चल पडा। रास्ते में उसे एक जगह सडक किनारे एक ऊंटनी नजर आई। ऊटंनी बीमार नजर आ रही थी और वह गर्भवती थी। उसे ऊंटनी पर दया आ गई। वह उसे अपने साथ अपने घर ले आया।

घर में ऊंटनी को ठीक चारा व घास मिलने लगी तो वह पूरी तरह स्वस्थ हो गई और समय आने पर उसने एक स्वस्थ ऊंट अच्चे को जन्म दिया। ऊंट बच्चा उसके लिए बहुत भाग्यशाली साबित हुआ। कुछ दिनों बाद ही एक कलाकार गांव के जीवन पर चित्र बनाने उसी गांव में आया। पेंटिंग के ब्रुश बनाने के लिए वह जुलाहे के घर आकर ऊंट के बच्चे की दुम के बाल ले जाता। लगभग दो सप्ताह गांव में रहने के बाद चित्र बनाकर कलाकार चला गया।

इधर ऊंटनी खूब दूध देने लगी तो जुलाहा उसे बेचने लगा। एक दिन वहा कलाकार गांव लौटा और जुलाहे को काफी सारे पैसे दे गया, क्योंकि कलाकार ने उन चित्रों से बहुत पुरस्कार जीते थे और उसके चित्र अच्छी कीमतों में बिके थे। जुलाहा उस ऊंट बच्चे को अपना भाग्य का सितारा मानने लगा। कलाकार से मिली राशी के कुछ पैसों से उसने ऊंट के गले के लिए सुंदर-सी घंटी खरीदी और पहना दी। इस प्रकार जुलाहे के दिन फिर गए। वह अपनी दुल्हन को भी एक दिन गौना करके ले आया।

ऊंटों के जीवन में आने से जुलाहे के जीवन में जो सुख आया, उससे जुलाहे के दिल में इच्छा हुई कि जुलाहे का धंधा छोड क्यों न वह ऊंटों का व्यापारी ही बन जाए। उसकी पत्नी भी उससे पूरी तरह सहमत हुई। अब तक वह भी गर्भवती हो गई थी और अपने सुख के लिए ऊंटनी व ऊंट बच्चे की आभारी थी।

जुलाहे ने कुछ ऊंट खरीद लिए। उसका ऊंटों का व्यापार चल निकला।अब उस जुलाहे के पास ऊंटों की एक बडी टोली हर समय रहती। उन्हें चरने के लिए दिन को छोड दिया जाता। ऊंट बच्चा जो अब जवान हो चुका था उनके साथ घंटी बजाता जाटा।

एक दिन घंटीधारी की तरह ही के एक युवा ऊंट ने उससे कहा “भैया! तुम हमसे दूर-दूर क्यों रहते हो?”

घंटीधारी गर्व से बोला “वाह तुम एक साधारण ऊंट हो। मैं घंटीधारी मालिक का दुलारा हूं। मैं अपने से ओछे ऊंटों में शामिल होकर अपना मान नहीं खोना चाहता।”

उसी क्षेत्र में वन में एक शेर रहता था। शेर एक ऊंचे पत्थर पर चढकर ऊंटों को देखता रहता था। उसे एक ऊंट और ऊंटों से अलग-थलग रहता नजर आया। जब शेर किसी जानवर के झुंड पर आक्रमण करता हैं तो किसी अलग-थलग पडे को ही चुनता हैं। घंटीधारी की आवाज के कारण यह काम भी सरल हो गया था। बिना आंखों देखे वह घंटी की आवाज पर घात लगा सकता था।

दूसरे दिन जब ऊंटों का दल चरकर लौट रहा था तब घंटीधारी बाकी ऊंटों से बीस कदम पीछे चल रहा था। शेर तो घात लगाए बैठा ही था। घंटी की आवाज को निशाना बनाकर वह दौडा और उसे मारकर जंगल में खींच ले गया। ऐसे घंटीधारी के अहंकार ने उसके जीवन की घंटी बजा दी।

सीखः जो स्वयं को ही सबसे श्रेष्ठ समझता हैं उसका अहंकार शीघ्र ही उसे ले डूबता हैं।
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चापलूस मंडली

जंगल में एक शेर रहता था। उसके चार सेवक थे चील, भेडिया, लोमडी और चीता। चील दूर-दूर तक उडकर समाचार लाती। चीता राजा का अंगरक्षक था। सदा उसके पीछे चलता। लोमडी शेर की सैक्रेटरी थी। भेडिया गॄहमंत्री था। उनका असली काम तो शेर की चापलूसी करना था। इस काम में चारों माहिर थे। इसलिए जंगल के दूसरे जानवर उन्हें

चापलूस मंडली कहकर पुकारते थे। शेर शिकार करता। जितना खा सकता वह खाकर बाकी अपने सेवकों के लिए छोड जाया करता था। उससे मजे में चारों का पेट भर जाता। एक दिन चील ने आकर चापलूस मंडली को सूचना दी “भाईयो! सडक के किनारे एक ऊंट बैठा हैं।”

भेडिया चौंका “ऊंट! किसी काफिले से बिछुड गया होगा।”

चीते ने जीभ चटकाई “हम शेर को उसका शिकार करने को राजी कर लें तो कई दिन दावत उडा सकते हैं।”

लोमडी ने घोषणा की “यह मेरा काम रहा।”

लोमडी शेर राजा के पास गई और अपनी जुबान में मिठास घोलकर बोली “महाराज, दूत ने खबर दी हैं कि एक ऊंट सडक किनारे बैठा हैं। मैंने सुना हैं कि मनुष्य के पाले जानवर का मांस का स्वाद ही कुछ और होता हैं। बिल्कुल राजा-महाराजाओं के काबिल। आप आज्ञा दें तो आपके शिकार का ऐलान कर दूं?”

शेर लोमडी की मीठी बातों में आ गया और चापलूस मंडली के साथ चील द्वारा बताई जगह जा पहुंचा। वहां एक कमजोर-सा ऊंट सडक किनारे निढाल बैठा था। उसकी आंखें पीली पड चुकी थीं। उसकी हालत देखकर शेर ने पूछा “क्यों भाई तुम्हारी यह हालात कैसे हुई?”

ऊंट कराहता हुआ बोला “जंगल के राजा! आपको नहीं पता इंसान कितना निर्दयी होता हैं। मैं एक ऊंटो के काफिले में एक व्यापार माल ढो रहा था। रास्ते में मैं बीमार पड गया। माल ढोने लायक नहीं उसने मुझे यहां मरने के लिए छोड दिया। आप ही मेरा शिकार कर मुझे मुक्ति दीजिए।”

ऊंट की कहानी सुनकर शेर को दुख हुआ। अचानक उसके दिल में राजाओं जैसी उदारता दिखाने की जोरदार इच्छा हुई। शेर ने कहा “ऊंट, तुम्हें कोई जंगली जानवर नहीं मारेगा। मैं तुम्हें अभय देता हूं। तुम हमारे साथ चलोगे और उसके बाद हमारे साथ ही रहोगे।”

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चापलूस मंडली के चेहरे लटक गए। भेडिया फुसफुसाया “ठीक हैं। हम बाद में इसे मरवाने की कोई तरकीब निकाल लेंगे। फिलहाल शेर का आदेश मानने में ही भलाई हैं।”

इस प्रकार ऊंट उनके साथ जंगल में आया। कुछ ही दिनों में हरी घास खाने व आरम करने से वह स्वस्थ हो गया। शेर राजा के प्रति वह ऊंट बहुत कॄतज्ञ हुआ। शेर को भी ऊंट का निस्वार्थ प्रेम और भोलापन भाने लगा। ऊंट के तगडा होने पर शेर की शाही सवारी ऊंट के ही आग्रह पर उसकी पीठ पर निकलने लगी लगी वह चारों को पीठ पर बिठाकर चलता।

एक दिन चापलूस मंडली के आग्रह पर शेर ने हाथी पर हमला कर दिया। दुर्भाग्य से हाथी पागल निकला। शेर को उसने सूंड से उठाकर पटक दिया। शेर उठकर बच निकलने में सफल तो हो गया, पर उसे चोंटें बहुत लगीं।

शेर लाचार होकर बैठ गया। शिकार कौन करता? कई दिन न शेर ने ने कुछ खाया और न सेवकों ने। कितने दिन भूखे रहा जा सकता हैं? लोमडी बोली “हद हो गई। हमारे पास एक मोटा ताजा ऊंट हैं और हम भूखे मर रहे हैं।”

चीते ने ठंडी सांस भरी “क्या करें? शेर ने उसे अभयदान जो दे रखा हैं। देखो तो ऊंट की पीठ का कूबड कितना बडा हो गया हैं। चर्बी ही चर्बी भरी हैं इसमें।”

भेडिए के मुंह से लार टपकने लगी “ऊंट को मरवाने का यही मौका हैं दिमाग लडाकर कोई तरकीब सोचो।”

लोमडी ने धूर्त स्वर में सूचना दी “तरकीब तो मैंने सोच रखी हैं। हमें एक नाटक करना पडेगा।”

सब लोमडी की तरकीब सुनने लगे। योजना के अनुसार चापलूस मंडली शेर के पास गई। सबसे पहले चील बोली “महाराज, आपको भूखे पेट रहकर मरना मुझसे नहीं देखा जाता। आप मुझे खाकर भूख मिटाइए।”

लोमडी ने उसे धक्का दिया “चल हट! तेरा मांस तो महाराज के दांतों में फंसकर रह जाएगाअ। महाराज, आप मुझे खाइए।”

भेडिया बीच में कूदा “तेरे शरीर में बालों के सिवा हैं ही क्या? महाराज! मुझे अपना भोजन बनाएंगे।”

अब चीता बोला “नहीं! भेडिए का मांस खाने लायक नहीं होता। मालिक, आप मुझे खाकर अपनी भूख शांत कीजिए।”

चापलूस मंडली का नाटक अच्छा था। अब ऊंट को तो कहना ही पडा “नहीं महाराज, आप मुझे मारकर खा जाइए। मेरा तो जीवन ही आपका दान दिया हुआ हैं। मेरे रहते आप भूखों मरें, यह नहीं होगा।”

चापलूस मंडली तो यहीं चाहती थी। सभी एक स्वर में बोले “यही ठीक रहेगा, महाराज! अब तो ऊंट खुद ही कह रहा हैं।”

चीता बोला “महाराज! आपको संकोच हो तो हम इसे मार दें?”

चीता व भेडिया एक साथ ऊंट पर टूट पडे और ऊंट मारा गया।

सीखः चापलूसों की दोस्ती हमेशा खतरनाक होती हैं।
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झगडालू मेढक

एक कुएं में बहुत से मेढक रहते थे। उनके राजा का नाम था गंगदत्त। गंगदत्त बहुत झगडालू स्वभाव का था। आसपास दो तीन और भी कुएं थे। उनमें भी मेढक रहते थे। हर कुएं के मेढकों का अपना राजा था। हर राजा से किसी न किसी बात पर गंगदत्त का झगडा चलता ही रहता था। वह अपनी मूर्खता से कोई गलत काम करने लगता और बुद्धिमान मेढक रोकने की कोशिश करता तो मौका मिलते ही अपने पाले गुंडे मेढकों से पिटवा देता। कुएं के मेढकों में भीतर गंगदत्त के प्रति रोष बढता जा रहा था। घर में भी झगडों से चैन न था। अपनी हर मुसीबत के लिए दोष देता।

एक दिन गंगदत्त पडौसी मेढक राजा से खूब झगडा। खूब तू-तू मैं-मैं हुई। गंगदत्त ने अपने कुएं आकर बताया कि पडौसी राजा ने उसका अपमान किया हैं। अपमान का बदला लेने के लिए उसने अपने मेढकों को आदेश दिया कि पडौसी कुएं पर हमला करें सब जानते थे कि झगडा गंगदत्त ने ही शुरु किया होगा।

कुछ स्याने मेढकों तथा बुद्धिमानों ने एकजुट होकर एक स्वर में कहा “राजन, पडौसी कुएं में हमसे दुगने मेढक हैं। वे स्वस्थ व हमसे अधिक ताकतवर हैं। हम यह लडाई नहीं लडेंगे।”

गंगदत्त सन्न रह गया और बुरी तरह तिलमिला गया। मन ही मन में उसने ठान ली कि इन गद्दारों को भी सबक सिखाना होगा। गंगदत्त ने अपने बेटों को बुलाकर भडकाया “बेटा, पडौसी राजा ने तुम्हारे पिताश्री का घोर अपमान किया हैं। जाओ, पडौसी राजा के बेटों की ऐसी पिटाई करो कि वे पानी मांगने लग जाएं।”

गंगदत्त के बेटे एक दूसरे का मुंह देखने लगे। आखिर बडे बेटे ने कहा “पिताश्री, आपने कभी हमें टर्राने की इजाजत नहीं दी। टर्राने से ही मेढकों में बल आता हैं, हौसला आता हैं और जोश आता हैं। आप ही बताइए कि बिना हौसले और जोश के हम किसी की क्या पिटाई कर पाएंगे?”

अब गंगदत्त सबसे चिढ गया। एक दिन वह कुढता और बडबडाता कुएं से बाहर निकल इधर-उधर घूमने लगा। उसे एक भयंकर नाग पास ही बने अपने बिल में घुसता नजर आया। उसकी आंखें चमकी। जब अपने दुश्मन बन गए हो तो दुश्मन को अपना बनाना चाहिए। यह सोच वह बिल के पास जाकर बोला “नागदेव, मेरा प्रणाम।”

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नागदेव फुफकारा “अरे मेढक मैं तुम्हारा बैरी हूं। तुम्हें खा जाता हूं और तू मेरे बिल के आगे आकर मुझे आवाज दे रहा हैं।

गंगदत्त टर्राया “हे नाग, कभी-कभी शत्रुओं से ज्यादा अपने दुख देने लगते हैं। मेरा अपनी जाति वालों और सगों ने इतना घोर अपमान किया हैं कि उन्हें सबक सिखाने के लिए मुझे तुम जैसे शत्रु के पास सहायता मांगने आना पडा हैं। तुम मेरी दोस्ती स्वीकार करो और मजे करो।”

नाग ने बिल से अपना सिर बाहर निकाला और बोला “मजे, कैसे मजे?”

गंगदत्त ने कहा “मैं तुम्हें इतने मेढक खिलाऊंगा कि तुम मुटाते-मुटाते अजगर बन जाओगे।”

नाग ने शंका व्यक्त की “पानी में मैं जा नहीं सकता। कैसे पकडूंगा मेडक?”

गंगदत्त ने ताली बजाई “नाग भाई, यहीं तो मेरी दोस्ती तुम्हारे काम आएगी। मैने पडौसी राजाओं के कुओं पर नजर रखने के लिए अपने जासूस मेडकों से गुप्त सुरंगें खुदवा रखी हैं। हर कुएं तक उनका रास्ता जाता हैं। सुरंगें जहां मिलती हैं। वहां एक कक्ष हैं। तुम वहां रहना और जिस-जिस मेढक को खाने के लिए कहूं, उन्हें खाते जाना।”

नाग गंगदत्त से दोस्ती के लिए तैयार हो गया। क्योंकि उसमें उसका लाभ ही लाभ था। एक मूर्ख बदले की भावना में अंधे होकर अपनों को दुशमन के पेट के हवाले करने को तैयार हो तो दुश्मन क्यों न इसका लाभ उठाए?

नाग गंगदत्त के साथ सुरंग कक्ष में जाकर बैठ गया। गंगदत्त ने पहले सारे पडौसी मेढक राजाओं और उनकी प्रजाओं को खाने के लिए कहा। नाग कुछ सप्ताहों में सारे दूसरे कुओं के मेढक सुरंगों के रास्ते जा-जाकर खा गया। जब सब समाप्त हो गए तो नाग गंगदत्त से बोला “अब किसे खाऊं? जल्दी बता। चौबीस घंटे पेट फुल रखने की आदत पड गई हैं।”

गंगदत्त ने कहा “अब मेरे कुए के सभी स्यानों और बुद्धिमान मेढकों को खाओ।”

वह खाए जा चुके तो प्रजा की बारी आई। गंगदत्त ने सोचा “प्रजा की ऐसी तैसी। हर समय कुछ न कुछ शिकायत करती रहती हैं। उनको खाने के बाद नाग ने खाना मांगा तो गंगदत्त बोला “नागमित्र, अब केवल मेरा कुनबा और मेरे मित्र बचे हैं। खेल खत्म और मेढक हजम।”

नाग ने फन फैलाया और फुफकारने लगा “मेढक, मैं अब कहीं नही जाने का। तू अब खाने का इंतजाम कर वर्ना हिस्स।”

गंगदत्त की बोलती बंद हो गई। उसने नाग को अपने मित्र खिलाए फिर उसके बेटे नाग के पेट में गए। गंगदत्त ने सोचा कि मैं और मेढकी जिन्दा रहे तो बेटे और पैदा कर लेंगे। बेटे खाने के बाद नाग फुफकारा “और खाना कहां हैं? गंगदत्त ने डरकर मेढकी की ओर इशार किया। गंगदत्त ने स्वयं के मन को समझाया “चलो बूढी मेढकी से छुटकारा मिला। नई जवान मेढकी से विवाह कर नया संसार बसाऊंगा।”

मेढकी को खाने के बाद नाग ने मुंह फाडा “खाना।”

गंगदत्त ने हाथ जोडे “अब तो केवल मैं बचा हूं। तुम्हारा दोस्त गंगदत्त । अब लौट जाओ।”

नाग बोला “तू कौन-सा मेरा मामा लगता हैं और उसे हडप गया।

सीखः अपनो से बदला लेने के लिए जो शत्रु का साथ लेता हैं उसका अंत निश्चित हैं।
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झूठी शान

एक जंगल में पहाड की चोटी पर एक किला बना था। किले के एक कोने के साथ बाहर की ओर एक ऊंचा विशाल देवदार का पेड था। किले में उस राज्य की सेना की एक टुकडी तैनात थी। देवदार के पेड पर एक उल्लू रहता था। वह भोजन की तलाश में नीचे घाटी में फैले ढलवां चरागाहों में आता। चरागाहों की लम्बी घासों व झाडियों में कई छोटे-मोटे जीव व कीट-पतंगे मिलते, जिन्हें उल्लू भोजन बनाता। निकट ही एक बडी झील थी, जिसमें हंसो का निवास था। उल्लू पेड पर बैठा झील को निहारा करता। उसे हंसों का तैरना व उडना मंत्रमुग्ध करता। वह सोचा करता कि कितना शानदार पक्षी हैं हंस। एकदम दूध-सा सफेद, गुलगुला शरीर, सुराहीदार गर्दन, सुंदर मुख व तेजस्वी आंखे। उसकी बडी इच्छा होती किसी हंस से उसकी दोस्ती हो जाए।

एक दिन उल्लू पानी पीने के बहाने झील के किनारे उगी एक झाडी पर उतरा। निकट ही एक बहुत शालीन व सौम्य हंस पानी में तैर रहा था। हंस तैरता हुआ झाडी के निकट आया।

उल्लू ने बात करने का बहाना ढूंढा “हंस जी, आपकी आज्ञा हो तो पानी पी लूं। बडी प्यास लगी हैं।”

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Old 09-12-2010, 02:15 PM   #17
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हंस ने चौंककर उसे देखा और बोला “मित्र! पानी प्रकॄति द्वारा सबको दिया गया वरदान हैं। एस पर किसी एक का अधिकार नहीं।”

उल्लू ने पानी पीया। फिर सिर हिलाया जैसे उसे निराशा हुई हो। हंस ने पूछा “मित्र! असंतुष्टनजर आते हो। क्या प्यास नहीं बुझी?”

उल्लू ने कहा “हे हंस! पानी की प्यास तो बुझ गई पर आपकी बतो से मुझे ऐसा लगा कि आप नीति व ज्ञान के सागर हैं। मुझमें उसकी प्यास जग गई हैं। वह कैसे बुझेगी?”

हंस मुस्कुराया “मित्र, आप कभी भी यहां आ सकते हैं। हम बातें करेंगे। इस प्रकार मैं जो जानता हूं, वह आपका हो जाएगा और मैं भी आपसे कुछ सीखूंगा।”

इसके पश्चात हंस व उल्लू रोज मिलने लगे। एक दिन हंस ने उल्लू को बता दिया कि वह वास्तव में हंसों का राजा हंसराज हैं। अपना असली परिचय देने के बाद। हंस अपने मित्र को निमन्त्रण देकर अपने घर ले गया। शाही ठाठ थे। खाने के लिए कमल व नरगिस के फूलों के व्यंजन परोसे गए और जाने क्या-क्या दुर्लभ खाद्य थे, उल्लू को पता ही नहीं लगा। बाद में सौंफ-इलाइची की जगह मोती पेश किए गए। उल्लू दंग रह गया।

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अब हंसराज उल्लू को महल में ले जाकर खिलाने-पिलाने लगा। रोज दावत उडती। उसे डर लगने लगा कि किसी दिन साधारण उल्लू समझकर हंसराज दोस्ती न तोड ले।

इसलिए स्वयं को कंसराज की बराबरी का बनाए रखने के लिए उसने झूठमूठ कह दिया कि वह भी उल्लूओं का राजा उल्लूक राज हैं। झूठ कहने के बाअद उल्लू को लगा कि उसका भी फर्ज बनता हैं कि हंसराज को अपने घर बुलाए।

एक दिन उल्लू ने दुर्ग के भीतर होने वाली गतिविधियों को गौर से देखा और उसके दिमाग में एक युक्ति आई। उसने दुर्ग की बातों को खूब ध्यान से समझा। सैनिकों के कार्यक्रम नोट किए। फिर वह चला हंस के पास। जब वह झील पर पहुंचा, तब हंसराज कुछ हंसनियों के साथ जल में तैर रहा था। उल्लू को देखते ही हंस बोला “मित्र, आप इस समय?”

उल्लू ने उत्तर दिया “हां मित्र! मैं आपको आज अपना घर दिखाने व अपना मेहमान बनाने के लिए ले जाने आया हूं। मैं कई बार आपका मेहमान बना हूं। मुझे भी सेवा का मौका दो।”

हंस ने टालना चाहा “मित्र, इतनी जल्दी क्या हैं? फिर कभी चलेंगे।”

उल्लू ने कहा “आज तो आपको लिए बिना नहीं जाऊंगा।”

हंसराज को उल्लू के साथ जाना ही पडा।

पहाड की चोटी पर बने किले की ओर इशारा कर उल्लू उडते-उडते बोला “वह मेरा किला हैं।” हंस बडा प्रभावित हुआ। वे दोनों जब उल्लू के आवास वाले पेड पर उतरे तो किले के सैनिकों की परेड शुरु होने वाली थी। दो सैनिक बुर्ज पर बिगुल बजाने लगे। उल्लू दुर्ग के सैनिकों के रिज के कार्यक्रम को याद कर चुका था इसलिए ठीक समय पर हंसराज को ले आया था।उल्लू बोला “देखो मित्र, आपके स्वागत में मेरे सैनिक बिगुल बजा रहे हैं। उसके बाद मेरी सेना परेड और सलामी देकर आपको सम्मानित करेगी।”

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नित्य की तरह परेड हुई और झंडे को सलामी दी गयी। हंस समझा सचमुच उसी के लिए यह सब हो रहा हैं। अतः हंस ने गदगद होकर कहा “धन्य हो मित्र। आप तो एक शूरवीर राजा की भांति ही राज कर रहे हो।”

उल्लू ने हंसराज पर रौब डाला “मैंने अपने सैनिकों को आदेश दिया हैं कि जब तक मेरे परम मित्र राजा हंसराज मेरे अतिथि हैं, तब तक इसी प्रकार रोज बिगुल बजे व सैनिकों की परेड निकले।”

उल्लू को पता था कि सैनिकों का यह रोज का काम हैं। दैनिक नियम हैं। हंस को उल्लू ने फल, अखरोट व बनफशा के फूल खिलाए। उनको वह पहले ही जमा कर चुका था। भोजन का महत्व नहीं रह गया। सैनिकों की परेड का जादू अपना काम कर चुका था। हंसराज के दिल में उल्लू मित्र के लिए बहुत सम्मान पैदा हो चुका था।

उधर सैनिक टुकडी को वहां से कूच करने के आदेश मिल चुके थे। दूसरे दिन सैनिक अपना सामान समेटकर जाने लगे तो हंस ने कहा “मित्र, देखो आपके सैनिक आपकी आज्ञा लिए बिना कहीं जा रहे हैं।

उल्लू हडबडाकर बोला ” किसी ने उन्हें गलत आदेश दिया होगा। मैं अभी रोकता हूं उन्हें।” ऐसा कह वह ‘हूं हूं’ करने लगा।

सैनिकों ने उल्लू का घुघुआना सुना व अपशकुन समझकर जाना स्थगित कर दिया। दूसरे दिन फिर वही हुआ। सैनिक जाने लगे तो उल्लू घुघुआया। सैनिकों के नायक ने क्रोधित होकर सैनिकों को मनहूस उल्लू को तीर मारने का आदेश दिया। एक सैनिक ने तीर छोडा। तीर उल्लू की बगल में बैठे हंस को लगा। वह तीर खाकर नीचे गिरा व फडफडाकर मर गया। उल्लू उसकी लाश के पास शोकाकुल हो विलाप करने लगा “हाय, मैंने अपनी झूठी शान के चक्कर में अपना परम मित्र खो दिया। धिक्कार हैं मुझे।”

उल्लू को आसपास की खबर से बेसुध होकर रोते देखकर एक सियार उस पर झपटा और उसका काम तमाम कर दिया।

सीखः झूठी शान बहुत महंगी पडती हैं। कभी भी झूठी शान के चक्कर में मत पडो।
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ढोंगी सियार

मिथिला के जंगलों में बहुत समय पहले एक सियार रहता था। वह बहुत आलसी था। पेट भरने के लिए खरगोशों व चूहों का पीछा करना व उनका शिकार करना उसे बडा भारी लगता था। शिकार करने में परिश्रम तो करना ही पडता हैं न। दिमाग उसका शैतानी था। यही तिकडम लगाता रहता कि कैसे ऐसी जुगत लडाई जाए जिससे बिना हाथ-पैर हिलाए भोजन मिलता रहे। खाया और सो गए। एक दिन उसी सोच में डूबा वह सियार एक झाडी में दुबका बैठा था।

बाहर चूहों की टोली उछल-कूद व भाग-दौड करने में लगी थी। उनमें एक मोटा-सा चूह था, जिसे दूसरे चूहे ‘सरदार’ कहकर बुला रहे थे और उसका आदेश मान रहे थे। सियार उन्हें देखता रहा। उसके मुंह से लार टपकती रही। फिर उसके दिमाग में एक तरकीब आई।

जब चूहे वहां से गए तो उसने दबे पांव उनका पीछा किया। कुछ ही दूर उन चूहों के बिल थे। सियार वापस लौटा। दूसरे दिन प्रातः ही वह उन चूहों के बिल के पास जाकर एक टांग पर ख्डा हो गया। उसका मुंह उगते सूरज की ओर था। आंखे बंद थी।

चूहे बोलों से निकले तो सियार को उस अनोखी मुद्रा में खडे देखकर वे बहुत चकित हुए। एक चूहे ने जरा सियार के निकट जाकर पूछा “सियार मामा, तुम इस प्रकार एक टांग पर क्यों खडे हो?”
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