16-01-2014, 10:57 AM | #11 |
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Re: लघुकथाएँ
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
17-03-2014, 12:44 PM | #12 |
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Re: लघुकथाएँ
भूख
( लघु कथा) एक भिखारिन नाबालिग लड़की फटेहाल कपड़ों में सड़क के किनारे बैठ कर आते-जाते लोगों से भीख मांग रही थी . कोई उसे दुत्कार के चला जाता ,तो कोई तरस खा के 1-2 के सिक्के उसकी झोली में फैंक कर चला जाता . मगर उसे तो बड़ी भूख लगी थी .उसका तो यह जी चाह रहा था की उसे कुछ खाने को देदे। पिछले दो दिनों से वो भूखी थी ,और कुछ बीमार भी लग रही थी . कमजोरी के मारे ऊससे बोल भी नहीं जा रहा था। मगर किसी को उसकी इस हालत से कोई सरोकार नहीं था .हां ! अगर था भी तो उसके तार -तार कपड़ो से झांकते नव- यौवन से . विकृत मानसिकता से लबरेज़ घूरती निगाहों का वोह निशाना बनी हुई थी ,वहीँ सभ्रांत महिलायों की आँखों से छलकती नफरत की भी . उस मजबूर और बेसहारा लड़की की हालत पर तमाशबीन बने लोगों में एक अधेड़ उम्र का शख्स भी वहीँ मौजूद था ,वोह दिखने में कुछ सभ्य , सुशिक्षित और सज्जन लग रहा था . उस लड़की के पास आया ,उसे आँखों से टटोला और धीरे से फुफुसाते हुए बोल ,” ऐ लड़की! तू यहाँ कब तक बैठी रहेगी ? चल उठ मेरे साथ चल . ” वोह लड़की सवालिया निगाहों से उसकी तरफ दिखने लगी . ” देख क्या रही है ! चल ,हां ! हां ! मैं तुझे कुछ खाने को देता हूँ , तुझे बड़ी भूख लगी है ,है ना !’ वोह मासूम लड़की ख़ुशी से उठ खड़ी हुई और चहकते हुए बोली ,” सच साब जी ! आप मुझे खाने को दोगे ? ” अधेड़ शख्स ,” हां बाबा हां ! खाना भी और पहनने को कपड़े भी ,मगर तुझे मुझे खुश करना होगा ” लड़की -” अ -आप को खुश ! कैसे ? अधेड़ शख्स -” अब कैसे ,क्या ! बाद में बताता हूँ ,तू चल तो सही ” वोह मासूम लड़की उसके साथ चल दी।
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17-03-2014, 12:47 PM | #13 |
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Re: लघुकथाएँ
गैरज़रूरी
‘‘क्यों सता रखा है उसे तुमने ?’’ बेटे ने माँ से नई-नवेली पत्नी के विषय में आक्रोश से भरकर कहा। अत्यंत संवेदनशील वह नारी जो चींटी भी नहीं मार सकती थी किसी का दिल दुखाने सताने की तो दूर की बात। हैरत से पहले तो बेटे को देखती रही। फिर कुछ न बोल अपने भीतर उतरती चली गई। बहू कुछ रोज के लिए मायके गई थी। अब घर में सिर्फ माँ और बेटा ही थे। जो माँ बेटे की पीड़ा की कल्पना मात्र से काँपने लगती। हर समय अपनी ममता का सागर उस पर लुटाती। न जाने किस सूत्र से बेटे के अंदर का सब कुछ जान लेने वाली माँ अब जैसे राख हो गई थी। बेटे के एक वाक्य ने उस पर कहर ढा दिया था। अब बेटे की उपस्थिति को नकारती-छुपाती..अपने ऊपर विश्वास मानो खो चुकी थी। उसके भीतर जैसे सब चूक गया था। वह बीमार रहने लगी। जिसकी किसी को ज़रूरत नहीं उसका मर जाना ही अच्छा माँ के हृदय से आवाज आती रही और एक दिन वह सचमुच मर गई।
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17-03-2014, 12:50 PM | #14 |
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Re: लघुकथाएँ
माँ के गाल
‘‘पापा माँ के गालों पर लाल गुलाब खिलते हैं न ?’’ ‘‘कौन कहता है’’ पापा शक से चौकन्ने हुए आँखों में हरापन और गहरा गया। माँ के गालों के लाल गुलाब पीले गुलाबों में परिवर्तित होने लगे। मगर मुन्नी इससे बेखबर चहकते हुए बोली, ‘‘मैडम डिसूजा और कौन !’’ पापा की आँखों का भूरापन लौट आया और पीले गुलाब फिर लाल हो गए।
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17-03-2014, 12:54 PM | #15 |
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Re: लघुकथाएँ
मुखौटे
‘‘पापाऽऽ पापाऽऽ वो देखिए कितने फनीमास्क हैं। पपा हम मास्क लेंगे, प्लीज ले दीजिए ना पापा !’’ नन्हें शोमू ने दशहरे पर बिक रहे राम और रावण के मुखौटों को देखकर जिद की। ‘‘भैया कैसे दिये ये मुखौटे ?’’ ‘‘कौन सा चाहिए साहब, राम का या रावण का ?’’ ‘‘शोमू कौन-सा लोगे बेटे ?’’ ‘‘वो डरावना वाला। उसे पहनकर मैं दोस्तों को डराऊँगा।’’ ‘‘बेटे रामजीवाला मास्क ले लो। देखो तो कितना सुंदर है !’’ मम्मी ने शोमू को समझाया। ‘‘नहीं ! हमतो डरावना वाला ही लेंगे।’’ शोमू अपनी बात मनवाने पर अड़ा था। पापा ने उदारता बरतते हुए कहा, अच्छा दोनों ही ले लो। भैया दोनों कितने-कितने के है ? ‘‘एक ही दाम है दोनों का दस-दस रुपैया साहब।’’ ‘‘दोनों का एक ही दाम ?’’ मम्मी के प्रश्न में आश्चर्य था।’’ ‘‘भला इसमें आश्चर्य की क्या बात है !’’ पापा का व्यावहारिकता पूर्ण जवाब था।
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17-03-2014, 12:59 PM | #16 |
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Re: लघुकथाएँ
जरूरत
”चलो पीछे करों भाई इन सबको, दरवाजे पर भीड़ क्*यों इकट्ठा कर रखी है।“ मरीजों को देखते हुए डॉ. प्रशांत ने अपने कम्*पाउंडर से कहा। उसने डॉ. का इशारा पाते ही मरीजों को सरकारी डिस्*पेंसरी के दरवाजे से बाहर धकेल दिया। उनमें से एक मरीज को डॉ. प्रशांत के पास लाते हुए वह बोला, ”सर, इसका इलाज तत्*काल करना पड़ेगा। यह बहुत ही सीरियस है। यदि कहीं यह इलाज के बिना मर गया तो गांव की राजनीति को एक नया मुद्*दा मिल जायेगा साथ ही आपकी बड़ी फजीहत होगी। अतः इसे जरूर देख लें।“ ”ठीक है, बुलाओ उसे। मैं देख लेता हूँ।“ कम्*पाउंडर ने मरीज को डिस्*पेंसरी के अंदर ठेल दिया। ”क्*या नाम है तुम्*हारा?“ ”जी रामू , रामू बल्*द घिस्*सू।“ ”हूं , क्*या तकलीफ है ?“ ”डागदर साब, कब्*ज बनी रहवे है।“ ”अच्*छा, कल शाम को क्*या खाया था?“ ”जी , कुछ नहीं।“ ”कल सुबह?“ ”जी कुछ नहीं।“ ”परसों दोनो टाईम?“ ”जी कुछ नहीं।“ डॉ. प्रशांत ने गर्मी और भारी उमस में पसीना पौछते हुए कहा, ”क्*या करते हो?“ ”जी कुछ नहीं।“ डॉ. ने आश्*चर्य से प्रतिप्रश्*न किया, ”गुजारा कैसे होता है?“ ”साब, बहुत गरीब आदमी हूँ। जब से फसल कटाई के लिए मशीनें आई हैं, भूखे मरने की नौबत आ गई है।“ डॉ. प्रशांत ने उसका मर्ज ज्ञात कर लिया था। उन्*होंने कम्*पाउंडर को पचास रूपये का नोट देते हुए कहा, ”इसे ले जाओ भरपेट खाना खिलाओ, इसे दवा की नहीं भोजन की जरूरत है।“
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17-03-2014, 01:01 PM | #17 |
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Re: लघुकथाएँ
बेवजह
रात के बारह बज रहे हैं। शैफाली आज फिर सफेद रंग की मारुति में आई है। सरल ने देखा उसके बॉस पी.के. उसे सहारा देकर सीढ़ियों तक पहुँचा गए हैं। पत्नी के कमरे में घुसते ही वह उस पर बरस पड़ा, ‘‘क्या तुमने मुझे भड़ुवा समझ रखा है जो मैं यह सब खामोशी से बर्दाश्त करता रहूँगा। नहीं करवानी मुझे तुमसे नौकरी। कल से घर बैठो।’’ ‘‘नौकरी तो मैं छोड़ने से रही।’’ ‘‘मतलब ?’’ ‘‘मतलब साफ है उसके लिए मैं तुम्हें छोड़ सकती हूँ।’’ ‘‘अब नौबत यहाँ तक आ पहुँची है ?’’ ‘‘ये तो तुम्हें पहले ही सोच लेना था जब तुमने प्रमोशन के लिए मुझे इस्तेमाल किया था। अब सिर्फ मैं अपने लिए अपने को इस्तेमाल कर रही हूँ। तुम्हारा गुस्सा बेवजह है।’’ शैफाली ने ठंडे लहजे में कहा और सिंक में चेहरा धोने लगी।
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17-03-2014, 01:07 PM | #18 |
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Re: लघुकथाएँ
परिश्रम का फल
एक था कौआ। बिलकुल उस प्राचीन कथा वाले कौए के समान। जिसमें प्*यासा कौआ पानी पीने के लिए मिट्*टी के बर्तन में स्*थित पानी ऊपर लाने के लिए चोंच में कंकड़ दबाकर लाता है। कंकड़ बर्तन में डालता है। अपने अथक परिश्रम के पश्*चात पानी ऊपर आने पर पीकर उड़ जाता है। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। गाँव के गरीब भोले भाले एक कौये ने अपने परिश्रम के द्वारा मिट्*टी के बर्तन को छोटे-छोटे कंकड़ो से भरा। बर्तन में पानी ऊपर आने पर एक अन्*य राजनीति के ज्ञाता, चालाक और तिकड़मी कौये ने बल पूर्वक उसे डरा धमका कर बर्तन को अपने कब्*जे में ले लिया। उसका पूरा जल पीकर अपनी प्*यास बुझाई। उड़ने से पूर्व मिट्*टी के पात्र को तिपाई से गिराकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया। पहले कौआ अब भी प्*यास से तड़प रहा है।
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17-03-2014, 03:09 PM | #19 |
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Re: लघुकथाएँ
एक बार फिर ये कथाएं कलेवर में लघु होते हुये भी अपने में बड़े संदेश समेटे हैं. कई स्थानों पर तो बिना कहे पात्र बहुत कुछ कह जाता है. धन्यवाद आपका.
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06-04-2014, 07:42 AM | #20 |
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Re: लघुकथाएँ
एक बालक अपनी दादी मां को एक पत्र लिखते हुए देख रहा था। अचानक उसने अपनी दादी मां से पूंछा, "दादी मां !" क्या आप मेरी शरारतों के बारे में लिख रही हैं ? आप मेरे बारे में लिख रही हैं, ना"
यह सुनकर उसकी दादी माँ रुकीं और बोलीं, "बेटा मैं लिख तो तुम्हारे बारे में ही रही हूँ, लेकिन जो शब्द मैं यहाँ लिख रही हूँ उनसे भी अधिक महत्व इस पेन्सिल का है जिसे मैं इस्तेमाल कर रही हूँ। मुझे पूरी आशा है कि जब तुम बड़े हो जाओगे तो ठीक इसी पेन्सिल की तरह होगे।" यह सुनकर वह बालक थोड़ा चौंका और पेन्सिल की ओर ध्यान से देखने लगा, किन्तु उसे कोई विशेष बात नज़र नहीं आयी। वह बोला, "किन्तु मुझे तो यह पेन्सिल बाकी सभी पेन्सिलों की तरह ही दिखाई दे रही है।" इस पर दादी माँ ने उत्तर दिया, "बेटा ! यह इस पर निर्भर करता है कि तुम चीज़ों को किस नज़र से देखते हो। इसमें पांच ऐसे गुण हैं, जिन्हें यदि तुम अपना लो तो तुम सदा इस संसार में शांतिपूर्वक रह सकते हो।" "पहला गुण : तुम्हारे भीतर महान से महान उपलब्धियां प्राप्त करने की योग्यता है, किन्तु तुम्हें यह कभी भूलना नहीं चाहिए कि तुम्हे एक ऐसे हाथ की आवश्यकता है जो निरन्तर तुम्हारा मार्गदर्शन करे। हमारे लिए वह हाथ ईश्वर का हाथ है जो सदैव हमारा मार्गदर्शन करता रहता है।" "दूसरा गुण : बेटा ! लिखते, लिखते, लिखते बीच में मुझे रुकना पड़ता है और फ़िर कटर से पेन्सिल की नोक बनानी पड़ती है। इससे पेन्सिल को थोड़ा कष्ट तो होता है, किन्तु बाद में यह काफ़ी तेज़ हो जाती है और अच्छी चलती है। इसलिए बेटा ! तुम्हें भी अपने दुखों, अपमान और हार को बर्दाश्त करना आना चाहिए, धैर्य से सहन करना आना चाहिए। क्योंकि ऐसा करने से तुम एक बेहतर मनुष्य बन जाओगे।" "तीसरा गुण : बेटा ! पेन्सिल हमेशा गलतियों को सुधारने के लिए रबर का प्रयोग करने की इजाज़त देती है। इसका यह अर्थ है कि यदि हमसे कोई गलती हो गयी तो उसे सुधारना कोई गलत बात नहीं है। बल्कि ऐसा करने से हमें न्यायपूर्वक अपने लक्ष्यों की ओर निर्बाध रूप से बढ़ने में मदद मिलती है।" "चौथा गुण : बेटा ! एक पेन्सिल की कार्य प्रणाली में मुख्य भूमिका इसकी बाहरी लकड़ी की नहीं अपितु इसके भीतर के 'ग्रेफाईट' की होती है। ग्रेफाईट या लेड की गुणवत्ता जितनी अच्छी होगी, लेख उतना ही सुन्दर होगा। इसलिए बेटा ! तुम्हारे भीतर क्या हो रहा है, कैसे विचार चल रहे हैं, इसके प्रति सदा सजग रहो।" "अंतिम गुण : बेटा ! पेन्सिल सदा अपना निशान छोड़ देती है। ठीक इसी प्रकार तुम कुछ भी करते हो तो तुम भी अपना निशान छोड़ देते हो। अतः सदा ऐसे कर्म करो जिन पर तुम्हें लज्जित न होना पड़े अपितु तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का सिर गर्व से उठा रहे। अतः अपने प्रत्येक कर्म के प्रति सजग रहो।
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