23-09-2011, 09:46 PM | #11 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
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23-09-2011, 09:47 PM | #12 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारों,
अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो। दर्दे दिल वक्त को पैगाम भी पहुँचाएगा, इस कबूतर को जरा प्यार से पालो यारो। लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे, आज सय्याद को महफ़िल में बुला लो यारो। आज सीवन को उधेड़ों तो जरा देखेंगे, आज संदूक से वे खत तो निकालो यारो। रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया, इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो। कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो। लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की, तुमने कह दी है तो कहने की सजा लो यारो। - दुश्यन्त कुमार Last edited by anoop; 27-09-2011 at 02:48 PM. |
23-09-2011, 09:50 PM | #13 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
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23-09-2011, 09:51 PM | #14 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है
एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है राम जाने किस जगह होंगे क़बूतर इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है आपसे मिल कर हमें अक्सर लगा है हुस्न में अब जज़्बा-ए-अमज़द नहीं है पेड़-पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे रास्तों में एक भी बरगद नहीं है मैकदे का रास्ता अब भी खुला है सिर्फ़ आमद-रफ़्त ही ज़ायद नहीं है इस चमन को देख कर किसने कहा था एक पंछी भी यहाँ शायद नहीं है |
24-09-2011, 11:27 AM | #15 | |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
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24-09-2011, 11:44 AM | #16 | |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
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24-09-2011, 07:14 PM | #17 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
युवराज जी शुक्रिया...आज की पोस्ट देख लीजिए।
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24-09-2011, 07:15 PM | #18 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
मुक्तक
१ संभल संभल के बहुत पाँव धर रहा हूँ मैं पहाड़ी ढाल से जैसे उतर रहा हूँ मैं कदम कदम पे' मुझे टोकता है दिल ऐसे गुनाह कोई बड़ा जैसे कर रहा हूँ मैं। २ तरस रहा है मन फूलों की नयी गंध पाने को खिली धूप में, खुली हवा में गाने मुसकाने को तुम अपने जिस तिमिरपाश में मुझको कैद किये हो वह बंधन ही उकसाता है बाहर आ जाने को। ३ गीत गाकर चेतना को वर दिया मैने आँसुओं के दर्द को आदर दिया मैने प्रीत मेरी आस्था की भूख थी, सहकर ज़िन्दगी़ का चित्र पूरा कर दिया मैने। ४ जो कुछ भी दिया अनश्वर दिया मुझे नीचे से ऊपर तक भर दिया मुझे ये स्वर सकुचाते हैं लेकिन तुमने अपने तक ही सीमित कर दिया मुझे। |
24-09-2011, 07:27 PM | #19 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
आज सड़कों पर
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख, घ्रर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख। एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख। अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह, यह हक़ीक़त देख लेकिन खौफ़ के मारे न देख। वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे, कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख। ये धुंधलका है नज़र का तू महज़ मायूस है, रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख। राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई, राख में चिनगारियां ही देख अंगारे न देख। |
24-09-2011, 07:30 PM | #20 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
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