22-04-2011, 11:22 AM | #11 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
हर एक बात पर कहते हो तुम के तू क्या है
तुम्हीं बताओ के ये अँदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
22-04-2011, 05:46 PM | #12 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
रंज से खूगर हुआ इन्सां,तो मिट जाता रंज मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी की आसां हो गयीं अर्थ - इनसान को अगर दुःख दर्द सहन करने की आदत पड़ जाए तो फिर कोई भी गम उसे दुखी नहीं कर सकता क्यूंकि वो दुःख उठाने का आदि हो चुका होता है इसी तरह मुझ पर इतनी मुश्किलें पड़ीं हैं की मै इसका आदि हो गया हूँ और मेरी सब मुश्किलें अपने आप आसान हो गयीं हैं
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ये दिल तो किसी और ही देश का परिंदा है दोस्तों ...सीने में रहता है , मगर बस में नहीं ...
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23-04-2011, 05:13 AM | #13 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
रणवीर भाई दिल खुश कर दिया | चुन चुन के शेर वो भी हिंदी तर्जुमे के साथ, एकदम छा गए | बस नुक्ताचीनी ना समझें तो थोडा एक दो जगह हुई लफ़्ज़ों कीई चूक की तरफ ध्यान दिलाना चाहूँगा क्यूंकि चाँद पे दाग ना हो तो ज्यादा बेहतर है | बाकी थ्रेड आपका जानदार !!!
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23-04-2011, 05:14 AM | #14 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
रणवीर भाई दिल खुश कर दिया | चुन चुन के शेर वो भी हिंदी तर्जुमे के साथ, एकदम छा गए | बस नुक्ताचीनी ना समझें तो थोडा एक दो जगह हुई लफ़्ज़ों कीई चूक की तरफ ध्यान दिलाना चाहूँगा क्यूंकि चाँद पे दाग ना हो तो ज्यादा बेहतर है | बाकी थ्रेड आपका जानदार !!!
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23-04-2011, 05:15 AM | #15 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
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30-04-2011, 08:12 PM | #16 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
थोड़ी बहुत भूल चूक को नज़रंदाज़ कर दिया जाए ........
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30-04-2011, 08:17 PM | #17 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
यारब ज़माना मुझको मिटाता है किसलिए लौह ए जहां पे हर्फ़ ए मुकर्रर नहीं हूँ मै अर्थ - यारब ..आखिर ज़माना मुझको क्यूँ मिटा रहा है ? मै दुनिया की तख्ती पर कोई ऐसा अक्षर तो नहीं हूँ जो बार बार लिखा जाए ...!
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14-06-2011, 01:54 AM | #18 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले । निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन, बहुत बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले । मुहब्बत में नही है फर्क जीने और मरने का, उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले । ख़ुदा के वास्ते पर्दा ना काबे से उठा ज़ालिम, कहीं ऐसा ना हो यां भी वही काफिर सनम निकले । क़हाँ मैखाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़, पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले।
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14-06-2011, 01:55 AM | #19 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
रोने से और् इश्क़ में बेबाक हो गए धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए सर्फ़-ए-बहा-ए-मै हुए आलात-ए-मैकशी थे ये ही दो हिसाब सो यों पाक हो गए रुसवा-ए-दहर गो हुए आवार्गी से तुम बारे तबीयतों के तो चालाक हो गए कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल को बेअसर पर्दे में गुल के लाख जिगर चाक हो गए पूछे है क्या वजूद-ओ-अदम अहल-ए-शौक़ का आप अपनी आग से ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए करने गये थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला की एक् ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए इस रंग से उठाई कल उस ने 'असद' की नाश दुश्मन भी जिस को देख के ग़मनाक हो गए रुसवा-ए-दहर : Disgraced in the world नाला-ए-बुलबुल : Nightingale's lament ख़स-ओ-ख़ाशाक : Sticks and straws, litter, rubbish ख़ाशाक: Sweepings, chips, shavings, leaves
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14-06-2011, 08:29 PM | #20 | |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
Quote:
उद्धृत लाइन के उत्तर में एक शेर याद आ रहा है ( शायद फ़राज़ साबह का) बड़ा नाज़ था उनको अपने परदे पर कल रात मेरे सपने में वो बिना परदे चले आये !!! |
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